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संस्मरण

तूफ़ान हूँ मैं आज़ाद रहूँगा
बंगला के क्रांतिकारी कवि : नजरूल इसलाम- आशीष सान्याल


बंगला साहित्य जगत के महाकवि काजी नजरूल इसलाम किसी परिचय के मोहताज नहीं। स्वतंत्रता आंदोलन में उन्होंने अग्रणी भूमिका निभाई, अपनी कविताओं, गीतों तथा संगीत के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन को नई दिशा दी और युवा पीढ़ी को प्रोत्साहित भी किया। उनकी कविताओं में जोश, उत्साह और क्रांति की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी, इसलिए उन्हें बंगला के क्रांतिकारी कवि के रूप में जाना जाता है। प्रस्तुत है काजी नजरूल के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालता यह लेख :

बंगाल साहित्य और संस्कृति की पावन भूमि रही है। यहाँ न केवल नोबेल पुरस्कार प्राप्त महाकवि रवींद्रनाथ टैगोर - जैसे मनीषियों ने अपने काव्य की पताका पूरे विश्व में फहराई, बल्कि उन हज़ारों-हज़ार कवियों, साहित्यकारों में काजी नजरूल इसलाम ने भी अपनी कविता से बंगला साहित्य एवं संस्कृति को नया आयाम दिया। काजी नजरूल इसलाम को इसीलिए क्रांतिकारी बंगला कवि के रूप में अधिक जाना जाता है। नजरूल रवींद्रनाथ टैगोर काल के कवियों में प्रमुख थे जिनकी प्रसिद्धि बाद के चरण में फैली। काजी नजरूल इसलाम केवल कवि भर नहीं थे। वह महान संगीतकार भी थे। ऐसा बहुत कम होता है जब एक व्यक्ति कवि भी हो और साथ-साथ वह संगीतकार भी हो। दोनों विधाएँ लगभग अलग-अलग क्षेत्र से जुड़ी हैं और दोनों का अलग-अलग अंदाज़ है। कवि प्रकृति और आसपास की घटनाओं से तृषित और पीड़ित होकर मन के उफनते गुबार को अपने अंदर से बाहर निकालता है, जबकि संगीतकार उस गुबार को नाच-गाने और मनोरंजन के रूप में प्रस्तुत कर लोगों को प्रेरित करने की कोशिश करता है।

टैगोर और नजरूल
रवींद्रनाथ टैगोर और काजी नजरूल इसलाम को इसीलिए इस श्रेणी का कवि माना जाता रहा है कि वे संगीतकार भी थे। उनका मानना था कि वे प्रकृति और अनुभूतियों से भरे जनता के कवि हैं और इस बात पर वे अपने पूरे साहित्यिक जीवन में हमेशा विश्वास करते रहे कि कला आम जनता के लिए होती है। इसी तरह उनका कहना था कि कवि-कविता एवं संगीतज्ञ-संगीत को भी आम जनता के लिए होना चाहिए।

नजरूल की प्राथमिक शिक्षा मदरसे में हुई। उन्होंने मौलवी काजी फजले अहमद से अरबी तथा फ़ारसी की शिक्षा ग्रहण की। दस वर्ष की उम्र में ही उन्होंने प्राथमिक परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। बीच में कुछ दिन वे स्कूल से कट गए, लेकिन माथ्रुन हाई स्कूल में उन्हें फिर पढ़ाई करने का अवसर मिल गया। विख्यात कवि कुमुद रंजन इस हाई स्कूल के प्रधानाध्यापक थे। १९१७ में उन्होंने खुद पढ़ाई छोड़ दी और 'डबल कंपनी' नामक रेजीमेंट में शामिल हो गए। उन्हें तत्काल उत्तर-पश्चिम सीमा के नौशेरा क्षेत्र भेज दिया गया। उसके बाद उन्हें तथा उनकी रेजीमेंट को कराची रवाना कर दिया गया।

नजरूल का कार्यक्षेत्र कलकत्ता
प्रथम विश्व युद्ध के समाप्त होने के बाद १९२० में इस बंगाल रेजीमेंट को भंग कर दिया गया। इसके पहले वह कलकत्ता और चुरूलिया का भी भ्रमण कर चुके थे। चुरूलिया उनका गृहनगर था। उनकी रेजीमेंट जब भंग हो गई तो वह वापस कलकत्ता आ गए और उन्हें कलकत्ता के ३२ कॉलेज स्ट्रीट स्थित उस मकान की प्रथम मंज़िल में मुजफ्फर अहमद के साथ ठहराया गया जहाँ 'मुसलमान साहित्य समिति' तथा 'मुसलिम भारत' का कार्यालय था। नजरूल का प्रथम उपन्यास था 'बंधन हारा'। 'मुसलिम भारत' के कार्यालय में ही उन्होंने अपनी साहित्य रचना शुरू की और 'मुसलिम भारत' के प्रथम अंक से ही उनका उपन्यास धारावाहिक के रूप में छपने लगा। इसी वर्ष पंजाब में जलियांवाला बाग हत्याकांड हुआ जिसने समूचे भारतवर्ष की जनता को हिलाकर रख दिया। इस हत्याकांड के विरोध में रवींद्रनाथ टैगोर ने अपनी उपाधि वापस कर दी। १९२२ में उत्तर प्रदेश के चौरी-चौरा गाँव में हिंसक आंदोलन हुआ। इसी तरह नमक सत्याग्रह और नागरिक अवज्ञा आंदोलन भी १९३० में शुरू हुए। इन राष्ट्रीय आंदोलन से देश की जनता में तथा देश के रचनाकारों में अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ विद्रोह की ज्वालाएँ धधकने लगीं।

नजरूल इसलाम में भी इस राष्ट्रीय आंदोलन का व्यापक असर पड़ा। वे भी पूरी तरह से भारत के स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में कूद पड़े और अपनी सारी रचनाएँ देश की आज़ादी की अलख़ जगाने के लिए समर्पित कर दीं। देशबंधु चित्तरंजन दास द्वारा चलाए जा रहे एक बंगाली साप्ताहिक 'बंगलार कथा' में उन्होंने उस समय का अमर क्रांतिकारी गीत लिखा। उनकी इस कविता ने देश की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे क्रांतिकारियों में नया जोश भर दिया।

नजरूल की इस कविता की क्रांतिकारी भावनाओं का पता चंद पंक्तियों से ही लग जाता है जिसमें उन्होंने लिखा :
जेल के इस लोहे के द्वार को तोड़ दो
उसके टुकड़े-टुकड़े कर दो
पत्थरों को रक्तरंजित कर दो
स्वतंत्रता की देवी की पूजा के लिए उठो

इस कविता को राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन को उकसानेवाली गिनी-चुनी सर्वप्रथम कविताओं में सर्वोपरि माना जाता है जिसने क्रांतिकारियों और देश की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे युवकों में जनचेतना का संचार किया। नजरूल की कविताओं की पहली पुस्तक 'अग्निवीणा' के नाम से १९२२ में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक ने उन्हें रातों-रात क्रांतिकारियों का प्रेरना स्रोत बना दिया। 'अग्निवीणा' की कविताओं ने देशभर में इस तरह की क्रांतिकारी भावनाएँ फैलाईं कि उन्हें क्रांतिकारी कवि के रूप में जाना जाने लगा।

उनके इस काव्य संग्रह की सबसे प्रसिद्ध कविता है - 'विद्रोही'। इस कविता ने पूरे बंगाली समाज में क्रांति की भावनाएँ भर दीं। अपनी इस कविता में नजरूल ने लिखा :
मैं भूकंप हूँ
मैं तूफ़ान हूँ
मेरे रास्ते में जो भी आएगा
उसे मैं नष्ट कर दूँगा
मैं वही करूँगा जो मेरी इच्छा होगी
मैं किसी कानून अथवा नियम का पालन नहीं करूँगा
मैं प्रलय हूँ
मैं आग हूँ
मैं इजरायल में जन्मा व्यक्ति हूँ
मैं विष्णु को धक्का देनेवाला भृगु हूँ

शोषित समाज की आवाज़ उठाई
उनकी क्रांतिकारी और आग उगलनेवाली रचनाएँ बंगला साहित्य में देश प्रेम की भावनाएँ जगानेवाली साबित हुई। उनकी कविताओं में विद्रोह और क्रांति का तूफ़ान होता था। तत्कालीन समाज पर हो रहे अत्याचार, अन्याय और अमानुषिक घटनाओं की झलक उनकी कविताओं में सर्वत्र मिलती है। उनकी कविताएँ शोषित और उपेक्षित समाज में आशा की किरण जगानेवाली थीं। उन्होंने अत्यंत उग्रता से समाज में समानता के आदर्श की वकालत की। इसकी झलक उनकी एक कविता 'साम्या' में मिलती हैं, जिसमें उन्होंने घोषणा की :
मैं समानता का गीत गाता हूँ
जिसमें सभी बंधनों और असमानताओं
को ख़त्म कर दो
जिसमें हिंदुत्व, बुद्धत्व, इसलाम और
ईसाइयत में सबका विश्वास हो

सांप्रदायिक सौहार्द के पक्षधर
नजरूल ने अपनी कविताओं में सांप्रदायिक सद्भाव कायम रखने पर विशेष ज़ोर दिया है। उनका मानना था कि भारत की स्वतंत्रता का संघर्ष तभी सफल हो सकता है जब परस्पर सांप्रदायिक सौहार्द की भावना हो। वह अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो' की नीति से बेहद चिंतित थे। उनका स्पष्ट मानना था कि हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों समुदायों के बीच वैमनस्यता पैदा करने में ब्रिटिश हुकूमत ही ज़िम्मेदार है।

अप्रैल १९२६ में उन्होंने एक गीत तैयार किया, उसका संगीत भी खुद तैयार किया और अविभाजित बंगाल के कृष्णानगर में कांग्रेस के हुए अधिवेशन में खुद गाया भी। उस गीत में उन्होंने देश की सांप्रदायिक समस्या पर अपने स्पष्ट विचार व्यक्त किए। उन्होंने उस गीत में लिखा :

असहाय राष्ट्र डूब और मर सकता है
क्योंकि उसे नहीं पता कि तैरा कैसे जाता है
नाविक, यह समय है जब तुम्हें संघर्ष करना है
और अपने सपनों एवं प्रण को पूरा करना है
'हिंदू अथवा मुसलमान' यह सवाल कौन पूछता है
नाविक, उन्हें बताओ, ये वे लोग हैं
जो डूब रहे हैं
हमारी अपनी भारतमाता के बच्चे

हम ताकत हैं : हम शक्ति हैं
इसके अतिरिक्त छात्र सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में नजरूल द्वारा खुद गाए एक गीत सहित दो अन्य गीतों ने भी क्रांतिकारियों में नया जोश भरने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। छात्र सम्मेलन में गाए उनके गीत ने छात्रों में क्रांति की लहर पैदा कर दी। उस गीत में उन्होंने छात्रों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने छात्रों से कहा :
'हम ताकत हैं
हम शक्ति हैं
हम छात्र हैं'

भाईचारा बढ़ानेवाले कवि
देशभक्ति की भावनाओं से तो उनकी कविताएँ भरी ही थीं, साथ ही उनकी कविताओं में सार्वभौमिकता और परस्पर भाईचारे की भावनाएँ भी कूट-कूटकर भरी हुई थीं। 'उदार सकाल मनाबे' शीर्षक से लिखी अपनी कविता में उन्होंने कहा-
उदार भारत
सभी प्रकार के व्यक्ति तुम्हारी गोद में शरण लेते हैं
पारसी, जैन, बुद्ध, हिंदू
ईसाई, सिख, और मुसलमान
तुम एक सागर हो और तुम्हारी विशालता में
समाहित हैं
सभी धर्म और सभी लोग

जनता के कवि थे नजरूल
नजरूल इसलाम एक ऐसे सच्चे कवि थे जो भारत की गुलामी के साथ समाज में व्याप्त शोषण और असमानता को हटाने के पक्षधर थे। वह चाहते थे कि भारत आज़ाद हो, साथ ही वह समाज में फैली बुराइयों और शोषण को ख़तम करने के लिए भी आवाज़ उठाते रहे। साम्यवाद की विचारधारा उनके दिल को छू गई थी, किंतु किसी राजनीतिक दल के पीछे चलना उन्हें मंजूर नहीं था। वह नहीं चाहते थे कि किसी राजनीतिक दल का उन पर ठप्पा लगे। वह जनता की भावनाओं और उनके दिलों को विशेष रूप से छूना चाहते थे जिसमें वह सफल रहे।

महान आधुनिक बंगला कवि
बंगला साहित्य जगत में वह उदय से लेकर आख़िर तक छाए रहे। बंगला साहित्य को उन्होंने हर दृष्टिकोण से समृद्ध बनाया। १९४५ में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने बंगला साहित्य में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए तत्कालीन सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित किया था। स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने उन्हें 'पदम भूषण' तथा बंगलादेश सरकार ने उन्हें 'महाकवि' के रूप में सम्मानित किया। अगस्त १९७६ में उनके निधन से बंगला साहित्य को अपूर्णनीय क्षति हुई। नजरूल महान आधुनिक बंगला कवि थे जो अपने साहित्यिक करिश्मे से दशकों तक आम जनता को जोड़ने में सफल रहे।

२४ जनवरी २००५

 
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