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                     पुण्य का काम
 —डॉ राम प्रकाश सक्सेना
 
 बातें बचपन की 
						हैं, अर्धशताब्दी पूर्व की, जब भारत गाँव में रहता था। 
						भारतीय गाँव उस समय उत्सव मनाने को बेचैन रहता था। गाँव 
						में हर त्यौहार उत्सव ही तो होता था। उस समय और वर्ष भर 
						त्यौहार ही त्यौहार। अगर महीने में कोई त्यौहार 
						नहीं आया, तो सामूहिक गंगा स्नान का उत्सव मना लिया जाता 
						था। गाँव से थोड़ी ही दूर पर गंगा थी। कभी पैदल, कभी 
						बैलगाड़ी पर, कभी दो–चार लोग, कभी बीस–पच्चीस लोग गंगा 
						स्नान को चले जाते थे। घंटों नहाना, डुबकी लगाना। 'हर हर 
						गंगे' या 'गंगा मइया की जय' का उद्घोष करते जाना बड़ा ही 
						आनंददायक लगता था। बालक–मन में विश्वास था कि गंगा मैया 
						में स्नान करने से सभी पाप धुल जाते हैं।
 बचपन में सिखाया जाता था– झूठ बोलना पाप है, चोरी करना 
						पाप है। पाप से डर लगता था। फिर भी पाप हो जाते थे। किसी 
						के बगीचे से चोरी–छुपे कभी अमरूद तोड़ लाए, तो कभी आम। 
						चोरी तो कर ही ली, फिर पकड़े गए, तो झूठ बोलने का भी पाप 
						करना पड़ता था। इन झूठ और चोरियों में मेरी हम उम्र बहिन 
						मेरा साथ देती थी। इसलिए हम दोनों जब गंगा स्नान को जाते, 
						तो पुराने पापों को याद कर डुबकी लगाते जाते और सोच लेते 
						कि पाप धुल गए। जब घर वापस आते, तो पाप का बोझ हमारे सिर 
						पर नहीं होता। पर कुछ ही दिनों में नये पाप हमारे ऊपर चढ़ते 
						जाते।
 
 भावनाओें और कल्पनाओं में जीने का नाम ही तो बचपन है। 
						मेरी माँ को अखंड विश्वास था– अगर मन से गंगा मइया से माफ़ी 
						मांग लो, तो सच्ची में पाप धुल जाते हैं। हमें अपनी माँ पर 
						विश्वास था।
 
 किशोर हुए, युवा हुए। भावनाओं का स्थान तर्क ने ले लिया। 
						कहीं गंगा नहाने से पाप धुलते हैं? यह तो नये पाप करने का 
						लाइसेंस लगने लगा। धीरे–धीरे गंगा नहाना उत्सव न रहा, आनंद 
						भी न रहा। पर्यावरण वादी पैदा हो गए, जिन्होंने हमें 
						समझाया कि गंगा का पानी अशुद्ध हो गया है। हज़ारों गंदे 
						नाले उस में बहाए जाते हैं। लोग मुर्दे या मरे जानवर गंगा 
						में बहा देते हैं। गंगा जल का वैज्ञानिक परीक्षण भी हुआ। 
						गंगाजल में कीटाणु पाए गए। मैंने मरते समय अपने पिता को 
						गंगाजल पिलाया था। अब यह सोचते ही उबकाई आने लगती कि मेरी मौत के समय कहीं कोई मेरे मुँह में गंगा जल न डाल दे।
 
 नौकरी इतनी दूर मिली, जहाँ से गंगा सैकड़ों मील दूर है। 
						गंगा स्नान छूट ही गया। जब कभी विश्वविद्यालय के निमंत्रण 
						पर वाराणसी जाना पड़ता, तो मेरे अपने बच्चे ही मुझे याद 
						दिला देते, "पापा, गंगा में मत नहाना, गंगा का पानी अशुद्ध 
						हो गया है। वैज्ञानिक तर्क ने भावनाओं पर विजय पा ली थी। 
						गंगा तट तक जाता पर, स्नान न करता। अच्छा हुआ माँ नहीं है। 
						वरना उसको कितना दुख होता कि मैं गंगा के तट से गंगा में 
						बिना डुबकी लगाए लौट आया। उनके हिसाब से मैं बहुत बड़ा पाप 
						कर रहा हूँ।
 
 पिछले वर्ष मॉरिशस जाने का अवसर मिला। कहने को तो विदेश 
						है, फिर भी सांस्कृतिक दृष्टि से वह 'मिनी भारत' है। वहाँ 
						के हिंदुओं को गंगा स्नान का वही महत्व है, जो वर्षों पहले 
						मेरे लिए भी था। मॉरिशस में मुझे भारतीय मूल के परिवार में 
						रहने का अवसर मिला। वह संयुक्त परिवार था, जिस में एक छत 
						के नीचे चार पीढ़ियाँ रहती थीं। घर के मुखिया राम दुलारे 
						थे, जो एक बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर के मालिक थे। उनकी पत्नी 
						कमला गृहिणी थीं। पुत्र ज्ञानप्रकाश एक स्कूल में अध्यापक 
						था। ज्ञानप्रकाश की पत्नी शुभा एक कार्यालय में सेक्रेटरी 
						थी। उनके पाँच वर्षीय रोहन नाम का एक पुत्र था। राम दुलारे 
						की एक अस्सी वर्षीय माँ भी थी। माँ बीमार रहती थी और सुबह 
						शाम भगवान से एक ही प्रार्थना करती थी – हे भगवान, जल्दी 
						बुला ले अपने पास। राम दुलारे के दो पुत्रियाँ भी थीं, जो 
						विवाह के बाद अपनी ससुराल में मज़े से दिन गुज़ार रही थीं।
 
 मैं राम दुलारे का अतिथि था। उनके लिए अतिथि भगवान का रूप 
						था। इतना आदर–सत्कार तो मैंने भारत में भी नहीं भोगा। 
						सुबह–शाम वे मुझे अपने हाथों से भोजन कराते। दोपहर से शाम 
						तक उनका ड्रायवर मुझे कार से मॉरिशस की सैर कराता। मॉरिशस 
						है ही कितना–सा, एक सप्ताह में पूरा मॉरिशस देख लिया। फिर 
						दोपहर माँ और भाभी (राम दुलारे की पत्नी) के साथ 
						गुज़रने लगी। प्रश्नों की बौछार रहती। भारत कैसा देश है? 
						क्या आपके घर में गाय है? आप गो माता की पूजा कैसे करते 
						हैं। गंगा आपके घर से कितनी दूर है। आपने गंगा में कितनी 
						बार स्नान किया है?
 
 एक दिन प्रातः राम दुलारे अपने पौत्र रोहन को गायत्री 
						मंत्र याद करा रहे थे। मैंने अनायास ही उनका उच्चारण ठीक 
						कर दिया। इससे वे इतने प्रभावित हो गए कि वे मुझे अपना कुल 
						गुरू मानने लगे। मैंने उन्हे लाख समझाया– मैं आपकी परिभाषा 
						में धार्मिक व्यक्ति नहीं हूँ! बचपन में मेरे पिता ने मुझे 
						गायत्री मंत्र रटवाया था। वह अबतक याद है, बस!
 
 इस घटना का माँ जी पर बहुत प्रभाव पड़ा। उनकी एक ही रट थी – 
						"मैं गंगा स्नान किए बिना ही मर जाऊँगी।" मैंने राम दुलारे 
						से कहा, "भाई साहब, आप माँ जी को भारत ले जाकर गंगा स्नान 
						क्यों नहीं करा देते।"
 यह सुनकर राम दुलारे बहुत उदास हो गए। उन्होंने बताया, 
						"पहले उनके पिता या उनकी आर्थिक दशा इतनी अच्छी नहीं थी कि 
						वे अपनी माँ को भारत ले जा सकें। अब धन की कोई कमी नहीं 
						है। पर डॉक्टरों का कहना है कि माँ इतनी बड़ी यात्रा इस 
						उम्र में नहीं कर सकतीं।"
 
 माँ जब भी मुझसे बात करतीं, गंगा स्नान उस में एक विषय 
						अवश्य होता। एक दिन मैंने मज़ाक–मज़ाक में कह दिया, "माँ जी, 
						हम लोग जब छोटे थे और गंगा स्नान के लिए बैलगाड़ी में बैठकर 
						जाते थे, तो गाँव के कई पुरुष या स्त्रियाँ माँ से कहतीं, 
						'हम गंगा मइया के स्नान के लिए नहीं जा सकते। तुम्हीं 
						हमारी तरफ़ से गंगा में डुबकी लगा लेना।' मुझे अभी तक याद 
						है कि माँ गंगा स्नान करते समय उन सब लोगों के नाम की 
						डुबकियाँ लगाती थीं। माँ जी, आप नहीं जा सकतीं तो क्या 
						हुआ, आप के नाम की कोई डुबकी लगा आएगा।"
 
 मेरा इतना कहना मात्र था कि माँ जी के चेहरे पर खुशी की 
						लहर दौड़ गई। पहली बार उनको इतना प्रसन्न देखा। उन्होंने 
						मुझे आशीर्वाद देने की झड़ी लगा दी––जुग जुग जिओ।
 
 दूसरे दिन मैंने भारत लौटने की तैयारी शुरू कर दी। राम 
						दुलारे तथा उन के परिवार के हर सदस्य ने मुझ से प्रार्थना 
						की कि मैं उनका कुछ दिनों और अतिथि रहूँ। पर मुझे अपने घर 
						की भी याद आ रही थी। कई बार पत्नी व बच्चों का फ़ोन आ चुका 
						था। जाने के पूर्व माँ जी ने याचना भरे स्वर में कहा, 
						"बेटा, मेरे ऊपर एक उपकार कर सकेगा।"
 
 मैं ने माँ की और ध्यान से देखा। याचक का लाचार चेहरा था, 
						बिना दाँत तथा अनगिनत झुर्रियों का चेहरा, जो मेरी अपनी 
						माँ की अनायास याद दिला गया। मेरी माँ ने भी मरने से पूर्व 
						याचना की थी, "बेटा, मुझे मालूम है कि तू इन बातों को नहीं 
						मानता। मगर मेरे ऊपर एक उपकार अवश्य करना मेरी अस्थियों 
						को गंगा मे बहा देना।"
 
 मैंने कहा ,"माँ जी, आप मुझ से बड़ी हैं। आपके घर का मैंने 
						इतने दिनों नमक खाया हैं। मैं तो यहाँ रहकर भूल ही गया था 
						कि मेरा कोई अपना घर भी है। आप आदेश दीजिए।"
 "बेटा, मैं तो बूढ़ी हो गई। मेरा क्या भरोसा, आज गई, कल गई। 
						तू भारत जाकर मेरे नाम से तीन डुबकियाँ लगा लेना।"
 मैंने मज़ाक में कहा, "माँ, तीन क्यों, मैं तो आपके नाम की 
						ग्यारह डुबकियाँ लगा लूँगा।"
 इतने में राम दुलारे बोल उठे, "माँ जी, यह तो खुद गंगा में 
						नहीं नहाते, आपके लिए क्या डुबकी लगाएँगे।"
 मैं चुप रहा, क्योंकि रामदुलारे ठीक कह रहे थे।
 
 माँ जी ने फिर कहा, "बेटा, मुझे क्या पता कि तू किस को 
						मानता है या किसको नहीं। मुझे तो तुझ में विश्वास है। मेरे 
						लिए तो तू ही भगवान है। बस मेरे लिए इतना उपकार ज़रूर करना 
						कि मेरे नाम की गंगा में तीन डुबकियाँ लगा लेना और मुझे 
						फ़ोन पर बता देना। मैं चैन से मर सकूँगी।"
 
 कमला भाभी मेरी दुविधा को समझ रही थीं। उन्होंने इतना जोड़ 
						दिया, "माँ जी, आप चिंता न करें। यह भाई साहब आपकी इच्छा 
						ज़रूर पूरी कर देंगे। मुझे पूरा विश्वास है।"
 मैं चुप रहा। शायद सब ने मेरे मौन के अपने–अपने अर्थ लगाए 
						होंगे।
 थोड़ी देर बाद माँ जी ने अपने गले से सोने की चेन उतारी और 
						मुझे देते हुए कहा, "बेटा, यह रख ले, जो भी खर्चा लगे, वह 
						मेरी तरफ़ से।"
 मुझे बड़ा अजीब लगा। कुछ लज्जित भी हुआ। रामदुलारे ने कहा, 
						"माताजी, आप चेन रखिए, हम इन्हें अलग से खर्चा दे देंगे।"
 मैंने कहा, "मुझे पैसों की आवश्यकता नहीं है। मै यह काम 
						स्वयं कर दूँगा। वैसे भी आपके घर मुझे इतना आदर–सत्कार 
						मिला, वह भी क्या कम है।
 
 माँ जी ने सबके तर्कों को काट दिया, "तुम दोनों ही मेरे 
						बच्चे हो। पुण्य का काम तो अपने पैसे से ही किया जाता है। 
						यह चेन मुझे रामदुलारे के पिता ने अपनी पहली कमाई में भेंट 
						स्वरूप दी थी। यह मेरी ही है। मै चाहती हूँ कि गंगा स्नान 
						का पुण्य इसी धन से हो।"
 मैंने कहा, "माँ जी, यह चेन तो बहुत पैसों की है। मेरे लिए 
						गंगा स्नान में इतने पैसे थोड़े ही लगेंगे।"
 माँ ने कहा, "रख लो, बेटा, जो भी बचे उनको मेरी ओर से दान 
						कर देना।"
 रामदुलारे ने भी माँ जी के तर्क के सामने अपने घुटने टेक 
						दिए। मुझे भी उनकी बात मान लेनी पड़ी।
 
 मैं भारत आ गया। एक सप्ताह में नार्मल हो गया। मैंने 
						पत्नी को यह सब कुछ बताया। पत्नी ने कहा, "आप को माँ जी की 
						इच्छा पूरी करनी चाहिए।"
 मैं सपत्नीक इलाहाबाद गया। त्रिवेणी में माँ जी के नाम 
						ग्यारह डुबकियाँ लगाईं। हर बार मन से यही कह रहा था– मेरा 
						तो गंगा स्नान में कोई विश्वास नहीं। पर यह काम मैं माँ जी 
						की ओर से कर रहा हूँ। इस का सब पुण्य, यदि कुछ होता हो, तो 
						माँ जी तक पहुँचे।
 केवल अपने किराए के पैसे छोड़कर जो कुछ भी रुपए बचे, वे दान 
						कर दिए।
 
 रात को ही होटल से ही राम दुलारे को फ़ोन लगाया। पता चला 
						माता जी की तबियत काफ़ी ख़राब है। पर वे मेरे बारे में जानने 
						के लिये बहुत उत्सुक हैं। उन्होंने माँ जी को फ़ोन पकड़ा दिया। 
						मैं खूब रुक–रुक कर ज़ोर–ज़ोर से बोल रहा था, "माँ जी, मैं 
						राम प्रकाश प्रयाग से बोल रहा हूँ।"
 "बेटा, तुम ने गंगा में डुबकी लगाई?" उधर से आवाज़ आई।
 "हाँ, माँ जी, मैंने त्रिवेणी में आप के नाम की ग्यारह 
						डुबकियाँ लगार्इं।"
 "बेटा, जुग–जुग जिओ। तुम्हारा कल्याण हो।"
 इसके बाद राम दुलारे से बातचीत होती रही। उन्होंने भी मुझे 
						माँ की इच्छा पूरी करने के लिए बार–बार धन्यवाद दिया। 
						उन्होंने कहा, "कल सुबह बात करेंगे। अभी माँ को अस्पताल ले 
						जा रहे हैं।"
 
 मै देर रात तक अपनी पत्नी को मॉरिशस के संस्मरण सुनाता 
						रहा। माँ जी की चिंता मुझे भी बेचैन कर रही थी। मैंने होटल 
						से ही प्रातः फिर फ़ोन लगाया। राम दुलारे ने बताया हम लोग 
						माँ जी को अस्पताल नहीं ले जा सके। उन्होंने घर पर ही दम 
						तोड़ दिया। मरते समय वे शांत थीं। बार–बार राम–राम कह रही 
						थीं। यह भी बार–बार की रही थीं– मैंने गंगा नहा ली। भगवान 
						उसका भला करे, जिसने मेरी इच्छा पूरी की।"
 
 हम लोग घर लौट आए। माँ जी के मरने का मुझे उतना ही दुख 
						हुआ जितना अपनी माँ के मरने पर हुआ था।
 पत्नी ने कहा, "चलो माँ जी ने तुम को गंगा स्नान करा दिया। 
						पुण्य के भागी तो तुम भी हो गए।"
 मैंने दृढता पूर्वक कहा, "मुझे अभी भी विश्वास है कि गंगा 
						स्नान से कोई पुण्य नहीं होता। मैं पुण्य का भागी बनना भी 
						नहीं चाहता। पर मुझसे एक बड़ा पुण्य अनायास ही हो गया।"
 "वह क्या?" पत्नी ने आश्चर्यचकित होकर पूछा।
 मैंने माँ जी की ओर से गंगा में डुबकी लगाकर माँ जी की 
						इच्छा पूरी की।
 पत्नी भी गंभीर हो गईं, "तुम ठीक कहते हो। तुमने अपने 
						सिद्धांतो की परवाह न कर माँ जी की इच्छा पूरी की। इससे 
						बड़ा पुण्य क्या हो सकता है?"
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