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रचना प्रसंग

 

ललित निबन्ध
परम्परा एवं आधुनिक चेतना का समन्वय

- डॉ. (श्रीमती) कैलाश कौशल


ललित निबंध - धारा के अग्रपुरुष हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी सम्पूर्ण रचनात्मक ऊर्जा से इस विधा में वटवृक्ष-सी विराटता सींच दी। हिन्दी गद्य के प्रथम उत्थान काल भारतेन्दु युग से द्विवेदी युग तक ललित निबन्ध-साहित्य का यह बिरवा पौधे के रूप में था, आचार्य शुक्ल ने इसे विचारों की खाद द्वारा पोषित किया और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के लालित्य-संस्पर्श से यह लहलहा उठा। विद्यानिवास मिश्र ने इसे पल्लवित किया और जगदीशचन्द्र माथुर, धर्मवीर भारती, शिवप्रसाद सिंह आदि ने इसे विस्तार प्रदान किया। कुबेरनाथ राय ने अपनी विशिष्ट दृष्टि से इसे समृद्ध किया। तत्पश्चात् भी विवेकी राय, रामनारायण उपाध्याय, विष्णुकान्त शास्त्री, श्रीराम परिहार, अष्टभुजा शुक्ल, कृष्ण बिहारी मिश्र आदि निबंधकार इस विधा को पुष्ट एवं समृद्ध बनाते रहे हैं।

भारतेन्दु युग से ही हिन्दी के स्वभाव के अनुकूल भारतीय परिप्रेक्ष्य में जिस प्रकार की प्राचीनता एवं आधुनिकता का तालमेल सहज सिद्ध है उसे आधार बनाकर ही ललित निबन्ध ने रूप ग्रहण किया है। बीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में सचेतनता की खोज में रत निबंधकारों ने अपने चिंतन को एक ओर वैदिक उषस्सूक्त, वाल्मीकि, भवभूति, कबीर, तुलसी की चिंतन परंपरा को हृदयंगम किया है तो दूसरी ओर अस्तित्ववादी, माक्र्सवाद की आधुनिक विचारधाराओं से भी साक्षात्कार किया है और यहाँ जो अपनी जमीन के अनुकूल लगा उसी में अपना ‘स्व’ तलाशने की चेष्टा की है। पश्चिम के अनुकरण में नित नये पनपते आंदोलनों एवं वादों से स्वयं को बचाते हुए ललित निबंधकार निरन्तर घेरों से बाहर की यात्रा में तत्पर हैं। परम्परा में जीते हुए उसके अभिन्न अंग के रूप में स्वयं को परखना और परम्परा की अंधरूढयों से तथा आधुनिकता के घटाटोप से बचना इन निबंधकारों का प्रमुख लक्ष्य है। अतः ललित निबन्ध-साहित्य में परम्परा एवं आधुनिक चेतना का सम्यक समन्वय मिलता है।

यहाँ परम्परा की सोंधी सुवास के साथ आधुनिक दृष्टि सम्पन्न हो भविष्य के मार्ग को प्रशस्त करने की कलात्मकता अप्रतिम है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंधों में परंपरा और रूढ तथा प्राचीन और नवीन मूल्यों के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा है। उनके शब्दों में ‘इतिहास मनुष्य की तीसरी आँख है, इतिहास - प्रेम की बात मैं नहीं जानता मगर इतिहास-बोध को पलायन समझना आधुनिकता नहीं, आधुनिकता निरोध है। आधुनिकता की तीन शर्तें हैं - एक इतिहास-बोध, दूसरी इहलोक में ही कल्याण की आस्था और तीसरी व्यक्तिगत कल्याण की जगह सामूहिक कल्याण की एषणा। मैं आग्रहपूर्वक कहना चाहता हूँ कि जो इतिहास को स्वीकार न करे वह आधुनिक नहीं और जो चैतन्य को न माने वह इतिहास नहीं।' आचार्य द्विवेदी परंपरा की परख करते हुए अपन अनुभव की आँच से उसे युगीन चेतना के साथ जोड देते हैं। वे परंपरा के पोषक होते हुए भी रूढवादी नहीं हैं। उनकी भूमिका परम्परा और आधुनिकता के बीच एक सेतु की रही है।

‘देवदारु’ की भाँति वे भी ‘द्युलोक’ को भेदने की लालसा लिए हुए उदात्त शिखरों की ओर आँखें गड़ाये रहते हैं। उनकी मानसिक स्वतंत्रता, सौम्यता, मंगलेच्छा, बालकों की सी पर्युत्सुकता उनके ललित निबंधों में पदे-पदे झाँकती है। देवदारु का चित्र् उनके ही व्यक्तित्व की तरह अप्रतिम है, "जमाना बदलता रहा है, अनेक वृक्षों और लताओं ने वातावरण से समझौता किया है, कितने ही मैदान में जा बसे हैं, लेकिन देवदारु है कि नीचे नहीं उतरा। समझौते के रास्ते नहीं गया और उसने अपनी खानदानी चाल नहीं छोडी। झूमता है तो ऐसा मुस्कुराता हुआ मानो कह रहा हो, मैं सब जानता हूँ हजारों वर्षों के उतार-चढाव का ऐसा निर्मम साथी दुर्लभ है।" एक ओर जहाँ देवदारु के ऊपर उठने वाले वैभव ‘इतना ऊपर कि पास वाली चोटी के भी ऊपर’ उठने का वर्णन है, वहीं दूसरी ओर एक छोटा-सा अदना-सा वृक्ष ‘कुटज’ उन्हें बहुत भा गया और उसके माध्यम से आज का परिदृश्य उभर आता है, बातों ही बातों में वे मनुष्य को उसका असली रूप दिखा देते हैं, "कुटज केवल जी ही नहीं रहा। वह भीख माँगने नहीं जाता, अफसरों का जूता चाटने नहीं जाता, आत्मोन्नति हेतु नीलम नहीं धारण करता, किसी की खुशामद नहीं करता, हृदय से अपराजित भाव से जीता है और शान से जीता है। कुटज का मन वश में है इसीलिए यह सब मिथ्याचारों से मुक्त है। वह अपने मन पर सवारी करता है। मन को अपने पर सवार नहीं होने देता।" प्रस्तरों के बीच उगने वाले पौधे की रससिक्तता और जिजीविषा से जीवन-सत्व ग्रहण कर वे अपनी सहज उक्तियों में उंडेल देते हैं, 'कुटज' इन सब मिथ्याचारों से मुक्त है। वह वशी है। वह वैरागी है। राजा जनक की तरह संसार में रहकर, सम्पूर्ण भोगों को भोगकर भी उनसे मुक्त है। राजा जनक की ही भाँति वह घोषणा करता है, ‘मैं स्वार्थ के लिए अपने मन को सदा दूसरे के मन में घुसाता नहीं फिरता, इसलिए मैं मन को जीत सका हूँ, उसे वश में कर सका हूँ।'

‘अशोक के फूल’, ‘आम फिर बौरा गये’, ‘वसन्त आ गया है’, ‘वर्षा घनपति से घनश्याम तक’, ‘नाखून क्यों बढते हैं’ आदि निबन्धों में प्रत्येक जड़-चेतन के साथ आत्मीय सम्बन्ध महसूस करते हुए द्विवेदी जी मूक को वाचालता तथा पंगु को गति प्रदान कर देते हैं। ‘बरसों भी’, ‘ठाकुर जी की बटोर’, ‘एक कुत्ता और एक मैना’ आदि कितने ही निबंधों में द्विवेदी जी की सर्जनात्मक कल्पना न जाने कितनी असम्बद्ध वस्तुओं को एक सूत्र में बाँधती चलती है। ‘भारतवर्ष की सांस्कृतिक समस्या’ शीर्षक निबन्ध में भारतवर्ष के इतिहास पर विचार करते हुए वे कहते हैं, ‘आर्यों और मंगोलों, शकों और द्राविडों के संघर्ष भी अंततः समन्वय के सुनहरे फल में परिणत हुए हैं।’ मध्ययुग में हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रयासों से होते हुए वे वर्तमान परिस्थितियों में समूची मनुष्यता के कल्याण हेतु इसे जरूरी समझते हैं। ‘हिन्दू-मुस्लिम मिलन का उद्देश्य है मनुष्य को दासता, जडमा, मोह, कुसंस्कार और परमुखापेक्षिता से बचाना, मनुष्य को क्षुद्र स्वार्थ और अहमिका की दुनिया से ऊपर उठा कर सत्य, न्याय और औदार्य की दुनिया में ले जाना, मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को हटाकर परस्पर सहयोगिता के पवित्र् बंधन में बांधना। मनुष्य का सामूहिक कल्याण ही हमारा लक्ष्य हो सकता है।’ द्विवेदी जी का सम्पूर्ण रचना-जगत् मानवता के प्रति दृढ आस्थावान है। इसलिए नामवर सिंह का कथन है कि, ‘जिसे हम आधुनिकता कहते हैं, वह इसी पुनर्नवता का दूसरा नाम है। ‘पुनर्नवा’ हजारी प्रसाद द्विवेदी के एक उपन्यास का नाम ही नहीं, उनके समस्त रचनाकर्म का बीज शब्द है।’ वस्तुतः अपने सजग युगबोध और मोहक भंगिमा से आपूरित उनके निबंध शास्त्र और लोक के एवं परम्परा और देशकाल के समन्वय की अद्भुत मिसाल हैं। अशोक वाजपेयी के अनुसार, ‘एक ऐसे समय में जब प्राचीन परम्परा और आधुनिक प्रतिभा के बीच कम से कम साहित्य में अंतःक्रिया के सभी रास्ते बंद हो गये लगते हैं, यह द्विवेदी जी का अद्वितीय योगदान है कि उन्होंने भारतीय अतीत और वर्तमान को एक अटूट और अनिवार्य संबंध में देखा और हमें अनुभव कराया।’

स्वयं विद्यानिवास मिश्र उनके विषय में लिखते हैं, ‘उनके व्यक्तित्व की तलवार म्यान में बंद नहीं रह पाती, उनका छंद अर्थ में बँधा नहीं रह पाता। वह सूर्य को पृथ्वी से मिलाने के लिए व्याकुल हैं, वह शास्त्र को लोक से जोड़ने के लिए व्यग्र हैं, वह संस्कृत को हिन्दी पर न्योछावर करने के लिए उत्कंठित हैं और वे राष्ट्र का मनुष्य से सामंजस्य के लिए चिंतित हैं। इसलिए वह मनुष्य के हर अनुभव को छेडता है। उसकी हर एक सांस्कृतिक उपलब्धि के मर्म को गुदगुदाता है और प्रकृति के हर विवर्तन को कुरेदता है, और मनुष्य, उसकी परम्परा और देशकाल को जोडने का जुगाड़ करता रहता है।’ इस प्रकार द्विवेदी जी समन्वय की विराट चेष्टा के रचनाकार हैं। उपर्युक्त कथन के लेखक स्वयं विद्यानिवास मिश्र ने भी देश एवं समाज की चिंताओं को परम्परा के संदर्भ में विश्लेषित किया है। इन दोनों ललित निबंधकारों ने भारतीयता की माटी की महक से सुवासित, गहरे सांस्कृतिक बोध से संपृक्त एवं शाश्वत मूल्यों में आस्था रखने वाली जिस ललित निबंध परम्परा का सूत्रपात किया, बाद के निबंधकारों ने उसी परम्परा को बनाये रखा है।

विद्यानिवास मिश्र के शब्दों में ‘परम्परा जमीन के साथ-साथ जीवन की धारा भी होती है और उसका एक ही लक्ष्य होता है। ऐसा पूर्णत्व जो कभी अपूर्ण न हो, ऐसा अव्यय भाव जो कभी चूके नहीं।’ अपने तिरेपन निबंधों के संग्रह ‘व्यक्ति’ व्यंजना में संकलित निबंध ‘पत्र इण्टेलेक्चुअल भइया के नाम परंपरा जीजी का’ में वे लिखते हैं, ‘मैंने सुना है, तुम मानसिक क्लेश में हो। आधुनिकता को स्वीकारने की तुम्हें ललक है, पर तुम्हारे मन में कहीं चोर है कि कहीं वही तुम्हें नकार न दे, क्योंकि तुम्हारी जीजी परंपरा है। मेरा स्नेह तुम्हारे पथ का कण्टक नहीं बनना चाहता। वह तुम्हारी पग धूलि सींचना चाहता है कि तुम्हारी पीठ पर धूल न लगे। तुम्हारा भय अकारण है। आधुनिकता तुम्हारे आगे नहीं है, वह तुम्हारी बगल में है पर तुम देख आगे रहे हो। दायें बायें तुम देखना नहीं चाहते, दायें-बायें से तुम बचना चाहते हो और पीछे देखने से शरमाते हो। मेरे भैया, आधुनिकता दायें-बायें का अपरिहार्य द्वैध है। वह द्विभक्त प्रतिभा है, वह श्री हर्ष पंडित के शब्दों में द्विकालबद्ध चिकुर-पाश है।’ आज की बढती यांत्रिकता और उपभोक्ता संस्कृति मानव विरोधी है, अमेरिकी तर्ज पर बढती सम्पन्नता को सभी ललित निबंधकार खतरनाक बताते हैं और तथाकथित प्रगति की गति नाप कर एक सहज प्रश्न उठाते हैं कि क्या भौतिक सम्पन्नता ही सब कुछ है?

विद्यानिवास मिश्र कहते हैं, ‘अमेरिका की सम्पन्नता बहुत नजदीक से देखने पर स्पृहणीय नहीं लगती। वह बिजली चलित यंत्रों का कबाड़ खाना बनता जा रहा है, आदमी आधे से अधिक पंगु, आधे से अधिक अंधा, आधे से अधिक बहरा होता जा रहा है।’ विद्यानिवास मिश्र ललित निबंध के वैचारिक बिन्दुओं की पहचान के लिए इन तीन प्रमुख सूत्रों को उल्लिखित करते हैं - (१) अखण्ड विश्व दृष्टि, (२) मुक्त निबन्ध फक्कड़ भाव, और (३) सामान्य में निगूढ़तम वैशिष्ट्य की तलाश। उनके अनुसार ‘हमारी परम्परा की सबसे बडी क्षमता उसका स्वीकार भाव है।’ विद्यानिवास मिश्र अपने निबंधों में आज के दौर की विसंगतियों, राजनैतिक प्रलोभनों एवं आधुनिक वैज्ञानिक रूढ से जुड़ी असंगत एवं पाखण्डरत असमानताओं को पर्त-दर-पर्त उधेडते चले जाते हैं। उनके निबन्ध संग्रह ‘आँगन का पंछी और बनजारा मन’ के सभी निबन्ध नये दौर में आँख मूँदकर चलने की प्रवृत्ति पर प्रश्न उठाते हैं। संग्रह के पहले निबंध ‘आँगन का पंछी’ में चीन सरकार द्वारा गोरैया पक्षी को खेती का शत्रु मान उसके खिलाफ छेड़े गये अभियान से उद्वेलित होकर मिश्र जी आँगन के पंछी के साथ-साथ आँगन का पौधा और आँगन की बेटी के साथ जुडाव महसूस करते हैं। गोरैयों के साथ लिया जाने वाला ‘यह नादिरशाही बदला’ उन्हें नागवार गुजरता है और वे सहज रूप से भारतीय कौटुम्बी भाव से जुड़ पाते हैं।

वे लिखते हैं, ‘पारिवारिक साहचर्य भाव ही हमारे साहित्य की सबसे बडी थाती है। यह कुटुम्ब भाव ही हमें चर-अचर, जड-चेतन जगत् के साथ कर्त्तव्यशील बनाता है। हम ‘अणोरणीयान्’ और ‘महतो महीयान’ को एक-सी नजर से देखने के आदी हैं।’ इसी दृष्टि के कारण मिश्र जी भारत में फैली प्रान्तीयता के प्रति सद्भाव विकसित करने का प्रयास करते हैं। ‘मलय के अंचल में’ नामक निबन्ध में वे उत्तर और दक्षिण के मध्य सेतु उपस्थित करते हैं। मैसूर से वैल्लूर तक की यात्रा के अनेक पडावों में संस्कृतियों का सम्मिलन देखते हैं, ‘उस मलयाचल के चंदन वृक्ष हमसे यह आशा करते हैं कि उनके अंग में लिपटे हुए भुजंगों के विष से उनका उद्धार करें, क्योंकि यह उद्धार उनका नहीं, उनकी उस सुरभि का होगा जो वहाँ से आने वाली बयार पर चढ कर हमारे सांस्कृतिक जीवन को सदियों से नया उत्साह प्रदान करती आयी है। हम विष से सम्मूर्छित न हों, कालि दमन से उत्साहित हों, और अपनी बाँसुरी की तान से नागपाश से मलय का और मलय मारुत का मोक्ष करा सकें, यही हमारी चरम सार्थकता होगी।’इस संग्रह के अन्य निबन्धों - ‘डेरी बनाम खेती’, ‘नया दौर’, ‘दिये बाती का मेल’, ‘इकाई बनाम दहाई’, ‘कमल भक्षकों के देश में’ और ‘बनजारा मन’ आदि में निबंधकार ने अनेक उत्प्रेरक तत्वों द्वारा प्राचीन एवं नवीन के बीच की खाई को पाटने हेतु अपने विचार सँजोये हैं।'

कुबेरनाथ राय के ललित निबन्धों में लोक-संस्कृति एवं लोक-जीवन मोहक भंगिमाओं के साथ प्रस्तुत हुआ है। ‘रस-आखेटक’, ‘निषाद बाँसुरी’, ‘महाकवि की तर्जनी’, ‘मन-पवन की नौका’, ‘दृष्टि-अभिसार’ आदि निबंध-संग्रहों में भारतीय चिंतन धारा का आधुनिक परिप्रेक्ष्य में विवेचन है। भारतीय संस्कृति के मंथन एवं आधुनिक चिंतन के सारभूत तत्त्वों के व्यावहारिक परीक्षण के संश्लेष से वे इस कर्मयोग के सूत्र् को उपलब्ध करना चाहते हैं। प्राचीन मिथकों की नवीन सांस्कृतिक व्याख्या इनके निबन्धों का प्राण है। ‘मानस कूप और कोटर पिशाच’ निबन्ध का मूल सूत्र् गाँव में ‘डंडहोर वधू’ को प्रेताविष्ट मानने के प्रवाद के साथ जुडा हुआ है। लेखक व्यक्ति की प्रेतबाधा के सूत्र के साथ देश और विश्व के प्रेताविष्ट होने को जोडते हैं और निष्कर्ष स्थापित करते हैं। ‘सामूहिक प्रेत-बाधा का ऊर्ध्व-स्रोतीकरण किए बिना विश्व का समूह-मन स्वस्थ और सहज नहीं होगा तथा महायुद्धों की परंपरा चालू रहेगी।’ ‘हरी-हरी दूब और लाचार क्रोध’ शीर्षक निबंध में लोकतंत्री व्यवस्था में बुद्धिजीवी के भीतर उत्पन्न होने वाली चिंताओं को उकेरा गया है, आस्था विहीन होकर अपनी जड़ों से कटते जाने के कारण ही आज व्यक्ति निरन्तर बौना होता जा रहा है। लेखक प्रश्न करता है कि कहाँ गया कुर्सी व सोने के प्रति अवज्ञा का सनातन भारतीय भाव? यह लालच, वह अपने को छोटा बनाने का भाव कहाँ से आया?

आज भारतीय व्यक्ति पद और पैसे के सामने संविधान को छोटा मानने लगा है। इस मूल विचार के साथ-साथ बुद्धिजीवी वर्ग के आहत स्वाभिमान की वेदना के इर्द-गिर्द इस निबन्ध की बुनावट हुई है।’ कुबेरनाथ राय का अंतःकरण ‘रस-आखेटक’ बन कर अपनी ‘प्रिया नीलकंठी’ के गंध-मादन में छका रहना चाहता है पर वर्तमान जीवन की विषमताएँ उसे बेचैन करती हैं। लेखक नदी को स्रोतस्विनी रूप में देखते हैं जो भीतर की नदी की ओर भी संकेत कर रही है। नदी पर पूजा करने आयी नारियों को नदी यह कहती हुई सुनायी देती है, ‘तुम्हारे मन में एक नदी बहती है, इस बाहरी नदी के समानान्तर। तुम्हारे मन में दूध, फूल, अक्षत और लौंग-धार अर्पित होते हैं, तुम्हारे मन में एक सहस्रशीर्ष भाव-समुद्र है, इस बाहरी जलधि के समानान्तर या उससे भी वृहत्तर। जो माँगोगी सच्चे मन से, वह सब मिलेगा, क्योंकि उस भाव-समुद्र के लिए कुछ भी अदेय नहीं, यदि तुम निर्मल मन उसकी अदालत में जाकर खड़ी हो जाओ बिना किसी कपट के, दुराव के। यह बाहरी नदी तो अनुभव का माध्यम भर है, असल है भीतर।’

हम जिन्हें ‘महाशक्ति’ मान रहे हैं वहाँ के आम आदमी के भीतर की जाँच कुछ और ही कह रही है। कुबेरनाथ राय यंत्रबद्ध व प्रदर्शन प्रिय जीवन-शैली की जड़ आस्थाहीनता में देखते हैं जो अमेरिका और रूस में मात्र भौतिक-संसाधनों की बाढ से आई है। इसके विपरीत जापान आज भी प्रगति के बावजूद ‘जेन’ और ‘ध्यान’ के प्रभाव से उतना खोखला नहीं हुआ है, ‘जापान अपने चरम वैज्ञानिक रूप से भी जापान ही रह गया, अमेरिका का सांस्कृतिकउपनिवेश नहीं।‘जेन’ की तरह हमारे पास भी रक्षा कवच होगा, कर्मयोगी वेदान्त या स्थितप्रज्ञ कर्मयोग, जो हमें रूस या अमेरिका की सांस्कृतिक-बौद्धिक प्रजा बनने से बचायेगा। अन्यथा सारे सतोगुण, अध्यात्म, आत्मवाद, गाँधीवाद के बावजूद हमारे व्यक्तित्व की मणि को कोई एक रोटी, एक ट्रांजिस्टर थमा कर खरीद लेगा।’

इन मिथ्या-प्रलोभनों के दुष्चक्रों में न फँसकर हमें सचेत रहना है। यही नहीं, कुबेरनाथ राय ‘निषाद बाँसुरी’, ‘किरात नदी में चन्द्रमधु’, ‘मन पवन की नौका’, ‘कामधेनु’, ‘उत्तरकुरू’ आदि निबंधों में भारत के भूगोल, नृत्तत्वशास्त्र्, प्रकृति, भाषा-विज्ञान आदि के साक्ष्यों के आधार पर भारत को समझने- समझाने की चेष्टा करते हैं। ‘शंख और पद्म, सांख्य और योग’ निबन्ध में उनकी मान्यता है कि ‘योग और सांख्य, दोनों चिंतन परम्पराओं के प्रतीक के रूप में विष्णु के हाथ में पद्म और शंख दिये गये हैं।’ ये देवी-देवता मिथकों की रचना है और प्रतीकात्मक रूप में सबका समन्वय कर लिया गया है। चार हजार वर्षों की अन्तर्विकसित सांस्कृतिक प्रक्रिया की गहराई तक पड़ताल करते हुए वे पाते हैं कि विरोधी दिखने वाले रूपों में सामंजस्य और समन्वय उपस्थित कर अपनी परम्परा से जोड़ना भारतवर्ष का मूल स्वभाव रहा है।

धर्मवीर भारती ने ‘ठेले पर हिमालय’, ‘पश्यन्ती’, ‘शब्दिता’ आदि निबंध संग्रहों में आधुनिकतावादी आन्दोलनों पर विचार किया है और अनेक स्थापित मान्यताओं का पुनराख्यान भी किया है। सामयिक महत्त्व के प्रश्नों और विसंगतियों पर व्यंग्य के साथ-साथ यहाँ छीजते मानवीय मूल्यों के प्रति चिंता है। ‘ठेले पर हिमालय’ निबन्ध में वे ठेले को प्रतीक बना देते हैं। दैनन्दिन जीवन का, हमारे गद्यात्मक प्रयोजनों का, अन्नमय एवं प्राणमय कोश का और हिमालय हमारी वास्तविक ऊँचाइयों का हमारे असली गंतव्य का प्रतीक हो जाता है कि उठो और इन शिखरों के समकक्ष हो कर बात करो।
शिवप्रसाद सिंह जहाँ एक ओर परम्परा से जुडे हुए हैं, वहीं आधुनिक और प्रगतिशील मूल्यों के प्रति भी उनमें आस्था है। ‘शिखरों के सेतु’, ‘कस्तूरी मृग’ और ‘चतुर्दिक’ नामक निबंध-संग्रहों में वे विज्ञान की उपलब्धियों को भी स्वीकार करते हैं और अध्यात्म के प्रति निष्ठा-भाव की अभिव्यक्ति भी करते हैं। वे जिस ‘मानसी-गंगा’ के प्रदूषण पर चिन्ता उठाते हैं उसके सामने भौतिक गंगा का प्रदूषण तो नगण्य चिन्ता है।

विवेकी राय के निबन्ध संग्रहों ‘आम रास्ता नहीं है’, ‘आस्था और चिंतन’, ‘जगत तपोवन सो कियो’ आदि में आधुनिक व्यवस्था के अन्तर्गत गांवों की सारी स्वस्थ परम्पराओं के टूटने और सांस्कृतिक मूल्यों के विघटित होने की प्रक्रिया को गहराई से महसूस किया गया है। वे गाँवों की अदम्य जिजीविषा के मूर्त रूप हैं, अतः उनका यह आशावाद जीवन की विजय का नैसर्गिक दस्तावेज बन कर उभरा है। निर्मल वर्मा पश्चिम की तार्किक अंतर्दृष्टि और भारत की आस्था-विश्वास मूलक अंतश्चेतना से समृद्ध लेखक हैं। उनके व्यक्तित्व में पश्चिम और पूर्व का अद्भुत संश्लेषण है। आधुनिक सभ्यता के अंतर्विरोधों का अनुभव करते हुए वे चिंता करते हैं कि अंग्रेजी शिक्षा ने हमें अपनी सशक्त और समृद्ध परंपरा और विशिष्ट अस्मिता से विच्छिन्न कर दिया है। फलतः आज भारत का शिक्षित जनसमुदाय संस्कृति, धर्म, ईश्वर, प्रकृति, कला परम्परा, साहित्य, भाषा, समाज, स्वतंत्रता आदि शब्दों में निहित वास्तविक अभिप्रायों तथा भारतीय संस्कृति के संदर्भ में इनके अंतर्सम्बन्धों को भूलकर अपने ही देश में अजनबी बन गया है। उनके अनुसार अब हमारे सामने एक ही विकल्प शेष है कि हम विदेशी सत्ता के हस्तक्षेप एवं चकाचौंध से स्वयं को मुक्त करें और अपनी परम्परा के टूटे-बिखरे विशृंखलित खलित होते जा रहे सूत्रें को समेटकर उन्हें एक ऐसे पैटर्न में पुनर्नियोजित करें जो न तो अतीत की पुनरावृत्ति हो, न पश्चिम की अनुकृति, वरन् वह एक ऐसी नवनिर्मित सांस्कृतिक सत्ता हो, जो हमारी समृद्ध परम्परा के आदर्शों से अनुप्राणित होकर यूरोप के ‘अन्य’ को अपने ‘आत्म’ में समाहित कर सके। श्री निर्मल वर्मा की दृष्टि में महात्मा गाँधी का रास्ता यही था, इसी मार्ग पर चलकर हमारी युवा पीढी मुक्ति प्राप्त कर सकती है। निर्मल वर्मा अपने निबंधों के माध्यम से युवा पीढी को फिर से सोचने के लिए विवश करते हैं।

रामदरश मिश्र के निबंध संग्रहों ‘कितने बजे हैं’ और ‘बबूल और कैक्ट्स’ में जीवन का अक्षय-राग-स्रोत प्रवहमान है। वे गाँव के बदलते स्वरूप को देखकर हैरान हैं कि व्यावसायिकता और राजनीति से विरूप होती यह आकृति संवेदना को निगलती जा रही है। ‘बबूल’ ठेठ ग्रामीण संवेदना को सँजोये हुए उन्हें आज भी आकर्षित करता है जबकि ‘कैक्ट्स’ आधुनिक यांत्रिक सभ्यता का प्रतीक है। रमेशचन्द्र शाह ने आधुनिक निबंधों में संभावना का एक नया मार्ग प्रशस्त किया है। उनकी विचार-भूमि विस्तृत है, भारतीय एवं यूरोपीय दार्शनिकों, कवियों और विचारकों के विचारों की अनुगूंज उनके निबन्धों में विविध रूपों में व्यक्त हुई है। ‘भूलने के विरुद्ध’, ‘सबद निरन्तर’, ‘स्वाधीन इस देश में’ आदि उनके प्रसिद्ध निबंध-संग्रह हैं। वे ललित निबन्धों को आत्म-निबन्ध कहना उचित समझते हैं, क्योंकि इनमें रचनाकार का ‘स्व’ उभर कर सामने आता है। परम्परा इतिहास व समसामयिक जीवन पर विचार करते हुए उन्हें सबसे बडी चिंता है कि इस समय हमारे देश, समाज और संस्कृति के सभी क्षेत्रें में, चाहे वह धर्म और अध्यात्म हो, चाहे राजनीति, चाहे साहित्य, एक अभूतपूर्व अराजकता का आखेट बन गया है। सभी क्षेत्रों में एक परोपजीवी और भोथरी संवेदना वाली मानसिकता का बोलबाला है। उनके निबन्ध इसी बेचैनी और आस्थामयी दृष्टि के साक्षी हैं।

श्रीराम परिहार ‘आँच अलाव की’, ‘अँधेरे से उम्मीद’, ‘ठिठके पंख पाँखुरी पर’ आदि निबन्ध संग्रहों में धरती से जुडाव की बात करते हैं। उन्हें आज की युवा पीढी के पश्चिमी प्रभाव को आत्मसात् करने एवं अपनी साधना से दूर होते जाने की चिंता है। वे प्रकृति और मनुष्य के बीच संबंध जोड़ते हुए विश्वास रखते हैं कि नई शती में नया सूरज चमकेगा और मानव नये विश्वास से अपना पथ प्रशस्त करेगा। अष्टभुजा प्रसाद शुक्ल अपने निबन्ध संग्रह ‘मिठउवा’ में लोकरसराग पूर्ण संवेदना के अखंड विश्वास को लेकर आधुनिक जीवन के जड-तत्वों से ऊपर उठने के आकांक्षी हैं। कृष्ण बिहारी मिश्र ‘सम्बुद्धि’, ‘आँगन की तलाश’ आदि निबन्ध-संग्रहों में गाँवों में आने वाले मानसिक बदलाव को देख कर उदास हैं। ठेठ ग्रामीण-चेतना के अत्यन्त संवेदनशील रचनाकार होने के नाते वे नई पीढी के लिए नये आँगन की तलाश में हैं, वे उसे नई सृजन-चेतना, नवीन उदात्त मनोभूमि का अवदान देना चाहते हैं, किन्तु लोकगति को देखकर चिंतित हैं। फिर भी वे आश्वस्त हैं कि विजातीय प्रदूषण का सामयिक अंधड ऊपर-ऊपर से निकल जायेगा। आज की व्यावसायिक संस्कृति और तज्जन्य उपभोक्तावाद भारतीय लोक जीवन की चिरंतन रसधारा को मरुभूमि में परिवर्तित नहीं कर पायेगा।

इन सभी ललित निबंधकारों में हमारी परम्परा एवं संस्कृति के चुकते हुए रस को समेटने- सहेजने का प्रयास लक्षित होता है। वे अपने जातीय चैतन्य के साथ ताल मिलाकर चलना चाहते हैं। अतः परम्परा एवं आधुनिकता के सम्यक समन्वय पर बल देकर वे बिगड़ती लय को समझने का जतन करते हैं। भौतिक समृद्धि की ओर बेतहाशा भागते आबाल-वृद्ध को चेताते हुए वे उसे उपभोक्ता दृष्टि से हट कर सहज सह-अस्तित्व वाली दृष्टि अपनाने पर बल देते हैं। इस रूप में ये ललित निबन्ध हमारे सांस्कृतिक परिवेश की आधुनिक अभिव्यक्ति प्रतीत होते हैं।

आज हम वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी, तकनीकी क्रांति एवं विश्व परिदृश्य में बदलते राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में अर्थतंत्र् के दबाव में सत्ता और व्यवस्था के निरन्तर होने वाले कुचक्रों के मध्य जी रहे हैं। तर्क की प्रधानता और वस्तुनिष्ठता ने मानव का सहज उल्लास छीन लिया है। ‘युद्धों, यंत्रीकरण व व्यवस्था की मेगा-मशीन’ के सामने वह निरन्तर विवश और आहत है। आस्थाहीन भौतिकता के प्रसार को दरकिनार कर साधन एवं साध्य की पहचान के लिए ये निबंन्धकार हमें जाग्रत करते हैं कि स्वयं को मशीन होने से बचाओ। धर्मवीर भारती कहते हैं कि ‘यदि हमें अँधेरे से प्रकाश की ओर चलना है तो संस्कृति के उषाकाल का, उस ज्योति का स्मरण करना होगा, जिसके लिए हमारी जनता ने संस्कृति के उषाकाल में ही प्रार्थना की थी, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’, हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मैं जानना चाहता हूँ कि आप अँधेरे में रहेंगे या प्रकाश के लिए लडेंगे।’

आज के प्रसिद्ध ललित निबन्धकार श्रीराम परिहार इस विधा को भारतीय जीवन मूल्यवत्ता की सार्थक एवं जीवन्त अभिव्यक्ति मानते हैं। ‘यह अपनी सर्जनात्मकता में परम्परा और शाश्वत मूल्यवत्ता की समेट लिए हुए है। व्यापक संदर्भ-शीलता इसकी कुक्षि से जन्म लेती है। ....यह काल की अतीत, वर्तमान और भविष्य की धारणाओं को स्पर्श करने वाली विधा है तो काल की चक्रीय स्थिति की अनादि और अनन्त दार्शनिकता का अनुकरण भी करती है। यह स्थानीय बनकर ही अन्तर्राष्ट्रीय बनने का उपक्रम खोजती है।’ इस प्रकार बीते हुए कल से रस ग्रहण कर आज को ताकतवर बनाकर कल तक पहुँचने की अकुण्ठ साधना से ओत-प्रोत ललित निबन्ध-साहित्य अपनी आत्मा और शिल्प दोनों में सौंदर्य को शिवत्व के साथ धारण किए हुए है। यह सम्पूर्णता और समन्वय की विराट् चेष्टा ही ललित निबन्ध को युग के साथ चलते हुए आने वाले समय की संस्कृति संदर्भित रसधर्मी विधा सिद्ध करती है।

 

६ जुलाई २०१५

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