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रचना प्रसंग

गीत और नवगीत के धरातल पर कुछ सवाल
-डॉ. राजेन्द्र गौतम

साहित्य में प्रवृत्यात्मक परिवर्तनों को नए नामों से पहचानना इतिहास-लेखन की प्रक्रिया की अनिवार्य भार्त है किन्तु यह नव्यता बोध, संवेदना और प्रवृत्तियों की है, विधाओं और काव्यरूपों की पारस्परिक कलह तक उसे बहुत दूर तक घसीटना सार्थक नहीं होगा। आदिकाल से अधुनातन युग तक काव्य में प्रवृत्यात्मक परिवर्तन निरन्तर होता रहा है, लोकप्रियता के आधार पर कभी किसी एक काव्यरूप को प्रमुखता मिली तो कभी दूसरे को किन्तु गीत और गीतेतर कविता का विवाद इसी शताब्दी के पाँचवे दशक की उपज है। बारीकी से देखा जाए तो यह टकराव भी छांदसिक और अछांदसिक काव्य रूपों के बीच अधिक है। तब गीत और नवगीत के विवाद का औचित्य समझना बहुत मुश्किल है। स्पष्टत: गीत और नवगीत में काव्यरूपतामक अंतर नहीं है। हिन्दी गीत काल के एक बिन्दु पर आकर नवीन प्रवृत्तियों का अर्जन करता है।

उस बिंदु के परवर्ती प्रसार को नवगीत संज्ञा मिली है और उस नवगीत ने स्वयं के गीत होने को कभी अस्वीकार नहीं किया, पर इससे यह तो नहीं निश्चिंत हो जाता कि इतिहास के विकासक्रम में जो प्रवृत्तिगत परिवर्तन घटित हो चुके हैं, उन्हें नकार दिया जाए अथवा उन्हें अनदेखा किया जाए। बोध के अंतर को, इतिहास के पूर्वापर क्रम को नकार कर किसी मृत युग का स्तवन साहित्य के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध तो है ही, यह गीत के विकास को भी अवरुद्ध करने का प्रयास है और यह प्रयास या तो नितांत अज्ञानता-प्रेरित है या इसके पीछे चालाकी और गहरी साजिश क्रियाशिल है। यों तो नव्य विकास को व्यक्त करने वाली संज्ञा नवगीत का विरोध इसके जन्म के साथ ही होता रहा है, पर कुछ पुस्तकों एवं पत्रिकाओं में गत दो-तीन वर्षों में चालाकी अथवा अज्ञानता के कारण नवगीत के विरोध का स्वर तेज़ हुआ है। कहा जाने लगा है कि नयी कविता ने गीत का विरोध एवं अहित नहीं किया, उसका वास्तविक शत्रु तो नवगीत है। नवगीतकार ही वह मूल अपराधी है जिसे तिरस्कार की सूली पर लटका देना चाहिए। यह भी कहा जाने लगा है कि नवगीत का आंदोलन चलाने के बहाने कुछ खास लोगों को केन्द्र में लाया जा रहा है। पिछले दिनों जारी की गई इन भावुक अपीलों से गीत के क्षेत्र में एक खलबली मची है। क्या यह उचित न होगा कि स्थितियों का थोड़ा वैज्ञानिक विश्लेशण किया जाए।

इस प्रसंग में जो मूल प्रश्न खड़े होते हैं वे इस प्रकार है-
१. क्या पूर्ववर्ती रूढ़ गीत से नवगीत का प्रवृत्यात्मक अंतर है?
२. क्या यह संज्ञा स्वयं में सार्थक है?
३. क्या नवगीत वास्तव में किसी अवधारणा या रचनाकार के विरोध में खड़ा है?
४. समग्र गीत के मूल्यांकन का आग्रह कितना समीचीन है?

हम इन प्रश्नों पर आने से पूर्व एक और तथ्य को रेखांकित करना चाहेंगे। काव्य-चेतना यदि एक काल खंड से ही आबद्ध होकर रह जाए तो उससे आत्म-विकास ही अवरुद्ध नहीं होता, पूरे परिवेश की गतिशीलता से उसका परिचय भी छूट जाता है। यही कारण है कि रूढ़ गीत जिस बिंदु पर जड़ीभूत हुआ था, उस समय उसकी प्रतिद्वन्द्विता नई कविता से थी। विडम्बना यह है कि वह अपनी काव्य-चेतना का विकास तो कर ही नहीं पाया, उससे जुड़े आलोचक और कवि भी गीतेतर कविता के विकासक्रम से भी अपरिचित रह गए हैं। उन्हें यह भी ज्ञात नहीं है कि आज की छंद-मुक्त कविता को कोई 'नई कविता` नहीं कहता। नई-कविता की मृत्यु तो सन १९६४ के आसपास ही हो गई थी। तदनन्तर प्रगतिशीलता, आपातकालीन रूपवादिता, जनवादिता और उत्तर आधुनिकता के सोपानों का आरोहण गीतेतर कविता ने किया है और इन प्रवृत्तियों के साहचर्य की उपेक्षा करने की अपेक्षा सन १९५० के बाद गीत भी नवगीत में ढल कर उत्तरोत्तर कई नए सोपानों का आरोहण कर चुका है। कभी लोक-चेतना नवगीत के केन्द्र में रही होगी, आज वह उसका मूल धर्म नहीं है। महानगरीय बोध एक ज़माने में नवगीत की पहचान था, आज वही उसकी सीमा नहीं है। उपर्युक्त विश्लेषण का अभिप्राय यही है कि नवगीत ने सदैव स्वयं को रूढ़िग्रस्तता और जडता के विरोध में खड़ा किया है।

हम मानते हैं कि नवगीत का पूर्ववर्ती रूढ़ गीत से मूलभूत अंतर है। सन १९५० और १९६० के बीच जो गीत-साहित्य नवगीत के रूप में पहचाना जाने लगा था और क्रमश: सातवें, आठवें और नवें दशक में जिसने उत्तरोत्तर विकास किया, वह प्रवृत्यात्मकता में उस गीत-धारा से अलग है, जिसकी दृष्टि आत्मकेन्द्रित थी जो सामाजिक यथार्थ से कटा था, जिसने एक अवास्तव शाश्वतता के मोह में जीवन-संघर्ष से पलायन किया था, जिसमें चाँदनी में अभिसार के स्वप्न ही बुने गए हैं, समग्रत: जिसका भारतीय साहित्य की उस मूल जीवन-दृष्टि से, वस्तुपरकता से सामंजस्य नहीं है, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, जिसके अभाव में कविता विभावहीन रह जाती है। ऐसे गीत की रचना चाहे सन् १९५० में हुई हो या १९९८ में, वह नवगीत नहीं है और यदि कोई नवगीत को गीत ही नाम देना आवश्यक समझे तो कहना होगा कि वह आज का गीत नहीं है अर्थात अप्रासंगिक है। इतिहास की गतिशीलता का कोई अर्थ तो मानना होगा कि तब के गीत की प्रवृत्ति, अब के गीत से अलग है।

तब के गीत और अब के गीत के बीच प्रवृत्यात्मक पार्थक्य को रेखांकित करने के लिए ही नवगीत संज्ञा की आवश्यकता है। हमारे पास दो ही विकल्प है। या तो हम नवगीत शब्द और उससे प्रतिध्वनित होने वाली अर्थ-छवियों को स्वीकार करके चलें अथवा समकालीन कविता की गीतधारा को गीत मात्र से सम्बोधित करते हुए यह याद रखें कि एक प्रवृत्यात्मक विकास के अंतर्गत गीत अपने वर्तमान का प्रतिनिधि है, वह किन्हीं रिडंडैंट प्रवृत्तियों के भार को नहीं ढो रहा। यहाँ यह स्पष्ट कर देना भी अपेक्षित है कि कोई भी रचना किसी विशेष लेबल से अपना स्वरूप निर्धारित नहीं करती। नवगीत लेबल लगा देने से कोई रचना श्रेष्ठता का प्रमाणपत्र प्राप्त नहीं कर लेती। हम मात्र प्रवृत्यात्मक पार्थक्य की बात कर रहे हैं।

दूसरे रूढ़ गीत और नवगीत के बीच अन्तर गणितीय नहीं है अर्थात जिस प्रकार हम कवित्त, सवैये, दोहे के संबंध में पिंगल शास्त्रीय निर्णय दे सकते हैं कि वे किस प्रकार एक दूसरे से पृथक् हैं, उस प्रकार का अंतर रूढ़ गीत और नवगीत के बीच स्थापित नहीं किया जा सकता। यह अंतर कहीं कहीं डिग्री का है, और कहीं-कहीं विषय के ट्रीटमेंट का। बहुत संभव है कि पुरानी भौली के किसी-किसी गीत में नवगीतात्मक बोध हो अथवा रूढ़ लेखन करने वाले किसी गीतकार की रचनाओं में नवगीत की भी झलक हो। परन्तु, इससे रूढ़ गीत और नवगीत का अन्तर समाप्त नहीं हो जाता।

तीसरा प्रश्न नवगीत पर लगाए जा रहे इस आरोप से सम्बन्ध रखता है कि उसका व्यक्तित्व शत्रु-धर्मी होता जा रहा है, वह गीत-हंता है, गीत-विद्वेशी है, गीतकारों का वह विरोध करता है। इससे अधिक निराधार आरोप तो कुछ हो ही नहीं सकता। इतिहास प्रमाण दे सकता है कि गीत से नवगीत तक की यात्रा गीत के परिश्कार की यात्रा है। क्या आत्म-परिष्कार और आत्म-विद्वेश समानार्थी है? प्रत्येक प्रगतिशील साहित्यकार का यह उत्तरदायित्व होता है कि वह काल में अप्रासंगिक होते जाते खर-पतवार को किनारे लगाता रहे और नित्य नवीनता के मार्गों का अन्वेशण करें।

इस प्रवहमानता में युगबोध की सजगता कभी व्यक्ति- विरोधी कैसे हो सकती है? यदि गीत का आलोचक अप्रासंगिक होती जाती प्रवृत्तियों की और उन प्रवृत्तियों से जुड़े रचनाकारों की चर्चा आज नहीं करना चाहता तो सोचना होगा कि वह किसी व्यक्ति-विशेष के प्रति शत्रुता या विद्वेश का आचरण कहा जाएगा या आलोचना का धर्म? हम पहले कह चुके हैं कि नवगीत भर कहला लेना साहित्यिक श्रेष्ठता का आधार नहीं है पर आज रचनाकार से पाठक की क्या माँग है, इसे तो अनदेखा नहीं किया जा सकता। समाज में साहित्य की भूमिका का निर्वाह एक काव्य-रूप में अन्य काव्यरूपों से भिन्न नहीं होता। आज हम जीवन के संघर्ष से पलायन नहीं कर सकते। नवगीत पर एक आरोप यह भी लगाया जाता है कि उसमें वही प्रवृत्तियाँ हैं जो गीतेतर काव्य-रूपों (उनके शब्दों में नई कविता) में है, अर्थात वे नवगीत को नई कविता का छंदानुवाद मानते हैं।

इस संदर्भ में दो बातें ध्यातव्य हैं। एक तो यह कि गीतेतर काव्यरूपों में रागात्मकता का वह स्तर नहीं है जो नवगीत में है। संवेदनशीलता के अपेक्षाकृत प्रभावी समावेश के अतिरिक्त अनेक ऐसे विशय-क्षेत्र भी हैं जिनकी असामाजिकता से नवगीत का कोई संबंध नहीं है। दूसरे यदि युगबोध की सजगता के कारण नवगीत का अन्य काव्यरूपों के साथ अनेक स्थलों पर प्रवृत्तिपरक साम्य भी है तो इसमें अनौचित्य क्या है? गीत को जिस प्रकार केवल फूल-पत्तियों के चित्रण तक सीमित नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार उसे किसी का आत्मालाप भी नहीं माना जा सकता न, ही गीत अतीत रोना रोते रहना है। गीत की सही दिशा क्या हो, इसका सबसे उच्च एवं सर्वाधिक दीप्त प्रकाश स्तंभ इस भाताब्दी के सबसे बड़े कवि निराला हैं। जरा सन १९५० के काव्य परिदृश्य को निहारिये, हमारे महान गीतकारों की आत्ममुग्धता की मसृण छलना के उद्गारों को देखिए और तुलना कीजिए निराला के उसी काल के इन गीतांशों से:-
(क)

बान कूटता है
मुगरी लेकर सुख का
राज लूटता है
मूँज के फाले छाले
अच्छे बाँधों वाले
ऐसे बैठे ठाले
काज कूटता है।

(ख)

खेत जोत कर घर आए हैं
बैलों के कंधों पर माची
माची पर उल्टा हल रखा
बद्धी हाथ अधेड़ पिता जी
माता जी सिर गट्ठाल पक्का
पिता गए गौवों के गौंडे
माता घर लड़के धाये हैं।
क्या ये गीतांश उस काल में भावी गीत की दिशा का संकेत नहीं कर रहे हैं, यदि नवगीत ने इस दिशा में अपनी यात्रा को आगे बढ़ाते हुए माटी और पसीने से गीत का संबंध नहीं टूटने दिया है तो क्या इसीलिए वह तिरस्करणीय है। यदि ऐसा है, तो यह तिरस्कार पुरस्कार की भांति ग्रहणीय है।

चौथा प्रश्न समग्र गीत के मूल्यांकन का है। समग्रता तो सदैव प्रशंसनीय होती है और रचना के मूल्यांकन का आधार तो उसकी श्रेष्ठता मात्र है। जोश सभी सीमाएँ व्यर्थ हो जाती हैं अतएव हम गीत के समग्र मूल्यांकन का विरोध नहीं करते पर यहाँ भी कुछ आशंकाओं को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। वास्तव में जो लोग नवगीत शब्द के प्रयोग का विरोध करते हैं, उनकी मंशा मूलत: यही रहती है कि चाहे हम लिखें तो बासी और घिसापिटा पर हमारी चर्चा आज के प्रतिनिधि रचनाकारों में हो। यदि समग्र मूल्यांकन का अर्थ कालक्रमानुसार गीत का इतिहास प्रस्तुत करना और इस इतिहासक्रम में सभी रचनाकारों के प्रदेय का सापेक्ष मूल्यांकन करना है तो हमारा इससे कोई विरोध नहीं है, बल्कि इसे हम आलोचकीय उत्तरदायित्व मानते हैं किन्तु समग्र मूल्यांकन के नाम पर इतिहासबोध की हत्या और प्रत्यग्र विकास की अपेक्षा के नाम पर आत्म-केन्द्रित व्यतीतधर्मी गीत के लिए प्रमाणपत्र बाँटना अभिप्रेत है तो इससे गीत का नुकसान ही होगा। हमारा मत है कि इन सभी स्थितियों में विधा, साहित्य, और समाज ही महत्वपूर्ण होने चाहिए, वैयक्तिक रागद्वेश अथवा कुंठा को इसका निर्णायक आधार न बनने देना चाहिए।

समग्रता के संबंध में हम एक और तथ्य को रेखांकित करना चाहेंगे। गीत कहाँ तक युगानुरूप दायित्व का निर्वाह कर रहा है? उसके अवदान की श्रेष्ठता का स्तर क्या है? उसकी स्वीकृति का साहित्य की बस्ती में उसके अधिकृत नागरिक होने का आधार कितना दृढ है? यह जानने के लिए उसे समस्त कविता के साथ रख कर विचार करना होगा गीत का आग्रह यही होना चाहिए कि समकालीन कविता में उसकी धनात्मक भूमिका को स्वीकार किया जाए न कि चुनाव आयोग के द्वारा एक और नए दल को मान्यता देने की भांति उसकी एक दलगत अस्मिता खोजी जाए अतएव हम केवल गीत और नवगीत के समग्र मूल्यांकन के पक्षधर नहीं हैं, अपितु हमारा मत है कि गीत और गीतेतर कविता का भी समग्र मूल्यांकन होना चाहिए, जबकि कहा यह जा रहा है कि गीत के, अपने आंदोलन होने चाहिए, समकालीन कविता में घुसपैठ की प्रवृत्ति से गीत अपना अहित कर चुका है। यदि हम गीत के कद के प्रति आश्वस्त हैं तो अन्य काव्यरूपों के साथ उसके मूल्यांकन में हिचकिचाहट क्यों? गीत का तो दावा यही है कि वह किसी अन्य काव्यरूप से हीनतर नहीं है।

अंत में एक बात और! स्तर एवं संरचना को लेकर नवगीत पर लगाए गए कुछ आरोपों से उसे बरी करने की वकालत हम नहीं कर रहे हैं। उसमें जो अति बौद्धिकता के समावेश की बात कहीं जाती है, वह सही है। विकट शब्द-जाल या शब्दों की बाजीगरी भी अनेकत्र दिखलाई देती है। कहीं-कहीं वह दुरूह और बोझिल भी हुआ है। इन आरोपों में सत्यांश है पर यहाँ इस तथ्य को नहीं भूलना होगा कि किसी भी रचनाधारा में सभी रचनाएँ श्रेष्ठ नहीं होती। नवगीत नामधारी बहुत-सी तुकबंदियाँ शब्दजाल के अतिरिक्त कुछ नहीं है। अनेक ऐसी रचनाएँ नवगीत के नाम पर आ रही हैं जिनमें लय और छंद का निर्वाह भी नहीं है। हम कह चुके हैं कि नवगीत एक विशेष टिप्पणी के साथ गीत है और गीत में छंदोभंग स्वीकार्य नहीं है, इसलिए अधकचरी साधना तो गीत या नवगीत कुछ भी नहीं है पर क्या हमें इन असफल रचनाओं को नवगीत मूल्यांकन का आधार बना चाहिए। नवगीत के अन्तर्गत आने वाली सफल रचनाओं का अभाव नहीं है। वे सफल रचनाएँ न केवल गीत के अद्यतन विकास की परिचायक है अपितु आलोचक के सामने चुनौती भी है। उन्हें उपेक्षित कर समकालीन कविता का इतिहास नहीं लिखा जा सकता।

१८ मई २००९

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