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                      अब्दुर्रहीम खानखाना हिंदी 
                      काव्य जगत के दैदीप्यमान नक्षत्र हैं। उनके दोहे आज भी लोगों 
                      के कंठ में जीवित हैं। ऐसा कौन हिंदी-प्रेमी होगा जिसे उनके 
                      दस-पाँच दोहे याद न हों। उनके कितने ही दोहे तो लोकोक्तियों 
                      की तरह प्रयोग में लाएँ जाते हैं। 
                       खानखाना अकबर के दरबार के 
                      सबसे बड़े दरबारी थे और तत्कालीन कोई भी अमीर या उभरा 
                      पद-मर्यादा या वैभव में उनसे टक्कर न ले सकता था। किंतु वे 
                      बड़े उदार हृदय व्यक्ति थे। स्वयं अच्छे कवि थे और कवियों का 
                      सम्मान ही नहीं, उनकी मुक्तहस्त से सहायता करते थे। इतने 
                      वैभवशाली, शक्तिमान और विद्वान तथा सुकवि होते हुए भी उनमें 
                      सज्जन सुलभ विनम्रता भी थी। उनकी दानशीलता और विनम्रता 
                      से प्रभावित होकर गंग कवि ने एक बार उनसे यह दोहा कहा -'सीखे कहाँ नवाब जू, ऐसी दैनी दैन।
 ज्यों-ज्यों कर ऊँचौं कियौं, त्यों-त्यों नीचे नैन।।'
 खानखाना ने बड़ी सरलता से 
                      दोहे में ही उतर दिया -'देनहार कोउ और है, देत रहत दिन-रैन।
 लोग भरम हम पै करें, तासों नीचे नैन।।'
 रहीम के समान ऊँचे व्यक्ति 
                      ही यह उतर दे सकते हैं।
 (साहित्य अमृत से)
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