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रचना प्रसंग


लोक संस्कृति और नवगीत
-कुमार रवीन्द्र


किसी भी देश की लोक संस्कृति उसकी जातीय स्मृति का रूपक होती है। किसी भी समुदाय की समूची जातीय इयत्ता उससे परिभाषित होती है। वह उस समुदाय की आध्यात्मिक-नैतिक चेतना को भी रूपायित करती है। लोक में पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रचलित-प्रचारित रीति रिवाजों एवं संस्कारों से उसकी निर्मिति होती है। यही वह भावभूमि है, जिससे समुदाय के सारे रिश्ते-नाते, उसके तीज-त्यौहार उपजते हैं। उस समुदाय की उत्सवधर्मिता को लोक संस्कृति ही पालती-पोसती है, उसका संवर्धन-परिवर्द्धन करती है। इसी से उसकी अलग पहचान बनती है यानी वह उसके जातीय बोध को व्याख्यायित करती है। उस लयात्मकता को भी जिससे वह पूरा समुदाय अपने अंग-संचालन, नृत्य-गान, काव्य-साहित्य आदि सभी मानुषी उत्सव की क्रियाओं को संचालित करता है, यही संस्कृति बोध उपजाता है। अवचेतन में इसी की गूँज हमारे सारे चेतन क्रिया-कलापों को एक आकर्षक आकृति देती है।

लोक संस्कृति की चेतना या जातीय बोध का कविता से क्या रिश्ता है, यह एक रोचक प्रश्न है। लयात्मकता दोनों की साँझी प्रकृति है। कविता का प्रारंभिक और आदिम रूप लोकगीतों में ही उपलब्ध हुआ, आज भी उपलब्ध है। वस्तुतः कविता अपने-आप में एक लोकधर्मी सांस्कृतिक क्रिया है और मनुष्य की जातीय संस्कृति-संचेतना की उद्भावना उसमें सहज और स्वतः होती है। सांस्कृतिक चेतना को संक्रमित-विस्तारित करने का भी यह सबसे प्रामाणिक माध्यम है। वैश्विक धरातल पर आज हम उस जातीय संस्कृति-बोध को प्रक्षेपित करने को एक ओर समुत्सुक भी हैं तो दूसरी ओर उसके विशद विश्वव्यापी माहौल में बिला जाने की आशंका से ग्रस्त भी हैं। एक प्रकार से हम अपने जातीय बोध को वर्तमान समय में पुनर्व्याख्यायित कर रहे हैं। इस अभियान में आज की गीतिकविता की, विशेष रूप से नवगीत की विशिष्ट भूमिका रही है। लगभग पचास वर्ष पूरव् प्रारम्भ हुई नवगीत-यात्रा के सभी चरणों में जातीय अस्मिता और संस्कृति-बोध की जितनी प्रखरता से अभिव्यक्ति हुई है, उतनी संभवतः कविता की अन्य किसी विधा में नहीं हुई है। लोक सांस्कृतिक चेतना की यह धारा नवगीत में निरंतर प्रवाहित रही है। कहीं प्रत्यक्ष और स्पष्ट रूप में तो कहीं प्रच्छन्न और परोक्ष रूप में। नवगीत में लोक-संस्कृति की उपस्थिति के प्रश्न पर अपनी बात को मैं भाई महेश अनघ के इस वक्तव्य से शुरू करना चाहूँगा -

" उधर संतो कहारिन कहती है कवि कोई एक कैसे हो सकता है। कवि सभापति कैसे हो सकता है। कवि हाकिम कैसे हो सकता है। हाकिम तो संतो है क्योंकि संतो ही लोक है और यह कि जीवित वही है जो लोक में है। जो लोक में नहीं वह ताबूत में है। मानव जाति के इतिहास में केवल एक व्यक्ति हुआ है जो सौ फीसदी लोक से जुड़ा रहा, उसका नाम है श्रीकृष्ण। इसी कारण उसकी वाणी महागीत है, गीता है। किसी भी संतो से पूछकर देख लो वह कविता पसंद करेगी। कविता में छंद पसंद करेगी।... उसे कविता में सुख-दुख का ज़िकर पसंद आयेगा। सुख-दुख भी आदमी का क्योंकि आदमी ही आदमी को पहचानता है ... संतो को अपनी ही भाषा में कविता पसंद आती है - अपनी यानी अम्मा के द्वारा दी गयी भाषा...लय-छंद हो, प्रतीकात्मक कहन हो, सहज भाषा हो, मानव जीवन की बात हो और हर पल नई निकोर ताज़गी हो, तभी तो वह संतो को पसंद आएगा।"

तो यह लोक तत्व है, जो कविता को प्राण देता है और इस लोक तत्व वाली कविता के उपादान हैं - आदमी को पहचान देते उसके सुख-दुख, अम्मा के द्वारा दी गयी भाषा और हर पल नई निकोर ताज़गी वाली लय-छंदात्मक कहन। संतो कहारिन की समझ यानी सहज बुद्धि ही वह कसौटी है, जिससे हम सही कविता की परख कर सकते हैं। नवगीत में लोक-संस्कृति की उपस्थिति का प्रश्न एक ओर इसी जीवंत लोक चेतना से जुड़ा है, जो लोकगीतों, लोक-कहनों या गली-नुक्कड़ पर फिरते साधू-फ़कीर के सधुककाड़ी गायन से उसमें आई और दूसरी ओर पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही उस सांस्कृतिक विरासत से संबद्ध है, जिसमें घर-घर में रोज़ सुबह जलता तुलसीचौरे पर का दीया है, नुक्कड़ का शिवाला या देवीचौरा है, अक्षत-चन्दन-गोरोचन-हल्दी-रोली-दूध-दही-कुमकुम वाले मंगल-घट की जातीय स्मृतियाँ हैं। मस्जिद की अज़ान और देवीचौरा की आरती एक-साथ इस लोक-संस्कृति में उपस्थित है। नवगीत इन्हीं संस्कृति-पहचानों का काव्य है। जो संतो कहारिन के सोच में है, वही नवगीत में है यानी सब कुछ को स्वीकारने - अपनाने का सहज भाव। वस्तुतः नवगीत अवचेतना का काव्य है, उस सामूहिक अवचेतना का जो किसी समुदाय को समग्र रूप में परिभाषित करता है। नवगीत की सांस्कृतिक चेतना लोक में उपजी लोक से प्राप्त संचेतना है। इसीलिए वह सहज जीवंत है। लोक से प्राप्त, लोक में व्याप्त सांस्कृतिक बिम्ब नवगीत की कहन के सबसे समृद्ध स्रोत हैं। गाँव की सुबह का दृश्यांकन करती गुलाब सिंह की ये गीत-पंक्तियाँ इसी लोक-समृद्ध कहन की बानगी देती हैं -

हरे लहरे खेत / टहकारती सोना पतारी
ले रहे बाबा हरी का नाम
खींचतीं अम्मा पकड़कर कोर चादर की
उठीं दीदी-जगीं अँगड़ाइयाँ
खनकता आँगन सँवरते बरतनों से
लीपतीं चौका-ओसारा भोर-सी भौजाइयाँ
दोहनी में धार/ तार सितार के बजते
सुबह के संगीत होते काम

इसी सुबह के संगीत होते काम वाली संचेतना से हमारे रिश्ते-नाते व्याख्यायित होते हैं। ठाकुर प्रसाद सिंह हमारे नेह के नातों को यों परिभाषित करते हैं -

माँ हमारी दूध का तरु / बाप बादल
औ' बहन हर बोल पर
बजती हुई मादल
उतर आ हंसी कि मैं वंशी

नवगीत की एक विशिष्टता है उसकी गहरी लोक संपृक्ति। यह लोक संपृक्ति नवगीत में कई रूपों में प्रकट हुई है। मसलन हमारे विविध ऋतु-प्रसंग, हमारे उत्सवधर्मी तीज-त्यौहार, हमारे पारस्परिक नेह-भाव से बँधे गाँव-गली के तमाम रिश्ते-नाते, हमारे खेत-खलिहान-नदी-झील-झरनों-पठारों-घाटियों-मैदानों से परिभाषित हमारा राष्ट्र-बोध और और भी तमाम रूपक जो हमें लोक-संस्कृति से सहज प्राप्त हैं। इसी सहज आस्तिक भाव से उपजे हैं ये नवगीत-प्रसंग -

मेरी कोशिश है कि नदी का बहना मुझमें हो
मैं न रुकूँ संग्रह के घर में
धार रहे मेरे तेवर में
मेरा बदन काटकर लहरें
ले जाएँ पानी ऊसर मे
जहाँ कहीं हो/ बंजरपन का मरना मुझमें हो (शिवबहादुर सिंह भदौरिया )


देख लिया बादल को जी के
अनडूबे पाट हम नदी के
कहाँ देवदास की भुजाएँ
जहाँ मोहभंग समस्याएँ
अनफूले फूल इस सदी के ( देवेन्द्र कुमार )

बहो तुम भी बहो जैसे नदी
झेलकर सब शीत वर्षा घाम
लिख गई तट पर नगर वन ग्राम
सृष्टि की यह कथा तुम भी कहो जैसे नदी ( सत्यनारायण )


यह नदी होकर सृष्टि की कथा कहते हुए बहने का आग्रह नवगीत में बार-बार उपजा है। कहीं सहज जीवन- धर्म बनकर तो कहीं अस्तित्व के संघर्ष का प्रतीक बनकर। वह रसमयता जो नदी में है वही नवगीत की संवेदना में है। लोक-संस्कृति के टूटने-बिखरने, उसके धीरे-धीरे बिला जाने की व्यथा-कथा नवगीत में जगह-जगह कही गई है।

देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' अपने 'सूर्यमुखी संपाती यात्रा' वाले गीतों में 'मंगल कुमकुम वाले घट के किसने / बूटों से ठुकराकर ठीकरे बिखेरे' के प्रश्न से और दूध-दही, गोरोचन, अक्षत, घृत, तुलसी' की मांगलिक छवियों और 'दादी के आँचर के दाख-छुहारे / दादा की पगड़ी के गेंद कतारे' की मन्त्रवती परम्परा के बिला जाने के प्रसंग से उद्वेलित हैं। लोक में व्याप्त पौराणिक-सांस्कृतिक आख्यायिकाओं का आधुनिक सन्दर्भों को व्याख्यायित करने के लिए जैसा सटीक बिमबागत्मक उपयोग 'इंद्र' जी ने अपने गीतों में किया है, वैसा, मेरी दृष्टि में, अन्य कोई नवगीतकार नहीं कर पाया है।

नईम 'शिकमी हो या जोतदार / क्षण आये हैं खेतों थकने के' के छटपटाहट भरे अहसास को क्रांति के स्वर के शोर हो जाने की नियति से जोड़कर लोक संस्कृति के आहत होने की चिंता को यों व्यक्त करते हैं -

दूब अक्षत हरी टहनी / बूँद-भर जल / गोद माँ की
भीड़-भाड़े के बसेरे / दिवस तिरछे राह बाँकी
शोर में डूबे हुए हैं क्रांति के स्वर

अनूप अशेष दर-ब-दर सर्वहारा की पीर की गाथा यों कहते हैं -

बाँस का टूटा हुआ जंगला / फटी भीती
बंधु, हम यहाँ रहते हैं
द्वार पर तहसील सी धमकी हवा
... ... ...
पाँव से सिर तक लपेटे हुक्म
दर न छोड़ने के संस्कार
कुएँ में ठहरा हुआ सूखा / प्यासी गाय
बन्धु, खुलकर नहीं कहते हैं

'घर' का प्रयोग नवगीत में हमारी नेह-अस्मिता को प्रतीकार्थ में व्याख्यायित करने के लिए हुआ है। माहेश्वर तिवारी घर को ममतामयी शरणस्थ्ली के रूप में पाते हैं -

धूप में जब भी जले हैं पाँव / घर की याद आई
नीम की छोटी छरहरी छाँव में / डूबा हुआ मन
द्वार का आधा झुका बरगद / पिता-माँ से बंधा आँगन
सफ़र में जब भी दुखे हैं पाँव / घर की याद आई

वहीँ दूसरी ओर ओम प्रभाकर इसे टूटन और चिंताओं के प्रतीक के रूप में देखते हैं -

जैसे-जैसे घर नियराया / बाहर बाबू बैठे दीखे
लिये उमर की बोझिल घड़ियाँ / भीतर अम्मा रोटी करतीं
लेकिन जलतीं नहीं लकड़ियाँ
कैसा है यह दृश्य कटखना / मैं तन से मन तक घबराया

कुमार रवीन्द्र के एक गीत में इसी संदर्भ का एक तीसरा पक्ष उजागर हुआ है। पुश्तैनी घर की नई पीढ़ी के द्वारा उपेक्षा का मार्मिक चित्रण उसमें हुआ है। देखें -

माँ को है लकवा / हैं बाउजी बूढ़े
घर के हर कोने में ढेरों हैं कूड़े
चूती है छत कच्ची / लोनी दीवारें
दरवाजे-खिड़की से झाँकती दरारें
बेटों की नेकटाई / बहुओं के जूड़े
पानी बिन सूख रही / गमले की तुलसी
ढह रही बरांडे में / दादा की कुरसी
भीग रहे आँगन में पड़े हुए मूढ़े
काँपते कैलेंडर पर / पिछली तारीखें
बता रहीं / कितनी हैं बुढ़ा रहीं लीकें
अगले दिन-हफ्तों को / कौन यहाँ ढूँढ़े

लोक संस्कृति में मानव संस्कारों के पराभव का यह दृश्य अकेला नहीं है। पारंपरिक नैतिक मूल्यों और उनको पालते-पोसते आस्था-बिम्बों की पराजय की प्रतीक-कथा नवगीत में बार-बार कही गई है।

भारतीय जातीय और राष्ट्र बोध की कल्पना, जिसे पहली बार महाभारत में आकार मिला, तुलसी, सूर, कबीर , मीरा की बानी से होती हुई भारतेंदु, मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, दिनकर के काव्य तक आते-आते एक प्रखर राष्ट्रीय चेतना बनकर उभरी। नवगीत में राष्ट्र-बोध हमारी लोक सांस्कृतिक चेतना का हिस्सा बनकर ही अभिव्यक्त हुआ। शम्भुनाथ सिंह इसे इसी रूप में देखते हैं -

देश हैं हम / महज़ राजधानी नहीं
हम बदलते हुए भी न बदले कभी
लडखडाये कभी और सँभले कभी
हम हजारों बरस से जिसे जी रहे
ज़िंदगी वह नई या पुरानी नहीं

और

सब की सीमायें / पर मेरी सीमा नहीं
एक मैं हूँ / कि गुम रौशनी की ख़बर
बाँटता हूँ इधर / बाँटता हूँ उधर

यह जो असीम होकर रौशनी बाँटने की आस्तिकता है, यही तो है वह मूल लोक सांस्कृतिक चेतना, जिससे भारत की राष्ट्रीय अस्मिता परिभाषित होती है। इसी चेतना का अटूट हिस्सा हैं हमारी नदियाँ - गंगा, यमुना, सरस्वती, सिंध, व्यास, सतलुज, नर्मदा, कावेरी, कृष्णा, ब्रह्मपुत्र। गंगा तो हमारी संस्कृति का मेरुदंड ही है। वह मात्र एक नदी नहीं है। वह तो पूरा एक मिथक है हमारी अन्तश्चेतना का मातृत्व के प्रतीक इस नदी का आख्यान उमाकांत मालवीय ने अपनी इन गीत पंक्तियों में बड़े ही सम्मोहक बिम्बों में किया है -

भूखा कहीं देवव्रत टेरे, दूध भरी है छाती
दौड़ रही ममता की मारी, तजकर संग-संगाती
गंगा नित्य रँभाती फिरती जैसे कपिला गइया
सारा देश क्षुधातुर बेटा, वत्सल गंगा मइया

इन पावन गंगाओं के भ्रष्ट होने की त्रासदी की कथा भी नवगीत ने कही है -

अब न वे नदियाँ न वे नावें / हवायें भी नहीं अनुकूल
हर सुबह होती किनारे लाश / पानी पर उगे मस्तूल
आँधियों के ये समर्पित भाव / पहचाने नहीं जाते ( उमाशंकर तिवारी )

राजेन्द्र गौतम महानगर में आकर अपने खुली खिड़कियों वाले घर को तलाशते मन के अपने सीमांत को गूँगे होते देखते हैं -

एक खिड़कियों वाला घर/ हम कब से रहे तलाश
बिसरे बाबा के बरगद की / छाया के दृष्टान्त
सड़कों से है लगातार / उठता जंगल का शोर
ऋचा नहीं यह है शहरों का / छन्दहीन इतिहास
गूँगे हुए यहाँ आकर / मन के सारे सीमांत

बुद्धिनाथ मिश्र आज के कबंध से युग में 'घर अपना हो गया आज / पर्चों की एक सराय' के साथ 'जलावतन का दर्द / झेलता आंगन का मेहराब ' वाले वातावरण में 'सिरहाने के धरे फूल की / किसको रही खबर ' की त्रासदी का अंकन करते हैं। विजयकिशोर मानव घर को कसाईबाड़े में तब्दील हो जाने की खबर देते हैं, क्योंकि सारा रागात्मक परिवेश ही आज विखंडन की त्रासदी झेल रहा है -

घर हो गये कसाईबाड़े मुर्दाघर से शहर
... ... ...
नन्हीं गौरैया के सिर पर दिन की छत तपती
मैना बूढ़ी हुई / पेट की रामायण जपती
बाहर से हैं बंद किवाड़ें पिंजरे की सब उमर
राम क्या होना है

योगेन्द्र दत्त शर्मा की ये गीत पंक्तियाँ गाँव यानी मनुष्य की मूल सांस्कृतिक रागात्मकता के , जो अभी भी स्मृतियों में उपस्थित है, वर्तमान समय में पराभव को जिस प्रखरता से अभिव्यक्त करती हैं, उससे नवगीत की वर्तमान चिंताओं का बखूबी पता चलता है -

बर्फ सी ठंडी हुई है रेत / पर खरगोश / अब तक तिलमिलाता है
बस्तियों में काँच सा मन टूट जाता है
गाँव जब पीछे शहर से छूट जाता है
बीच आँगन में खड़ी / तुलसी / स्वयं अपराजिता सी
वत्सला अमराइयाँ / वह छाँह पीपल की पिता सी
एक झोंका स्नेह का मन गुदगुदाता है

नवगीत की लोकोन्मुखी दृष्टि और लोकधर्मिता उसके कथ्य के सरोकारों और उसकी चिंताओं में साफ झलकती है। लोकाग्रही ये चिंताएँ स्वातंत्र्योत्तर कालखंड में तेजी से पनपी लोक-विरोधी स्थितियों और शक्तियों के बढ़ते वर्चस्व से ही उपजी है। डॉ० सुरेश के इस गीत-अंश में राजनीति और पूँजी-केन्द्रित आर्थिक विकास के प्रपंच में फँसीमानुषी आस्तिकता के आहत होने की व्यथा बखूबी व्यक्त हुई है -

कंधे कुली बोझ शहजादे / कोई फ़र्क नहीं
राजे कभी कभी महराजे / कोई फ़र्क नहीं
अख़बारों की रँगी सुर्खियाँ / बड़बोलों की चाल
सूरज सोया गोदामों में / ठहरी काली रात
झूठी कसमें झूठे वादे / कोई फ़र्क नहीं

लोक संस्कृति का ही अभिन्न अंग हैं हमारे लोकगीत यानी सोहर, सरिया, ब्याह, कजरी, लावनी, टप्पा आदि और उन्हीं से उपजे ठुमरी दादरा कव्वाली जैसे अर्द्धशास्त्रीय गायन। नवगीत ने लय-छंद के धरातल पर इनको साधा और इस तरह लय की अनुपमेय आवृत्तियाँ प्रस्तुत कीं। पारंपरिक छंद-पदगीत से अलग हट कर नवगीत ने लय की अनूठी भंगिमाओं का अनुसंधान किया पारंपरिक छंदों यथा छप्पय, सवैया, सोरठा आदि के टुकड़ों को नये रूपाकारों में ढालने का काम भी नवगीत ने बखूबी किया। प्रयोगधर्मी काव्य विधा के रूप में इस दृष्टि से भी नवगीत की उपलब्धियाँ महती रही हैं। छोटी लयों का अनुसंधान और आविष्कार नवगीत की विशिष्टता रही है। इधर के नवगीतों में ग़ज़ल की छोटी बहरों का भी बड़ा ही सफल उपयोग हुआ है।

वर्तमान कालखंड में वैश्विक और महानगरीय आतंक के माहौल में नवगीत की ये चिंताएँ कितनी मौजूँ हैं, कहने की आवश्यकता नहीं। हम आज सभ्यता एवं संस्कृति की सीमांत रेखा पर खड़े हैं। लोक संस्कृति की जिज्ञासाएँ और आस्थाएँ ही हमारे पूरी तरह आशयमुक्त, अनर्गल और बेहूदा होते सामाजिक माहौल को एक बार फिर जीवंत और जीवनदायी बना सकती है। यह चिन्तन आज के नवगीत का मुख्य चिन्तन है। नवगीत किंवा समूची कविता का यही एकमात्र प्रयोजन होना भी चाहिए। आज कविता की प्रासंगिकता लोक संस्कृति को पुनर्जीवित करने और उसे समाज के सार्थक बदलाव का माध्यम बनाने में ही निहित है। आज का नवगीत इस दृष्टि से निरंतर जागरूक है। यह एक स्वस्थ और उत्साहप्रद स्थिति है।

 

२१ मार्च २०११

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