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संस्मरण


हवा में वसंत
-निर्मल वर्मा


भोपाल
२६ जनवरी १९८३

इतने दिन बीत गये, अब महीने का अंत आ पहुंचा। फरवरी का महीना भी एक खिलौना ही होता है, एक बार फुदका — और बस, चाभी खत्म! लेकिन इस छोटी सी छलांग में वह कितना सलोना है! इन्हीं दिनों सर्दी की काली कड़कडाहट मद्धिम पड़ जाती है। धूप पर चमकीली तहें जम जाती है। एक पीला पर्दा सा है जिसके परे मैं रवींद्र भवन के पेड़ों के पत्ते झरते देखता हूं । पीली, चमचमाती तितलियों से वे एक झड़ी में गिरते जाते हैं। इन्हीं दिनों गुनगुनी हवा चलती है, थोड़ी सी ठंड को अपने हाशियों पर लिये हुए, लेकिन जिसमें आने वाली गर्मियों का संदेश भी छिपा है, हवा जो प्राग और दिल्ली में ऐसी ही उदास गमगीनी लेकर आती थी, छूटे घर की याद की तरह, दुख या विषाद नहीं, सिर्फ एक हल्का धीमा सा अवसाद, एक खरोंच। फरवरी जो इन सबको अपने साथ लाता है और खुद इतनी जल्दी हाथ से छूट जाता है...

हार्वड
२८ मार्च १९८३

हवा में वसंत की छुअन। पेड़ अब भी नंगे हैं, लेकिन नीले आकाश को काटती उनकी शाखाएं चाकू की धार की तरह इतनी साफ और चमकीली दिखाई देती हैं कि उनकी नग्नता भी किसी रहस्य को अनावृत करती जान पड़ती है, जैसे अपने पीछे किसी हरियाली का भेद, पत्तों का झुरमुट छिपाए है और इसकी टोह पक्षियों को मालूम है— आदमियों से कहीं अधिक — इसलिये वे बड़ी बहादुरी से अपने गोपनीय सुरक्षित स्थानों से निकल कर उल्लसित स्वर में चीखते हुए पेड़ों पर चक्कर लगाते हैं।

सड़क की साफ और चिकनी सतह धूप में नहाती है।फुटपाथ के किनारों पर पुरानी बर्फ के मैले ढूह समेट दिये गये हैं, बीती हुयी सर्दियों के सफेद स्मारक। फिर यह अवसाद क्यों, जिन जाड़ों ने इतना सताया था, उनके लिये इतना घिरा हुआ मोह कैसा?

हार्वड की यही तो 'अर्कीटाइप' स्मृति है— बर्फ से ढकी सड़कें, सफेद रातें, सांय सांय करती हवा। किंतु इन दिनों मैं बीती हुई सर्दियों को नहीं शुरू शिशिर के पतझड़ी दिनों को याद करता हूं, जब हम यहाँ आए थे, हार्वर्ड स्क्वायर में संगीत लहरियाँ गूँजती थीं, हर जगह विद्यार्थियों के झुंड घूमते हुए दिखाई देते थे, अखबारों की स्टाल पर पिक्चर पोस्टकार्ड, कैलेण्डर, हवा में झूमते हुए फैस्टून — यूनिवर्सिटी नगर का उत्सवी आनंद — हमने पूरे सीज़न का चक्र समाप्त कर
लिया और अब विदाई के छोर पर आ खड़े हैं . . . . .

१९९८

वजर्जिनिया वुल्फ की डायरी पढ़ते हुए जो बात एक दम आंखों को छूती है— वह है हर दिन का बदलता मौसम। डायरी के अधिकांश पन्ने मौसम से शुरू होते हैं— हवा, आकाश का रंग, पेड़ों के तेवर। लंदन में चार अप्रैल १९२९ के दिन क्या मौसम रहा होगा, यह हम उनकी डायरी खोल कर पता लगा सकते हैं।

किंतु हम? हम कितनी बार खिड़की से बाहर झांक कर उत्सुकता से देखते हैं—आज का दिन कैसा होगा? यह शायद हमारा दोष नहीं है—गर्मियों के दिन लगभग एक जैसे रहते हैं—धूल से भरा अवसन्न आकाश, दुपहर की लू, शाम का उदास पीलापन... सिर्फ अक्तूबर के बाद के दिनों के चेहरे पर थिरकन आती है। योरोप की जलवायु में हर परिवर्तन एक साफ और तीखे संकेत को लेकर आता है और प्रकृति का स्वभाव कुछ इतना नाज़ुक है कि रोशनी, कम रोशनी, बादल की छांह और पत्तों का रंग वह तुरंत रजिस्टर कर लेता है। बरसों पहले जब मैं प्राग में था, तो पहली बार पतझर में इस बात का अहसास हुआ था कि एक दिन दूसरे दिन से कितना अलग हो सकता है...

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