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संस्मरण

1६ अगस्त, हिरोशिमा दिवस के अवसर पर

अदम्य जिजीविषा का नाम है- सदाको
--डॉ. सुरेश ऋतुपर्ण


कुछ समय पहले मैं हिरोशिमा की यात्रा पर गया था। हिरोशिमा के बारे में थोड़ा बहुत पढ़-लिख रखा था इसलिए यह सफ़र बहुत अनजाने प्रदेश का सफ़र तो नहीं ही था लेकिन फिर भी मन में अजब सी उत्कंठा तो थी ही। मन-मस्तिष्क पर ६ अगस्त १९४५ का भयावह मंजर आ-जा रहा था जो विभिन्न पुस्तकों और चित्रों द्वारा निर्मित था। प्रत्यक्ष में हिरोशिमा कैसा लगेगा, यही बात मन में थी। हिरोशिमा पहुँचकर सामान स्टेशन के लॉकर में रखा और ट्राम में बैठकर शांति स्मारक की ओर चल दिया। सब कुछ इतना व्यवस्थित और सुन्दर था कि ६ अगस्त १९४५ में यहाँ क्या हुआ होगा, की कल्पना करना भी असम्भव प्रतीत होने लगा।

शांति स्मारक के परिसर में प्रवेश करते ही एक अजब-सी शांति का साक्षात्कार हुआ। दूर तक फैला परिसर हरियाली से भरा था। स्मारक के मुख्य भवन-संग्रहालय से कुछ दूर शांति की ज्योति जल रही थी। सबसे पहले संग्रहालय देखने का निश्चय किया। और तब कहीं जाकर समझ में आया कि ६ अगस्त १९४५ के अभागे दिन यहाँ रहने वालों पर कैसी प्रलय बरसी थी। संग्रहालय में प्रदर्शित वस्तुओं, कपड़ों, चित्रों, नक्शों आदि को देखते-देखते मन विचलित हो गया। हिचकियाँ बँधने लगीं। आँखों से निरन्तर आँसू बहने लगे और ऐसा लगा जैसे मैं स्वयं उन लाखों लोगों की कराहती-भागती भीड़ का हिस्सा हूँ। शरीर जल रहा है, प्यास से जान निकली जा रही है और अणु बम विस्फोट के बाद की भयानक काली बारिश में पूरी तरह भीग कर ठंड से कँपकपा रहा हूँ। यह तो कल्पना मात्र ही थी, पर जिन लोगों ने उस मंज़र को साक्षात भोगा था उन पर क्या बीती होगी, इसकी कल्पना करना भी आसान नहीं है।

संग्रहालय में आगे बढ़ते हुए मैं एक स्थान पर रुक गया। यहाँ एक मासूम-सी लड़की सासाकी सदाको की कहानी बताई गई है। संग्रहालय से बाहर, परिसर में उसका एक स्मारक भी है जो अणु बम विस्फोट व उसके असर से मारे गए अनेक बच्चों की याद में बनाया गया है। इस स्मारक के बनने के पीछे भी एक कहानी है और यह कहानी जुड़ी है सदाको की अदम्य जिजीविषा से। यह सदाको कौन है? और क्या है उसकी कहानी?

सासाकी सदाको नाम है एक मासूम बच्ची का जो अणुबम के विकिरण की शिकार होकर १२ वर्ष की अल्पायु में ही मर गई थी। लेकिन मरने से पूर्व आसन्न मृत्यु की आहटों को सुनते हुए भी वह अपनी अदम्य जिजीविषा के सहारे मृत्यु को परास्त करने में लगी रही इसलिए उसकी मृत्यु ने पहले उसके सहपाठियों और बाद में पूरे देश के बच्चों को उद्वेलित कर दिया और फलत: उन सबके प्रयासों से शांति स्मारक स्थल पर उसकी व उस जैसे अनेकों बच्चों की याद में एक सुन्दर, पर सादगी भरा स्मारक बनाया गया। जहाँ आज भी दुनिया भर के बच्चे 'कागज के सारसों की मालाएँ` चढ़ाते हैं कुछ उसी तरह जैसे हम अपने स्मारकों पर फूल माला चढ़ाते हैं, पुष्पांजलि देते हैं।
पर कौन है यह सदाको?

७ जनवरी १९४३ के दिन पिता शिगेयो और माता हुजिको के घर एक नन्ही-सी, प्यारी सी लड़की ने जन्म लिया। पिता के मित्र ने उसे नाम दिया सदाको। उसके जन्म के समय से ही जापान धीरे-धीरे युद्ध से पूरी तरह घिर चुका था। उसके पिता भी मिलिट्री-सेवा में जा चुके थे। और तभी आई ६ अगस्त १९४५ की वह अभागी सुबह जो दुनिया के इतिहास में आज भी अमंगल और विनाश की कालिमा से भरी अकेली सुबह है। एक ऐसी सुबह जो लाखों लोगों के जीवन में प्रकाश नहीं मृत्यु का अंधकार लेकर आई थी। जिसके अंधकार में आज भी हज़ारों 'हिबाकुशा' दम तोड़ते रहते हैं।

उस सुबह ढाई वर्ष की सदाको अपनी दादी, माँ और भाई के साथ सुबह का नाश्ता कर रही थी कि तभी हजारों-हजार सूर्यों की सी रोशनी और कान के पर्दों को फाड़ देने वाले भयानक विस्फोट ने घर के परखच्चे उड़ा दिए। सब जान बचाने के लिए नदी की ओर भागे। दादी अचानक कोई भूली चीज़ लेने घर की ओर वापस आई और फिर लौट नहीं सकी। आग की लपटों से जान बचाकर भागते यह तीनों लोग नदी में नाव में बैठे थे कि तभी 'काली वर्षा' होने लगी जिसमें सदाको बुरी तरह भीग गई।

१५ अगस्त १९४५ को युद्ध समाप्ति की घोषणा हो गई थी। सब कुछ मिट चुका था लेकिन विनाश और मनुष्य की इच्छा शक्ति तथा कर्मठता की लड़ाई जारी थी। एक बार फिर से हिरोशिमा का पुनर्निर्माण शुरू हुआ। सासाकी परिवार ने फिर से अपना काम-काज शुरू किया और सदाको पास के एक स्कूल में पढ़ने जाने लगी। सदाको अपने स्कूल की चहेती बच्ची थी। पढ़ने में भी तेज और खेल कूद में भी तेज़। उसकी वजह से ही उसकी क्लास, दौड़ प्रतियोगिता में विजयी हुई थी।

इसके कुछ समय बाद से ही सदाको का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। पहले पहल उसे जुकाम हुआ और गले में एक गाँठ-सी बन गई। जुकाम तो ठीक हो गया लेकिन गाँठ की कठोरता बनी रही। यह सन १९५४ के नवम्बर की बात थी। सन १९५५ शुरू हुआ। तब सदाको का चेहरा अजीब तरह से सूजने लगा। फरवरी में जाँच पड़ताल के बाद डॉक्टर ने सदाको के पिता को दुखद समाचार दिया कि सदाको ल्यूकीमिया से ग्रस्त है और उसका जीवन कुछ महीनों का ही है। परिवार के ऊपर जैसे दुख का पहाड़ टूट पड़ा। सदाको को हिरोशिमा शहर स्थित रेडक्रास अस्पताल में भरती करा दिया गया। उस अस्पताल में उस जैसे अन्य अनेक रोगी भी भरती थे।

तभी अगस्त के महीने में एक दिन नागोया हाईस्कूल के छात्रों ने अस्पताल में भरती रोगियों को दिलासा देने के लिए काग़ज़ से बनाए गए हज़ारों सारसों की मालाएँ भेजीं। जापान में ऐसी धारणा है, लोक किंवदन्ती है कि यदि आप एक हज़ार काग़ज़ भी सारस बना लेंगे तो आपकी मनोकामना पूरी हो जाएगी।

सदाको ने भी इस बारे में सुना। उसके मुर्झाए मन में आशा की एक किरण जागी। वह भी काग़ज़ी सारस बनाने में जुट गई। यदि काग़ज़ नहीं होता था वह जो भी काग़ज़ मिलता उसी से सारस बनाने लगती। कभी-कभी दवाइयों के कागज़ों से भी सारस बना लेती थी। ऐसा करते हुए सदाको के मन को कुछ आशा बँधती थी लेकिन अन्दर ही अन्दर उसकी बीमारी विकराल होती जा रही थी। सारस बनाना भी तकलीफ़देह काम हो गया लेकिन अपनी अदम्य जिजीविषा के सहारे सदाको दत्तचित्त हो शांत भाव से धीरे-धीरे सारस बनाने में लगी रहती। उसका मन कहता कि यदि वह १००० सारस बना लेगी तो अवश्य ही वह मृत्यु-पाश से मुक्त हो जाएगी।

और तभी वह अभागा दिन भी आ गया जो सदाको की जिन्दगी का अंतिम दिन था। २५ अक्तूबर १९५५ को सदाको का सारस-मन अनंत यात्रा पर उड़ गया। पता नहीं वह कितने सारस बना पाई थी। कुछ कहते हैं कि वह १००० सारस बना पाई थी और कुछ कहते ही कि वह १००० सारस पूरे नहीं कर पाई थी। बहरहाल, सारस बनाना एक प्रतीकात्मक क्रिया है आसन्न मृत्यु के भय से मुक्त होने की।

सदाको की मृत्यु के समाचार ने जहाँ उसके परिवार को हिला दिया वहीं उसके सभी सहपाठी भी उसकी असमय मृत्यु से हतप्रभ रह गए। क्यों कि सदाको, बीमारी के लक्षण प्रकट होने से पहले तक अत्यन्त स्वस्थ और सक्रिय लड़की थी। वह स्कूल के सभी कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थी और अपने सहपाठियों की बड़ी प्रिय मित्र भी थी।

सभी मित्र उसके इस तरह अचानक चले जाने से बेहद दुखी थे। सभी के मन में एक कामना का उदय हुआ कि सदाको की याद में कुछ करना चाहिए। किसी का सुझाव था कि सदाको का समाधि स्थल यही पास में बनाना चाहिए ताकि हम वहाँ जा सकेंगे। कुछ बड़े प्रबुद्ध सहपाठियों ने कहा कि सिर्फ़ सदाको के लिए ही नहीं, वरन अणुबम विस्फोट की विभीषिका में मारे गए सदाको जैसे सभी बच्चों के लिए शांति-उद्यान में स्मारक बनाया जाए तो बहुत अच्छा रहेगा।

बस फिर क्या था! बच्चों ने जगह-जगह जाकर चंदा एकत्रित करना शुरू कर दिया। उनके इस कार्य और विचार का समाचार पूरे जापान में फैल गया और कुछ ही समय बाद जापान के तीन हज़ार से अधिक स्कूलों के विद्यार्थियों ने चन्दा एकट्ठा करके उनके पास भेजा और प्रार्थना की कि इस धन का उपयोग स्मारक निर्माण में किया जाए।

जनवरी सन १९५७ में स्मारक समिति ने भी अधिकारिक तौर पर निर्णय लिया कि शीघ्र ही शांति उद्यान में बच्चों का शांति स्मारक बनाया जाएगा। और सदाको की मृत्यु के दो साल बाद ५ मई १९५८ से 'बाल शांति स्मारक' शांति उद्यान का 'मर्म स्थल' बन गया। ५ मई का दिन जापान में 'बाल दिवस' के रूप में मनाया जाता है और छुट्टी भी होती है। हीरोशिमा में सदाको का स्मारकअत: इस स्मारक की स्थापना के लिए इसके अधिक उपयुक्त दिन नहीं हो सकता था। सदाको की याद में, सदाको के सहपाठियों का यह प्रयास अनुकरणीय है जिसके फलस्वरूप ५ मई १९५८ को 'अणुबम की लड़की की मूर्ति' स्थापित हो सकी। मूर्ति के सामने लगी पाषाण पट्टी पर यह वाक्य उकेरा हुआ है यह हमारी पुकार है यह हमारी प्रार्थना है दुनिया में शांति स्थापना के लिए आज सदाको की कहानी, हिरोशिमा की त्रासदी की याद दिलाने वाली कहानी भर नहीं है। यह रेडियो धर्मी विकिरण के अदृश्य विनाशक प्रभावों की कहानी भी नहीं है।

यह कहानी मृत्यु से जूझने की प्रेरणा देने वाली कहानी है। मनुष्य की अदम्य जिजीविषा की कहानी है। हिरोशिमा के शांति-स्मारक-संग्रहालय में प्रदर्शित चित्रों एवं वस्तुओं को देखकर मन में पीड़ा जागती है, घृणा और निर्वेद का भाव पैदा होता है लेकिन सदाको के स्मारक पर जाकर, उसके दोनों उठे हुए हाथ देखकर मन में साहस पैदा होता है। नहीं, नहीं, हमें हारना नहीं है, कोशिश करनी है, लगातार कोशिश करनी है। इस पल-पल नर्क होती जाती दुनिया को बचाने की कोशिश करनी ही होगी। हज़ारों-लाखों-करोड़ों सदाको जैसे बच्चों को बचाने के लिए हमें एकजुट होना होगा। अपने दोनों हाथों को उठाकर एक दूसरे के हाथों से जोड़ना होगा ताकि सब एक दूसरे को आश्वस्त कर सकें कि हम अकेले नहीं है। हमें साथ-साथ चलना है, हमें साथ-साथ जीना है, हमें साथ-साथ मरना है। हमें अपने जीने और मरने को एक अर्थ देना है। ऐसा अर्थ जो सिर्फ़ हमारे लिए ही नहीं वरन पूरी दुनिया के लिए हो। सार्थक होने का मतलब अपनी अकेली सफलता और उपलब्धि नहीं होता है। उसमें सबके कल्याण का भाव रहता है। सदाको की कहानी में कुछ ऐसा ही सन्देश छिपा है।

४ अगस्त २००८

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