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कला दीर्घा

कला और महात्मा गांधी
मनमोहन सरल

चार नेताओं वाली हुसैन की इस कलाकृति में गांधी बिना सिर के दिखाए गए हैं जबकि दाहिनी ओर हिटलर को वस्त्रहीन दिखाया गया है। उनकी कुछ अन्य कलाकृतियों की तरह यह कलाकृति भी विवाद के घेरे में रही।

कहा जाता है कि महात्मा गांधी में सौंदर्य-बोध बहुत अल्प था। मानव-निर्मित चीज़ों की सुंदरता उन्हें विशेष आकर्षित नहीं करती थी पर वे प्राकृतिक सुषमा की प्रशंसा किया करते थे। उनके निकट विश्वप्रसिद्ध ताजमहल निरीह मज़दूरों से जबरन करवाया गया काम ही था। पेरिस के प्रसिद्ध एफिल टावर को वे बच्चों का खिलौना मानते थे। उन्होंने अपनी तरह से जीवन जीने की कला आविष्कृत की थी और उससे अपनी पूरी ज़िंदगी कलात्मक बनाई।''

अक्तूबर १९२४ में उन्होंने कहा था, ''सब सच्ची कलाएँ आत्मा की अभिव्यक्ति हैं। कला अगर असली है तो उसे मनुष्य के भीतर के स्व को समझने में आत्मा की मदद करनी चाहिए। मुझे तो सुंदरता सत्य में दिखाई देती है। जिस कला से हम सत्य के भीतर छिपी सुंदरता देख सकें, वही सच्ची कला होगी।'' आगे वे कहते हैं, ''मेरे जीवन में सच्ची कला काफ़ी मात्रा में है, भले ही आप जिसे आर्ट वर्क कहते हैं, उसे वैसा न पाएँ। जो (प्रकृति के) सुंदर दृश्य मुझे दिखाई देते हैं...जैसे कि रात के आसमान में मैं चमकते सितारे देखता हूँ...क्या मानव-निर्मित कला वैसा दे सकती है?'' तो यह मानना ग़लत है कि गांधी जी में सौंदर्य-बोध की कमी थी। यदि ऐसा होता तो १९३७ के कांग्रेस (आईएनसी) के हरिपुरा में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन के पंडाल की सजावट के लिए शांति निकेतन से आचार्य नंदलाल बसु को आमंत्रित क्यों किया होता?

'हरिपुरा पोस्टर्स' के नाम से जाना जानेवाला नंदलाल बसु का यह काम कला-इतिहास का आज हिस्सा माना जाता है। ''पर, हाँ, आधुनिक कला, ख़ासकर, अमूर्त कला के प्रति उनमें थोड़ा पूर्वाग्रह था। उनका मत था, ''इसकी क्यों ज़रूरत हो कि चित्रकार खुद अपनी पेंटिंग मुझे समझाए? पेंटिंग ही स्वयं अपनी बात मुझ तक क्यों नहीं पहुँचा सके? मैंने वेटिकन में क्रॉस पर लटके ईसा की एक मूर्ति देखी, जिसे देख कर मैं स्तब्ध रह गया। बेलूर में एक प्रतिमा देखी जो मुझे अलौकिक लगी, जिसने मुझसे खुद बातें कीं, बिना किसी समझानेवाले की मदद के।''  यह कहना ठीक नहीं कि गांधी जी में पर्याप्त सौंदर्य-बोध नहीं था। यह अवश्य है कि देश और समाज के लिए उन्हें इतना कुछ करना था कि उनके पास कला को समझने-जानने के लिए समय ही न था। इसीलिए उनकी छवि एक गंभीर चिंतक और देश के लिए आत्म-बलिदान करनेवाले नेता की बनी रही।

महात्मा गांधी की कला के विषय में कुछ भी राय रही हो पर कलाकारों को उन्होंने सदा प्रेरित और प्रभावित किया। लोक-कला से लेकर डाक टिकटों, सिक्कों, नोटों तक पर उनकी तस्वीरें अंकित की गईं। डाक टिकट केवल भारत ने ही नहीं निकाले, कज़ाकिस्तान, मोरक्को, लिबेरिया, गायना, कैमरून, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों के टिकटों पर भी गांधी जी के चित्र छापे गए।

एटेनबेरो की फिल्म 'गांधी' और उसके बाद हाल में आई हिंदी फ़िल्म 'लगे रहो मुन्नाभाई' ने तो जैसे महात्मा गांधी को नया जीवन ही दे डाला। विदेशों में, जैसी कि पूँजीवाद की प्रकृति है, उन्हें भारत के राष्ट्रपिता के सम्मानित नेता से अधिक व्यापारिक वस्तु बना दिया गया। विदेशी चित्रकारों-मूर्तिकारों से लेकर कारीगरों तक ने अनेक तरह के 'गांधी स्मृतिचिह्न' बना डाले, जिनमें प्रतिमाएँ ही नहीं, उनके चर्चित तीन बंदर, टी-शर्ट, स्कार्फ़, उपहार-वस्तुएँ, पोस्टर भी शामिल हैं। कुल मिलाकर यह कि उस लोकप्रियता को भुनाने का पूरा तंत्र स्थापित कर लिया गया। विश्वजाल पर देखें तो कलाकृतियों की क़ीमतों से ही पता लगता है कि इस व्यापारिक सरंजाम में ज़्यादातर मध्यम स्तर के चित्रकार-मूर्तिकार ही शामिल हैं जिन्हें ७५ डॉलर से लेकर ३००० डॉलर में ख़रीदा जा सकता है। कुछ नाम हैं : जर्मनी के एडी तुमपेल, एडवर्ड लोंगो, लियाम यीट्स, लुई फिशर और भारतीय मूल के मोका दास।

(ऊपर के चित्र में ४ सेंट मूल्य के एक अमेरिकी टिकट को दिखाया गया है।)

व्यावसायिक ढर्रे पर हमारे यहाँ भी गांधी जी के नाम पर कम न हुआ, बल्कि हो भी रहा है। उनके जीवन से जुड़े प्राय: प्रत्येक स्थल पर गांधी-स्मृति संग्रहालय स्थापित हो चुके हैं, जिनमें टूरिस्टों के लिए अनेक तरह के स्मृति-चिह्न बिक्री के लिए उपलब्ध हैं। चरखे, उनके तीन बंदर, मूर्तियाँ, दांडी-यात्रा, नोआखाली में पालकी पर बैठे गांधी जी, आदि सब चित्रों, मूर्तियों,यहाँ तक कठपुतली जैसी गुड़ियों के रूप में भी मिल जाएँगे। लोक कला की विभिन्न विधाओं में भी गांधी जी मौजूद हैं जैसे मधुबनी, वारली, रंगोली, चमड़े का काम, तंजौर के काँच पर बने चित्र, आदि। चित्रकला परिषद, बंगलौर के गांधी भवन में और के.एल. कामत की वैबसाइट पर भी अनेक तरह की स्मृति-वस्तुएँ बिक्री के लिए उपलब्ध हैं।

गुजरात की लोककलाकार संतोखबा दुघट ने भी स्क्रौल शैली में कपड़े पर चित्र बनाए। संतोखबा ने 'प्रियदर्शिनी' नामक २५० मीटर लंबा एक स्क्रौल बनाया जिसमें इंदिरा गांधी के पूरे वंशवृक्ष के साथ उनके संपर्क में आए महापुरुषों के चित्र भी शामिल किए हैं। उनमें महात्मा गांधी के साथ के कई ऐतिहासिक प्रसंग हैं।

लोक चित्रों में सबसे महत्वपूर्ण हैं बंगाल की प्रसिद्ध कालीघाट शैली में बने चित्र जिन्हें प्रसिद्ध चित्रकार मुकुल डे ने बनाया है। कोलकाता के प्रसिद्ध काली मंदिर के पास की संकरी गलियों में अनेक दुकाननुमा स्टूडियो में बन कर ये कालीघाट-चित्र मिलते हैं किंतु १९वीं शताब्दी की यह विख्यात कला सहसा लुप्त होती जा रही थी जिसे पुनर्जीवन दिया था मुकुल डे ने।

मुकुल डे पहली बार गांधी जी से १९१८ में मिले थे, सरोजिनी नायडू के सहयोग से। तब गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से लौटे थे और कुछ दिनों के लिए वे मद्रास में थे। 'तख़्त पर बैठे, लुंगी पहने, शेष बदन नंगा, बाल छोटे, छोटी ही मूँछें, बिल्कुल संत की तरह लगे' वर्णन किया है मुकुल डे ने और वही उनका पहला पोट्रेट बनाया जिस पर गांधी जी ने 'मोहनदास गांधी' हस्ताक्षर किए। उसके नीचे तिथि लिखी : फागुन बदी ३, संवत १९७५ । लोगों को याद होगा कि सरकार छोड़ने के बाद पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने उसी मुद्रा में अपना फ़ोटो खिंचवा कर खूब प्रचारित किया था।

मुकुल डे ने गांधी जी के २० पोट्रेटों की पुस्तक छपवाई, १९३२ में। मुकुल १९२८ में लंदन से लौटे तो गांधी जी साबरमती में थे। मुकुल कहते हैं कि वे साबरमती के तट पर बैठे ऐसे लग रहे थे कि जैसे भक्त कबीर हों या संत तुलसीदास हों। मुकुल ने उनका ड्राइप्वाइंट से एक पोट्रेट बनाया। साबरमती से मुकुल डे वहाँ की बेहद गर्मी की वजह से जल्दी ही वापस आ गए पर १५ दिनों में वहीं उन्होंने कस्तूरबा का एक चित्र बनाया। गांधी जी के भी ४ चित्र बनाए। (नीचे चित्र में मुकुल डे के गांधी)

मुकुल डे का तो मानना था कि गांधी जी को फाइन आर्ट से बहुत प्रेम था। उन्होंने तो मुकुल से साबरमती आश्रम में आर्ट स्कूल खोलने को भी कहा था। भारत में आर्ट की शिक्षा कैसी हो, इस पर उनके विचार स्पष्ट थे। जब मुकुल डे ने नेशनल आर्ट गैलरी बनाने की योजना गांधी जी को बताई तो उन्होंने कहा कि भारत आज़ाद होने दो, तभी राष्ट्रीय गैलरी बनेगी। नेहरू जी ने उन्हें सुझाया था कि राष्ट्रीय गैलरी के चीफ़ पैटर्न के लिए महात्मा गांधी सबसे उपयुक्त होंगे। यह देश का दुर्भाग्य ही रहा कि यह स्थिति आने से पहले ही गांधी जी को हमसे छीन लिया गया।

व्यावसायिक आर्टिस्ट तो अपने देश में भी आज़ादी के बाद से ही गांधी जी के चित्र, मूर्तियाँ आदि बनाते रहे। हर चौराहे, सरकारी-ग़ैर सरकारी दफ़्तरों, संसद और विधान सभाओं के भवनों में उनके आदमक़द चित्र या पत्थर और कांसे की विशाल प्रतिमाएँ लगाने की मुहिम शुरू हो गई। जिसके लिए ये कलाकर्मी कमीशन किए जाते रहे और अब भी ऐसा काम उन्हें ही दिया जाता रहा है।

मुंबई के चर्चित मूर्तिकार उत्तम पाचारने ने, जो अपनी विशिष्ट शिवाजी की मूर्तियों के लिए जाने जाते हैं , दक्षिण अफ्रीका के महात्मा गांधी स्कूल की इमारत के लिए महात्मा गांधी की ४ फुट ऊँची आवक्ष प्रतिमा ब्रौंज में बनाई है। पर समकालीन ललित कलाकार भला गांधी जी के सिर्फ़ पोट्रेट कैसे बनाते? उन्होंने गांधी जी के आदर्शों-सिद्धांतों या उनके विभिन्न क्रिया-कलापों की अपने ढंग से व्याख्या करते हुए काम किया।

यों नंदलाल बसु, अवनींद्रनाथ ठाकुर, रवि बाबू, यामिनी राय, आदि विशिष्ट चित्रकारों ने गांधी जी के चित्र बनाए। शांतिनिकेतन के रामकिंकर ने भी ब्रोंज में उनकी छवि को ढाला। बंगाल के स्वरूप मुखर्जी का बनाया आदमकद चित्र कोलकाता के राजभवन में लगा हुआ है। इसी तरह शोभा सिंह का बना एक विशाल चित्र लक्ष्मीनारायण मंदिर के गीता भवन में देखा जा सकता है। अभी हाल समकालीन चित्रकार जतिन दास ने संसद के लिए एक विशाल म्यूरल बनाया है, गांधी जी के जीवन पर।

रोचक है यह जानकारी भी कि चर्चित अभिनेत्री कैटरीना कैफ नें अपनी एक फ़िल्म के डाइरेक्टर विपुल शाह को भेंट में अपना बनाया जो चित्र दिया वह भी गांधी जी का ही पोट्रेट है। बालीवुड की यह ग्लैमरस एक्ट्रेस समय मिलने पर पेंटिंग बनाने का भी शौक रखती हैं।

नई पीढ़ी के सबसे चर्चित चित्रकार अतुल डोडिया ने १९९९ में गांधी जी के जीवन पर आधारित चित्रों की प्रदर्शनी की थी। सौराष्ट्र में जन्मे अतुल ने बचपन में ही मूल गुजराती में गांधी जी की आत्मकथा पढ़ी और तभी से वे उन्हें अपना आदर्श मानने लगे। स्कूल के दिनों में ड्राइंग की कक्षा में सबसे पहला चित्र गांधी जी का ही बनाया और तब से नियम ही बना लिया कि हर साल एक तस्वीर गांधी जी की बनानी है। गांधी जी की यह चित्र-शृंखला उन्होंने स्वतंत्रता की ५०वीं वर्षगाँठ पर आयोजित की थी।

इस प्रदर्शनी का सबसे महत्वपूर्ण चित्र है 'लेमेंटेशन' जिसके दो भाग हैं। एक भाग में गांधी जी पीठ किए हुए स्टेशन के समानांतर जाते हुए दिखाए गए हैं। उनका हाथ एक बच्ची के कंधे पर रखा है। पृष्ठभूमि में पिकासो की एक पेंटिंग है जिसमें भी एक छोटी बच्ची है पर उसकी आँखें काली माँ की आँखों की तरह आक्रोश में लाल हैं। और उदास तथा रोते हुए फरिश्ते चारों ओर तैर रहे हैं , जो प्रसिद्ध चित्रकार जियोतो की पेंटिंग की तरह है। जियोतो की पेंटिंग में ईसा की मुत्यु के बाद विलाप करते हुए फरिश्ते हैं जबकि इस चित्र में गांधी के सिद्धांतों की मृत्यु पर विलाप दिखाया गया है। अतुल ने बताया, ''मैं इस पेंटिंग में यह दिखाना चाहता था कि गांधी जी तो गए, अब बच्ची के समक्ष कोई विकल्प नहीं है सिवाय काली की तरह बदला लेने के। इसमें जो बच्ची है, उसी उम्र की मेरी बेटी भी है। गांधी जी के जाने के बाद अब वह क्या करे? अब उन जैसा कोई नेता नहीं है जिस पर नई पीढ़ी भरोसा कर सके। वे उपवास रखा करते थे, अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए, संपूर्ण मानवता के लिए।''

एक चित्र में अतुल ने गांधी जी को जर्मन चित्रकार फ्रेड्रिक बॉयस के साथ दिखाया है। ''इसने व्यवस्था से प्रतिवाद के लिए गांधी जी के सत्याग्रह की तरह अनोखा रास्ता अख्तियार किया था। वह न्यूयॉर्क की एक गैलरी में ४ दिन तक कम वस्त्रों में बैठा रहा जैसे कि वह खुद एक एग्जबिट हो। मेरे मत में गांधी जी अहिंसा के चित्रकार थे। वे शाश्वत प्रासंगिक हैं, पहले भी थे और आगे भी रहेंगे। इस सीरीज़ को बनाने के बाद मेरा दृष्टिकोण ही बदल गया। सामाजिक सरोकार मेरे निकट अब और भी महत्वपूर्ण हो गया है।''

अतुल डोडिया के ज़्यादातर चित्र फ़ोटो पर आधारित ही होते हैं किंतु वे उनमें अपना भी कुछ-न-कुछ करते हैं जिसके कारण उनके अर्थ ही बदल जाते हैं। यही तो विशेषता है उनके चित्रों की जो उन्हें अपने समकालीनों से अलग करती है। (दाहिनी ओर टिकटों की पृष्ठभूमि में गांधी अतुल डोडिया की कलाकृति)

१ अक्तूबर २००७

  
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