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परिचर्चा

होली तो हम हर साल मनाते हैं और अलग अलग तरह के अनुभवों से दो-चार होते हैं। पर कैसी होती है नामचीन लेखकों की होली? अभिव्यक्ति के लेखकों के होली-संस्मरण लेकर उपस्थित हैं मधुलता अरोरा और लेखक हैं-

 


लंदन में पहली होली –                               तेजेंद्र शर्मा

जब एअर इंडिया में नौकरी करता था तो दुनिया के तमाम देशों में घूमता फिरता था। आम तौर पर त्यौहार के अवसर पर मुंबई या दिल्ली में रहता, तो अपने परिवार के साथ ही मनाने का मौका मिल जाता था।

लेकिन जब ''११ दिसंबर १९९८''  को लंदन में बसने के लिए आ गया, तो अपना परिवार साथ होने के बावजूद मन में एक शंका थी कि लंदन में अपने त्यौहार कैसे मनाए जाते होंगे। दीपावली के बारे में तो सुन रखा था, और बैसाखी के बारे में भी। सुना था कि दीपावली नीसडन के मंदिर में बहुत ख़ूबसूरती से मनाई जाती है और अन्नकूट तो बहुत ही भव्य होता है। ठीक उसी तरह बैसाखी पंजाबियों के इलाक़े साउथहॉल में धूमधड़ाके से मन जाती है। लेकिन लंदन की ठंड में भला होली कैसे मनाते होंगे? बस यही एक ख़याल मन को परेशान कर रहा था।

एक दिन अपनी पत्नी नैना से पूछ बैठा तो वो बस मुस्कुरा दी। उस समय मैं कुछ समझ नहीं पाया कि उनकी मुस्कुराहट का राज़ क्या है। लेकिन होली और दुलहंडी ने तो आना ही था चाहे मेरी पत्नी मुस्कुराती या नहीं। और वो आ पहुँची। भारत के कुछ मित्रों के ई-मेल पहुँचे और कुछ एक टेलिफ़ोन। उन दिनों लंदन से भारत फ़ोन करना बहुत महँगा पड़ता था - क़रीब एक पाउंड बीस पेंस प्रति मिनट। और मैं अभी अपनी पहली नौकरी की तलाश में था।

नैना लंदन की एक महिला संस्था बिज़ी-बीज लेडीज़ क्लब की सचिव हैं। भारत में जब कभी कोई प्राकृतिक आपदा आई है, उनकी संस्था ने धन इकट्ठा करके कभी प्रधानमंत्री कोश तो कभी मुख्यमंत्री कोश के लिए भिजवाया है। नैना मुझे घर से यह कह कर ले गईं कि किसी के घर एंगेजमेंट पार्टी है। मैं, नैना, और हमारे तीनों बच्चे – दीप्ति, मयंक एवं ऋत्विक हमारे साथ थे। नैना ने बताया था कि पार्टी किसी कैंपिंग पार्क में है जो कि मिल-हिल और एजवेयर के बॉर्डर पर है। मैं बहुत हैरान था कि पार्टी एंगेजमेंट की है लेकिन रखी गई है कैंपिंग पार्क में। फिर सोचा, सान्नू की फ़र्क पैंदा है. . .!

जब हम वहाँ पहुँचे तो बिज़ी-बीज लेडीज़ क्लब की सदस्याओं ने माथे पर तिलक लगा कर हमारा स्वागत किया। मैं बहुत हैरान महसूस कर रहा था। इनके क्लब की बाईस महिलाओं के परिवार के सभी सदस्य वहाँ मौजूद थे। यानि की बाईस पत्नियाँ, उनके बाईस पति और दो बच्चों की औसत से चौवालीस बच्चे। लंदन के एक पार्क में अट्ठासी लोग मिल कर एक दूसरे को रंगों से सराबोर कर रहे थे। देखकर बहुत तसल्ली हो रही थी कि हमारी आगामी पीढ़ी अपनी संस्कृति और त्यौहारों से कितनी शिद्दत से जुड़ रही थी।

कार्यक्रम की शुरुआत अंताक्षरी से हुई। देख कर बहुत अच्छा लग रहा था कि सभी लोग मुहम्मद रफ़ी, मुकेश, लता, आशा और किशोर कुमार के पुराने गीत सुना रहे थे। बीच-बीच में हँसी मज़ाक और छेड़छाड़ भी चल रही थी। क्यों कि अधिकतर सदस्य गुजराती- भाषी थे इसलिए आपस में गुजराती में बात कर रहे थे। मेरे लिए इतनी सारी गुजराती इकट्ठी सुनने का शायद पहला मौका था। लेकिन मेरी सुविधा के लिए सभी मुझ से हिंदी में बात कर रहे थे।

गुलाल और गीले रंग अपनी छटा बिखेर रहे थे, और फिर दोपहर के भोजन के लिए पनीर टिक्का, चिकन टिक्का, सब्ज़ियाँ, दाल, भटूरे और सॉफ़्ट ड्रिंक थे। सारा कार्यक्रम क़रीब तीन चार घंटे चलता रहा। थोड़ी देर में ज़ी टीवी के ध्रुव गढ़वी अपना कैमरा और माईक लिए वहाँ पहुँच गए और लगे बिज़ी बीज़ की रंगीन होली को अपने कैमरे में कैद करने। उन्होंने मुझसे भी लंदन की होली के बारे में कुछ सवाल कर डाले। मेरी पत्नी ने मुझे इतनी ख़ूबसूरत होली में शामिल करवा कर मुझे ख़ासा भावुक बना दिया था। हमारे बच्चे भी मुंबई की ग़ुब्बारों वाली होली के मुक़ाबले लंदन की गुलाल वाली होली का आनंद उठाते दिखाई दे रहे थे।

होली पर आमतौर से कहा जाता है कि हो ली सो हो ली, अब खेलो होली। लेकिन लंदन की अपनी पहली होली में मैं न तो अपने पुराने कृत्यों की किसी से माफ़ी माँगने गया था और न ही किसी की ग़लतियाँ माफ़ करने। मैं उस वर्ष जब होली के हुड़दंग में शामिल होने गया था उस समय लंदन में मैं बहुत कम लोगों को जानता था, किंतु उस होली के दिन मैं बहुत अमीर बन कर वापस आया क्यों कि नैना के माध्यम से मैं अचानक बाईस परिवारों का दोस्त बन गया था।

 

रंग बिखरे पड़ते है                               -पुष्पा भारती

होली का नाम सुनते ही यादों के घोर धुर बचपन के दिनों से जा जुड़ते हैं। '७-८ साल' की रही होऊँगी यानि 'सन १९५२-५३' के समय मेरे माता-पिता लखनऊ में रहते थे। वहाँ की गंगा-जमुना की तहज़ीब के बीच पल रहे थे हम। पड़ोस में एक मुस्लिम परिवार रहता था। खाँ साहब हमारे ताऊजी थे और उनकी बेगम हमारी ताई। ईद पर उनके घर में सुबह-सुबह सेंवइयाँ लातीं और शाम को सजधज कर अपनी ईदी वसूलने जाते हम। होली के दिन सबसे पहली पिचकारी खाँ ताऊ को भिगोती। असमत और इस्तम आपा हमारे घर में भागतीं और हम उनके गालों पर गुलाल मले बिना उनका पीछा न छोड़ते। शाम को जब हम होली मिलने जाते तो वे सब हमारी लाई गुझियों-पपड़ियों को खूब स्वाद ले-लेकर खाते। बड़ी-ताई कपड़े की गुड़िया बहुत अच्छी बनाती थीं। हर होली पर एक गुड़िया हमें ज़रूर मिलती फिर हम अपनी गुल्लक तोड़ते और पैसे लेकर बाज़ार भागते। गुड़िया के लिए तरह-तरह के ज़ेवर लाते। लहंगा-ओढ़ानी और चुन्नी पहनाते हाय! कैसे सुहाने थे वे दिन।

मेरे पिताजी मुहल्ले भर के बच्चों को शाम को मुफ़्त पढ़ाया करते थे। तो तमाम कृतहा माता-पिता व मोहल्ले के तमाम लोग हमारे दालन में जमा होते। पिताजी सिर से पाँव तक गुलाल में डूब जाते।

ये लीजिए, एक और याद इस समय अपना सिर उचका रही है। वह ये कि घर में मैं और मेरा छोटा भाई (अब प्रख्यात विश्व ब्रह्मचारी) ही सबसे चंचल और शरारती थे। हमें ये ज़िम्मा दिया जाता था कि होली के '३-५ दिन' पहले से मोहल्ले भर का चक्कर लगाकर गाय का गोबर इकठ्ठा करके लाओ। गोबर इकठ्ठा करके हम तीनों बहनें उसके बहुत छोटे-छोटे उपले जैसे बनाकर उनमें बीच में ऊँगली में छेद करके सूखने रख देते थे। अपने पाँचों भाइयों का नाम ले-लेकर उनके लिए उस गोबर से ढाल और तलवार की शक्ल के उपले बनते थे और उन सबके बीच में छेद करके सूखने को रख देते थे। सूखने पर उन छेदों में सुल्ली पिरोकर मालाएँ बनाई जाती थी। फिर रंग-गुलाल खेलेनेवाली होली की पहली रात में आकार देखकर पहले सबसे बड़ी माला उसके ऊपर उससे छोटी फिर उससे छोटी लगाते-लगाते पिरामिड की शक्ल जैसी होली तैयार की जाती थी। रात को शुभ मुहुर्त में पिताजी और अम्मा उसे जलाते। हम सब बच्चे उस अग्नि में गन्ना और हरे चने के होरहे के गुच्छे भूनते। और होली की प्रदक्षिणा करते। बड़ा इंतज़ार रहता कि पिछले हफ्ते भर में पकवान बना-बनाकर अम्मा कलसों में छिपाकर रख रही थीं उसमें से आज प्रसादस्वरूप कुछ खाने को मिलेगा।

तब घर-घर में होली जला करती थी, पकवान बनते थे रंग की होली खेली जाती थी और शाम को घर-घर जाकर होली मिली जाती थी। सालभर की दुश्मनियाँ होली में जला दी जाती थीं। मन के मैल रंग से धो दिए जाते थे और खुले-खुले धुले-धुले मन से जीवन में फिर प्रेम-प्यार का वातावरण बना लिया जाता था। अब न वे परंपराएँ रहीं न वह मेल मुहब्बत। न त्योहारों के सही अर्थ और स्वरूप।

पर धर्मवीर भारती जी थे, ज़माने की दौड़ में सबसे आगे दौड़नेवालों में शुमार होते हुए भी अपनी संस्कृति, अपनी तहज़ीब और परंपराओं के हमेशा कायम रहे थे। '१९६०' में जब यहाँ मुंबई आए तो देखा कहीं पर आज तक छोटे बच्चे आपस में पानी के गुब्बारे मारकर एक-दूसरे को भिगो रहे होते और पीछे-पीछे भागकर मुँह पर गुलाल मल देते। ईं-ईं, ऊं-ऊं और हो-हो की हीं-हीं आवाज़ें और बस हो गई होली। तमामो-तमाम लोग झकाझक सफेद और कड़क इस्त्री किए कपड़े पहले एकदम पाक-साफ़ कपड़े पहनकर आते जाते रहते। मजाल है कि रंग का एक छींटा भी कहीं से पड़ जाए। यह सब देखकर भारती जी जब उदास हुए तो पता चला कि अरे! यहाँ तो सारे भइया लोग (जी हाँ, बंबई में उत्तर भारतीयों को भइया लोग ही कहा जाता हैं) जुहू के समुद्र तट पर इकठ्ठे होकर होली खेलते हैं। वहाँ जाकर देखिए होली की धूम। सो अगले बरस वहाँ जाकर भी देखा। रंग गुलाल की नज़ाकत कम और भांग यहाँ तक कि शराब के नशे से सराबोर हुड़दंग भरी बंबईया होली। मायूस होकर घर वापस आकर निश्चय किया कि अपनी परंपराओं और त्योहारों से कटकर तो नहीं ही जिएँगे। अब एक साल नई शुरुआत करेंगे यहाँ। सो अगले बरस पूरी तैयारी से लखनऊ-इलाहाबाद से टेसू के फूल मँगाए गए और रातभर गरम पानी में भिगोकर उनका महकदार रंग बनाया गया। हरा, नीला, पीला, लाल थाल भर-भर इकठ्ठा किया। खार के बनारसी हलवाई जी मोतीलाल मिश्र से कहकर होली के ख़ास पकवान बनाए गए। मिश्र जी स्वयं भी कवि हैं तो भारती जी के इस प्रस्ताव पूरी हौंस के साथ तैयारी में लग गए। बंबई में खुली जगह भला कहाँ नसीब। मगर सौभाग्य से तब हम नितामहल नामकी एक बड़ी बिल्डिंग के टेरेस फ्लैट में रहते थे, सो सारे दोस्तों के साथ खुली छत पर जी भरकर होली खेली।

पुराने दिन बहुरे, हर बरस मित्रों की संख्या में इज़ाफ़ा होता गया। बड़े चर्चे होने लगे थे इन होलियों के। बोरीवली और कुलाबा जैसी दूर-दूर जगहों से मित्र हमारे घर होली खेलो आते। और फिर जब कमलेश्वर जी भी मुंबई आ गए थे तो उनके घर के बाथरुम में बाथ टब में जब देवर लोग एक-एक करके हम भाभियों को डुबोते और भतीजे-भतीजियाँ मामाओं की दुर्गति होते देखकर सहमे से हो जाते तो गायत्री जी चाकलेटों की घूस देकर उनकी मासूम हँसी वापस दिलातीं।

होली की बहार जीवन में वापस आ गई थी कि '१९७०' में हम बांद्रा में रहने आ गए थे। बड़ी खूबसूरत हरियाली से चारों ओर से घिरी साहित्य-सहवास नामक यह कॉलॉनी हर तरह से भारती जी के मन को भा गई। पर यहाँ का भी वही हाल कि दीवाली पर तो खूब बम-पटाखे फूटते। सब घरों की बाल्कनियाँ झिलमिल रोशनी से जगमग रहती और होली पर वहीं साँय-साँय सूमसाम। तो हमने अपने बच्चों के दोस्तों को होली की अहमियत समझाई और एक टोली तैयार की जिसमें गणेश-चतुर्थी की परंपरानुसार अपनी कॉलॉनी के घर-घर जाकर वर्गणी इकठ्ठा की प्रसिद्ध मराठी कवयित्री शांता शेळके की देख-रेख में प्रभुणे जी को साथ लेकर होली जलाने के लिए लकड़ी ख़रीदी गई। प्रसाद के लिए नारियल और पेड़े लाए गए। कॉलॉनी के बीच में बच्चों के खेलने के लिए एक छोटा-सा मैदान है वहाँ होली जलाई गई। पहले बरस तो लोग अपनी-अपनी बालकनियों से झाँकते रहे। सिर्फ़ बच्चे ही मज़ा लेते रहे। अगले बरसों में धीरे-धीरे कई घरों से बड़े लोग भी जुटने लगे। तो जब भारती जी ने पाया कि माहौल बनने लगा है तो सोचा अब होली खेलने की भी परंपरा शुरू कर देनी चाहिए और एक नया तरीक़ा सोचा।

प्रसिद्ध नर्तक गोपीकृष्ण की शिष्या और खुद एक नामचीन लेखिका नीरुपमा सेवती जी जगुभाई के साथ नाच-गाने का माहौल बनाया गया। एक बड़ा-सा कंडाल लाकर उसमें रंग भरकर गाड़ी के गैरेज में रखा गया। दर्जनों पिचकारियाँ लाई गईं। वहीं भर-भर थाल गुलाल लाया। खूब-खूब सारी मिठाई, नमकीन और ठंड़ाई जब आलम यह कि प्रसिद्ध डोगरी कवयित्री पद्मा सचदेव टनटन ढोलक बजा रहीं हैं, फाग गाए जा रहे हैं और निरुपमा जी छमाछम नाच रही हैं। महाराष्ट्र में होली की ये रौनक कभी किसी ने जानी ही नहीं थी, पर चूँकि पिछले दो-तीन वर्षों से होली जलाकर जो माहौल बना दिया गया था उससे बड़ी खुशी-खुशी और चाव से तमाम मराठी और गुजराती मित्र भी इस रसभरे माहौल में शरीक होकर आनंद लेने लगे। फिर तो हर बरस होली की सुबह भारती जी अपने कुरते की जेबो में गुलाल भर-भरकर टोली बनाकर निकलते। सबसे पहले बगल की पत्रकार कॉलॉनी में जाते, चित्रा और अवध मुद्गल, मनमोहन सरल, गणेश मंत्री, वयोवृद्ध किशोरी रमण टंडा, श्रीधर पाठक, लतालाल आदि को एकत्र करते हुए पूरे मोहल्ले का चक्कर लगाते हुए अपनी टोली को और-और बड़ा बनाते हुए होली खेलते-खेलते शब्द कुमार के घर में जमा होते। इसलिए कि उनका घर ऐसा था जिसकी बाउंड्री के भीतर खूब सारी खाली जगह थी। वहाँ होली की ये मस्तानी टोली सुस्ताती। शब्द कुमार की पती कांजी के वड़े बहुत अच्छे बनाती थीं। सब लोग मिल कर कांजी पीते, गुझिया, दालमोठ खाते और एक बार फिर होली की भाँति नाच-गाने की महफ़िल जमती। शशिभूषण वाजपेयी की पत्नी सरोज सिर पर पल्ला डालकर नाचतीं। साथ में उनकी बेटियाँ रेखा, सुलेखा और बेबी गातीं -
"मैं हूँ नई रे नवेली, नार अलबेली, तुम तो राजा फूल गुलाब के मैं हूँ चंपा चमेली नार अलबेली।"
तुम तो राजा लड्डू और पेड़ा मैं हूँ गुड़ की भेली, नार अलबेली।

क्या बताएँ आपको कि क्या समां बँधता था। भारती जी तो जिस तरह चटकते, महकते और मटकते थे कि कोई देखे तो विश्वास ही न करे कि होली व्यक्ति के लिए मशहूर है कि ये बड़ा कट्टर अनुशासन प्रिय संपादक है जो अपना प्रतिक्षण धर्मयुग के काम में झोंक देता है और चाहता है कि सहयोगी भी उसी निष्ठा के साथ हर पल सिर्फ़ काम में लगे रहें।

आज भी सोच-सोच कर अचरज होता है कि अपने जीवन को कितने स्तरों, कितने लोगों के नाम कर लेते थे भारती जी। उनके चले जाने के बाद मेरी ज़िंदगी तो कितनी वीरान, कितनी अंधेरी हो गई है, मैं कभी ज़ाहिर भी नहीं करती। लेकिन यादों की जो विरासत वे मुझे दे गये हैं, उसमें आज भी गुलाब महकते हैं, रोशनी झिलमिलाती है, रंग बिखरे पड़ते है। विद्यानिवास जी ने भारती जी के बारे में लिखा "फागुन की धूप सरीखे भारती'', हर होली पर उनके उसी फागुनी गुनगुने पन को महसूस करती जिऊँगी। मेरा उदास होना वे सह ही नहीं पाते थे सो मुझे तो हँसते-खिलते ही जीना है, उनके साथ बिताया हर दिन होली था, हर रात दीवाली थी।

 

छोटे-छोटे यादगार क्षण                               -लवलीन

होली की कोई बड़ी विस्फोटक घटना याद करने के लिए मेरे पास नहीं है। लेकिन होली के बचपन से जुड़े छोटे-छोटे यादगार अविस्मरणीय क्षण अनेक हैं।
होली का उत्सव मेरे लिए वसंत के आगमन से जुड़ा हुआ है। हज़ार गज के क्षेत्र में फैली बचपन में जिस कोठी में हम रहते थे। उसके दोनों तरफ़ बाग था। अमलतास का पेड़ था जो पीली टहनियों में पीले फूलों से भर जाता था। स्कूल जाते समय सड़क के किनारों पर पलाश और कचनार के पेड़ फूलों से भरे मिलते। पलाश के लाल फूल जितने प्रखर व चटकीले होते थे। कचनार के लाल बेंजनी फूल उतने ही प्रशस्त कमनीय! यह सब देखकर मन में आनंद हिलोरे लेने लगता था। अनुभूति शब्द का अर्थ उस चौदह-पंद्रह साल की उम्र में झाँको लगा था - दिल-दिमाग़ में प्रकृति अपनी तरह से लुभाती थी। माँ को लिखित करती थी।

आज ये फूल कहीं नहीं हैं। न सड़क पर न घर में। बचपन में होली की पहली रात में लकड़ी जलाई जाती। दूसरे दिन सुबह-सवेरे उठकर हम तीनों भाई-बहन गुब्बारों को पीतल की पिचकारी से रंग घुले पानी से भर कर तैयार रखते। जेबों में गुलाल की थैलियाँ ठूँस लेते। घर में बाग़ के बीच लगे फव्वारे के हौद में लाल-बैजनी रंग घोल दिया जाता। झक्क सफ़ेद कुर्ता पहने डैडी 'गिलास' लेकर बरामदे में आ विराजते फिर लोगों-रिश्तेदारों का आना शुरू होता। सबको पकड़ कर हौद में फेंका जाता। हम बच्चे उनपर गुब्बारों से निशाना साधते। खूब धमा चौकड़ी मचती। सब पीते और खाते। रसोई से गरम-गरम पकोड़ों और मिठाई बाहर बरामदे में आती जाती।

विवाह के बाद मेरे अनेक देवर थे। समाजसेवा से जुड़े होने के कारण महेश जगत भाईसाहब हैं। सो पहली होली जो ससुराल में मनाई उसमें मैं खूब रंगी गई। इतने हाथों ने इस भाभी के गालों पर रंग मला कि मैं स्पर्श कातर हो उठी। उनका मकसद होता कि आज लवलीन भाभी पकड़ में आई है सो मनमानी कर लेते थे।

अब बच्चों की होली है। पहले जैसा उमंग-उत्साह माहौल में ही नहीं रहा है। होली में केमिकल भरे रंग व पेट, पालिश का प्रयोग, साथ ही शराब खोरी बेहद बढ़ गई है। लोग टी.वी. से ही चिपके रहते हैं। या छुरेबाजी झगड़े जैसी दुर्घटानाएँ शराबखोरी के बढ़ते प्रचलन के कारण होने लगी हैं। उत्सव कम उपद्रव ज़्यादा होने लगा है।

 

अजीबो-ग़रीब प्रयोग                               -सूर्य बाला

मुंबई उन दिनों बंबई थी और इस शहर से जुड़े ठाणे शहर में पति के ट्रांसफ़र की वजह से हम नए-नए आए थे। हम माने मैं, पति और तीसरी, चौथी, पाँचवीं में पढ़नेवाले तीन छोटे-छोटे बच्चे।

कहो को वह कंपनी के कर्मचारियों के परिवारों की बड़ी-सी कॉलॉनी थी लेकिन उच्च पदाधिकारियों के बस चार आलीशान बंगले, बाकी पूरी कॉलॉनी की चहल-पहल से अलग-अलग। इन चार बंगलों में भी एक पारसी, एक तमिल भाषी, एक कोकणस्थ मराठी और चौथे हम खुद। लोग तो सभी अच्छे थे लेकिन एक समझदार दूरी तो बरकरार रखनी ही थी। अब देखते-देखते चार-छ: महीने बीते और होली आ गई।

यहाँ आने से पहले हम अलीगढ़ में थे और वहाँ की होली तो ब्रजवासियों के रसिया गीतों से भरी-पूरी उत्साह और उमंगवाली होती थी। बाल्टी और पिचकारियों भरे रंगों की बौछार और अबीर-गुलाल के इद्रधनुष देखते ही बनते थे।
लेकिन यहाँ तो हम होली की सुबह चारों तरफ़ का सन्नाटा देखकर दंग रह गए। चारों तरफ़ खामोशी और एक अभिजात्य शांति। मैंने बच्चों की तरफ़ देखा तो वे काफ़ी उदास लगे। खुद मेरा मन अंदर से निचुड़ उठा लेकिन तभी पलक झपकते मुझे एक उपाय सूझा। फटाफट दो-तीन बाल्टियों में रंग घोला और बच्चों की पिचकारियाँ निकाल हम माँ-बच्चों ने एक-दूसरे पर दौड़-दौड़कर रंग डालना शुरू कर दिया। ऊपर-नीचे की खिड़कियाँ खुलीं और लोगों ने देखा कि बीच की खुली जगह में हम खुशी से किलकारियाँ मारते एक-दूसरे को पिचकारियों से सराबोर कर रहे थे। हमारे ठीक सामने का तमिलभाषी परिवार शायद बाहर जानेवाला था। उनकी दोनों छोटी बच्चियाँ फ्रॉक, मोजों और जूतों में तैयार बाहर खड़ी बड़े औत्सुक्य और कुतूहल से हमारा होली खेलना देख रही थीं। मैंने उन्हें सुनकर बच्चों से कहा - "ना ना, ना, इन पर रंग नहीं डालो। ये अभी तैयार होकर बाहर जा रही हैं। इनके साथ हम अगले साल होली खेलेंगे। बच्चों की आँखों में खुशी झलकी। इतने में उनकी माँ बाहर निकलीं। लमहे भर को वे भी ठिठककर देखने लगीं। उनकी आँखों में भी वही उत्सुकता व कुतूहल। मैंने खुशी-खुशी उन्हें हाथ हिलाकर हैपी होली विश कर दिया और उनकी कार स्टार्ट हो गई। अगले दिन मॉर्निंग वॉक के दौरान उनके पूछने पर मैंने उन्हें बताया तो उन्होंने जो कुछ कहा, उसका सारांश यह था कि "हाँ, हम "कॉलॉनी पीपल" को तो रंग डालते देखते थे पर इस ब्लॉक में हमने किसी को रंग डालते नहीं देखा" और इसके बाद बात ख़त्म हो गई।

लेकिन शायद बात ख़त्म नहीं हुई थी। बात तो शुरू हुई थी एक रंगभरी होली के हुडदंग के साथ। क्या आप विश्वास करेंगे कि अगली होली पर इस पड़ोसन के सुबह-सबेरे जब मेरे दरवाज़े की घंटी बजाई और मैंने दूधवाला समझकर दरवाज़ा खोला तो मेरी यह पड़ोसन मुठ्ठी में गुलाल लिए खिसखिलाते हुए मेरे गालों पर गुलाल लगा रही थी। फिर तो वह धूम मची कि पूछिये मत। चारों बंगलों की बाल्टियाँ, पिचकारियाँ और मगों के साथ हौज पाइप भी रंग-बिरंगे रंगों से भर गए। सारे पति-पत्नी और सबके बच्चों का हुड़दंग देखते ही बनता था। मैंने घर में बनाई गुझियों का थाल घुमाया तो जिसके घर में जो था, फटाफट बाहर आ गया। फिर यह भी तय हुआ कि आज जिसके घर में जो बने, वह किसी एक के घर में इकठ्ठे हो कर खाया जाएगा।

यह परंपरा तब से हर वर्ष धूमधाम से चली। इतना ही नहीं, यह ख़बर फैलते ही कि साहब लोग होली खेल रहे हैं, कॉलॉनी पीपल भी अबीर-गुलाल और रंग की बाल्टियाँ लेकर पहुँच गए। हर बार होली खेलते हुए मेरी तमिल पड़ोसन हर बार एक वाक्य दोहराती थी कि "आई वंडर व्हाय वी डिड नॉट प्ले बिफ़ोर''
मैं जीवन में प्रयोगों की हिमायती हूँ। अजीबो-ग़रीब प्रयोग किए हैं मैंने और अधिकांश में सफल भी रही हूँ लेकिन इस प्रयोग जितनी खुशी मुझे कभी नहीं मिली।

 

याद आती हैं होलियाँ                              -चित्रा मुद्गल

होली का वह प्रसंग आज भी मेरी स्मृतियों में है जिसे याद करते ही होठों पर स्मित मुस्कान आ जाती है। मैं दिल्ली में वर्धमान सोसायटी में रहती हूँ। उस सोसायटी में अच्छी होली मनाई जाती है। रंगभरी होली में जाने के लिए मेरे पोते मचलने लगे। मैं मन ही मन परेशान थी कि ये बच्चे '५-५ साल' की नन्हीं-सी जान है। पाना में भीगेंगे तो सर्दी हो जाएगी। मैंने दरवाज़े के पास बाल्टियों में भरकर और पानी से भरे छोटे-छोटे फुग्गे रख दिए। जब होली खेलने सभी नीचे जाने लगे तो मुझे एक आइडिया सूझा। मैंने बच्चों से कहा तुम रुक जाओ। मैं घर में गईं और -गरम पॉलिथीन वाली थैलियों को अगल-बगल से काटकर शमीज़नुमा बनाया। बच्चों को ये प्लास्टिक की शमीज़ पहनाई, उसके ऊपर बनियन और फिर उसके ऊपर कपड़े पहनाएँ। फिर मैं खुद की बुद्धिमानी पर खुश होते हुए बोली - अब ठीक है। छाती में सर्दी नहीं लगेगी।

मेरी बहू शैली और बच्चे होली खेलने जाने लगे तो शैली ने बच्चों से कहा - दादी पर रंग नहीं डालोगे मैंने सर्दी का डर दिखाकर और दो बार छींककर रंग डालने के लिए मना किया। अचानक बच्चे कहाँ चले गए, पता नहीं चला। देखा तो बहू शैली भी ग़ायब। थोड़ी देर बाद तीनों अपनी-अपनी पिचकारी लेकर आए। उनके हाथ में एरिस्टोक्रेट बैग काटकर बनाई गई समीज थी। उन्होंने मुझे पहनने के लिए और होली खेलने के लिए कहा। मैं हँस-हॅसकर हैरान। मेरी बहू ने कहा - आपने इनको जो सिखाया, वही इन्होंने आपको सिखाया। हम सभी बच्चों के निश्चल प्रयास पर हँस-हँसकर निहाल हुए जा रहे थे। थोड़ी ही देर में घर के सामनेवाला रंग बिरंगे पानी से भर गया और हम सभी छपाछप खेल रहे थे होली।

एक घटना मुंबई के उपनगर बांद्रा स्थित साहित्य सहवास से निकलनेवाली टोली की होली याद आ रही है। बड़ा ही अद्भुत प्रसंग है यह। उन दिनों होली के मौके पर स्वर्गीय धर्मवीर भारती जी के साथ साहित्य-सहवास का गुट निकलता था। भारती जी झकाझक सफेद कुरता-पायजामा पहने होते थे। कुरते की जेब में ऑइल पेंट की पॉलिथिन की थैलियाँ होती थीं। जैसे ही भारती जी ने मुझे देखा, उन्होंने बड़े जतन से सिल्वर ऑइल पेट हाथ में मला। मुझे लगा कि वे मनमोहन सरल के मुँह पर रंग लगाएँगे, पर उन्होंने मेरे लगा दिया। सब हो-हो करके हँस पड़े। पुष्पाजी की मोतियों-सी हँसी कि "इस सुंदरी" के यह क्या लगा दिया।
सच, बहुत याद आती हैं ये होलियाँ। मन कहीं अदर तक गुदगुदायमान हो जाता है।

 

वो होली                               -सूरज प्रकाश

कई होलियाँ याद आती हैं। बचपन के शहर देहरादून की होलियाँ जहाँ बड़े लोग झांझ मझीरे ले कर फ़िल्मी गानों की अश्लील पैरोडियाँ गाते हुए गली मोहल्लों में निकलते थे। हमें सहसा यकीन नहीं होता था कि ये बड़े भाइयों सरीखे युवा लोग, जिनकी हम इतनी इज़्ज़त करते हैं और उनसे इतना डरते हैं, इस तरह से सरेआम अश्लील गाने भी गा सकते हैं।

बाद में जब हैदराबाद गया तो वहाँ की होलियाँ याद आती हैं। लोग अपने चेहरे पर पहले ही सफ़ेद रंग का कोई पेंट पोत कर नकलते थे ताकि उस पर कोई दूजा रंग चढ़े ही नहीं। फिर बाद में मुंबई की होलियाँ। रंग खेलने के बाद जुहू तट पर जाना याद आता है जहाँ हज़ारों लोग रंग खेलने के बाद हरहराते समंदर के साथ होली खेलने आते हैं और समंदर सबसे थोड़ा थोड़ा रंग ले कर बहुत रंगीन हो जाता है और जब ठाठें मारता हुआ सबसे होली खेलने के लिए हर ऊंची लहर के साथ सबको गले लगाने के लिए आगे बढ़ता है तो बहुत ही रमणीय नज़ारा होता है।

वैसे मुंबई वासी अपनी ही सोसाइटियों में होली खेलते हैं। बहुत ऊंची आवाज़ में संगीत, एक दूजे की बीवियों पर बाल्टी भर-भर कर या माली वाले पाइप से पानी डालना, बस यही होली होती है, आम मुंबइया बाबुओं की। सड़कों पर टोलियाँ कम ही निकलती हैं। हाँ, कुछ लोग पी-पा कर सड़क पर शाम तक बेसुध पड़े रहते हैं। कुछेक युवा हा हा हू हू करते हुए तेज़ रफ़्तार गाड़ियाँ चलाते भी नज़र आ जाते हैं।

अब तो कई बरसों से होली खेलना ही छोड़ दिया है। बहुत हो ली होली। अगर कपड़े गीले करवाना ही होली है तो नहीं खेलनी मुझे। पहले से तय नहीं रहता कि होली खेलने नीचे उतरना है या नहीं। मूड बना तो ठीक वरना घर पर ही भले।

मैं यहाँ अहमबाद की जिस होली का ज़िक्र कर रहा हूँ, दरअसल ये घटना होली के दिन की नहीं, शाम की है। स्थानीय अख़बार गुजरात वैभव ने किसी पार्टी प्लॉट पर रात्रि भोज का निमंत्रण दिया था। मैं और मेरे कवि मित्र श्री प्रकाश मिश्र भी आमंत्रित थे। वैसे हम दोनों कहीं भी एक साथ जाते थे तो मेरी मोटर साइकिल पर ही चलते थे, लेकिन उस दिन पता नहीं कैसे हुआ क उनके स्कूटर पर ही चलने की बात तय हुई। शायद सात आठ कि.मी. जाना था।

जब वहाँ पहुँचे तो कई परिचित लोग मिले। बातचीत होती रही। खाने से पहले भांग मली ठंडाई का आयोजन था। मैंने भी लोगों की देखा देखी दो एक गिलास ठंडाई ले ली लेकिन कुछ ख़ास मज़ा नहीं आया। तभी आयोजक शर्मा परिवार के सबसे युवा मनीष शर्मा जो मेरे अच्छे परिचित थे, मेरे पास आए और बात करते हुए अचानक उन्होंने पूछा क मैंने ठंडाई ली है या नहीं। जब मैंने बताया कि हाँ, ली तो है लेकिन मुझे तो इसमें कोई ख़ास बात नज़र नहीं आई। वे मुस्कुराए और मेरी बाँह पकड़ कर मुझे एक तरफ़ ले जाते हुए बोले, अरे, इस चालू ठंडाई में थोड़े ही मज़ा है, आइए मैं आपको ख़ास तौर पर ख़ास मेहमानों के लिए बनाई गई ठंडाई पिलाता हूँ।

वे मुझे एक कमरे में ले गए जहाँ ख़ास लोगों के लिए ख़ास ठंडई का इंतज़ाम था। एक बड़ा गिलास मुझे पेश किया गया और तब मुझे लगा, हाँ इस गिलास में कुछ था। एक गिलास हलक से नीचे उतारा ही था कि उनके बड़े भाई ने एक और गिलास ज़बरदस्ती पिला दिया।

साढ़े नौ बजने को आए थे। मेहमानों ने भोजन करना शुरू कर दिया था। ज़मीन पर बिछी जाजमों पर बैठ कर भोजन करना था। स्वादिष्ट भोजन था। पूरी कचौरी, हलवा वगैरह और गुजरात के स्थानीय और होली के व्यंजन।
अब तक भांग ने अपना काम करना शुरू कर दिया था। मैं खाना तो खा रहा था लेकिन धीरे-धीरे मुझे महसू होना शुरू हुआ कि मुझे खाने के हर निवाले के लिए अपना हाथ धरती में बहुत नीचे तक ले जाना पड़ रहा है और मेरा हाथ वहाँ तक पहुँच ही नहीं पा रहा है। पानी पीना चाहा तो गिलास तक हाथ ही न पहुँचे। मेरी हालत ख़राब हो रही थी, मुझे बहुत ज़्यादा भूख और प्यास लगी थी लेकिन किसी भी चीज़ तक मेरा हाथ ही नहीं पहुँच पा रहा था। मैं ऊँचाई और गहाराई का अहसास खो चुका था। मैं भुनभुना रहा था, बड़बड़ा रहा था लेकिन किसी तक भी अपनी आवाज़ नहीं पहुँचा पा रहा था कि कोई मुझे बताए कि मैं क्या करूँ। पंगत में साथ बैठे खाने वाले कब के खा कर जा चुके थे और मेरी पत्तल में अभी भी खाने की चीज़ें जस की तस पड़ी हुई थीं और मैं बेहद भूखा था।

शायद मैं आधा घंटा तो इसी हालत में बैठा ही रहा होऊँगा। तभी श्री प्रकाश मिश्रा जी मुझे ढूँढते हुए आए और बोले चलो भई, बहुत खा लिया तुमने। और कितना खाओगे। साढ़े ग्यारह बज रहे हैं। चलना नहीं है क्या।
मैं आधे अधूरे पेट उठा तो दूसरी समस्या शुरू। उनके स्कूटर की सीट मुझे इतनी ऊँची लग रही थी कि मैं किसी तरह भी उस पर चढ़ नहीं पा रहा था। आस पास तमाशबीन जुट आए थे। मैं लगातार इस बात का रोना रो रहा था कि मैं आख़िर इतनी ऊँची सीट पर चढूँ कैसे? तभी मैंने देखा कि चार पाँच आदमियों ने मुझे किसी तरह से गोद में उठा कर स्कूटर पर बैठा ही दिया है। श्री प्रकाश जी ने स्कूटर स्टार्ट कया और मैंने उन्हें पीछे से कस कर पकड़ लिया।

अब एक और मुसीबत शुरू हो गई मेरे साथ। मुझे लगा कि ये स्कूटर अनंत काल से चल ही रहा है और हम कहीं नहीं पहुँच रहे। मैंने कम से कम बीस बार तो मिश्रा जी से पूछा ही होगा कि हम पहुँच क्यों नहीं रहे हैं।
आख़िर जब मुझे अपना घर नज़र आया तो मैं छोटे ऱच्चे की तरह् खुशी से चल्लाने लगा क मेरा घर आ गया। म जी ने मुझे किसी तरह से स्कूटर से उतारा, मेरी जेब से चाबी निकाली और दरवाज़ा खोला। मिश्रा जी कब वापस गए और मैं कब सोया, मुझे कोई ख़बर नहीं। अलबत्ता सुबह जब उठा तो पिछली रात की अपनी सारी बेवकूफ़ियाँ मुझे याद थीं। हँसी भी आ रही थी कि भांग भी क्या चीज़ है कि अच्छे भले आदमी का कार्टून बना देती है।

 

होली के रंग में-                              शैल अग्रवाल

चारों तरफ़ उड़ते अबीर और गुलाल और पिचकारियों की तीखी और रंग-बिरंगी छेड़छाड़. . .कांजी, बड़े, मीठी गुजिया और सेव. . .होली का त्योहार ही ऐसा है कि याद आते ही मन खुद ही ऊदा-ऊदा और रंगीन हो उठता है बिल्कुल इस फागुन के मौसम की तरह ही। पर कहाँ से शुरू करूँ अपनी बात, जबकि इतनी सारी यादें नटखट शिशु-सी पालथी मारे सामने आ बैठी हैं और ज़िद पर ज़िद किए जा रहे हैं. . .हमारे बारे में बताओ ना. . .हमारे बारे में लिखो, तुम्हारे पाठकों को अच्छा लगेगा।

चलिए, शायद वहाँ से, जब पहली बार कई बरस पहले, दूर कहीं बचपन में उस बारात के साथ ऊँटों पर चढ़कर राजस्थान के दूर दराज के गाँव में गए थे और जहाँ तक पहुँचने का शायद वही एकमात्र ज़रिया भी था, या फिर मथुरा वासियों के लिए कुछ नया हो जाए, यह सोचकर ऐसा आयोजन किया गया था, पर ऊँटों की बारात तो उतनी नहीं, हाँ, लड़की वालों ने फूलों की माला और रोली के टीकों के बाद, बारात की जो ज़ोरदार होली खेलकर आवभगत की थी वह आज भी याद है। आज भी मन उन महकती टेसू और गुलाब की पत्तियों की बाल्टियों से नहाया हुआ है और वह गीला टूटते बिखरते बूँदी के लड्डुओं का स्वाद, उन रसीली गालियों के साथ ज्यों का त्यों बरकरार है। या फिर बनारस की गुलालों वाली नाच-गानों के रंग से सजी बजड़ों पर बीती होलियाँ और गंगा किनारे के वे मुखरित मूर्खाधिवेशन. . .या फिर शुरू करूँ वहाँ से, जब हमारी पहली-पहली होली थी अपनी नई नवेली भाभी के साथ और हम बच्चों की वानर सेना ने कई-कई योजनाएँ बना डाली थीं पर जाने कैसे दादा जी को हर बात की ख़बर पहले से ही लग जाती थी और वह योजना को नामंजूर कर देते थे और तब हारकर बागडोर हम लोगों ने खुद अपने हाथों में ली थी और पूरा ही मिशन एक खुफ़िया तरीके से संचालित किया गया था। जब भाइयों की सभी योजनाएँ ज़्यादा हुड़दंगी सिद्ध हो चुकीं, कुछ और नया और भाभी को कम परेशान करने वाला सोचना था, तो फिर होली के दिन सुबह-सुबह अपने नए पोस्टर कलर और ब्रश लेकर हम सोती भाभी के सिरहाने जा पहुँचे और बेहद सिद्धहस्त कलाकार की तरह सारी लीपा-पोती करके चुटकियों में कमरे से बाहर भी निकल आए और हमारी शरारतों से बेख़बर भाभी सोती ही रह गई, हाँ, सुबह-सुबह जब सर ढके, छमाछम करती भाभी ने आकर बड़ों के पैर छुए तो एक से एक गंभीर स्वभाव वालों का भी हँसते-हँसते बुरा हाल था। यह बदमाशी किसने की है. . .दादाजी की कड़कती आवाज़ थी और घरभर की आँखें हमपर थीं और परेशान, घबराई-शरमाई भाभी जवाब सुने बग़ैर ही, तुरंत ही वापस कमरे में चली गईं। फिर जब रामलीला के रावण जैसा अपना दाढ़ी मूँछ वाला वह मेकअप पोंछकर भाभी वापस लौटीं तो पूरी तरह से होली के अस्त्र-शस्त्रों से लैस थीं और फिर तो दो तीन घंटे तक वह होली का हुड़दंग चला कि मुझ जैसे कमरे के अंदर से ही सारा खिलवाड़ देखने वालों को भी महीनों लग गए चेहरे, गर्दन और हाथ पैरों से रंग पोंछते-छुड़ाते, क्यों कि इस बार रंगों के साथ अल्यूमिनियम पेंट और शू पॉलिश सभी कुछ मिला हुआ था।

या फिर शायद वह होली जो यहाँ इंग्लैंड में खेली गई थी और जिसमें चुटकी भर गुलाल के अलावा और कोई रंग ही नहीं था। यों तो यहाँ इंग्लैंड में सब त्योहार क़रीब-क़रीब एक से ही महसूस होते हैं क्यों कि सभी का प्रमुख आकर्षण वही खाना और नाच गाना ही रह जाता है पर वह होली फ़र्क और यादगार थी। डॉ कूपर नए-नए हमारी बिल्डिंग में आए थे और शायद कुछ दिन भारत में रहे भी थे क्यों कि अकसर ही वह भारत और भारतीय तौर-तरीके और तीज-त्योहारों के बारे में भी बात करते रहते थे और कई बार उन्होंने बताया था कि कैसे भारत की वह रंग बिरंगी तीज-त्योहारों वाली संस्कृति और उत्साह उन्हें आज भी याद आता है और हज़ारों तीज-त्योहारों की यादों ने. . .तरह-तरह के पकवानों ने उनकी फिर से एक भारतीय परिवार से जुड़ने की चाह को और भी प्रगाढ़ कर दिया था। वैसे भी आम आदमियों से थोड़ा हटकर ही थे वे, बिल्कुल मनमौजी किस्म के। पाँच साल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद मन हुआ कि नहीं डॉक्टर ही बनना है, तो अगले पाँच साल तक मेडिसिन पढ़ी और डॉक्टर बनकर ही दम लिया। हाँ तो हम बात कर रहे थे होली की. . .सुबह-सुबह ही उस दिन कूपर साहब पधार चुके थे और पूछ रहे थे कि आज तो होली है. . . खेलोगी नहीं? लाचार मैं उठकर गई और तश्तरी में गुलाल और मिठाई ले आई। हम तीनों ने आपस में गुलाल लगाया। मिठाई खाई और बनारस के स्वयंभू वाले मिश्रा जी की बोतल से बनाकर ठंडाई भी पी। पर कूपर साहब का मन भरा ही नहीं था। जाते ही पाँच मिनट बात फिर दरवाज़े पर घंटी थी और दरवाज़ा खोलते ही बुरा न मानो होली है कहकर उन्होंने बाल्टी भर पानी से मुझे नहला दिया, गनीमत थी कि पानी अच्छी तरह से गरम था और सीढ़ियों और जीने पर कालीन नहीं था। पति भी तबतक दौड़े-दौड़े आ चुके थे और बाल्टी लेकर पीछे खड़े थे। फिर क्या था बात आग की तरह पूरी बिल्डिंग में फैल गई। और सभी जुड़ गए होला के उस नहाने और नहलाने के हुड़दंग में जो कि दोपहर देरतक चलता रहा। और यही नहीं बाद में हम सबने मिलजुलकर चाय भी वहीं बाहर लौन में ही पी और जी भरकर होली की परंपरा को कायम रखते हुए गाना बजाना हुआ. . .हास-परिहास हुआ। जिनके पास यादें थीं उन्होंने यादें बाँटी और जिनके पास चुटकुले थे उन्होंने चुटकुले। कितनी होलियाँ आईं और चली गईं पह आज भी उस होली की, अच्छी ख़ासी ठंड के बाद भी, उसके उत्साह और जोश की. . .वह भी इंग्लैंड में, याद आते ही होठों पर आई मुस्कान रुक ही नहीं पाती।

१ मार्च २००७

छकाते हुए हँसाया                              उषा राजे सक्सेना

छोटे मामा, और नाव वाले चच्चू (जो हमें अक्सर ओरेगैमी सिखाते थे) जब भी घर आते तो घर में खूब चहल-पहल हो जाती, ख़ास-तौर पर होली के दिनों में तो कहना ही क्या? होली का त्योहार हमारे घर में खूब ज़ोर-शोर से मनाया जाता। माँ महीने भर पहले से पकवान वगैरह बनवाना शुरू करवा देतीं। गुझिया, खाजा, नुक्ती, शकरपारे, नमकीन, दालमोट, और तरह-तरह के पापड़ के साथ बूँदी के लड्डू, नवान के पूए, होली के विशेष पकवान हुआ करते थे।
माँ घर के सभी सदस्यों के लिए नए कपड़े बनवाती। पास-पड़ोस और रिश्तेदारों के घर बायने (खाना) और उपहार भेजती। हम सब सुबह उठते ही धोबी के धुले कलफ़ लगे सफ़ेद बुर्राक कपड़े पहन कर रंग के छींटों का इंतज़ार करते। होली के दिन टेसू के फूल का खुशबूदार केसरिया रंग बाल्टियों और हौदियों में घोला जाता। अबीर-गुलाल के ढेर चाँदी के चमकते थालों में सजाए जाते! रंग-बिरंगे फूलों से गुलदान सजाए जाते और बैठक की भी काया-पलट की जाती। पिचकारियों को माज कर चमकाया जाता उनके वाशर की चेकिंग की जाती। हर साल कुछ नई पिचकारियाँ भी ख़रीदी जाती। रंगों के गुब्बारे भरे जाते और गिन कर सभी बच्चों को दिए जाते साथ में सख़्त ताकीद दी जाती कि हम गुब्बारो का निशाना केबल मित्रों, संबंधियों एवं जानने वालों को ही बनाएँगे हालाँकि यह नियम ज़्यादा देर नही चलता। मौका मिलते ही हमलोग राहगीरों को निशाना बनाकर छुप जाते। यद्यपि कभी-कभी घर में शिकायतें भी आतीं, पर होली के दिनों में कौन परवाह करता। खूब दावत-तवाज़े होते। घर में काम करने वाले सेवकों का काम बढ़ जाता। माँ उन सबके लिए भी कपड़े और अन्य उपहार ख़रीदती।

होली के दिनों में हमें अपने बड़ों को यहाँ तक कि बाबू जी और नाना जी को भी छका कर बुद्धू बनाने की छूट होती। गुझिया-समोसे खाना, एक-दूसरे को छकाते हुए पिचकारी मारना, अबीर-गुलाल लगाना हँसना-हँसाना और सारे दिन मज़े करना, होली की मस्ती होती थी। चच्चू और मामा हमेशा सतर्क रहते उन्हें छकाना ज़रा मुशकिल काम होता था।

सुबह-सुबह पंडित जी आकर हमारे कानों के पीछे नए धान की हरी-हरी कोमल बालियों को खोंसते हुए 'मंगलं भगवान विष्णु' का श्लोक पढ़ते। नया अन्न खाया जाता। पंडित जी को दान-दक्षिणा दिया जाता। जब तक पंडित जी अँगौछे में दान-दक्षिणा बाँधते बड़े भैया उनकी पीठ पर मोटे-ताज़े, गोल-मटोल पेट और बड़े बड़े दाँत वाले खब्बू कार्टून की तस्बीर बना कर उन्हें चिढ़ाते-खिझाते भाग लेते. . .जब पंडित जी सोटा लेकर धोती की लाँग सँभालते हुए उनके पीछे भागते तो हमलोग ताली बजा-बजा कर उनके पीछे दौड़ते हुए पिचकारी का निशाना बनाते हुए 'खबब्बू महाराज' कह-कह कर खूब सताते।

आपस में तो हम एक एक-दूसरे को बुद्धू बनाते ही पर पास-पड़ोस और अतिथियों को भी छकाने के नए-नए स्कीम बनाते रहते। नाना जी और बाबू जी हँसी-मज़ाक और मसखरी-पसंद इंसान थे, परंतु भोंडापन उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं था। नाना जी होली के त्यौहार पर सबसे मनोरंजक ढंग से छकाने वाले व्यक्ति को माला पहना कर टीका करते हुए इनाम देकर उसे सम्मानित करते थे।

सुबह बैठक में रखे गहरे नीले रंग के शीशे के गोल टेबल पर अबीर गुलाल की थाली, चाँदी के कटोरे में केसरवाला गोटा (नारियल,सौंफ आदि से बना स्वादिष्ट मुखवास) इलायची-दान में इलायची के साथ इतरदान भी मेज़ पर सजा दिया जाता। नाना जी और बाबू जी हर मिलने वाले के माथे और गाल पर गुलाल लगाकर उनका स्वागत करते फिर उनके कपड़ों पर इत्र छिड़कते, ठहाके लगाते चुटकुले सुनाते हुए गले मिलते। हम बच्चों का काम होता मेहमानों को पकवान पेश करना और वापस जाते अतिथि को पिचकारी का निशाना बना कर उसे रंगो से सराबोर करना और फिर उछल-उछल कर हँसना और हँसाना।

कई बार यह भी होता कि होली के दिनों में बैठक में आने-जाने वालों की संख्या इतनी बढ़ जाती कि तख़्तपोश और गाव-तकियों से सजे तख़्त के साथ और कुर्सियों लगाई जाती हम अच्छी कुर्सियों के साथ एक-दो बिना सीट वाली कुर्सी पर पतली-सी गद्दी लगाकर उसे ढक देते और उस पर हम उसे ही बैठने को कहते जिसे हमें छकाना होता। जब वह व्यक्ति कुर्सी में धँसते हुए चकित हो 'ऐं' या 'अरे' कहते हुए अकबकाता तो हम तालियाँ बजा-बजा कर खूब हँसते और एक स्वर में कहते, 'होली है, भई होली है। हमने खूब छकाया तुमको, तुमने खूब हँसाया हमको।' फिर हम उन्हें पकवान आदि पेश करते।

छोटे मामा और नाव वाले चच्चू की आपस में खूब पटती थी। दोनों हर किसी को रंगमें लपेटने और बुद्धू बनाने की योजना बनाते रहते। अपनी योजनाओं में दोनों अक्सर मुझे और कुमकुम को भी शामिल कर लेते पर इस सफ़ाई से हमें शामिल करते कि हमें पता भी नहीं चलता वस्तुतः हम उनके 'स्केप गोट' हुआ करते थे।

उस बार होली के दिन सुबह-सुबह छोटे मामा और चच्चू दोनों आपस में बाते कर रहे थे कि हम दोनों तो सबको छकाते रहते है पर कोई माई का लाल आज तक हमें नहीं छका पाया है। मैंने और कुमकुम ने मिल कर साज़िश की कि चलो इस बार अपन दोनों मिल कर चच्चू और मामा को छकाते हैं। मामा और चच्चू दोनों को दही-बड़े बेहद पसंद थें, माँ ने दही-बड़े थाल में सजा कर भंडार में रखा हुआ था। हमें पता था कि मामा और चच्चू आते ही दही बड़ों पर हाथ साफ़ करेंगे, दोनों को दही-बड़े खूब पसंद थे।

बस फिर क्या था हमने उन दोनों के आने से पहले सामने रखे अस्पताली रुई के बंडल से बिल्कुल असल जैसे दही बड़े बना डाले, हरा धनिया हरी मिर्च, पिसे ज़ीरे और लाल मिर्च आदि के कारीगरी के बाद तो असल और नकल का पता लगाना नामुमकिन था। कई प्लेटें सजा कर हमने टेबल पर रख दी। होली के जलूस से लौट कर आते ही चच्चू और मामा ने जो दही-बड़े की थाली देखी तो बोले, 'अरे, छटंकी ज़रा दही बड़े, तो खिला।'
'नही चच्चू माँ ने कहा है नए अन्न के भोग के बाद ही कोई और चीज़ खाई जाएगी'
'अरे वाह! होली के दिन यहाँ रेस्ट्रिक्शन!' कहते हुए दोनों ने एक-एक प्लेट उठाई और गप्प से एक-एक दही बड़ा मुँह में रख लिया, जैसे ही उन्होंने दही-बड़ों को दाँतों के नीचे दबाया उन्हें पता चल गया कि हमने उन्हें छका दिया। चच्चू और मामा दोनों एक साथ बोल उठे, 'अच्छा तो इस बार इस छटंकी और रेजकारी ने हमें छकाया' और हँसते हुए हमें धौल जमाने को दौड़े और फिर पकड़ ही लिया। मामा और चच्चू ने हम दोनो को एक-एक चवन्नी देते हुए कहा, 'यह रहा तुम दोनों का हमारी तरफ़ से इनाम हमें छकाने का जाकर जल्दी से दस प्लेटें और तैयार करो, आज हम लोग सबको दही-बड़ों से छकाएँगे और फिर शाम को तुम दोनों के मास्टर प्लैन की रिपोर्ट भाई साहब (बाबू जी) को देंगे।'' इस तरह से हम चारों ने मिल कर घर के सारे सदस्यों के साथ-साथ अतिथियों और मिलने-जुलने वालों को भी छकाते हुए हँसाया और होली का इनाम जीता. . .

१ मार्च २००७

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