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नगरनामा –उज्जैन

 

करोगे याद तो


—पराग कुमार मांदले

धूप इतनी तेज़, इतनी तीखी कि मानो शरीर ही नहीं, आत्मा को भी जला देना चाहती हों। धरती इतनी धधकती हुई कि एक कदम भर रख देने पर राख के ढेर में बदल देने के लिए आतुर हो। शोर इतना कर्कश कि कानों के परदे फट जाने की कगार पर हों। अनजानी राहों पर जान हथेली पर लेकर भाग रहा हूँ मैं। अचानक एक कोमल-काँपता हुआ-सा हाथ मेरे चेहरे को स्पर्श करता है। उस स्पर्श की शीतलता मेरे रोम-रोम में फैल जाती है। संतों जैसी एक मुखाकृति मुझे दिखाई देती है, चेहरे पर अपार शांति। मुझे लहूलुहान देखकर उस संत की आँखें भर आती हैं। गालों पर अश्रुओं की धारा बहने लगती है। अरे, यह क्या! आँसुओं की वह धारा अचानक नदी का रूप ले लेती है। पहचानी-सी लगती है यह नदी। अरे! यह तो क्षिप्रा है, क्षिप्रा। और तभी संतों जैसी वह आकृति एक शहर में बदल जाती है। उस शहर में, जिसमें जन्म हुआ मेरा। जिसमें जीवन के पूरे दो दशक बिताए मैंने। उस शहर में जिससे पिछले तेरह सालों से दूर हूँ मैं। उस शहर में जो मेरी सांसों में, मेरी धड़कनों में, मेरे शरीर के एक-एक कतरे में, मेरे रक्त की हर बूँद में बसता है। उज्जैन, मेरा प्यारा उज्जैन।

मंदिरों का शहर है मेरा उज्जैन। कहते हैं, पूरा एक बोरा चावल लेकर निकले कोई और एक मंदिर पर एक चावल चढ़ाए, तो भी चावल ख़त्म हो जाएँगे, मंदिर नहीं। भारत का एकमात्र ऐसा नगर है उज्जैन, जिसमें सनातन धर्म की हर शाखा का एक बड़ा केंद्र है। देवी के नौ सिद्धपीठों में से एक हरसिद्धि देवी, भगवान कृष्ण की शिक्षा स्थली ऋषि सांदिपनी का आश्रम, कालभैरव सहित तांत्रिकों के अनेक प्रख्यात साधनास्थल, ज्योतिष एवं आकाशीय गणनाओं का प्रमुख केंद्र जंतर-मंतर। नाथ संप्रदाय के शिरोमणि राज भृतहरि का साधना-स्थल और पीर मच्छिंदरनाथ की समाधि।

मगर सबसे महिमावान हैं उज्जैन के महाराजधिराज भगवान भूतभावन महाकालेश्वर। बारह ज्योतिर्लिंगों में एकमात्र दक्षिणमुखी जलाहारी वाला मंदिर। अपार महिमा है उनकी। अब तो कितना बदल गया है मंदिर का पूरा परिसर, मगर मेरे हृदय में तो बचपन की वे ही छवियाँ बसी हुई हैं जब शिवरात्रि पर दो-दो किलोमीटर लंबी पंक्ति में खड़े होकर माँ का हाथ थामे महाकालेश्वर के दर्शनों के कई घंटे प्रतीक्षा किया करते थे हम। बाद में अपने अभिन्न मित्र सुनील के साथ हर रविवार को जाया करता था मैं महाकालेश्वर के दर्शन के लिए। बहुधा आरती का समय हुआ करता था वह। उस दौरान पंक्ति में खड़े रहकर भक्ति-भाव से तन्मय होकर 'हरि ॐ नम: शिवाय' का जप अब भी कई बार कानों में गूँजता है तो मन महाकालेश्वर के मंदिर में पहुँच जाता है। दर्शन करने के बाद हम सामने स्थापित नंदी के पीछे बनी सीढ़ियों पर बैठ जाते थे और बड़ी देर तक महाकालेश्वर के दिव्य ज्योतिर्लिंग को निहारा करते थे। और बाहर निकलते समय वहाँ बैठे एक पंडे से माथे पर सुंदर तिलक लगवाना कभी नहीं भूलते थे।

आज यह सोचते हुए भी आश्चर्य होता है मगर बचपन में नवरात्रि में उज्जैन के प्रख्यात देवी मंदिर हरसिद्धी देवी, संतोषी माता, चामुंडा माता, नगरकोट की रानी, गढ़कालिका, चौबीसखंबा की देवी के दर्शनों के लिए मां का हाथ थामे कई किलोमीटर पदयात्रा किया करता था मैं। उन दिनों वाहनों की आवाजाही आज जैसी नहीं थी। बड़ी संख्या में लोग पैदल मंदिरों की ओर जाते हुए दिखाई देते थे। इन देवी मंदिरों में आरती के समय विशाल नगाड़े, ताशे-झांझ, घंटियों की गूँज और गूगल व कर्पूर की सुगंध किसी दूसरे ही लोक में ले जाती थी मन को। पाँव अपने-आप थिरकने लगते थे। तन झूमने लगता था।

बाद के समय में नीलगंगा और जंतर-मंतर के बीच खेतों में स्थित एक प्राचीन गणेश मंदिर मंछामन गणेश के दर्शनों के लिए हर बुधवार को जाने की स्मृति भी बहुत स्पष्ट है। उस मंदिर के सामने एक छोटी-सी बावड़ी थी और उसके किनारों पर दोनों ओर बहुत छोटे-छोटे दो शिव मंदिर बने हुए थे। गणेश जी के दर्शनों के बाद मैं उनमें से एक मंदिर की सफ़ाई करता था, शिव लिंग पर फूल चढ़ाता था, अगरबत्ती लगाता था। पता नहीं क्यों, बड़ा अपना-सा लगता था वह उपेक्षित मंदिर मुझे।

देश की राजधानी में आठ महीने तक खींच जाने वाले गरमी के मौसम में जब रात को भी एक पल के लिए भी चैन नहीं आता और शरीर पर पहने कपड़े तो दूर अपने ही शरीर की त्वचा को भी खींचकर निकाल फेंकने का मन करता है तो उज्जैन की सुहानी रातें बहुत याद आती हैं। आँगन में या छत पर खटिया डाले आकाश में तारे गिनने का सुख दिल्ली में कहाँ? गरमी के दिनों में दोपहर में वहाँ भी कम आग नहीं बरसती, मगर सूरज के साथ-साथ जैसे गरमी भी पतली गली से खिसक जाती है। उसके बाद होती है रात, तारों भरी। जिसमें गरमी का नामों-निशान भी नहीं रहता। मुझे याद है, कई बार तड़के वातावरण इतना ज़्यादा ठंडा हो जाता था कि एक चादर अपर्याप्त लगने लगती थी। परीक्षा के दिनों में देर रात तक छत पर टेबल लैंप लगाकर दोस्तों के साथ पढ़ाई के तो कहने ही क्या। सारा साल का दारोमदार वास्तव में उन कुछ रातों की पढ़ाई पर रहा करता था।

किशोरावस्था में जब आकाश में चाँद-तारे आँख-मिचौली खैला करते थे, तब अपनी-अपनी छतों पर किसी के साथ चाँद-तारों की तरह ही आँख-मिचौली खेलने की स्मृतियाँ अब भी दिल को गुदगुदा जाती हैं। निगाहों और इशारों में कितनी-कितनी बातें हो जाया करती थीं। उस समय सारे लोग शीतल हवा के झोंकों में बेसुध होकर सोया करते थे। वैसे चर्चा तो सुबहे-बनारस और शामें-अवध की भी कम नहीं है। मगर शबे-मालवा की तो बात ही कुछ और है। किसी ने ठीक ही कहा है कि न जाने क्या बात है तुझमें ऐ शबे-मालवा कि तेरे लिए हम सुबहें-बनारस और शामें-अवध छोड़ आए हैं। जिसने मालवा में बीस साल तक रातें गुज़ारी हो, उसे दुनिया के किसी भी शहर की रात आकर्षित नहीं कर सकती।

उज्जैन की रातें ही नहीं, सुबह भी स्मृतियों का साथ छोड़ने के लिए राज़ी नहीं है। हर सुबह यहाँ की गली-गली के हर छोटे-बड़े होटल - रेस्टोरेंट में बिकने वाले पोहे और जलेबी का नाश्ता। खड़े धनिये की छोंक वाले उन पोहों की महक के लिए तरस जाती है आत्मा। उसके बाद दोपहर में स्वादिष्ट कचोरी, समोसा और इमरती। गरमी के दिनों में मलाईदार लस्सी। मेवों वाली कुल्फी। और रात को रबड़ी वाला दूध। इसके अलावा मावे की बनी तरह-तरह की स्वादिष्ट मिठाइयाँ। और इन सब पर भारी लौंग, लहसुन वाले सेव और नमकीन। ज़ायके का यह आनंद एक साथ शायद ही किसी और शहर में मिले।

जब हम छोटे थे तो दो सार्वजनिक उत्सवों में बहुत बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया करते थे। उनमें से एक होता था होली और दूसरा गणेशोत्सव। होली के समय टोली बनाकर चंदे की उगाही के लिए मोहल्ले भर के घरों और दूकानों में घूमा करते थे हम। इसके अलावा कॉलोनी की मुख्य सड़क से गुज़रने वाले वाहनों के लिए भी चंदा देना अनिवार्य हुआ करता था। सस्ते का ज़माना था। लोग ज़्यादातर एक या दो रुपए देते थे। कोई-कोई पाँच रुपए भी दे देता था। और यदि कभी कोई दस स्र्पए दे देता था तो वह हमारे लिए आदर का सबसे बड़ा पात्र हो जाता था। हालाँकि ऐसा बहुत कम होता था। लोग चंदा देने में बहुत नखरे किया करते थे। अब सोचते हुए भी अजीब लगता है, मगर उस समय हम चंदा न देने वाले दुकानदारों के सामने लगी लकड़ी की छोटी-सी सीढ़ी भी उठाकर ले आते थे और होली में टुकड़े करके जला देते थे। इसके अलावा ऐसे दुकानदारों की बंद दुकानों पर होली के रंगों से गालियाँ लिखने का चलन भी खूब था।

इसी तरह गणेशोत्सव के दस दिन भी धूम-धड़ाकों वाले होते थे। हालाँकि अब तो वह बात नहीं रही जो हमारे बचपन में हुआ करती थी। उस समय अब बंद हो चुकी अनेक कपड़ा मिलें चला करती थीं। पूरे शहर में जगह-जगह गली, मोहल्ले, चौराहों पर गणेशमूर्ति की स्थापना होती थी। हर दिन दोनों समय न सिर्फ़ पूजा होती थी बल्कि शाम को सभी जगहों पर तरह-तरह की आकर्षक झांकियाँ सजाई जाती थीं। बचपन में परिवार के साथ और फिर मित्रों के साथ हम रोज़ शहर के किसी एक इलाके में रात को झांकियाँ देखने जाया करते थे। जब टीवी नहीं था, मोहल्ले में परदा लगाकर दिखाई जाने वाली फ़िल्मों का अपना अलग ही आनंद होता था। श्वेत-श्याम दौर की अनेक फ़िल्में इसी तरह देखी हैं मैंने। और अनंत चतुर्दशी का तो कहना ही क्या। देर शाम से विसर्जन की जो यात्रा शुरू होती थी तो अगले दिन सुबह तक लगातार चलती रहती थी। सारी रात हम यात्रा-मार्ग पर किसी जगह दरी बिछाकर बैठे रहते थे। जब किशोर हुए तो पूरी रात सड़क पर हल्ला-गुल्ला करते, तरह-तरह की पुंगियाँ बजाते और शरारतें करते।

इसी तरह का आनंद आता था श्रावण मास में निकलने वाली महाकाल की सवारी के दौरान। भगवान महाकालेश्वर को उज्जैन का सनातन स्वामी माना जाता है, उज्जैन के राजा। कहते हैं इसी वजह से कोई दूसरा राजा कभी उज्जैन नगर की सीमा में रात्रि-निवास नहीं करता था। सिंधिया राजघराने के प्रमुख भी सदा नगर की सीमा से बाहर स्थित कालियादेह महल में ही रात्रि-निवास किया करते थे। श्रावण के प्रत्येक सोमवार को उज्जैन के राजा महाकालेश्वर अपनी प्रजा को दर्शन देने के लिए पालकी में विराजकर उनके द्वार तक पहुँचते हैं। चूँकि मराठी माह पूर्णिमा के अगले दिन शुरू न होकर अमावस्या के अगले दिन से शुरू होता है इसलिए कुल मिलाकर चार की जगह छ: सोमवारों को महाकाल की सवारी निकला करती है। इन सब में आख़िरी सवारी के दिन सवारी में शहर पुलिस, स्काऊट, एनसीसी के दल, विभिन्न अखाड़े अपने पूरे लवाजमें के साथ, विभिन्न कीर्तन मंडलियाँ शामिल होती हैं। नगर के सभी उच्च शासनाधिकारी पैदल इस सवारी में चलते हैं। सांप्रदायिक सद्भाव की एक अनुपम मिसाल के रूप में शहर में अधिकांशत: मुस्लिम भाइयों द्वारा संचालित होने वाले बैंड दल भी इस दिन विशेष रूप से सिलवाई हुई वर्दियों और आकर्षक सज्जा वाले रथों के साथ बिना किसी मेहनताने के भगवान महाकाल की सेवा में अपनी हाजिरी बजाते हैं। इन बैंड दलों के बीच आकर्षक साज़-सज्जा और भजन गायन का उत्कृष्ट मुकाबला होता है। दो-एक बार मैं भी स्काऊट के रूप में आख़िरी सवारी में सम्मिलित हुआ। अपने द्वार तक आए महाकाल राजा के दर्शनों से जैसे मन ही नहीं भरता था। हम एक जगह दर्शन करते, फिर दौड़कर कुछ आगे जाकर खड़े हो जाते। जैसे सवारी निकट आती, खूब धक्का-मुक्की शुरू हो जाती, मगर हम किसी तरह जगह बनाकर भगवान के दर्शन करते और फिर कुछ आगे जाकर खड़े होने के लिए दौड़ पड़ते।

यों तो उज्जैन उत्सव-प्रिय नगर है मगर इनमें सबसे भव्य-दिव्य होता है बारह वर्ष में एक बार आयोजित होने वाला कुंभ मेला - सिंहस्थ। आठ वर्ष की उम्र में पहली बार १९८० में साक्षी बना था मैं इस विराट मेले का। उस मेले की अधिक स्मृतियाँ अब शेष नहीं हैं मगर उस दौरान आयोजित विशाल रामलीला की स्मृतियाँ अब भी ताज़ा हैं। मैंने अपने अब तक के जीवन में ऐसी रामलीला नहीं देखी। उस रामलीला के लिए तीन बड़े-बड़े मंच बनाए गए थे, जिन पर बारी-बारी से विभिन्न दृश्यों का मंचन होता था। ध्वनि-प्रकाश का अदभुत संयोजन, आकर्षक वस्त्राभूषण, सुंदर सेट और भावपूर्ण अभिनय। अगला सिंहस्थ १९९२ में एक पत्रकार के रूप में देखा। सिंहस्थ शुरू होने के एक माह पहले से सिंहस्थ मेला क्षेत्र में चल रही गतिविधियों की रिपोर्टिंग शुरू हुई जो मेला ख़त्म होने तक चलती रही। तरह-तरह के साधु-संत-महात्मा। कहीं वैराग्य, त्याग की पराकाष्ठा तो कहीं ऐश्वर्य का प्रदर्शन। कहीं प्रवचन, कहीं रामकथा, कहीं रासलीला, कहीं रामलीला। और इस दौरान पड़ने वाले स्नान। स्नान से पहले निकलने वाली संतों की शोभा-यात्रा और फिर लाखों लोगों द्वारा क्षिप्रा में स्नान। उस अलौकिक दृश्य का वर्णन असंभव है। उसे तो देखा जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है, जिया जा सकता है।

करोगे याद तो हर बात याद आएगी। इतनी यादें, इतनी बातें हैं उज्जैन से जुड़ी हुई और उज्जैन के बारे में कि एक लेख तो क्या पूरी पुस्तक भी छोटी पड़ेगी। जब भी सोचता हूँ, मुझे लगता है उज्जैन की माटी से बना है यह तन और क्षिप्रा का पानी बहता है मेरी रगों में रक्त बनकर। मैं चाहे जितना दूर चला जाऊँ उज्जैन से, मगर उज्जैन मुझसे कभी दूर नहीं होता। वह मेरी हर धड़कन, हर सांस के साथ जुड़ी हुआ है। निदा फाज़ली साहब का एक दोहा है -
मैं रोया परदेस में, भीगा माँ का प्यार
दु:ख ने दु:ख से बात की, बिन चिठ्ठी बिन तार।

मुझे भी हमेशा यही महसूस होता है कि इस परदेस में जब भी कभी दुखी होता हूँ मैं, रोता हूँ मैं, मेरे शहर उज्जैन की मिट्टी से दो बाहें ज़रूर मुझे अपने आगोश में लेकर मेरे आँसूँ पोंछने के लिए मचल उठती होंगी। सचमुच ऐसी ही है मेरी जन्मभूमि, मेरा अपना नगर उज्जैन।

१६ दिसंबर २००५

 
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