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                   १ 
                    उजाले की 
					चलती–दौड़ती लकीर 
					गोविंद मिश्रा 
                        
						मॉरीशस 
						फिर आ गया...इत्तफाक अजीब। ऐसे इत्तफाक जब एक नहीं कई हों 
						तो यह मान्यता बनने लगती है कि कोई अदृश्य शक्ति जरूर है 
						जो आपका इधर–उधर के लिए चलना तक तय करती है। यह भी नियति 
						कि इन दिनों जिधर भी जाना होता है तनावों के बीच होता है। 
						एक ज्योतिषी ने कहा कि आपका राजयोग जो है वह तनावों के 
						साथ–साथ है, तनाव नहीं होंगे तो बीमारियाँ होंगी। अगर ऐसा 
						है तो 'उठा लो पानदान अपना'। अपुन तनाव–विहीन स्वस्थ 
						साधारण आदमी भले। बहरहाल मैंने आदत बना ली है...चलते चलो, 
						जो सामने हैं उसे करते हुए। शेष ईश्वर पर छोड़ो...और मैं आ 
						गया। यह सोचता जरूर रहा कि ऐसी मानसिक स्थिति में मॉरीशस? 
						यहाँ तो लोग शादियाँ रचाने, हनीमून मनाने आते हैं...मैं 
						क्या करने आया हूँ। 
						मैं काम 
						पर आया हूँ, काम के बाद जो समय बचेगा उसका उपयोग अपने सृजन की जमीन की तीखी धूप देने, तपाने में करूँगा...ताकि 
						आज नहीं तो कल उसमें कुछ उगे...सशक्त। पहली शाम को अमिताभ 
						पाँडे होटल गए। मॉरीशस की पिछली यात्रा अमिताभ की वजह से 
						ही इतनी बढ़िया रही थी, उसके साथ मॉरीशस को इतना गहरा देख 
						सका था। अमिताभ को प्रकृति ने बहुत ही हल्के–फुल्के हाथों 
						से गढ़ा है...देखने में साधारण इतना फुर्तीला कि हर समय 
						दौड़ता दिखता है और जिसे कहते हैं जीवन से भरपूर। इतने शौक 
						पाल रखे हैं कि जीवन कमबख्त नीरस हो ही नहीं सकता। पहले 
						फोटो और वीडियो का शौक था...जो अब भी है, पर इन दिनों 
						कंप्यूटर, इंटरनेट का नशा है। हर आदमी में इतनी दिलचस्पी 
						है कि दो मिनट में ही उसकी जिंदगी में शिरकत करने लगता 
						है...फिर उस व्यक्ति का बराबर ध्यान रखता है। हर पल, हर 
						जगह प्यार बाँटता है। इसी दिलफेंक स्वभाव के बल पर वह चार 
						साल मॉरीशस में अकेले निकाल ले गया। अमिताभ के आने 
						से मन पर जो विषाद था वह 
						थोड़ा धुला। 
						• • 
						कल रात छोटा सा चाँद समुद्र की परिधि के थोड़ा ऊपर टँगा था। 
						समुद्र पर से किनारे की तरफ रोशनी का एक रास्ता बना हुआ 
						था...ठंडी रोशनी पानी पर झिलमिलाती, हिलती–डुलती पर काफी 
						कुछ सीधा किनारे पर खड़े मुझ तक आती थी। शांत और स्वच्छ 
						समुद्र तट पर मैं उस रोशनी के साथ–साथ चलता रहा। एकाएक 
						तेजी से चाँद नीचे आने लगा, रोशनी मद्धिम पड़ने लगी। समुद्र 
						पर प्रकाश–पथ धूमिल होने लगा, अंधकार की छाया चाँद के 
						टुकड़े को ढँकने लगी। पहले चाँद का हँसिया पतला होता गया, 
						फिर उस पर अंधकार की गोट चढ़ी और थोड़ी ही देर में वहाँ 
						रोशनी का एक छोटा–सा बिन्दु रह गया, शीघ्र ही वह भी 
						तिरोहित और चाँद का कहीं कोई नामोनिशान नहीं। आप उस जगह को 
						ही चिह्नित नहीं कर सकते जहाँ कुछ क्षणों पहले वह था, उससे 
						निकलती रोशनी समुद्र में झूलती, पृथ्वी पर किनारे तक आती 
						थी। जब प्रकृति की शक्तियों के साथ यह होता है तो आदमी का 
						अगर कुछ नहीं बचता तो ताज्जुब क्या। इसे जीवन का ठोस सत्य 
						समझ शांत भाव से लेना चाहिए। 
						 
						इलोसिफ द्वीप यहाँ की सबसे खूबसूरत जगह...दोबारा। गर्मी 
						थी...इसलिए बुझा–बुझा माहौल था, पर्यटक थे पर जैसे वे 
						खानापूरी करने आए हों। गर्मी में युरोप के जाड़े से बचने 
						लोग यहाँ आते हैं, जाड़े में दक्षिण एशिया की गर्मी से बचने 
						लोग यहाँ आते हैं। समय का चुनाव मेरे हाथ में नहीं था, 
						इसलिए जब जैसे आ पहुँचे। गंगा गए गंगादास, जमुना गए 
						जमुनादास। नहाया...करीब–करीब उसी जगह जहाँ पिछली बार नहाया 
						था, मजा नहीं आया। ठीक पहले की तरह तुम नहीं जी सकते, भले 
						ही ठीक उसी जगह गए वक्त के एक–एक उपकरण ज्यों के त्यों 
						क्यों न इकठ्ठे कर दिए जाएँ। कुछ है जो उठ चुका होता है इस 
						बीच। शाम को अमिताभ के घर कंप्यूटर के करिश्मे देखता रहा। 
						अमिताभ की सलाह थी कि मैं भी एक कंप्यूटर रख लूँ – 
						रिटायरमेंट के बाद पूरी दुनिया मेरे डेस्क पर होगी। मुझे 
						बहुत उत्साह फिर भी नहीं आया क्योंकि इस पिटारे में जो 
						जानकारी मिलेगी वह मेरे किस काम की होगी। मुझे चाहिए वो 
						चीजें जो मेरा आत्मिक सहारा बन सकें...श्रेष्ठ साहित्य, 
						शांत संगीत। ये तो किताबों से ही मिलेंगे...फिर यह पिटारा 
						मेरी बचीखुची क्रियाओं से भी मुझे समेट कर एक डैस्क पर 
						बिठाए रखेगा। इस पर आगे बहस शाम को अभिमन्यु अनत के घर पर 
						हुई। अभिमन्यु का ख्याल था कि वीडियो की तरह कंप्यूटर भी 
						एक आधुनिक औजार है। जैसे लोग फिर सिनेमा की तरफ लौट रहे 
						हैं, वैसे ही लोग 
						किताबों की तरफ लौटेंगे। 
						• • 
						१६ दिसम्बर। हम अफसरों की जिन्दगी भी बड़ी मज़ेदार है। सबेरे 
						सजधज कर मीटिंग के लिए निकले, हाई कमिश्नर के दफ्तर में 
						उनसे खूब चर्चा हुई, भरपूर तैयारी हुई। जब असली मीटिंग के 
						लिए बैठे तो वे तैयार नहीं। हर्बर्ट रीड ने कहीं लिखा था 
						कि कुछ लोग जीवन के लिए ऐसे तैयारी करते हैं जैसे किसी 
						लड़ाई पर निकलना हो...और लड़ाई है कि होती नहीं। जिंदगी लड़ाई 
						है क्या। एक बौने स्तर पर हम अक्सर रोज सवेरे तैयार होकर 
						किसी बड़ी चीज के लिए निकलते हैं, और शाम को बिना कुछ किए 
						खाली हाथ लौट आते हैं...घायल सिपाही की तरह भी नहीं, वह तो 
						फिर भी लड़कर लौटता है। 
						 
						आज मन में यह खयाल 
						उठा कि जिन जानलेवा अनुभवों से मैं अपनी इस आखिरी पोस्टिंग 
						से गुजरा हूँ उसे लेकर एक उपन्यास लिखूँगा। एक सर्विस में 
						घुसने पर लिखा था, एक निकलने पर लिखूँगा... अथ और इति। 
						 
						मेरे साथ जो मेरा सहयोगी यहाँ हैं – साहनी, वह कहता है कि 
						हम आयकर अधिकारी अपने को बढ़ा–चढ़ाकर पेश करना नहीं जानते 
						इसीलिए मार खाते हैं। मैंने कहा भैया अब मैं क्या करूँगा 
						प्रोजेक्ट करके खुद को, चंद महीने बचे हैं, रिटायर हो जाना 
						है...तुम्हीं करो और कुछ हासिल कर डालो। वह बोला – मुझसे 
						नहीं होता साब। बस यही तो बात है – आप जैसे बने हैं वैसे 
						ही तो करेंगे – अगर सफलता वाले किसी साँचे में खुद को 
						ढालेंगे तो आप वह नहीं रहेंगे जो दरअसल आप थे, रह सकते थे। 
						इसलिए चतुर और सफल अफसर भी शख्सियत के रूप में 'जीरो' रह 
						जाते हैं, वे कुर्सी हो जाते हैं एक 
						अदद आदमी की जगह जो वे दरअसल 
						थे, रह सकते थे। 
						• • 
						पाँच दिन निकल गए...मॉरीशस डेलीगेशन से बातचीत में। शाम को 
						जब मौका लगता थोड़ा–बहुत साहनी मॉरीशस दिखाता। एक दिन अजीब 
						वाक्या देखा – नई शादी वाला एक युगल समुद्र तट पर फोटो 
						खिंचवा रहा था, वीडियो फिल्म बन रही थी। दो–चार उनके करीबी 
						लोग प्रेम से देख रहे थे। हम वहाँ रुके तो देखने वालों में 
						दो हमारी तरफ बढ़ आए – गोरा व्यक्ति जर्मन और उसकी पत्नी 
						मॉरीशस की। महिला मोटी और खुशमिजाज थी। वही पहले हमारी तरफ 
						मिलने को आई और खुश–खुश नए युगल की शादी के बारे में बताने 
						लगी। शादी करने वाला अंग्रेज था और उसकी पत्नी 
						जापानी...मैं सोचने लगा कैसे एक अंतर्राष्ट्रीय जाति जन्म 
						ले रही है मॉरीशस में। मनुष्य के स्तर पर कोई मतभेद नहीं, 
						देश–जाति को लेकर...वहाँ तो प्रेम ही होता है, लेकिन कैसे 
						जाति और देश के स्तर पर आकर यह द्वेश बन जाता है या बना 
						दिया जाता है। 
						 
						जब तक कोई नई जगह न देखो, लगता ही नहीं कि आप यात्रा पर 
						निकले हैं...तो मैंने काम खत्म होने पर शनिवार–इतवार के 
						लिए पास के द्वीप रौडरिंग्स का प्रोग्राम बना लिया। 
						रौडरिग्स मॉरीशस के अंतर्गत ही आता है, मॉरीशस से समुद्र 
						के ऊपर–ऊपर कोई डेढ़ घंटे की हवाई यात्रा से पहुँचते हैं।. 
						पिछली बार जब आया था तब बहुत सुना था रौडरिग्स की खूबसूरती 
						के बारे में। नहीं जा सका था। इस बार फिर अमिताभ आगे आ गया 
						और उसने चलने के लिए जोर दिया। अक्सर ऐसा लगता है कि हमारे 
						जीवन में जो कुछ भी अच्छा होता है, वह दूसरों के करने से 
						होता है...कम से कम मेरे जीवन में तो ऐसा ही हुआ 
						है...लिखने–पढ़ने में प्रवृत्ति, यायावरी, साधारण लोगों में 
						दिलचस्पी, लोगों के साथ उनके दुःखों में हिस्सेदारी...सब 
						कुछ दूसरों के कारण। 'धीर समीरे' की शुरूआत ब्रजयात्रा से 
						हुई थी जहाँ नंदकिशोर मित्तल, उर्फ नंदू भैया मुझे पकड़कर 
						ले गए थे। यहाँ अमिताभ थे...ऐसे उत्साह से रॉडरिग्स का 
						बयान करते थे कि जाए बिना न रहा जाए। इस द्वीप पर एक फिल्म 
						सी भी उन्होंने बना डाली है। 
						 
						मॉरीशस जैसा पहले था 
						अगर यह देखना हो तो रोडरिग्स जाइए। करीब–करीब वीरान सा एक 
						पहाड़ी टापू। यहाँ की सुंदरता यही है कि यह करीब–करीब 
						पुरातन अवस्था में हैं। रहने वाले कम हैं, वे भी आदिवासी 
						जैसे...भले ही पैंट कमीज पहने हुए हैं। मॉरीशस ज्यादा 
						मैदानी है, बड़ा भी है। रोडरिग्स एक छोटा–सा द्वीप 
						है...समुद्र में से उठा एक छोटा सा पहाड़। ज्वालामुखी का 
						खतरा भी हो सकता है यहाँ, साइक्लोन का तो रहता ही है...पर 
						हाल में मॉरीशस में साइक्लोन आया, रोडरिग्स बच गया। यहाँ 
						पहाड़ के उतार–चढ़ाव में बसी छोटी–छोटी बस्तियाँ हैं। समुद्र 
						जहाँ–जहाँ उथला है वहाँ उसकी बाढ़ रोकने के लिए माँ 
						ग्लीलियर के पेड़ लगाए गए हैं, गुच्छों में फैलते जाते हैं 
						जमीन को पकड़ लेते हैं। समुद्र जैसी ताकतवर चीज को रोकते 
						हैं ये पौधेनुमा झाड़, समुद्र की मार खाते हुए जमीन पर जड़ें 
						जमाते चले जाते हैं और फिर देखो तो समुद्र पीछे खिसका हुआ 
						होता है। 
						प्रकृति 
						की लीला...समुद्र जो लहर–दर–लहर पहाड़ को भी काट देता है, 
						जमीन को काटता चला जाता है। उसे रोकने में कामयाब होते हैं 
						ये नन्हें झाड़...जैसे बरबाद बदमाश पति को संवार ले कोमल 
						नारी का प्रेम। रौडरिग्स में कुछ नहीं हैं। मक्का और प्याज 
						पैदा किया जाता है, सब्जियाँ हैं, बाकी समुद्र और मछलियाँ 
						हैं। भूमध्य रेखा के करीब होने के कारण तेज गर्मी पड़ती है। 
						लोगों का जीवन संघर्ष से भरा है फिर भी वे खुशमिजाज और 
						दयालु हैं...जो उनके मुस्कराते चेहरों पर देखा जा सकता है। 
						हवाई अड्डे से समुद्र के किनारे–किनारे सड़क से जा रहे थे 
						तो एक छोटी बस्ती में देखा एक आदमी दूसरे आदमी की पीठ को 
						सींक की झाडू से झाड़ रहा था जैसे गन्दी दीवार को झाड़ते 
						हैं...क्या प्राकृतिक तरीका है सफाई का, खुजली मिटाने का 
						भी। हम हँसे तो वे भी हँसने लगे...मानो भाइयों में अपने आप 
						पर हँसने का माद्दा भी है। 
						 
						छोटी बस्तियों से 
						गुजरते हुए हम पोर्ट माचुरें पहुँचे जो रोडरिग्स की सबसे 
						बड़ी बस्ती है, थोड़ा आधुनिक भी। इसे क्वीन ऑफ रोडरिग्स कहते 
						हैं। अमिताभ का साथी जो यहाँ बीमा एजेंट है वह हमारा 
						मेजबान था। अमिताभ ने अपनी शैली में बताया कि यह जो आज रईस 
						दिखता है वह गड़रिया था – भेड़ें चराता था यहाँ। अब अपना 
						पक्का मकान बनवा लिया है और कार है। पढ़ा–लिखा नहीं हैं सो 
						फार्म–आर्म भरने का काम बीबी से कराता है जो एक स्कूल में 
						पढ़ाती है। अपने मेजबान की खासियत यह थी कि वह चलता पुर्जा 
						था। चुपचाप सुनता था और मुस्कराता था। उसकी आँखों में 
						चालाकी की एक सभ्य–शालीन हल्की सी पर्त थी जिसके बल पर वह 
						अपने को कुछ का कुछ दिखाने में, अपना उल्लू सीधा करने में 
						कामयाब होता होगा। वह पर्त यह भी जाहिर करती थी कि वह सतत 
						अपनी गोटियाँ बिठाने में लगा रहता होगा। यह शख्स पढ़ा–लिखा 
						नहीं हैं, धार्मिक भी नहीं हैं लेकिन हफ्ते में एक रोज 
						चर्च में जाकर लोगों को भाषण भी देने लगा है। वहाँ वह अपने 
						को लोकप्रिय बना रहा है। उसकी निगाह चुनाव लड़ने पर है। 
						अमिताभ ने बताया कि एक दिन वह रोडरिग्स का एम.पी. बनेगा और 
						यहाँ के लोगों को प्रतिनिधित्व देना है तो मंत्री भी फटाक 
						से बन जाएगा। मज़ेदार ग्राफ है – गड़रिया से रईस होते हुए 
						मंत्री। सचमुच उसकी आँखों की भंगिमा नेता वाली थी।  
						 
						पोर्ट माचुरें 
						पहुँचकर पहले हमने वापसी का टिकट बनवाया। दिसंबर का महीना 
						है और धूप इतनी तेज जैसे मई–जून में हमारे देश में होती 
						है। मैं भूल गया कि यहाँ गर्मी का मौसम है और रोडरिग्स 
						भूमध्य रेखा के करीब है। सिर खुला रखो तो चटकने को हो आए 
						और आँखें चौंध खाती थीं...तो पहले मैंने टोप और चश्मा 
						खरीदा। यात्रा पर निकलो तो पहली जरूरी चीज है कि पोशाक 
						ठीकठाक हो जैसे कि आपने किस तरह के जूते पहन रखे हैं – एक 
						यही चीज कितना बड़ा फर्क ला देती है। चमड़े के जूते पहन कर 
						यात्रा कैसे की जा सकती है? यह चुस्ती मैंने अज्ञेय जी में 
						देखी थी जो एक जबरदस्त यायावर थे...कैमरा लेकर चलते थे जो 
						मैं नहीं कर पाता। 
						 
						अमिताभ ने रहने की 
						व्यवस्था पोर्ट माचुरें में एक छोटे से गेस्ट हाउस में की 
						थी। समुद्र तट पर कौटन बे होटल में भी इंतजाम था, लेकिन 
						वहाँ तो हम सिर्फ फाइव स्टार होटल को जीते, जहाँ की 
						संस्कृति हर जगह एक सी होती है। यह गेस्ट हाऊस 
						पोर्टमाचुरें की बाज़ार से कोई एक फर्लांग दूर एक अधेड़ युगल 
						के घर का बाहरी हिस्सा हैं। वे ही इसे चलाते हैं। पुरुष 
						तन्दुरुस्त, हल्का गोरा रंग, हँसमुख। पोशाक से 
						चुस्त–दुरुस्त एक नौकर रखा है जो नहीं हो तो मालिक ही चाय 
						वगैरह ला देते हैं।. गेस्ट हाउस में वातावरण खूब आत्मीय था 
						जो कौटन बे में कतई नहीं मिलता। मज़ेदार बात यह भी कि 
						आत्मीयता प्रमुखतः इमारत से फूटती थी। दो मंजिला 
						इमारत...ऊपर कमरों के सामने बाल्कनी और खुली छत, नीचे 
						बरामदा और एक छोटा सा लॉन। पीछे मालिक का घर। वास्तु–शिल्प 
						एक जगह के वातावरण को किस हद तक प्रभावित करता 
						है! बेशक यहाँ इमारत की बनावट के अलावा इस परिवार का प्रेम 
						भी था। 
						 
						सामान ठिकाने लगा, गेस्ट हाऊस की आत्मीयता सूँघ, हम द्वीप 
						का जायजा लेने निकल पड़े। सबसे पहले यहाँ की ग्रां बे। 
						मॉरीशस की ग्रां बे कितनी रंग–बिरंगी है जबकि यहाँ सिर्फ 
						खाड़ी थी...समुद्र का पानी तीन पहाडियों के बीच घुसा हुआ, 
						बौनी पहाड़ियाँ, धूप चिलचिलाती और थमा हुआ पानी...कुल 
						मिलाकर वीरानी थी। पेड़ों के नीचे चबूतरे पर बस का इंतजार 
						करते कुछ लोग, बगल में एक छोटी सी दुकान। बस के लिए खड़े 
						स्थानीय लोग थे – रंग काला, आदिवासी जैसे खुरदुरे चेहरे। 
						खुरदुरेपन के नीचे निश्च्छलता उभर आती थी जैसे ही चेहरे का 
						कसाव थोड़ा ढीला पड़ता। औरतों के चेहरों पर 
						ढीलापन ज्यादा देर टिकता था। 
						वे जिंदगी के संघर्ष को ज्यादा सहनशीलता से लेती हैं। 
						 
						ग्रां बे से माउंट लूबें होते हुए लफैनो बस्ती...उसके आगे 
						के एक गाँव में रुके जिसका नाम था पैलीसेड। ऊँचाई पर बसी 
						यह बस्ती इसलिए खास थी कि वहाँ से तीन दिशाओं में समुद्र 
						दिखता था और हर दिशा में समुद्र का अलग रंग – एक तरफ हरा, 
						दूसरी तरफ नीला, तीसरी तरफ भूरा। सड़क पर एक पेड़ के नीचे दो 
						औरतें बैठीं थीं बालों में सात–आठ गिरियाँ जैसी चीज खोंसे 
						हुए। दरअसल वे अपनी अफ्रीकी स्टाइल वाले पैदाइशी चक्रियों 
						वाले बालों को सीधा करने की कोशिश में थी। सड़क के पास 
						गुमटी में एक औरत और उसकी जवान बेटी थी। यहाँ औरतें ज्यादा 
						काम करती दिखती हैं, आदमी लोग दिन में भी दारू में मस्त। 
						यों पीते आदमी औरत दोनों हैं...लेकिन औरतें पियक्कड़ नहीं 
						हैं। गुमटी में बैठी माँ बालों में गिरियाँ बाँधे थी, लड़की 
						नहीं। शायद गिरियाँ बाँध–बाँधकर उसने अपने बाल सीधे कर लिए 
						थे। खूब काले और चमकदार बाल थे उसके...खूबसूरत। मैं मुग्ध 
						देखता रहा, लड़की के चेहरे पर दर्प आ गया। अपने शरीर की 
						किसी भी चीज को सुंदर...पूरे शरीर को ही खूबसूरत रखना 
						ईश्वर की दी हुई चीज की कद्र करना है। जवानी ढलते ही हम 
						शरीर के तरफ से उदासीन हो जाते हैं, शायद इसलिए कि कोई 
						नहीं होता जिसे हममें, हमारे रूप–रंग,पहनावे–ओढ़ावे में 
						दिलचस्पी हो। 
						जवानी 
						में कद्रदां कोई न कोई होता है, नहीं होता है तो होने की 
						उम्मीद होती है। मैं सोचता हूँ कद्रदां नहीं भी हो तो भी 
						हमें अपनी और ईश्वर की खुशी के लिए खूबसूरत दिखना चाहिए। 
						यह भी अपनी तरह की एक पूजा है और खूबसूरत होने की क्या कोई 
						उम्र होती है। अभी कुछ दिनों पहले मैंने नागपुर हवाई अड्डे 
						पर एक ही खूबसूरत आदमी देखा...उसकी उम्र ८० के आसपास रही 
						होगी, बाल सफेद, चश्मा, सुता शरीर, पर शायद ये बाहर की 
						चीजें थीं...जवानी में भ्रम पैदा किया जा सकता है लेकिन 
						उतरती उम्र में भीतर से खूबसूरत हुए बिना आप खूबसूरत नहीं 
						दिख सकते और तब आप इतने खूबसूरत दिखते हैं जितना कि जवानी 
						में कोई नहीं दिखता...जैसा कि ८० वर्षीय वह व्यक्ति दिख 
						रहा था। 
						 
						आगे पोइन्ट कौंतू था जिसमें दिखता था कौटन बे होटल जहाँ हम 
						ठहरने वाले थे और नहीं ठहरे। सामने समुद्र की लम्बी दूधिया 
						लाइन कोरल रीफ से बनती किनारे की तरफ आती लहरों की। यहाँ 
						काफी मात्रा में वाकवा पेड़ थे जिससे यहाँ के 
						लोग टोप, टोकरियाँ आदि बनाते 
						हैं।. वहाँ से हम वापस हो लिए। 
						 
						शाम अमिताभ के दोस्त अपने मेजबान को लेने उसके घर पहुँचे। 
						पहाड़ी पर अच्छा घर बनाया है, बगल में पत्नी की बहन का घर 
						बन रहा है। वह हमें मारागों ले गया। यह ऐतिहासिक जगह है, 
						इस मायने मेंरोडरिग्स का पहला बाशिन्दा मारागों इसी जगह पर 
						उतरा था। यों तो रोडरिग्स में पहाडियाँ कई हैं पर ज्यादातर 
						पेड़ों से शून्य हैं। मारागों में एक जगह इतने पेड़ थे कि 
						अँधेरा था। पेड़ों के उस छोटे से जंगल को पार कर जब हम 
						पहाड़ी के छोर पर आए तो वहाँ दो कब्रें थीं मारागों और उसका 
						साथी। मारागों १८२६ में ७६ साल की उम्र में दिवंगत हुए। इस 
						इलाके में अब एक ही घर है। वहाँ के बच्चे हमें देखकर हम तक 
						आए। यहाँ अब पेड़ों की छँटाई करके पर्यटकों के लिए कोई 
						दर्शनीय स्थल बनाया जा रहा है, मारागों की कब्र को भुनाया 
						जाएगा। कुछ सालों बाद शायद यह जगह पर्यटकों के शोरगुल से 
						इतना भर जाएगी कि पहचान में भी न आए। लौटने में पेड़ों के 
						उस घने झुरमुट को पार कर हम पहाड़ के दूसरे कोने से नीचे 
						समुद्र की तरफ मुखातिब हुए...सीधा नीचे पोर्टमाचुरें का 
						पोर्ट था। मारागों ने द्वीप में रहने के लिए यह जगह इसलिए 
						चुनी होगी, क्योंकि यहाँ से आनेवाले जहाजों, नावों पर 
						निगरानी रखी जा सकती थी। 
						 
						शाम उतरने लगी थी। 
						पोर्ट साउथ ईस्ट में पहुँचते–पहुँचते अँधेरा हो आया, 
						बूँदाबाँदी भी थी। यहाँ एक छोटी सी दुकान थी, दुकान में सब 
						कुछ मिलता था, सूखी मछली से लेकर कापी – किताब तक। 
						दुकानदार चीनी थे, दुकान के ही एक हिस्से में रहते 
						हैं...पिता–पुत्र की दो पीढ़ियाँ, उनके परिवार। चीनी लोगों 
						की कहीं भी जा बसने की हिम्मत और कला हमारे यहाँ सिर्फ 
						पंजाबियों और गुजरातियों में हैं। कुछ यह भी ही कि व्यापार 
						और पैसे कमाने का लालच इतना जबर्दस्त होता है कि आदमी को 
						कहीं से कहीं चले जाने, जा बसने की हिम्मत देता है। उस 
						दुकान के सामने समुद्र तट था...कटा–छँटा, मछुआरों की नावें 
						ढिली थीं...बारिश से भरे अँधेरे में सब घिचपिच दिख रहा था। 
						सामने नन्हा सा हर्मिटेज द्वीप भी जहाँ कोई नहीं रहता पर 
						जिसका आकार खूबसूरत है...वह जिस अंदाज से समुद्र में पसरा 
						हुआ है। थोड़ी ही दूर पर रैड बीचेस होटल है, कौटन बे की 
						बराबरी का दूसरा होटल (दो ही बड़े होटल है यहाँ)। एक चक्कर 
						लगाकर हम होटल का परिसर देख आए। ऐसी जगह रुककर पर्यटक 
						समुद्र और जन–विहीन वातावरण का ही सुख भोगते होंगे, शायद 
						उसी के लिए भी 
						रौडरिग्स आते हैं। पोर्ट मान्चुरे में रहकर हम थोड़ा बहुत 
						यहाँ के आदमियों के सम्पर्क का सुख भी ले रहे थे। 
						 
						लौटने में कारों के दो काफिले मिले। हमारे यहाँ जैसे 
						मंत्रियों की नगर यात्रा में काफिला भांय–भांय गुजरता 
						है...सिर्फ सायरन नहीं था। अमिताभ के दोस्त ने बताया जब 
						इतनी कारें हों तो समझो किसी की शादी है। उच्च वर्ग के लोग 
						शादी के लिए एक जगह इकठ्ठे होते हैं...खाते हैं, शराब पीते 
						हैं, नाचते हैं। 
						• •  
						 
						दूसरे दिन बड़े सुबह हम सब्जी बाजार देखने गए। यह यहाँ की 
						दिलचस्प चीज है। आसपास की बस्तियों से गाँव वाले सामान 
						लेकर आते हैं। हमारे देश में दीव में बिल्कुल इसी तरह एक 
						जगह सब्जी बाजार के लिए बनी हुई है। यहाँ यों रौनक ज्यादा 
						दिखती है कि इस द्वीप में लोग कम हैं और अगर वे एक जगह इस 
						तरह इकठ्ठे हो गए तो मेला सा लगा दिखता है। रंगीन दिखता है 
						सब्जी बाजार...न केवल तरह–तरह की सब्जियों से, बल्कि रंगीन 
						और नई पोशाकों से जिन्हें पहनकर गाँववाले आते हैं। 
						सौदेबाज़ी जमकर होती है। सब्जी बाजार के बाहर मैदान में 
						टोकरियाँ टोप और यहाँ की दूसरी कुटीर धंधे की चीजें लगी 
						हुई थी। सब्जियों में अपने यहाँ जैसी ही थीं – लौकी, 
						कद्दू, बैंगन, टमाटर आदि। लोग कहते हैं, बाज़ार साढ़े चार 
						बजे सवेरे से ही लग जाता है, सात के बाद जो पहुँचे तब तक 
						माल खत्म। यह शायद इसलिए कि यहाँ उगता कम है और खपत ज्यादा 
						है। मैं भड़ाभड़ सब्जियाँ लेने लगा कि गेस्ट हाउस में यह 
						बनवाकर खाएँगे, वह बनवाएँगे। अमिताभ ने याद दिलाया कि हम 
						कल सुबह वापस जाने वाले हैं। क्या किया जाए...मुझे सब्जी 
						बाजार ही में तो खरीदारी भाती है। 
						 
						नौ बजे कोको आइलैंड के लिए निकलना था। उसके पहले गेस्ट 
						हाउस के पास के समुद्र तट पर घूमते हुए मॉरीशस से आई एक 
						महिला मिल गई...वह, उसका छोटा बेटा और एक अधेड़ा जिसे उसने 
						बच्चे की दादी बताया। महिला हिंदी बोल लेती थीं। माँ  
						को प्रणाम किया तो उसके मुँह से बिलकुल हिंदुस्तानी अंदाज 
						में 'खुश रहो बेटा' निकला। महिला के हिंदी बोलने वाला 
						अंदाज मॉरीशस वाला था, जब कि माँ  की टोन बिलकुल 
						भारतीय। चलते समय महिला ने अपना बच्चा नहीं उठाया, अधेड़ 
						महिला से उठावाया...लगा कहीं नौकरानी न हो। छुट्टी मनाने 
						दो दिनों के लिए आई हैं, पति नहीं आया...यह कैसी छुट्टी 
						हुई। महिला के चेहरे पर तनावों की छाया थी...कौन जाने खटपट 
						हो, मॉरीशस भी तो तरक्की के रास्ते पर है। 
						 
						मोटर बोट से कोको द्वीप की तरफ...कोको द्वीप इसलिए कि 
						नारियल के पेड़ बहुत हैं वहाँ, या कभी होते थे। दो द्वीप 
						बराबरी से हैं इलयो कोको और इलयो साबेल्स। पोर्ट माचुरें 
						पीछे छूटा तो समुद्र में तैरते पेड़ों के दो झुरमुट नज़र आए। 
						जो पेड़ यहाँ किनारों पर समुद्र की बढ़त को रोकने के लिए 
						थोड़ा दूर–दूर लगाते हैं...वसे ही वहाँ समुद्र के बीचों–बीच 
						लगे दिखते थे। चारों ओर गोलाकार सफेद रेखा...द्वीपों की 
						रेत रेखा। रास्ते में पानी कहीं उथला, कहीं गहरा था इसलिए 
						नाव वालोंमें एक आगे देखता चलता था। हवा के कारण मेरा केन 
						का टोप दो बार उड़ कर समुद्र में गिरा उसे पकड़कर लाना पड़ा। 
						हम खूब हँसते। तैरता हुआ टोप खासा हास्यास्पद दिखता था, पर 
						मुझे बात थोड़ी गंभीर भी लगी – हमारे अहं उतने ही हल्के 
						होते हैं जितना कि यह टोप और वे ब्रह्माण्ड के हिचकोलों 
						में वैसे ही उतरते हैं जैसे कि यह टोप। 
						थोड़ा और 
						आगे चलकर एकाएक प्रकट हुआ एक अद्भुत दृश्य जिसे बयान करना 
						मुश्किल पड़ रहा है। समुद्र के बीचों–बींच बनती–टूटती लहरों 
						की एक लम्बी लकीर...सफेद, नीली जो धनुषाकार फैली दोनों 
						द्वीपों को जोड़ती थी। उधर कोरल रीफ होगी...जिसके पार लहरें 
						उठती थीं...फिर वे एक उजली, खूब सफेद, खूब लम्बी लकीर में 
						सिमटती और आगे की ओर दौड़तीं। सफेद लकीरें एक पर एक आती 
						हुई, बीच–बीच झिलिर–झिलिर कुलमुलाता, इधर–उधर कलथता नीला 
						पानी। ऐसा लगता था जैसे कई हवाई जहाज एक साथ लैंड कर रहे 
						हों। मोटरबोट थोड़ा और आगे बढ़ी तो सफेद लकीरें दो द्वीपों 
						तक सीमित न होकर...आसमान के बाएँ छोर से शुरू होकर आसमान 
						के दाएँ छोर तक फैली दिखाई दीं...जैसे लम्बे सफेद 
						इन्द्रधनुष समुद्र में तैर रहे हों। लहरों का बनना, आगे 
						बढ़ना, तिरोहित हो जाना तो आम दृश्य है...पर इतने विशाल 
						कैन्वस पर लहरों का एक लम्बी उजली लकीर में 
						सिमटना...क्षितिज के इस कोने से उस कोने तक...और फिर आगे 
						दौड़ना...यह दृश्य मैंने कभी नहीं देखा था। सागर में हर जगह 
						दिखता भी नहीं। लहरें बनती हैं किनारे से थोड़ा दूर, किनारे 
						की तरफ आती हैं...और बस...और वे अलग–थलग बनती टूटती हैं। 
						यहाँ कोरल रीफ की वजह से समुद्र के बीचों–बीच उठ रही थीं 
						और आर–पार खिंची एक लम्बी सफेद लकीर में सिमटती थी, फिर 
						उजाले की वह लकीर थोड़ी दूर तक बाकायदे चलती हुई...। 
						 
						मेरी आँखें उस दृश्य से हटती ही नहीं थीं। कोको द्वीप 
						पहंचते ही मुझे समुद्र के भीतर कोरल रीफ दिखाई दिए। मैं 
						किनारे के पहले ही पानी में उतर पड़ा, कोरल रीफ के टुकड़े को 
						उखाड़ने, उसे देखने के उत्साह में...और पूरा भीग गया। हाथ 
						में था काई से लिपटा एक ढेला...मिट्टी और पत्थर के बीच का, 
						चूने जैसी किसी चीज का। अरे...उस छोटे से ढेले में तो एक 
						पूरी की पूरी दुनिया थी...कई घर जैसे बने थे, जिसमें 
						कुलमुला रहे थे कितनी तरह के कीडे.। एक मोटा केंचुआ–सा आधा 
						अपने घर में, आधा बाहर रेंग रहा था...थोड़ा अचंभित कि 
						समुद्र के बाहर कैसे आ गया। कौन जाने मछलियों की तरह 
						इन्हें भी बाहर साँस लेने में तकलीफ हो रही हो। मैं जल्दी 
						ही उस ढेले को उसकी पुरानी जगह जमा आया। ये ही ढेले जुड़कर 
						एक लम्बी दीवार बन जाते हैं, किनारे के पहले का किनारा। 
						मॉरीशस के चारों ओर कोरल रीफ की यह दीवार है जो समुद्र के 
						वेग को पहले झेलती है, इससे टूटकर ही लहरें किनारे को आती 
						हैं। तभी मॉरीशस में समुद्र इतना शांत है और उसके समुद्र 
						तट नहाने के लिए सुरक्षित है। रौडरिग्स में भी कोरल रीफ 
						चारों ओर न सही अधिकतर जगहों पर है। 
						 
						छोटा सा है कोको द्वीप, मात्र तीन वर्ग मील में फैला। वहाँ 
						सिर्फ एक ही घर था...गार्ड का। किनारे पर झाडों के नीचे 
						बैठने के लिए एकाध बेंच और कुछ नहीं...बाकी पक्षी और 
						पक्षी। जैसे द्वीप ही पक्षियों का हो, और आदमी का प्रवेश 
						वर्जित हो। द्वीप का दो तिहाई हिस्सा बर्ड संक्चुअरी है। 
						एक पेड़ वहाँ बहुतायत में था। गार्ड ने बताया उसका नाम है 
						बरमाटिलो। सबसे ज्यादा जो चिड़ियाँ हैं, सफेद–सफेद, उन्हें 
						लैविर्ज कहते हैं। बरमाटिलो पेड़ों पर लैविर्ज के घोंसले ही 
						घोंसले थे। हमें देखकर चिड़ियों में कुछ घबराहट, कुछ 
						चौकन्नापन आ गया। वे अपने–अपने घोंसलों में चौकीदारी करने 
						पहुँच गई थीं। संक्चुअरी की सीमा तक हम उन दरख्तों और उन 
						पर लदे पक्षियों की चहचहाट के बीच चले। आगे जाना मना 
						था...चलो अच्छा है कि इस सीमा के आगे तो हम पक्षियों की 
						शान्ति में खलल न पहुँचा सकेंगे। बाईं तरफ चलकर रौडरिग्स 
						की ओर वाले समुद्र तट पर पहुँचे...सामने जो रोडरिग्स का 
						हिस्सा है वह बहुत दूर नहीं है, पानी भी भाटे के समय उथला 
						नहीं होता है। मछुआरे पैदल चले जाते होंगे। वहाँ से वापस 
						जहाँ हम उतरे थे।  
						 
						नहाने के बीच में लहरों की लकीर के मनमोही दृश्य में खोया 
						रहा। एक नाव सफेद लकीर के इधर लकीर की बराबरी पर चल रही 
						थी। पीछे आसमान के छोर से इस छोर तक फैली लहरों की लकीर, 
						आगे छोटी–सी नाव, दूधिया लकीर के साये में। क्या वह हमारी 
						नाव थी? हमारे नाव वाले हमें छोड़कर मछली मारने गहरे समुद्र 
						की ओर चले गए थे...एक पंथ दो काज। वह नाव हमारी तरफ को 
						मुड़ी और इधर आने लगी। कोको द्वीप के पास समुद्र उथला 
						है...क्योंकि कोरल रीफ से टूटी हुई लहरें ही इधर आती 
						हैं...इसलिए नावों को गहरा पानी ढूँढकर रास्ता निकालना 
						पड़ता है। नाव वाला किनारे आया लापरवाही से लंगर कहीं भी 
						फेंक दिया और गार्ड वाले घर की तरफ चला गया। नाव थोड़ी देर 
						चक्कर खाती रही, लगा कि लहरें कहीं उसे बहा न ले जाएँ पर 
						लहरों के बहाव ने ही नीचे रेत खोद कर अंततः लंगर को एक जगह 
						फिट कर दिया। नाव बँध गई। जो आपको बहाने की कोशिश करते 
						हैं, अक्सर उन्हीं के उपक्रम से आप अपनी जमीन पकड़ लेते 
						हैं। थोड़ी देर में हमारे नाव वाले भी आ गए। वे चार बड़ी 
						मछलियाँ मार लाए थे। किनारे पर पहुँच उन्होंने मछली को 
						चीरा...दाँत, जबड़े, नीचे का हिस्सा निकाल कर समुद्र में 
						फेंक दिया। खून की धार और माँस के वे हिस्से पल भर को ही 
						समुद्र में दिखे और गुम हो गए...कितनी जल्दी जप्त कर लेता 
						है समुद्र। एक मछली के पेट में पूरी साबुत मछली थी। नाव 
						वाले ने इस मछली को फेंक दिया...क्यों नहीं खाते पेट की 
						मछली को भी? 
						 
						अपराह्न हम वापस हो लिए। रौडरिग्स आए थे, एक द्वीप के 
						पुरानेपन, उसकी अन–आधुनिकता जीने को। रौडरिग्स के भी पीछे 
						की चीज थी यह कोको द्वीप एकदम आदिम अवस्था में...मानुषीय 
						आवास से अकलुषित। यहाँ रात को रहने नहीं देते वर्ना वह एक 
						अनुभव होता। दिन के लिए भी पास बनवाना पड़ता है। लौटने में 
						जब तक दिखाई दिया वही दृश्य देखता रहा – लहरों की लकीर, 
						परिधि के एक छोर से दूसरे छोर तक खिंची, स्थिर नहीं 
						गतिशील, उजाले की चलती–दौड़ती लकीर। 
						 
						गेस्ट हाउस पहुँचकर लस्त–पस्त पड़ गए। साहनी और अमिताभ तो 
						घोड़ा बेंच नींद सो गए। मैं थोड़ा कलथ–अलथ कर उठ बैठा, पोर्ट 
						माचुरें के बाज़ार को चल पड़ा, धूप में ही टोपी लगाकर। एक 
						सस्ते टैवर्न में घुस गया – सस्ती मेजें और कुर्सियों पर 
						गन्दे दातों वाले काले लोग शराब पी रहे थे। सिगरेटों का 
						धुआँ और चेंचें...बाहर जो निर्दोष और साधारण आदमी दिखते 
						थे, उस माहौल में वे घिनौने लग रहे थे। मैंने कल यहाँ 
						दुकान पर एक काली खूबसूरत औरत देखी थी...चमकते बाल, चमकता 
						चेहरा और सुन्दर भरा–भरा शरीर। मैंने सोचा उसे एक बार फिर 
						देखकर टैवर्न के खराब स्वाद को धो सकूँगा। उसी दुकान पर 
						पहुँचा पर वह वहाँ नहीं थी। वहाँ से टहलता हुआ उस जगह 
						पहुँचा जहाँ मछली वाली मोटर बोट्स आकर लगती है, बड़ी 
						मछलियाँ उतारती और बेचती हैं। 
						 
						समुद्र से सटा हुआ एक बड़ा छायादार बरामदा–सा, जहाँ पड़ी 
						बेंचों का इस्तेमाल लोग आकर यो ही पड़े रहने, ऊँघने के लिए 
						करते हैं। कहने को कह सकते हैं कि मछलियों का इंतजार कर 
						रहे हैं (मछलियाँ पकड़ते हुए भी तो लोग ऊँघ जाते हैं)। कुछ 
						है तो इंतजार करने की। 
						 
						रात को गेस्ट हाउस में खाने पर अमिताभ के मित्र–वर्तमान 
						में बीमा एजेन्ट और पादरी और भविष्य में मंत्री जी 
						आमंत्रित थे। वे अपने परिवार के साथ अपनी बहन के भी परिवार 
						को लेते आए। बातचीत में चलते–चलते मुझे बड़ा आदमी बता डाला 
						गया तो मैं भारी संकोच में पड़ा। मैंने प्रतिवाद किया – 
						'मैं बड़ा कतई नहीं हूँ क्योंकि मैंने कोई चीज छोड़ी 
						नहीं...जो जितनी प्रिय और कीमती चीज़ छोड़ता है वह उसी 
						अनुपात से बड़ा आदमी बनता है। आदमी बड़ा पाने से नहीं छोड़ने 
						से बनता है...' बात मुझे स्वयं को लेकर कौंधी थी लेकिन वह 
						चस्पा हो गई अमिताभ के मित्र पर जो एकाएक गम्भीर हो गया 
						था। वह तो इस प्रतीति में था कि वह तेज़ी से बड़ा आदमी बनता 
						जा रहा है। बात भले यों ही निकली हो बात–बात में... पर वह 
						सही थी मुझे लगा। 
						 
						अगले रोज बड़ी सुबह निकल लिया तो अमिताभ भी तैयार मिल गए। 
						हम दोनों गेस्ट हाऊस के बगल में एक पहाड़ी पर चढ़ गए और ऊँचे 
						टीले से सामने शांत उथले समुद्र और नीचे फैले पोर्ट माँ 
						चुरें को देखा – छोटी–सी साधारण बस्ती, अपनी प्राकृतिक 
						अवस्था में शांत समुद्र पर सिर टिकाए ऊँघ रही थी। थोड़ी देर 
						में ही शुरू हो जाएगी मेरी वापसी की यात्रा – मॉरीशस और 
						वहाँ से दिल्ली के लिए। रोडरिग्स न आता तो खाली हाथ लौटना 
						था। फिर ऐसी ही एक जगह ने इतना दिया जहाँ यों कुछ नहीं 
						हैं। कभी पचमढ़ी के बारे में भी यही महसूस किया था, बाद में 
						पचमढ़ी नगरी कैसी आत्मीय हो गई। मॉरीशस का रहने वाला होता 
						तो बेशक रौडरिग्स आत्मीय हो जाती। कहूँ कि हो गई। इतनी बड़ी 
						जिन्दगी के दो ही दिन यहाँ गुजारे...लेकिन ता–जिन्दगी याद 
						रहेंगे...कोको द्वीप और आर–पार खिंची लहरों की लकीर, आगे 
						सरकती, झिलमिलाती, एक के मिटने के बाद दूसरी बनती, तनती और 
						आगे बढ़ती हुई। 
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