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संस्मरण

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वीरता की परंपरा नायक हवा सिंह
- शशि पाधा


इतिहास साक्षी है कि युद्ध कितना भयानक होता है। आग, अंगार, बन्दूक, तोप, चीत्कार और हज़ार्रों की संख्या में जानहानि। द्वितीय विश्व युद्ध के समय जापान के हिरोशिमा तथा नागासाकी नगरों पर परमाणु बम गिरने से लाखों लोगों की जाने गईं। ये नगर तो फिर से बस गए किन्तु परमाणु बम के वीभत्स परिणामों से कई भावी पीढ़ियाँ मानसिक एवं शारीरिक रोगों से त्रस्त रहीं। क्या इसके उपरान्त भी इस त्रासदी से युद्ध पिपासियों ने कुछ सीखा? शायद नहीं। आज भी विश्व के किसी न किसी भाग में धरती के टुकड़े के लिए, किसी राष्ट्र पर अपना प्रभुत्व थोपने के लिए या केवल अपनी सैनिक सक्ष्मता का झंडा गाड़ने के लिए कुछ देश सैनिक कारवाई पर उतारू हो जाते हैं और इन सब के बीच घायल मानवता रोती–बिलखती रहती है।

युद्ध की भी कोई ना कोई अवधि होती है। उसे तो कभी न कभी समाप्त होना ही है। इस अमानवीय संहार और दानवता के बाद आरम्भ होता है समझौतों और शिखर वार्ताओं का लम्बा सिलसिला, देश की सरकार्रों की ओर से शहीदों के परिवारों को आर्थिक सहायता के वचन एवं देश भक्ति के भावों से ओत–प्रोत रचनाओं से भरे हुए समाचार पत्र और पत्रिकाएँ। उन दिनों भावनाओं तथा संवेदनाओं का उद्वेग इतना तीव्र होता है कि आम जनता सैनिकों के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है। किन्तु युद्ध के वीभत्स परिणामों से अकेले जूझते हैं शहीदों के परिवार जो सदा के लिए खो देते हैं अपना बेटा, पति, पिता या भाई अथवा असह्य शारीरिक एवं मानसिक पीड़ा को झेलते हैं वे घायल सैनिक जो महीनों अस्पतालों में पड़े रहते हैं, जिनके शरीर के अंग बारूदी सुरंगों में विस्फोट के कारण उड़ जाते हैं या शल्य चिकित्सा के समय उन्हें काट दिया जाता है ताकि उनका बाकी शरीर ठीक रहे।

अगर आप युद्ध समाप्ति के बाद किसी सैनिक अस्पताल में जाएँ तो आपका हृदय अवश्य दहल जाएगा। किसी सैनिक के दोनों हाथ नहीं हैं, किसी की टाँगें नहीं और किसी का आधा शरीर ही नहीं। इन सैनिकों के धैर्य और जिजीविषा के आगे हर संवेदनशील प्राणी नतमस्तक हो जाता है। शायद यही कारण रहा होगा कि कलिंगा के भयानक युद्ध के परिणामों को देखते हुए अशोक महान ने ग्लानि और पश्चाताप की अग्नि में जलते हुए बौद्ध धर्म की शरण ली थी। आज का युग अपने अतीत से कुछ शिक्षा क्यों नहीं ले सकता? यह प्रश्न मेरे अंत:करण के आकाश में सदैव गूँजता रहता है।

इसी सन्दर्भ में आज मैं अपने पाठकों का परिचय एक ऐसे शूरवीर सैनिक से कराती हूँ जिसके दुःख की पराकाष्ठा से मैं स्वयं भी कई दिनों तक विचलित रही।

कई वर्षों से भारत के उत्तरी प्रान्तों में भारत- पाक सीमा रेखा के पास और सीमा से लगे आंतरिक शहरों में चरमपंथी गृह युद्ध में संलग्न थे। हमारी सेना हर परिस्थिति में देश में शान्ति बनाये रखने के प्रयत्नों में लगी थी। इसी बीच मुझे यह बताया गया कि सीमाओं पर आतंकवादियों के साथ हुई मुठभेड़ में हमारी यूनिट के कुछ जवान गम्भीर रूप से घायल हो गये हैं और उन्हें वायुयान के द्वारा चंडीगढ़ सैनिक हास्पिटल में लाया गया है। मैंने अपनी यूनिट के कैप्टन राज से घायल जवानों से मिलने की इच्छा जतलाई। हर सैनिक अधिकारी की पत्नी का यह कर्तव्य और उत्तरदायित्व होता है कि वह हर स्थिति में अपने सैनिक परिवारों का मनोबल बढ़ाए। मेरी इच्छा जान कर कैप्टन राज ने जल्दी ही हमारे जाने का सारा प्रबंध कर दिया।

हमने घायलों के लिए बहुत से फल, बिस्किट, जूस के डिब्बे, पढ़ने की सामग्री और उनके इस्तेमाल में आने वाली अन्य वस्तुओं के पैकेट बनाये और सुबह -सुबह चंडीगढ़ की ओर निकल पड़े। हमारे वहाँ आने की सूचना अस्पताल में पहले ही कर दी गई थी, अत: बिना किसी व्यवधान के हमें गंभीर रूप से घायल हुए सैनिकों के वार्ड में जाने दिया गया। उन में से नायक हवा सिंह गंभीर रूप से घायल थे। वे “कराटे” में प्रशिक्षित थे और पलटन के अन्य सैनिकों को ‘निरस्त्र युद्ध’ (Unarmed Combat) विधा का प्रशिक्षण देते थे। वे स्वयं कराटे में ‘ब्लैक बेल्ट’ प्राप्त कर चुके थे।

जैसे ही मैंने सबसे पहले नायक हवा सिंह से मिलने की बात कही, कैप्टन राज ने कुछ गंभीर स्वर में कहा-
“मैम, उनसे मिलने के लिए बहुत धैर्य और हौसला चाहिए। आप तैयार हैं?”
जैसे कि मैं सदा ही ऐसी परिस्थितियों में करती हूँ, मैंने अपनी ऑंखें बंद की, देवी से मूक प्रार्थना की और कहा-
“हाँ, तैयार हूँ।"

गंभीर रूप से घायलों के वार्ड के विशेष कमरे में प्रवेश करते ही मैंने जो दृश्य देखा उससे मेरा अंतर्मन काँप उठा। छ: फुट लम्बे, गौर वर्ण हवासिंह की दोनों आँखों पर सफेद पट्टियाँ बँधी हुई थीं। उसकी दोनों टाँगें भी प्लास्टर में थीं। उसकी चारपाई के पास ही उसकी नवविवाहिता पत्नी सिर ढके बैठी हुई थी। मेरे भीतर आते ही उसकी पत्नी नमस्कार कर के कुछ दूरी पर खडी हो गई। मैंने उसे गले लगाया और धीरे धीरे नायक हवा सिंह की ओर बढ़ने लगी। इतने में कैप्टन राज ने कहा-
“हवा सिंह, मेम साहब आई हैं आपसे मिलने।”
उसने काँपती आवाज़ में कहा-
“नमस्ते मेम साब।”

मैं चुपचाप जाकर उसकी चारपाई के पास रखे स्टूल पर बैठ गयी और बड़े स्नेह से उसके हाथ को अपने हाथों में ले लिया। इस समय ‘आप कैसे हो’ कह कर उसका हाल पूछने की औपचारिकता व्यर्थ सी लगी। मैं जानती थी कि वो अथाह पीड़ा में था। मैंने उसके काँपते शरीर को देखा और महसूस किया कि वो रो रहा था। किन्तु विडंबना यह थी कि वो आँसू नहीं बहा सकता था। बँधी हुई पट्टियों के नीचे उसके दोनों नेत्र उस मुठभेड़ में बुरी तरह से छलनी हो गए थे।

आतंकवादियों के साथ वीरता से लड़ते हुए हवा सिंह ने कई आतंकवादियों को धराशायी किया था। जब वो इस मुठभेड़ में घायल हो कर गिर पड़े तो किसी हृदयहीन आतंकवादी ने गोलियों से उसकी आँखों को वेध दिया था। अब उसकी आँखों के स्थान पर केवल गहरे घाव थे, कभी न भरने वाले।

कमरे में एक चुप्पी सी छाई थी। मैं चाहती थी कि इस समय हवा सिंह जो भी कहना चाहे कहे, ताकि उसकी पीड़ा का बोझ कुछ हल्का हो। यह सत्य है कि सैनिक बहुत धैर्यवान और शूरवीर होते हैं किन्तु मानसिक और शारीरिक पीड़ा तो उन्हें भी होती है, और उस पीड़ा को कोई कैसे बाँट सकता है?

मैंने बड़े स्नेह और ममत्व से उस से कहा-
“मैं आपके दुःख को समझ रही हूँ। डॉक्टर भी बहुत लगन से आपका उपचार कर रहे हैं। आप धैर्य रखें, भगवान् की कृपा से कुछ ना कुछ हल अवश्य निकल आयेगा।”

मेरा ऐसा कहने पर उसने मेरे हाथ को जोर से पकड़ लिया और काँपती आवाज़ में कहा, “मेम साहब जी, मैं जीना नहीं चाहता। मैं बिना आँखों के जीना नहीं चाहता। मैं किसी पर बोझ बन कर नहीं जी सकता।” और भावावेश में उसने मेरे दोनों हाथ अपनी आँखों पर बँधी हुई पट्टियों पर रख दिए। उसका सारा शरीर काँप रहा था और उसकी पीड़ा से हम सब विह्वल खड़े थे। मैं हवासिंह की मनोव्यथा समझ रही थी किन्तु, यह समय धैर्य खोने का नहीं धैर्य बँधाने का था।

मैंने उससे कुछ नहीं कहा। केवल उसके हाथ अपने हाथ में ले कर सहलाती रही। मैंने देखा कि उसकी युवा पत्नी घूँघट काढ़े दूर खड़ी थी। उसके ससुराल के कुछ लोग उस कमरे में थे। मैंने उसकी और देखा। वो बहुत शांत मुद्रा में खड़ी चुपचाप अपने पैर के अँगूठे से फर्श पर कुछ कुरेद रही थी। शायद अपने मन की पीड़ा धरती की छाती पर उकेर रही थी।
मैं उठ कर उस के पास जा कर खड़ी हो गई। जैसे ही मैं उससे कुछ कहने को हुई उसने स्वयं ही मुझसे बड़े दृढ़ स्वर में कहा-
“मैं ठीक हूँ मेम साहब जी। आप मेरी चिंता मत कीजिए, आप बस इन्हें समझाएँ।”

उसकी माँग में भरे लाल सिन्दूर और माथे की बिंदिया ने मुझे हवा सिंह को सांत्वना देने का साहस बँधाया। मैंने हवा सिंह के पास जाकर उसके दोनों हाथों को उसकी पत्नी के हाथों में रख कर केवल इतना कहा-
“इससे पूछो कि ये क्या चाहती है? इसके लिए आप जैसे भी हो, जीवित तो हो। अब आपको अपने लिए नहीं इसके लिए जीना है और यह बनेगी आपकी आँखों की ज्योत।
हवा सिंह की पत्नी ने बहुत धीरज से मुझसे कहा, “मेम साहब जी, अगर यह ठीक हो जाएँ तो हम दोनों जैसे भी हो सकेगा अपना जीवन एक–दूसरे के सहारे काट लेंगे। आप इनको धैर्य बँधाएँ।”

हम सब वहाँ काफी समय तक बैठे रहे। हमने बार–बार हवा सिंह से यही कहा कि वो हिम्मत रखे। जैसे ही उसके शरीर के बाकी घाव ठीक हो जायेंगे तो भविष्य में सामान्य जीवन व्यतीत करने योग्य बनाने में हमारी पलटन पूर्णतया उसकी सहायता करेगी। हवा सिंह तो उस समय अपनी आँखें खो देने के दुःख के कारण कुछ और सोचने की स्थिति में नहीं था, उसे अपना भविष्य अंधकारमय लग रहा था। किन्तु, उसकी पत्नी से मिल कर मैंने यह अवश्य भाँप लिया था कि वो अपने पति के भावी जीवन को सुखद बनाने के लिए दृढ प्रतिज्ञ है। अब मैं भी कुछ आश्वस्त हो कर दूसरे वार्ड में अन्य घायल सैनिकों से मिलने के लिए चली गई।

हवा सिंह लगभग दो महीने सैनिक अस्पताल में रहा। हमारी पलटन के सदस्य समय-समय पर वहाँ जाकर उसकी सहायता करते रहे। उसी वर्ष उसे भारत सरकार की ओर से “कीर्ति चक्र” से विभूषित किया गया। एक सैनिक अधिकारी का हाथ पकड़ कर जब हवा सिंह ने भारत के राष्ट्रपति से वीरता का यह पुरस्कार ग्रहण किया तो पूरा सभागृह तालियों से गूँज उठा। (अप्रतिम शूरवीरता के लिए दिया जाने वाला मैडल। वरीयता की दृष्टि से प्रथम स्थान पर अशोक चक्र और द्वितीय स्थान पर कीर्ति चक्र)

कुछ दिन तक पलटन में रहने बाद अधिकारियों ने देहरादून के अंध विद्यालय में हवासिंह को भेजने का प्रबंध किया। उस विद्यालय के कुशल मनोचिकित्सकों ने बड़े धैर्य और लगन से हवा सिंह के मनोबल को बढ़ाया। उन्होंने वहाँ केवल उसके शरीर के ही नहीं, मन के गहरे घावों को भरने में भी उसकी सहायता की। वहाँ कुछ महीने रह कर हवासिंह फिर से आत्म निर्भर हो गया। अब वो अपने परिवार के साथ सुखद भविष्य की योजना बनाने लगा। हम सब भी हवा सिंह के साहस और उसकी पत्नी के दृढ संकल्प से अभिभूत थे।

कुछ समय के बाद अपने गाँव के घर में ही उसने एक दुकान खोल ली। उसकी पत्नी भी दुकान के काम काज में उसका हाथ बँटाने लगी। पलटन के लोग उससे मिलने जाते रहते थे। कुछ वर्षों के बाद हम अपनी पलटन के स्थापना दिवस के समारोह में गए। वहाँ पर भूतपूर्व सैनिकों और उनके परिवारों के साथ मिलते हुए हमने देखा कि हवासिंह अपनी पत्नी और बेटे के साथ बैठा हुआ था। उसे सपरिवार वहाँ बैठे देख कर हमें बहुत खुशी हुई। उसे देख कर लगा कि उसने अपने मनोबल से, अपनी पत्नी के सहयोग से और पलटन के योगदान से जीवन के इस क्रूर प्रहार पर विजय पा ली है। उसने मुस्कुराते हुए अपने बेटे से हमें मिलाया और कहा, “साब जी, यह सैनिक स्कूल में पढ़ रहा है और कहता है कि बड़ा हो कर सेना की इसी पलटन में भर्ती होगा।”

और क्यों नहीं! धन्य है हमारी भारतीय सेना जिसमें शूरवीरता, बलिदान, साहस और त्याग की यह परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी चल रही है।

 

१ अगस्त २०१७

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