मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


संस्मरण

यात्रा संस्मरण

लौट के बुद्धू घर को आए
- डॉ. भारतेन्दु मिश्र


एक साहित्य यात्रा के सिलसिले मे संस्कारधानी नगर जबलपुर जाने का सुयोग बना। वहाँ मेरी मुलाकात प्रो.श्यामसुन्दर दुबे से हुई,मै उन्हे नवगीतकार और विचारक के रूप मे जानता था किंतु अबतक मुलाकात नहुई थी। मैने उनसे संस्कारधानी का अर्थ पूछा तो उन्होने बताया-कि जबलपुर मध्यप्रदेश की प्राचीन सांस्कृतिक राजधानी रही है इसीलिए इसे संस्कारधानी कहा जाता है। जबलपुर की साहित्यिक संस्था कादम्बरी द्वारा मुझे मेरे नाटक शास्त्रार्थ पर सेठ गोविन्ददास सम्मान २००९ के लिए आमंत्रित किया गया था। वहाँ मुझे दि. २७-११-०९ को पहुँचना था। मेरे रचनाकर्म मे कहीं न कहीं मेरी श्रीमती मीनू जी का भी योगदान रहता है। वह प्राय: मेरी अधिकांश रचनाओं की प्रथम पाठक या श्रोता ही नही बल्कि सलाहकार के रूप मे मुझे सहयोग करती है। अत: उनके बिना यह यात्रा अधूरी ही रहती सो वह भी साथ थीं।

हम लोग गोंडवाना एक्सप्रेस से दि.२६-११-०९ को हजरत निजामुद्दीन स्टेशन से चलकर २७-११-०९ को सुबह ९:०० बजे जबलपुर पहुँच गए । ट्रेन मे ही एक और कविमित्र डाँ.देवेन्द्र आर्य (गाजियाबाद) भी मिले वे भी उसी समारोह के लिए जा रहे थे। रास्ते मे साहित्य चर्चा होती रही। जबलपुर मे मयूर होटल मे सबके ठहरने की व्यवस्था की गयी थी। कादम्बरी संस्था के सचिव आचार्य भगवत दुबे ने होटल आकर सभी अतिथियों से मुलकात की। मुझे सम्मान समारोह से पहले नाटक का गिरता ग्राफ विषय पर आयोजित राष्ट्रीय विचार गोष्ठी मे अपने विचार प्रस्तुत करने थे अत:तैयार होकर हम दोनो उनके साथ गोष्ठी स्थल पर ले जाए गए। यह गोष्ठी जबलपुर के मानकुँवरबाई शासकीय महिला महाविद्यालय के सभागार मे आयोजित की गयी थी। होटल मे ही इस संगोष्ठी के मुख्य अतिथि प्रो.श्यामसुन्दर दुबे से भेट हुई। दुबे जी इनदिनो सागर वि.वि मे स्थित मुक्तिबोध सृजनपीठ के अध्यक्ष है। उनकी रचनाशीलता और नवगीत आदि से थोडा बहुत मेरा पूर्व परिचय था सो हम दोनो ने परस्पर एक दूसरे को चीन्ह लिया। कादम्बरी संस्था के अध्यक्ष डाँ.गार्गीशरण मिश्र मराल से भी वही मुलाकात हुई। इस अवसर पर डाँ.श्यामसुन्दर दुबे का व्याख्यान बहुत सारगर्भित और महत्व का रहा। कई वक्ताओ ने दूरदर्शन धारावाहिको को नाटको तथा अन्य लोक नाट्य रूपो के पतन का कारण बताया। नाटक खेलना समय साध्य, श्रम साध्य तथा अर्थ साध्य है। इन सबमे आर्थिक कारण सबसे प्रमुख है।

महाविद्यालय के वर्तमान और निवर्तमान प्रधानाचार्य के अलावा वहाँ के हिन्दी विभाग के अनेक स्वनाम धन्य विद्वान, छात्राएँ, पत्रकार आदि उपस्थित थे, जिन्हे मैने पहलीबार ही देखा था। गोष्ठी की अध्यक्षता प्रो.जवाहरलाल चौरसिया ने की।

संगोष्ठी से निवृत्त होकर मैने अपनी आदत के हिसाब से चाट का ठेला खोजा उससे पानी के बताशे खाए, फिर पनवाडी की दुकान खोजी और अपना दो जोडा पान बनवाया। इन ठेले -खोमचे वालो से बात करते हुए मुझे लगा कि वे लोग अवधी बोल रहे है। मुझे याद आया कि अवधी का एक रूप कोसली भी है। महाराज दशरथ महाकोसल के राजा थे। अयोध्या उनकी राजधानी थी। याद आए तुलसी बाबा-
कोसलेस दशरथ के जाए
हम पितु बचन मानि बन आए।
कोसली अवधी की ही बोली है। मुझे लगा कि वहाँ के लोग अवधी मे सरल ढंग से सवाद कर रहे थे। यहाँ वैसी बुन्देली बोली नही सुनने को मिली जैसी कि मध्यप्रदेश के अन्य क्षेत्रो मे बोली जाती है। मुझे याद आया कि गुरुवर प्रो.सूर्य प्रसाद दीक्षित ने अपने एक व्याख्यान मे कहा था कि अवधी का क्षेत्र उत्तरप्रदेश के अलावा मध्य प्रदेश के कटनी ,सतना, जबलपुर, रीवाँ, शहडोल आदि क्षेत्रो मे भी व्यापक है। ऐसा सम्भवत: चित्रकूट, इलाहाबाद आदि क्षेत्रो के साथ मध्य प्रदेश के इन शहरो के निवासियो द्वारा परस्पर सांस्कृतिक आवागमन के कारण सदियों मे हुआ होगा । आज भी यह क्षेत्र महाकौशल कहा जाता है। मुझे लगता है कि चाट के ठेले पर खडे होकर चाट खाने से उस शहर के आम आदमी के स्वाद
के साथ ही वहाँ की बोली का भी का अनुमान लगाया जा सकता है। लोग कितना तीखा खाते है या फीका पसन्द करते है,समान्य महिलाओ और पुरुषों के खान पान, उनके मसाले ,रुचियाँ आदि का संक्षिप्त परिचय तो लिया ही जा सकता है। रचनाकार के लिए लोगो की बोली और खान-पान दोनो का महत्व होता है, पनवाडी की दूकान भी मेरे लिए किसी सूचना केन्द्र से कम नही थी।

होटल मे लौटकर हम दोनो ने विश्राम किया। शाम को जबलपुर के ही मानस भवन मे कादम्बरी संस्था द्वारा आयोजित सम्मान समारोह मे पहुचना था। होटल सामान्य था किंतु वहाँ से समारोह स्थल दूर नही था। आने जाने के लिए कार की व्यवस्था भगवत दुबे जी ने कर दी थी। समारोह मे मध्यप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष श्री ईश्वरदास रोहाणी जी तनिक समय के लिए पधारे थे ।वे अपने उद्घाटन भाषण मे सभी सम्मानित होने वाले साहित्यकारो का स्वागत करके चले गए। समारोह रानी दुर्गावती वि.वि.के पूर्व कुलपति डाँ.जगदीश प्रसाद शुक्ल के सानिध्य तथा पूर्व सांसद एवं साहित्यकार डाँ.रत्नाकर पाण्डेय की अध्यक्षता मे सम्पन्न हुआ। इस सम्मान समारोह मे मेरे अलावा देश भर से आए लगभग ३० साहित्यकारो और पत्रकारो को विभिन्न विधाओ मे लेखन के लिए सम्मानित किया गया। मेरे लिए यह अत्यंत सुखद क्षण था क्योकि यह समारोह बेहद आत्मीय ढंग से आयोजित किया गया था। इस आयोजन में लेखको, कवियो के परिजन अपनी सक्रिय भागीदारी से समारोह की शोभा बढाते है।यह सरकारी समारोह नही था अतः इस समारोह मे सरकारी समारोहों जैसी औपचारिकता बिल्कुल नही दिखी। जबलपुर के लोगो मे साहित्य – काव्य-नाटक आदि के प्रति जो संस्कार है वह बहुत प्रेरणा देने वाला है। सेठ गोविन्ददास और रामेन्द्र तिवारी जैसे साहित्यकारो की कर्मस्थली रहा है जबलपुर।

सम्मान समारोह के बाद कला साधक मोतीशिवहरे के निर्देशन मे बालिकाओं ने कथक नृत्य प्रस्तुत किया। फिर भोजन और उसके बाद अखिल भारतीय कविसम्मेलन डाँ.राजकुमार सुमित्र की अध्यक्षता मे सम्पन्न हुआ। इस कवि सम्मेलन मे अतिथियो तथा स्थानीय कवियों ने देर रात तक काव्य पाठ किया। अतिथियो के साथ देर रात हम भी मयूर होटल लौट आए।

दूसरे दिन यानी २८-११-०९ को हमने डाँ.देवेन्द्र आर्य के साथ भेडाघाट और धुँआधार देखने का कार्यक्रम बनाया। डाँ. आर्य की पत्नी भी उनके साथ थी। हम लोगो ने एक ही वाहन भेडाघाट के लिए तय किया और निकल पडे। लगभग चालीस मिनट मे वाहन चालक ने हमे भेडाघाट पहुँचा दिया था। ड्राइवर बातूनी था सो बात करते हुए समय का पता ही नही चला। मै और मीनू दोनो ने धुँआधार के पास जाकर नैसर्गिक झरने का आनन्द लिया। अपनी ताल पर नाचती कूदती लहरें और लहरो के टकराने से उठता धुआँ दृश्य को बहुत आकर्षक तथा सुन्दर बनाता है। तमाम पर्यटक वहाँ अपने प
रिजनो के साथ जलक्रीडा का आनन्द ले रहे थे।

इसी जलराशि के बीच मे भेडाघाट की संगमर्मरी शिलाएँ देखी। उन्हे स्पर्श किया। अपने मोबाइल से कुछ चित्र खीचे । कन्दमूल फल चखा। आसपास फुटपाथ पर बैठी साँवली समझदार लडकियाँ जो सामान बेच रही थी,उ नसे बात की, तो यहाँ फिर मुझे फटिक सिला बैठे दोउ भाई--, कहने वाले तुलसी बाबा याद आए और अपने उसी अवधीपन का आभास हो आया। इनमे कुछ लडकियाँ इतै के स्थान पर हियाँ बोल रही थी, लगा कि मै मानो नैमिष के चक्रतीर्थ पर हूँ फिर जब वहाँ के बडे दुकानदारों से बात की तो महसूस हुआ कि यह मध्यप्रदेश है और मै किसी पर्यटन स्थल पर हूँ। वहाँ से चलकर चौसठ योगिनियो के मन्दिर का दर्शन किया। यह मुख्य मन्दिर गौरा पार्वती का था और परिसर मे ९५ योगिनियो की मूर्तियाँ थी। ये सभी योगिनियो की मूर्तियाँ मुख्य मन्दिर के चारो ओर वृताकार मे स्थित है। आश्चर्य की बात यह थी कि ये सभी मूर्तियाँ खण्डित है। कहते है कि अँग्रेजी राज मे किसी अँग्रेज शासक ने इन्हे खण्डित किया था तबसे ये ज्यों की त्यों खण्डित है। वहाँ की विजिटर बुक पर तमाम लोगो ने इस ऐतिहासिक महत्व के मन्दिर को सरकारी संरक्षण प्रदान किये जाने एवं उसकी मरम्मत की सिफारिश की है किंतु सरकार ने अभी तक इस ओर ध्यान नही दिया। अब तो हमारी
आजादी भी साठ साल से ऊपर की हो गयी है। वहाँ सम्भवत: पुजारी का परिवार ही रहता है।

वहाँ से हम लोग पुन: होटल लौट आए क्योकि अपरान्ह ३:३० पर जबलपुर स्टेशन से दिल्ली के लिए गोंडवाना एक्सप्रेस पकडनी थी। डाँ आर्य उनकी पत्नी और मीनू को वापस दिल्ली आना था। मुझे दि.३-१२-०९ से ५-१२-०९ तक सागर वि.वि. मे आयोजित एक अन्य संगोष्ठी मे सम्मिलित होने के लिए रुकना था। अत: मै उसी ट्रेन से कटनी तक आया और वहाँ इन लोगो से विदा ली।

कटनी का स्टेशन तो छोटा है लेकिन रेलवे का बहुत बडा जँक्शन है, अर्थात यहाँ से चारो दिशाओ से रेलें आती जाती है। मुझे २ दिसम्बर की रात तक सागर पहुँचना था। इस बीच चार दिन का समय था अत: मैने कटनी और आसपास के पर्यटन स्थलो की जानकारी के लिए स्टेशन पर ही ह्वीलर की दूकान से मध्यप्रदेश पर्यटन की पुस्तिका खरीदी, बाहर निकलकर चाय पी और पान खाया। यहाँ दिल्ली-बनारस वाला बनारसी पान नही मिलता मगर बँगलादेसी और महोबा वाले पान जैसा मीठा हरापत्ता मिलता है। खाने-पीने और ठहरने के लिए मुझे किसी सामान्य होटल या लॉज की आवश्यकता थी। सम्मान पत्र आदि मीनू जी को दे दिया था। मेरे पास कुल एक बैग था जिसे लेकर मै आसानी से कही भी आ जा सकता था। थोड़ी देर बाजार मे टहलते हुए मुझे यहाँ भी बोली का अपनापन सा अनुभव होने लगा। स्टेशन के पास एक लॉज मे एक सिंगल बेड वाला कमरा मिल गया। वहाँ बैग रखकर मै बाजार मे टहलने लगा कि कही भोजन किया जाय। यहाँ भी वही अरहर की दाल ,वही दही, वही बथुए का रायता और मेथी की सब्जी मिल गयी। अवध की सी वही शाम। न कही जादा शोरगुल न दिल्ली, मुम्बई जैसी कोई आपाधापी । भोजन करके वही पास की दुकान की रबडी चखी। क्या बढिया रबडी- वहाँ जो रबडी की कटोरी दस रुपए की थी वह शायद दिल्ली में २५ में भी वैसी नही मिलेगी। लॉज मे आकर थोडी देर मध्यप्रदेश पर्यटन की पुस्तिका को देखता रहा। पुस्तिका मे मध्यप्रदेश का नक्शा था।उसमे कटनी के समीपवर्ती पर्यटन स्थलो की जानकारी दूरी आदि का विवरण दिया था।

फिर मैहर और बान्धवगढ के राष्ट्रीय अभ्यारण्य देखने का मन बनाकर सो गया। सुबह उठा तो आठ बज रहे थे, मीनू जी का फोन मिला वो दिल्ली पहुँच गयी थी। मैने मुह हाँथ धोकर खिडकी से बाहर झाँककर देखा तो पोहा,गरम समोसा और जलेबी के कई ठेले दिखायी दिये । उनके आसपास भीड खडी थी।मै भी अपने आप को रोक नही सका ,नीचे आकर मैने पोहा और जलेबी खाया। खूबसूरत जलेबियो का कुरकुरापन ठीक लखनऊ या इलाहाबाद जैसा ही था। वह पाँच रुपए मे एक पत्ता था। माजा आ गया। मैने पान की दूकान पर जाकर रजनीगन्धा का पौच लिया और लॉज मे वापस आ गया। अब लाइट आ गयी थी और बालक ने स्नान के लिए पानी गरम कर दिया था। स्नानादि से निवृत्त होकर मैने रेलवे स्टेशन जाकर मैहर के लिए ट्रेन का पता किया। फिर कमरे मे आकर लॉज वाले का हिसाब किया और बाहर आकर भोजन किया। मैहर के लिए ट्रेन १२ बजे के आसपास मिली। बहुत दिनो बाद पैसिंजर ट्रेन पर सवारी की। ट्रेन मे भीड नही थी। मुझे आसानी से सीट मिल गयी थी। मैहर कटनी से ६१ कि.मी.दूर है, अत: मै लगभग २ बजे मैहर पहुँच गया था। मैहर रेलेवे स्टेशन पर ध्रुपद गायक महान संगीतकार पद्मविभूषण उस्ताद अलाउद्दीन खाँ का सम्मानपट लगा हुआ था जिस पर लिखा था-बाबा ने १९५५ मे म्यूजिक कालेज आँफ मैहर की स्थापना की। उस प्रशस्तिपट को पढकर मैने उसका एक चित्र अपने मोबाइल से खीचा और मैहर स्टेशन से बाहर आया।

बाहर निकल कर चाय पी और पान खाया फिर पनवाडी से ही लॉज के बारे मे पूछा और पास के एक लॉज मे जाकर ठहर गया। मौसम ठंडा था,लगभग ३.३० बज रहे थे। मैने लॉज के मैनेजर से शारदा माता के दर्शन के बारे मे बात की तो उसने सुबह जाने के लिए राय दी। मैने भी सोचा कि स्नानादि के बाद ही सुबह दर्शन करूँगा। दूसरे दिन सुबह कोई ९.३० बजे मै मन्दिर के पास पहुँच गया था। बहुत वर्षों से जिस माता शारदा के दर्शन की इच्छा थी वह आज पूरी होने वाली थी। निराला, और आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री दोनो ने कविता की देवी को नील सरस्वती के रूप मे क्यों देखा है- यह ग्रंथि मेरे मन को मथती रही है। आम तौर पर सरस्वती की धवल मूर्ति या श्वेतवसना चित्र ही देखने को मिलते है। सुनते आए हैं कि देश भर मे केवल मैहर मे ही यह एक मात्र शारदा का प्रचीन मन्दिर है। अत: आस्था विश्वास और साहित्य की गुत्थी सुलझाने का अवसर मिला था सो मै मन्दिर की सीढियाँ चढने लगा। बच्चे -बूढे -जवान,युवतियाँ और बूढी महिलाएँ सभी लोग सीढियों से चढे चले जारहे थे। मैने किसी दर्शनार्थी से पूछा कितनी सीढियाँ है तो उसने बताया-
“कुल ११२० सीढियाँ है। एक तरफ से ५६० है।“
‘कितना समय लगेगा?’
यह तो चढने वाले पर निर्भर करता है। थक जाने पर ये बेंच बनी है,यहाँ बीच-बीच मे रुककर विश्राम कर सकते हैं।‘
सबको देखकर मैने भी चढना शुरू कर दिया। मै ५० से ६० सीढी चढकर विश्राम करता और फिर चलता, इस प्रकार धीरे-धीरे कोई एक घण्टे मे मैं मन्दिर के समीप पहुँच गया। ऊपर से नीचे का दृश्य बहुत सुन्दर लग रहा था। हालाँकि यहाँ अब रोपवे अर्थात ट्राली की व्यवस्था हो गयी है किंतु मुझे सामान्य जन की भाँति सीढी चढने मे मजा आ रहा था। मन्दिर के भीतर जाकर देवी के दर्शन किये और देखा कि सचमुच शारदा की मूर्ति काले पत्थर की है। मुझे याद आए निराला –
देखा, शारदा नीलवसना
है सम्मुख स्वयं,सृष्टिरशना।
इसके बाद फिर आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की गीत पुस्तक श्यामा संगीत की याद ताजा हो गयी। १९८९ मे जब आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी दिल्ली अपने उपचार के लिए आए थे तब मैने उनसे श्यामा संगीत पुस्तक मे वर्णित नीलवसना सरस्वती के विषय मे पूछा था उन्होने कुछ समझाया भी था पर उस सब का अर्थ अब खुल रहा था। शारदा या सरस्वती को हमारी संस्कृति मे समस्त कलाओं की अधिष्ठात्री देवी के रूप मे सदियो से स्वीकार किया जाता रहा है । सम्भव है दोनो महाकवियो ने इस पीठ या इस मूर्ति को ध्यान मे रखते हुए अपनी अवधारणा बनायी हो। यह विचार शारदा की इस एकमात्र प्रतिमा को देखकर मेरे मन मे सहज रूप दृढ होते गए। फिर याद आया कि नाट्यशास्त्र मे भरतमुनि ने भी
लास्य आदि नृत्य का आविर्भाव श्यामवर्णा देवी पार्वती के नृत्य से ही स्वीकार किया है।

सीढियाँ उतरने मे मुझे बडा मजा आरहा था, और कुल १० मिनट मे मै नीचे आगया था। अब मुझे समझ मे आरहा था कि किसी ऊचाई तक चढना कितना कठिन और वहाँ से उतरना कितना आसान होता है। मेरे लिए यहाँ एक और आश्चर्य चकित होने की बारी थी। थोडी देर बेंच पर बैठकर विश्राम किया। मैंने यहाँ भी चाट के ठेले पर जाकर पानी के बताशे खाए, मटर का पत्ता खाया, मैहर की जनता का आस्वाद और कोसलीबोली का जायजा लिया। खान-पान और भाषा यहाँ की भी कटनी जैसी ही थी। मन प्रसन्न था। शाम होने को थी सो मै लॉज की ओर चल पडा। मन्दिर से कोई पाँच या छह
किलोमीटर रहा होगा मैहर स्टेशन, वही पास के ढाबे मे भोजन किया फिर लॉज मे आकर विश्राम किया। शाम होते ही ठंड बढ गयी थी। बिस्तर ठीक था, थक गया था -सो नीद आ गयी।

अगले दिन कटनी वापस आ गया। मन मे सोचा था कि सीधे बान्धवगढ जाऊगा। पर वैसा हो नही पाया, अत: कटनी आकर फिर उमरिया और वहाँ से बान्धवगढ पहुँचने का रास्ता मालूम किया। लॉज के मालिक ने समझाया भी कि बान्धवगढ मे सुबह पहुँचना ही ठीक रहेगा किंतु मै कहाँ मानने वाला था। कटनी से उमरिया के लिए ट्रेन कम है, किंतु बस की अच्छी सुविधा है। मै निकल पडा और करीब १ बजे दिन मे उमरिया पहुँच गया था। जबलपुर और कटनी की तुलना मे उमरिया बहुत छोटा सा कस्बा महसूस हुआ। साफ लग रहा था कि विकास यहाँ उस गति से नही हो पाया है जैसा होना चाहिए,लेकिन संभव है कि यह बान्धवगढ के जंगल के समीप होने के कारण शांत है। यहाँ शांति है और ईमानदारी से ही लोग अपना व्यापार करते है। यहाँ के लोग गरीब तो है किंतु भीख माँगने वाले और उठाईगीर- ठग-जेबकतरे जैसे दिल्ली-मुम्बई जैसे महानगरों मे हर जगह मिल जाते है-वैसे इस क्षेत्र मे नही मिले। उमरिया से दूसरी बस
लेनी थी। वह बस भी समय पर मिल गयी थी। रजनीगन्धा,पान और पानी की बोतल ही मेरा पाथेय बने रहे। लगभग २.३० बजे मै बान्धवगढ राष्ट्रीय अभयारण्य के गेट न. एक पर पहुँच गया था, परंतु शाम के समय का जो नियमित प्रवेश २.३० बजे से होता था वह आज बन्द था। मालूम हुआ कि किले के परिसर मे स्थित कबीर मन्दिर मे मेले और भंडारे का आयोजन है। इस लिए आज अरण्य के पर्यटको का प्रवेश बन्द है। नतीजतन मैने यहाँ भी ढाबा खोजा क्योकि होटल महँगे थे और उनमे मेरे लिए कुछ भी जानने सीखने लायक नही था। ढाबे मे घर की सी तवे वाली रोटी और अरहर की दाल मिल गयी। जंगल मे घर जैसा खाना मिल जायगा यह तो सोचा भी न था। जंगल नही जा सकता था तो सोचा कि कबीर मेला ही देख लूँ । सद्गुरु कबीर मेला कई दिनो से चल रहा था। वहाँ हजारो की भीड थी सबके सब सामान्य जन थे । वहाँ ज्यादातर कबीरपंथ के अनुयायी थे। मैने भी कबीर मन्दिर जाकर कबीर जी के दर्शन किये। वहाँ शाम की आरती-प्रसाद के लिए भक्तो द्वारा एक समान हजारो तश्तरियाँ सजी थी जिनमे केली के पत्ते बिछाए गए थे। उसके ऊपर चावल सुपारी आदि और उसके ऊपर रखा था आँटे का दिया, दिये मे थी रुई और कपूर की बाती। बहुत सुन्दर लग रहे थे वे दिये, एक पंक्ति मे सजाए गए थे वे दिये। सैकडो लोगो के लिए लंगर की व्यवस्था थी। मेले मे तमाम दूकानदार अपनी दूकान भी सजाकर बैठे थे। अँधेरा होने को था अतः मै वापस ढाबे पर चला आया।ढाबे के मालिक नारायन भाई बर्मन से जंगल मे जाने के विषय मे विस्तार से बात की।
उसने पूछा
‘आप कहाँ से आए है ’
‘मैने कहा- दिल्ली से..’
‘वह बोला,आपकी भाषा से नही लगता..’
मेरी भाषा ..तो लखनऊ की है..अवधी है....’
‘आपकि भासा हमारिही जैसी है..बतायें क्या सेवा की जाय?’
फिर देर तक जंगल मे जाने और जंगल के राजा शेर से मुलाकात करने की योजना पर हम दोनो बात करते रहे। उसने बताया कि खुली जीप का किराया कम से कम रु.१०००/ है, रु.६८०/ प्रवेश शुल्क है। जिसमे गाइड की फीस १५०/ भी शामिल है। आप चाहो तो शेयर जिप्सी मे रु. ५०० या ६००/ मे काम चल जाएगा। पहली बार जंगल मे जारहा था, खुली जीप मे जंगल के राजा के सामने अकेले जाने की हिम्मत न हो पायी। मैने सोचा शेयर जिप्सी ही ठीक रहेगी। उसके लिए सुबह ६ बजे गेट पर पहुँचना था। मैने रात मे उसी ढाबे पर विश्राम किया, उसके पास बिस्तर आदि की व्यवस्था थी। मोबाइल मे एलार्म लगाकर मै सो गया। उसने कहा –‘आप निश्चिंत रहे हम आपको ६.बजे गेट तक अपनी गाडी से पहुँचा देंगे।..वहाँ कोई न कोई शेयर जिप्सी वाला मिल ही जाएगा।’

मैने भी सोचा कि रु. १६८०/ के बजाय रु. ५००/ मे मेरा भी काम हो जाएगा और अकेलेपन का डर भी नही रहेगा। सुबह ठीक समय पर नारायन भाई ने मुझे जंगल के गेट नं.एक पर पहुँचा दिया था। वहाँ शहडौल के चार युवक मिल गए जो जंगल घूमने आए थे, नारायन भाई ने उनसे बात करके मुझे भी उनकी जीप मे बैठा दिया। कोई दस मिनट बाद हमारी जीप के ड्राइवर ने प्रवेश के कागज और गाइड महोदय को लेकर जंगल मे प्रवेश किया। मुझे याद आए भवानीप्रसाद मिश्र-
सतपुडा के घने जंगल
ऊँघते अनमने जंगल।

मैने गाइड से पूछा तो उसने बताया कि यह तो विन्ध्य का जंगल है।
यह सत्पुडा नही है चाहे जो हो उस समय जंगल सचमुच ऊँघ रहा था क्योकि सुबह की बहुत ठंडी हवा थी। खुली जीप मे कान कसे हम खडे थे जीप का हत्था पकडे। जब तीखी हवा नही सही गयी तो मै सीट पर बैठ गया।

गाइड ने बताया-‘हम सी-रूट से चल रहे है और ए-रूट से वापस आएगे। इसी रूट पर शेरनी मिल सकती है।’ इसी समय लगभग तीस जीप आलग-अलग रूट से होकर जंगल मे दाखिल हुई। घुसते ही गजराज के दर्शन हुए। हमारी जीप जिस ऊबड -खाबड गलियारे पर दौड़ रही थी उस पर चार पाँच अन्य जीप भी चल रही थी। गाइड हमे निर्देश देता जा रहा था कि जंगल मे बिल्कुल शांत रहना है। जीप से कही भी नीचे नही उतरना है। कोई पाँलिथिन या कागज कही नही गिराना है। हम जंगल के भीतर घुसते जारहे थे यह गोधूलि बेला थी ठंड पड़ रही थी। वातावरण बिल्कुल स्वच्छ और शांत था। मै महसूस कर सकता था जंगल की शांति। बीच-बीच हिरनों के झुंड मिले अपने आप मे मुगध भाव से कुलेले भरते नर्म घास का नाश्ता करते हुए से। फिर आगे लंगूरो का दल मिला। शाल के वृक्ष खूब थे, पीपल बरगद आदि भी मिले। जगह जगह तालाब, जंगली घास वन की शोभा मे मानो चार चाँद लगा रही थी और वहीं पेडो की फुनगियो तक चढी लताएँ देखकर लगा कि मानो जिद्दी लडकियाँ पिता के सिर पर चढ़ कर खेल रही है। सूखे हुए वृक्ष-ऐठे हुए वृक्ष और उल्झे हुए वृक्ष भी थे वहाँ किंतु कुछ एक दम सीधे सपाट खड़े झूम रहे थे। गलियारे के आस-पास लकडी की सीढियाँ बनी हुई थी –
गाइड ने बताया कि जो लोग हाथी पर चढ कर घूमते है उन्हे हाथी से उतारने और चढाने के लिए ये सीढियाँ बनाई गयी है।

अब सूर्योदय हो गया था। वातावरण गरमाने लगा था। अब मै फिर जीप पर खडा होकर जंगल का अभूतपूर्व दर्शन कर रहा था। अचानक कहीं से शेरनी की दहाड सुनाई दी कि तभी उस स्वर के साथ दूसरे किसी जानवर के कराहने की आवाज आने लगी। हम सब दम साधकर इधर-उधर देखने लगे। आवाज बान्धवगढ के किले के पास वाली पहाडी की ओर से आरही थी। गाइड ने फुसफुसा कर बताया कि शेरनी ने शिकार किया है। हमारे आसपास चलने वाली सभी गाडियाँ रुक गयीं। लोग दूरबीन से चुपचाप निरीक्षण करने लगे। पन्द्रह बीस मिनट तक कराहने आवाजे आती रही। हम सब खडे रहे फिर सिंह शावको की आवाज आने लगी। गाइड ने बताया कि अब शेरनी अपने बच्चो को भोजन करा रही है।

आवाजों के अलावा कही कुछ दिखाई नही दिया। थोडी देर बाद जब दोनो आवाजें शांत हो गयी तो हमारी गाडियाँ आगे बढी। गाइड ने बताया कि इस जंगल के भीतर पहाडी से होकर नौ झरने निकले है जो नीचे तक बहते हुए नदियों का रूप लेते है। गेट पर जो नदी आपने पार की थी वह चरणगंगा नदी इसी पहाडी से निकली है। कई झीले दिखीं। भाँति-भाँति के वनपंछी दिखे। बाज दिखा,चीलो के झुंड दिखे। अब हम जंगल मे बने सेंट्रल पार्क मे थे। यहाँ सभी पर्यटको को गाडी से
नीचे उतरने की सुविधा थी। कुछ चाय-काँफी आदि की दूकाने थी। लघुशंका आदि के लिए यहीं व्यवस्था थी।

चाय पीकर हम फिर चल पडे। जंगल मे बाँबियाँ खूब दिखीं। गाइड ने बाँबी दिखाते हुए वाल्मीकि की कथा सुना डाली। शहडौल के हमारे युवा साथी उदास थे कि शेरनी देखने को नही मिली। हम अपने रूट से वापस आरहे थे कि देखा आगे कुछ जीपे खडी है,लोगो ने बताया कि शेरनी दिखी है। हम सब भी शांत भाव से जंगल की महारानी की प्रतीक्षा करने लगे। लगभग बीस मिनट तक साँस रोके खडे रहे। फिर यकायक शेरनी हमारे गलियारे के पास से होकर निकली। सबने अपनी जीप स्टार्ट कर रखी थी। हमारी जीप शेरनी से कोई तीस फुट की दूरी पर थी। शेरनी ने एक बार गरदन घुमाकर हम लोगो की और देखा,ठिठकी फिर एक क्षण बाद गरदन घुमाकर अपने स्वाभाविक दर्प के साथ मंथर गति से अपनी दिशा मे चली गयी मानो कोई विश्वसुन्दरी अपनी एक झलक दिखाकर हाथ हिलाकर अपने रास्ते चली गयी हो। सभी लोगो की साँस रुक गयी थी उस समय। उसका स्वस्थ सुन्दर शरीर चिडियाघर के पालतू शेरनियों की तुलना मे कहीं अधिक चमक रहा था। एक नैसर्गिक दीप्ति उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी। सभी पर्यटक प्रसन्न थे। अब हमारे युवा मित्रो के चेहरे की उदासी और निराशा भी समाप्त हो गयी थी।

विन्ध्य- वन का ही एक हिस्सा है यह बान्धवगढ का अरण्य। यह लगभग १६० वर्ग कि.मी. मे फैला है। लगभग पौने दस बजने को थे। हमारा समय समाप्त होने वाला था ,गाइड ने कहा-- बस ,चलो वापस । दस बजे गेट पर रिपोर्ट करनी है। आप लोग बहुत किस्मत वाले है कि आपको शेरनी दिख गयी वर्ना लोग न जाने कितने चक्कर लगाते है और शेरनी के इतने निकट से दर्शन नही हो पाते। बाहर निकलकर मैने शहडौल वाले युवा मित्रो से प्रसन्नता पूर्वक विदा ली। लौटकर नारायन भाई से मिला खाना खाया उनका हिसाब किया हृदय से आभार व्यक्त किया और कटनी के लिए वापस चल दिया। आज २ दिसम्बर था। मुझे शाम तक सागर पहुँचना था। सागर मै पहले भी जा चुका था अतः पहली बार सा
कौतूहल मन मे नही था।

मै वहाँ से दोपहर मे कटनी और कटनी से गोंडवाना पकडकर शाम ८ बजे सागर पहुँच गया था। यहाँ स्टेशन पर ही सागर वि.वि. संस्कृत विभाग के छात्र मिल गए वे अतिथियो को लेने आए थे । उनके साथ वाहन मे बैठकर मै वि.वि.के अतिथिगृह पहुँच गया। हमारे साथ ही वाहन मे ग्वालियर से पधारे रंगनिर्देशक डाँ.कमल वशिष्ठ और भिन्ड से पधारे नाट्यशास्त्र के विद्वान ओ.पी.राजपाली भी थे। मै पहले भी इन लोगो से मिल चुका था अतः पहचानने मे देर न लगी। संयोगवश राजपाली और मै अतिथिगृह के एक ही कक्ष मे ठहरे। मै काफी थका हुआ था, भोजन करके सो गया। प्रातः उठा तो पता लगा कि नाट्यशास्त्र के पुनराविष्कारक प्रो.राधावल्लभ त्रिपाठी आ चुके है। सुबह देखा तो प्रसिद्ध रंगविश्लेशक भारतरत्न भार्गव दिल्ली से पधार चुके है। यहाँ नाट्यशास्त्र पर तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन सागर वि.वि. के संस्कृत विभाग द्वारा किया गया था। एक दुखद समाचार यह भी मिला कि संगोष्ठी की संयोजिका विभागाध्यक्षा प्रो.कुसुम भूरिया के पति पैरालिटिक अटैक के बाद अस्पताल मे भर्ती है। बहरहाल आयोजन होना था तो वह हुआ,
प्रो.भूरिया ने दोनो जगहो पर धैर्यपूर्वक समय दिया।

उद्घाटन सत्र मे प्रो.राधावल्लभ त्रिपाठी का भाषण ही संगोष्ठी का बीज भाषण था। उन्होने विस्तार से नाट्यशास्त्रीय मौलिक तत्वो तथा उनके विकास की परंपरा पर विचार किया। उसके बाद अनेक अध्यापको ने काम चलाऊ पर्चे पढे। दूसरे सत्र मे भारतरत्न भार्गव का अध्यक्षीय भाषण समीचीन था। दूसरे दिन अर्थात दि.४-१२-०९ को पढे गए पर्चे बहुत महत्व के थे। अधिकांश वक्ताओं ने मूल विषय को छुआ- और नाट्यशास्त्रीय मौलिक तत्वो की विकास परंपरा को सही अर्थ मे व्याख्यायित करने का प्रयत्न किया गया। विद्वानो ने अच्छी चर्चा की। दिल्ली, राजकोट, बडौदा, बनारस, जयपुर, भोपाल, जबलपुर, ग्वालियर,उज्जैन,रींवा आदि स्थानो से नाट्यशास्त्र के विद्वान इस गोष्ठी मे पधारे थे। इसी दिन कमल वशिष्ठ द्वारा निर्देशित कालिदास के नाटक विक्रमोर्वशीयम का मंचन विश्वविद्यालय के स्वर्णजयंती प्रेक्षागार मे हुआ। नाटक की सभी ने बहुत प्रशंसा की खासकर विदूषक, निपुणिका, पुरुरवा, उर्वशी आदि का अभिनय,संजय द्विवेदी का गायन तथा संगीत पक्ष और निर्देशन और रंगसज्जा सब कुछ काबिले तारीफ था। दर्शको ने कमल वशिष्ठ को तथा विभाग के छात्रो
को बहुत बधाई दी।

यही के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो.आनन्दप्रकाश त्रिपाठी से भी भेंट हुई। उन्हे मैने अपनी एक उपन्यास की प्रति भेट की। बोली और भाषा को लेकर संक्षिप्त बातचीत भी की। हमारा उनका पहले से पत्राचार था अतः उन्होने मुझे आदर सहित बातचीत का समय दिया। अगले दिन अर्थात ५-१२-०९ को समापन के बाद सबने अपना मार्ग व्यय इत्यादि लेकर विदा ली। प्रो.भूरिया ने सबको धन्यवाद किया। सागर वि.वि. के छात्रो द्वारा मुझ जैसे अकिंचन को दिया गया सम्मान और उनका स्टेशन तक छोडने आना फिर ट्रेन आने तक बैठे रहना सचमुच बहुत दिनो तक याद रहेगा। मै और भारतरत्न भार्गव वापसी मे गोण्डवाना एक्सप्रेस के एक ही डिब्बे मे थे अतः बातचीत करते हुए सुखपूर्वक हम दोनो वापस आए। इस अवसर पर ट्रेन मे भार्गव जी ने समकालीन भारतीय साहित्य के पूर्व संपादक गिरधर राठी के सम्बन्ध मे बातचीत करते हुए प्रसिद्ध रंगकर्मी शम्भुमित्र के साथ अपना एक संस्मरण सुनाया जो मेरे लिए कौतूहल का कारण बना हुआ है। सुबह आँख खुली तो मै दिल्ली पहुँच गया था। इस प्रकार लौट के बुद्धू घर को आए।

 

१८ अप्रैल २०१०

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।