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41–साहित्य समाचार
एक मुलाक़ात मंटो से
लंदन में रह कर हिन्दी में गंभीर नाटक देखने का अवसर कभी कभार ही मिल पाता है। एक ऐसा ही अवसर हिन्दी प्रेमियों को उपलब्ध करवाया नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा के लोकप्रिय कलाकार अश्वत्थ भट्ट ने जब उन्होंने नॉर्डनफ़ार्म थिएटर में एकल अभिनय से सजा कार्यक्रम प्रस्तुत किया एक मुलाक़ात मंटो से

इस नाटक के केन्द्र में हैं उर्दू के बेहतरीन कथाकार सआदत हसन मंटो जो कि भारत के बंटवारे से बुरी तरह आहत थे। मंटो उर्दू के सार्वाधिक विविदास्पद लेखक भी हैं। आप मंटो के लेखन के या तो दीवाने हो जाएंगे या फिर आप उसके लेखन के कटु आलोचक बन जाएंगे। आप सआदत हसन मंटो के लेखन के प्रति निर्पेक्ष नहीं रह सकते।सलमान रश्दी के अनुसार,"मंटो आधुनिक भारतीय इतिहास का अविवादित महान् कलाकार है"। मंटो अपने जीवन काल में भी विवादों से घिरे रहे।अपनी प्रिय विधा कहानी (उर्दू में अफ़साना) के अतिरिक्त मंटो ने पत्रकारिता, रेडियो नाटक एवं फ़िल्मों के लिए पटकथाओं पर भी हाथ आज़माया। मंटो ने सदा ही परंपराओं से हट कर उन्हें तोड़ते हुए बहुत दिलेरी से खुल कर लिखा फिर चाहे विषय भारत का विभाजन हो या फिर मर्द और औरत के सम्बन्ध। मंटों की बहुत सी कहानियों पर उनके जीवन काल में ही प्रतिबन्ध लगा दिया गया था क्योंकि सता को लगता था कि उनकी कहानियां अभद्र एवं अशिष्ट हैं। कृष्ण चन्दर, इस्मत चुगतई, एवं राजेन्द्र सिंह बेदी के साथ मंटों उर्दू कहानी के चौथे और सबसे मज़बूत स्तम्भ थे। उनका तीखापन और स्पष्टवादिता उन्हें अपने समकालीन लेखकों से अलग करते हैं।

अश्वत्थ भट्ट इसलिए भी बधाई के पात्र हैं क्योंकि नाटक एकल अभिनय से सुसजित है और वे अकेले ही अपने हाव भाव, संवाद एवं अदाकारी के ज़रिए दशर्कों का मनोरंजन लगभग दो घन्टे तक करते चले जाते हैं। इस नाटक में मंटो की जिन रचनाओं का इस्तेमाल किया गया है, वे हैं मंटो ­ मैं अफ़साना क्यों लिखता हूं, कल सवेरे जो मेरी आंख खुली, दीवारों पे लिखना और खोल दो । नाटक में मंटो के चरित्र के बारे में बताया गया है, पाकिस्तान के जन्म पर मंटो की व्यंग्यात्मक टिप्पणियां हैं तो साथ ही कहानी खोल दो की नाटकीय प्रस्तुति भी है।

अश्वत्थ भट्ट का जन्म कश्मीर में हुआ और नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा के अतिरिक्त उनका प्रशिक्षण लंदन की संगीत एवं नाटक अकादमी में भी हुआ है।  अश्वत्थ का नाटक देखने के बाद पता चलता है कि इतनी युवा अवस्था में ही उन्हें इतने ढेर से पुरस्कार कैसे मिले।

नॉर्डनफ़ार्म थिएटर मुंबई के पृथ्वी थियेटर का छोटा रूप है। इसलिए वहां कलाकार एवं दर्शकों के बीच एक करीबी रिश्ता सा बन जाता है। उस समय तो बहुत ही मज़ा आया जब एक महिला ने अश्वत्थ भट से प्रार्थना की कि क्या वे सिगरेट बुझा सकते हैं। वो सिगरेट अश्वत्थ ने नाटक के लिए ही जलाई थी।मैंने अपनेपन से भरपूर वातावरण में यह नाटक अपनी पत्नी एवं दो युवा बेटों के साथ देखा। अश्वत्थ भट की सफ़लता का अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मेरे युवा पुत्रों ने नाटक का भरपूर आनंद उठाया और अश्वत्थ की अदाकारी की जी खोल कर तारीफ़ की। मेरी इस सोच को और भी बल मिला कि यदि हमें प्रवासी भारतीयों की युवा पीढ़ी तक हिन्दी पहुंचानी है तो उसका रास्ता नाटक और हिन्दी फ़िल्मों से हो कर जाता है।

अश्वत्थ की एक्टिंग पर ही पूरा नाटक टिका था और वही नाटक की जान भी है।वे मंटो के चरित्र को संपूर्णता से गहराई तक समझते हैं। यही नहीं वे इस समझ को अपनी अदाकारी में पिरोने में सफल भी हुए हैं।पूरे नाटक में कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि वे पात्र को पूर्ण रूप से जी नहीं रहे हैं। उनका अभिनय इतना सहज है कि कि इस बात का अन्दाज़ नहीं हो पाता कि अश्वत्थ भट्ट ने इस नाटक की तैयारी में कितनी अधिक मेहनत की होगी।

कठिन उर्दू शब्दों का उच्चारण भी अश्वत्थ बहुत आसानी और सहजता से कर लेते हैं। किन्तु यही नाटक की एक कमज़ोरी भी बन जाता है।हालांकि मंटो ने अपनी कहानियां बहुत ही सादी ज़बान में लिखी हैं जो कि आप पाठक को भी समझ में आ जाती हैं। किन्तु इस नाटक के लिए मंटो ने बहुत ही कठिन उर्दू का प्रयोग किया है जिसमें अरबी और फ़ारसी के वज़न से दबे शब्दों की भरमार है। मंटो को अपनी कहानियों की सादी भाषा के लिए बहुत बार आलोचना का सामना करना पड़ा था, सम्भवत: इसीलिए मंटो ने ऐसी भाषा का प्रयोग कर अपने आलोचकों का मुंह बन्द करने की कोशिश की है और उन्हें जताया है कि देख लीजिए मैं हर प्रकार की भाषा का उस्ताद हूं। भाषा मेरी ग़ुलाम है मैं भाषा का नहीं।मंटो उन हिन्दी कवियों की तरह नहीं है जो छंद मुक्त कविता केवल इसलिए लिखते हैं क्योंकि उन्हें छन्द की समझ ही नहीं। किन्तु यदि अश्वत्थ को पश्चिमी देशों के दर्शकों तक पहुंचना है तो उसे नाटक की भाषा की आत्मा को ठेस पहुंचाए बिना उसे सरल बनाना होगा। तभी विदेशों के दर्शक नाटक का पूरा आनंद उठा पाएंगे।

नाटक का सेट, लाइटिंग और संगीत सीधे, सरल और दिल को छूने वाले थे। अश्वत्थ बहुत ही सरलता से सूत्रधार, मंटो और अन्य चरित्रों के बीच अपने आप को जज़्ब कर लेते हैं। मंटो की क्लासिक कहानी खोल दो की नाट्य प्रस्तुति उन्हें किसी भी पुरस्कार का हक़दार बनाने के लिए काफ़ी है। उनकी संवाद अदायगी, चेहरे के हाव भाव, आवाज़ के उतार चढ़ाव सभी प्रत्येक चरित्र के अनुरूप हैं और प्रशंसा के पात्र हैं। मुग़ले आज़म के बाद हिन्दी सिने दर्शकों के लिए सम्राट अकबर के नाम के साथ जो चेहरा जुड़ गया था वो था कलाकार ­ ए ­ आज़म स्वर्गीय पृथ्वी राज कपूर का। यह कहना ग़लत ना होगा कि युनाइटेड किंगडम के नाटक प्रेमियों के लिए भी मंटो और अश्वत्थ भट्ट एक हो गये हैं।

इंग्लैण्ड के अतिरिक्त इस नाटक के शो सफलतापूर्वक फ्राँस, जर्मनी एवं भारत में भी हो चुके हैं।  

—तेजेन्द्र शर्मा

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