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साहित्यिक निबंध

सर्वेश्वर की लोक चेतना
—रिंपी खिल्लन सिंह

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म सन १९२७ में बस्ती में हुआ था। सन १९४९ में प्रयाग विश्वविद्यालय से एम .ए .की परीक्षा पास की। आरंभ में आप कुछ समय तक आकाशवाणी से जुड़े रहे। बाद में जब अज्ञेय 'दिनमान' के संपादक बने तो सर्वेश्वर को उन्होंने अपने संपादक मंडल में शामिल कर लिया जहाँ वे मृत्युपर्यन्त (सन १९८३) कार्यरत रहे। इनकी प्रारंभिक रचनाओं का एक संकलन 'काठ की घंटियाँ' सन १९५९ में प्रकाशित हुआ था, जिसका संपादन अज्ञेय ने किया था। बाँस का पुल, एक सूनी नाव, कुआनो नदी और गर्म हवाएँ इनके प्रसिद्ध कविता संग्रह हैं। इनकी संपूर्ण कविताएँ (२ खंड) तथा संपूर्ण गद्य रचनाएँ (४ खंड) प्रकाशित हो चुकी हैं।

आज जब हम संस्कृति के एक ऐसे भयंकर संक्रमण के दौर से गुज़र रहे हैं जहाँ संस्कृति, संस्कृति से अधिक अपसंस्कृति का रूप ले रही है और संस्कृति के भीतर का लोक–तत्व एक प्रकार से विलुप्त होता जा रहा है। ऐसे समय में सर्वेश्वर की कविता हमें फिर से संस्कृति के उस मांगलिक रूप के साथ जोड़ती है जो लोक तक छन कर जाता है।
सुनो! सुनो!
यहीं कहीं एक कच्ची सड़क थी
जो मेरे गाँव को जाती थी।

कवि जब अपने गाँव तक जानेवाली कच्ची सड़क को याद करता है तो वस्तुतः वह अपनी लोक–संस्कृति की स्मृतियों के साथ स्वयं को कहीं–न–कहीं जोड़ रहा होता है। वह स्वयं को उस लोक मन के साथ जोड़े रखना चाहता है जहाँ से होकर निजी स्मृतियाँ, जातीय स्मृतियों में परिवर्तित होती हैं और उस नैरंतर्य को बनाए रखती हैं जो किसी भी जाति की परंपरा का पुनः परिष्कार तथा संस्कार करता है। यहाँ गाँव तक जानेवाली कच्ची सड़क वस्तुतः उस लोकमन तक जानेवाली सड़क
है जिसे कवि विलुप्त होता देख कर आहत महसूस करता है।

सर्वेश्वर अपनी आस्था और विवेक को थामे लोक–स्मृतियों के आँगन में निरंतर आते–जाते रहते हैं और समकालीन जटिलताओं तथा द्वंद्वों से टकराते हैं। तीसरा सप्तक में वे लिखते हैं, "मैं कविता क्यों लिखता हूँ। मैंने कविता क्यों लिखी? कहूँ कि किसी लाचारी से ही लिखी। आज की परिस्थिति में कविता लिखने से सुखकर और प्रीतिकर कई काम हो सकते, और मैं कविता न लिखता यदि, हिंदी के आज के प्रतिष्ठित कवियों में एक भी ऐसा होता जिसकी कविताओं में कवि का एक व्यापक दर्शन मिलता . . .अधिकांश पुराने कवि छंद और तुक की बाज़ीगरी के नशे में काव्य–विषय की एक–एक संकीर्ण परिधि में घिरकर व्यापक जीवन–दर्शन के संघर्षों को भूल न गए होते और उन्हें कविता के विषय में से निकाल न देते।" (तीसरा सप्तक पृ .२००)
इसलिए उन्होंने लिखा—
मैं नया कवि हूँ
इसी से जानता हूँ
सत्य की चोट बहुत गहरी होती है
मैं नया कवि हूँ
(
तीसरा सप्तक पृ .२१८)

वस्तुतः व्यापक जीवन–दर्शन का संघर्ष ही सर्वेश्वर को एक ऐसा कवि बनाता है जिसकी कविता इस व्यापक जीवन–दर्शन से निरंतर परिपक्व होती चली गई है और यही परिपक्वता उनकी कविताओं में व्यंग्य की धार को पैना बना देती है।

सर्वेश्वर ने अपनी बात कहने के लिए बहुत बार लोक–शैली अपनाई है। वे परंपरागत भाषा के शब्दों में से एक ऐसा बिंब उभारते हैं जो अपने आप में नया होता है। एक चित्र देखिए—
दे रोटी!
कहाँ गई थी बड़े सवेरे
कर चोटी

इस प्रकार का लोक–रंग उनकी व्यंग्य कविताओं में अक्सर देखने को मिलता है और इस लोक–रंग से वही कवि जुड़
सकता है जो लोक संवेदना को पहचानता हो।

वस्तुतः सर्वेश्वर जानते हैं कि भाषा ही व्यक्ति की अस्मिता का महत्वपूर्ण प्रतीक है और जिस व्यक्ति के पास अपने जीवनानुभवों और उनके बीच अंतर्विरोधों के द्वंद्व से उत्पन्न भाषा नहीं है तो वह सच्ची बात कह ही नहीं सकता। वह सदैव कृत्रिमता का लबादा ओढ़े रहता है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का संघर्ष इस कृत्रिमता से निरंतर लड़ते रहने का संघर्ष है।
लीजिए पहले मैं ही मरता हूँ
आभिजात्य तोड़ता हूँ
जो भी शब्द आता है, जुबान पर
कहने में नहीं डरता हूँ।
अभिजात्य को तोड़ने का यह संघर्ष ही वास्तव में उनके लोक से जुड़ने का आह्वान भी है और प्रेरणा भी।

सर्वेश्वर अपनी भाषा को अपने अनुभव की गहनता से निरंतर मांजते रहे हैं। इस प्रकार अनुभव से भाषा और भाषा से अनुभव पुष्ट होता रहा है। दोनों के पुष्ट होने की प्रक्रिया में कविता धीरे–धीरे परिपक्व होती चली गई है और कवि की अंतिम कविताओं तक आते–आते उनकी काव्य भाषा और अनुभव, अभिजात्य से अलग लोक मन की थाह पाने की प्रक्रिया में साधना रत दिखाई देता है।

१६ सितंबर २००६

  
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