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निबंध

 

प्रवासी भारतीयों का साहित्यिक उपनिवेशवाद
-सुषम बेदी


सन सत्तानवे की पहली जुलाई को जब कैनेडा दिवस मनाया जा रहा था तो मैं कैनेडा के एक प्रांत नोवास्कोशिया में छुट्टी मनाने गई हुई थी। नोवास्कोशिया के उत्तरी हिस्से के एक द्वीप केप ब्रेतान में पाँच सौ बरस पहले उस भूमि पर पैर रखने वाले जान कैबोट की पाँच सौ वीं वर्षगाँठ (१४९७-१९९७) मनाई जा रही थी। वर्षगाँठ के उत्सव का एक मुख्य आकर्षण था जान कैबट के उस धरती पर पैर रखने की घटना का नाट्यांकन। समुद्र के किनारे जहाँ कि लोगों के विश्वास के अनुसार जान कैबट अपनी नाव से उतरा था, एक पार्क बना दिया गया था और वहीं ढेर सारे लोग उत्सव को देखने और उसमें भाग लेने के लिए जमा हुए

थे। मंच पर पहले से ही नाव से उतरने की कथा कही जा रही थी। कुछ अमरीकी इंडियन भी उत्सव में हिस्सा लेने के लिए आए हुए थे।

सन सत्तानवे की पहली जुलाई को जब कैनेडा दिवस मनाया जा रहा था तो मैं कैनेडा के एक प्रांत नोवास्कोशिया में छुट्टी मनाने गई हुई थी। नोवास्कोशिया के उत्तरी हिस्से के एक द्वीप केप ब्रेतान में पाँच सौ बरस पहले उस भूमि पर पैर रखने वाले जान कैबोट की पाँच सौ वीं वर्षगाँठ (१४९७-१९९७) मनाई जा रही थी। वर्षगाँठ के उत्सव का एक मुख्य आकर्षण था जान कैबट के उस धरती पर पैर रखने की घटना का नाट्यांकन। समुद्र के किनारे जहाँ कि लोगों के विश्वास के अनुसार जान कैबट अपनी नाव से उतरा था, एक पार्क बना दिया गया था और वहीं ढेर सारे लोग उत्सव को देखने और उसमें भाग लेने के लिए जमा हुए थे। मंच पर पहले से ही नाव से उतरने की कथा कही जा रही थी। कुछ अमरीकी इंडियन भी उत्सव में हिस्सा लेने के लिए आए हुए थे। अमरीकी इंडियन नगाड़ों के साथ गीत गाए जा रहे थे और एक अमरीकी इंडियन महिला अपने इतिहास और संस्कृति के बारे में जानकारी दे रही थी।

नियत वक़्त पर नाव किनारे पर पहुँची और उसमें से जान कैबट और उसके दो-चार साथी उतरे और पहाड़ी की ओर बढ़े जहाँ कि हम सब एकत्रित हो उनका स्वागत करने को खड़े थे। जान कैबट का अभिनय करनेवाला अभिनेता इंग्लैंड के तत्कालीन राजा हैनरी के समय की राजसी पोशाक पहने था। उसके साथ-साथ चलने वाले नाविकों में से एक के हाथ में इंग्लैंड का झंडा था और दूसरे के हाथ में रोम के चर्च का क्रॉस।

हरियाली घास से बिछे ज़मीन के एक हिस्से पर पैर रखते ही जान कैबट ने इंग्लैंड का झंडा और चर्च का क्रॉस ज़मीन में गाड़ते हुए कहा, ''इंग्लैंड के राजा हैनरी सप्तम और रोमन चर्च तथा ईश्वर के नाम पर मैं इस धरती पर अपना अधिकार घोषित करता हूँ।''

मैं बड़ी हैरानी से यह नाटक देख रही थी। अचानक औपनिवेशिक जगत का सारा इतिहास मेरे भीतर कुलबुला रहा था। ऐसे ही हुआ था सब कुछ। ऐसे ही जहाँ-जहाँ भी ये लोग गए, उसे अपनी मनमर्जी से अपना बना लिया और फिर उस अधिकार को बनाए रखने के लिए लड़ाइयाँ करते रहे। कितना आसान है इस तरह सारे जगत को काबू में लाना। बस आदमी अपने पर भरोसा रखे कि उसे जगत को जीतना है, फिर अगले लड़-लड़ कर जान की बाजी लगाते रहे! कुछ तो हारेंगे ही, कुछ शायद लड़ने से ही घबरा जाएँ! इस तरह अन्याय का राज्य सदियों तक चलता रह सकता है और चला भी।

एक बार भौगोलिक तौर पर कब्ज़ा हो गया तो उसके बाद राजनैतिक, आर्थिक और अंततः सांस्कृतिक विजय तो क्रमशः सरलतर होती जातीं हैं। ऐसा ही हुआ और आजतक उस औपनिवेशिक मानसिकता से हमारी मुक्ति नहीं हो पाई है।

मुक्त होना तो दूर, इन भूतपूर्व उपनिवेशवादियों ने शिक्षा और ब्रेनवॉशिंग के औज़ार अपना कर उपनिवेशवादियों की एक नई पौध तैयार कर दी है जो देखने में तो उपनिवेशवाद-विरुद्ध लगती है पर भीतरी मनोवृत्तियाँ उपनिवेशवादी ही है। देखा जाए तो यह पौध भूतपूर्व उपनिवेशवादियों से कहीं ज़्यादा ही खतरनाक है क्यों कि राष्ट्र उन्हें अपना समझ कर उन पर भरोसा करते हैं और उनके इरादों को कभी शक की निगाह से देखने की कल्पना भी नहीं करते, फिर ये नए उपनिवेशवादी देखने-भालने में उपनिविष्टतों जैसे ही दीखते हैं। ऐसी ही एक पौध के नेता बने बैठे हैं सलमान रशदी।

रशदी ने शुरू में अंग्रेज़ी उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ आवाज़ ज़रूर उठाई थी। एक बार सुन लिए जाने के बाद वे उपनिवेशवादियों के अस्त्रों का इस्तेमाल कर अपनी औपनिवेशिक सत्ता कायम करने की कोशिश कर रहे हैं। इस मामले में उनका रवैया भी वैसा ही है जैसा कि जान कैबट या उन्हीं के जैसे दूसरे उपनिवेशकों का। यानि कि हक हो या न, पर अपना हक ज़बरदस्ती कायम करने का। और ऐसा वे कर रहे हैं साहित्य के क्षेत्र में और ख़ास तौर से दक्षिण ऐशियाई साहित्य के बारे में, क्यों कि वह भी वैसी ही कुँवारी धरती दीखती है जैसी कि जान कैबट को कैनेडा की केपब्रितान दीखी थी या क्रिस्टोफर कोलंबस को दक्षिण अमरीका की। इन दोनों ही साहसिक नाविकों ने इस बात की अवहेलना कर दी थी कि इन धरतियों पर पहले भी लोग रहते थे जिनका अपना भरापूरा सभ्य और सांस्कृतिक संसार था और उन लोगों का इन पर हक पहले से ही था। कि उनका इस तरह इन धरतियों पर हक जमाना अमानवीय और ग़ैरकानूनी था। कुछ हद तक उनका यह कर्म दूसरे के अस्तित्व को नकारने से उपजा था तो कुछ सीमा तक वह अज्ञान से पैदा हुआ था। ठीक ऐसा ही रुख रशदी ने भारतीय साहित्य के बारे में अपनाया हुआ है जो मूलतः उनके उपनिवेशवादी संस्कृति में पलने बढ़ने, उससे ब्रेनवाश होने और अपनी जन्मजात संस्कृति के प्रति अज्ञान का परिणाम है।

दूसरे जब से इस्लाम के कर्णधारों ने रशदी पर फतवा मढ़ दिया, उपनिवेशवादियों को यह साबित करने का मौका मिल गया कि केवल उन्हीं का राज सभ्यता का राज था कि उनके हटते ही फिर से पूरबी देशों में धांधली मच गई है। पश्चिमी देशों से सुरक्षा का आश्वासन पा रशदी न केवल उनकी विचारशीलता को परब का मुखौटा पहनाकर प्रचार कर रहा है बल्कि उन्हीं की शह से तीसरी दुनिया का सरदार भी बन बैठा है और इसीलिए उसकी हर बात तीसरी दुनिया के ही विचार की तरह संसार के आगे पेश की जाती है।

इसी शह के बूते पर रशदी ने अमरीका की एक लोकप्रिय साहित्यिक पत्रिका ''द न्यूयार्कर'' के भारत की पचासवीं वर्षगाँठ के अवसर पर निकले अंक में समसामयिक भारतीय साहित्य पर अपने आलेख में कहा कि आज़ादी के पचास वर्षों में श्रेष्ठतम साहित्य अंग्रेज़ी भाषा में ही लिखा गया है और भारत की प्रमुख अठारह प्रांतीय भाषाओं में लिखा जानेवाला साहित्य इसका मुकाबला नहीं कर सकता।

अपने इस कथन के माध्यम से कोबोट की तरह रशदी ने कई बातें साबित करने की कोशिश की। रशदी ने भी इसी तरह का रुख अपनाया कि सारी भारतीय भाषाओं में कुछ भी साहित्य नहीं है जो है वह मात्र अंग्रेज़ी का लिखा साहित्य है और वही जो कि आज़ादी के बाद लिखा गया। न्यूयार्कर में लिखे अपने लेख में रशदी ने बड़े तरतीबवार यह साबित करने की कोशिश की है कि...
- पहला कि भारत का श्रेष्ठतम साहित्य यही है जो अंग्रेज़ी मे है।
- दूसरा कि इन दूसरी भाषाओं में लिखा साहित्य अंग्रेज़ी से बदतर है तो उसे पढ़ने की ज़रूरत ही नहीं, उसके लिए भारतीय भाषाओं को सीखने की भी ज़रूरत नहीं क्यों कि श्रेष्ठतम तो उनको जाने बिना पढ़ा ही जा सकता है।

ज़्यादातर लोगों को इस बात से बहुत तसल्ली हुई कि चलो इन प्रादेशिक भाषाओं में तो कुछ है ही नहीं, सो उसे जानने का तरद्दूद करने की ज़रूरत नहीं। साथ ही यह भी कि अब वे मात्र अंग्रेज़ी में लिखे साहित्य को पढ़कर खुद को भारतीय साहित्य का विज्ञाता घोषित कर सकते हैं और उस पर यह फैसला भी कर सकते हैं कि क्या पढ़ना चाहिए भारतीय साहित्य में और क्या नहीं। रशदी के इस क्लेम को अमरीकी और अंग्रेज़ीभाषी भारतीयों ने न केवल अंगीकार किया, उसकी पैरवी भी की।

अमरीका में आजकल बहुसंस्कृतिवाद का बड़ा शोर है। दूसरी नस्लों के आप्रवासी अपनी-अपनी संस्कृति के बारे में पढ़ाए जाने या उसके प्रचार-प्रसार के लिए काफी उत्सुक हैं और इस दिशा में उनको मुख्यधारा संस्कृति वालों से भी सहयोग मिल रहा है। अपने इस लेख के द्वारा रशदी ने कहीं यह भी स्थापित कर दिया है कि पश्चिम जगत के विश्वविद्यालयों में अंग्रेज़ी में लिखा साहित्य पढ़ाना ही काफी होगा क्यों कि वही श्रेष्ठ है। दूसरा यह भी कि जो थोड़ा-बहुत अच्छा है उसका भी अनुवाद अंग्रेज़ी में अच्छा नहीं हो सका इसलिए वह सब बेकार और अवहेलना योग्य है।

अनुवाद का मामला ज़रूर कुछ पेचीदा है। कोई भी भाषा किसी दूसरी भाषा में अपनी पूरी प्रकृति और अर्थछायाओं के साथ अनूदित हो ही नहीं सकती। कहीं न कहीं, कुछ न कुछ समझौता तो करना ही पड़ता है। लेकिन फिर भी संसार का श्रेष्ठतम साहित्य हम अनुवादों के माध्यम से पढ़ते ही हैं। इसी बात को सामने रख भारतीय भाषाओं के साहित्य का ग्रहण भी अनुवादों के माध्यम से किया जाना अश्रेयस्कर नहीं। साहित्य में भाषा मूल रूप से महत्वपूर्ण ज़रूर होती है पर इसके अलावा एक पूरा समाज अपने विविध रूपों में साहित्य में प्रतिबिंबित रहता है और वह सब पाने के लिए अनुवादों का सहारा लेना कुछ गलत नहीं।

इसी बात को दृष्टि में रखकर भारतीय भाषाओं और अंग्रेज़ी में लिखे गए भारतीय साहित्य की तुलना की जा सकती है कि कौन-सा साहित्य अधिक मौलिक रूप में साहित्य और समाज के महीनतम रेशों को अपने में रुपायित और प्रतिबिंबित करता है। कौन भारतीयता का सच्चा प्रतिनिधित्व करता है।

यों यह बात आपत्तिजनक मानी जा सकती है कि एक साहित्य की एक उपज (प्रोडक्शन) को उसी देश में उपजित किसी दूसरे वर्ग के साहित्य के मुकाबले कम या अधिक प्रतिनिध्यात्मक माना जाए। आखिर एक देश एक वर्ग या जाति का प्रतिनिधि नहीं होता और अपने आप में वह बहुत तरह के वर्ग और जातियों को समेटे होता है जो उस समाज-संस्कृति की मुख्याधारा या परिधियों से जुड़े हो सकते हैं। इसी तरह यह कहना कि मात्र कोई एक भारतीय भाषा मसलन हिंदी ही भारत की सांस्कृतिक आत्मा को वाणी दे सकती है, भी उसी तर्क से गलत साबित हो जाता है जिस तर्क से यह कि अंग्रेज़ी में ही श्रेष्ठतम साहित्य उपलब्ध है। ज़रूरी यह है कि हम इनके कुछ नमूनों को आमने सामने रख कर देखें और फिर यह फ़ैसला करें कि किस भाषा का साहित्य कैसा है, कैसी प्रवृत्तियाँ हैं। क्या इनमें से कोई साहित्य अवहेलना या भुला देने के योग्य है? या कोई एक ही सर्वोपरि और सारी भाषाओं के साहित्य के मुकाबले में श्रेष्ठतम और समूचे भारतीय साहित्य का प्रतिनिधि होने के काबिल है? या कि यह हमारे अज्ञान से ही पैदा हुआ भ्रम है।

अंग्रेज़ी के जिन भारतीय उपन्यासों को श्रेष्ठतम की श्रेणी में गिना जाता है उन ही एक दो नमूनों को सामने रखकर मैं अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करना चाहूँगी। पश्चिम में जिन दो समसामयिक उपन्यासों का हाल में विशेष सम्मान हुआ है और जिनको उद्घृत कर यह कहा जाता है कि भारतीय साहित्य ने संसार में विशेष स्थान बना लिया है वे हैं- मिडनाईट चिल्ड्रेन, गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स। दरअसल इन दोनों उपन्यासों का विशेष योगदान भाषा के क्षेत्र में है। भारत में अंग्रेज़ी के प्रचलित रूपों का साहित्यिक इस्तेमाल या भाषा को तोड़मरोड़ कर अंग्रेज़ी का भारतीयकरण करना। या फिर भारतीय विषयों-सामाजिक रिवाजों, रस्मों, रिश्तों और तौरतरीकों का पश्चिमी खपत के लिए एक्ज़ोटिसाइजेशन।

मिडनाइट चिल्ड्रेन में सारा रूपक बाँधना कि सलीम के जनम की कहानी में उसका अदल-बदल हो जाना यानि की सिर्फ़ भारतीय की औलाद न होकर भारतीय-अंग्रेज़ की संकर औलाद होना एक तरह से उत्तर उपनिवेश के युग में भी औपनिवेशिक मनोवृत्ति का बने रहना का बढ़िया रूपक है। एक तरह से उपन्यास उतरउपनिवेशवादिता की नब्ज़ पर हाथ धरे है इसमें शक नहीं। पर रशदी सिर्फ़ अभिजात वर्ग की कहानी लिख रहे हैं। जिस भारतीय जनता की गाथा हिंदी, मराठी और बंगाली या तमिल के लेखकों ने ऐहिक आयामों के साथ लिखी है। उसका ज्ञान पश्चिम में किसी को नहीं। हिंदी मे ही उपन्यास रचना की एक समृद्ध धारा जो प्रेमचंद, अज्ञेय, जैनेंद्र, यशपाल नागर, वर्मा, रेणु को लेकर चली और जो आज तक सोबती, शुक्ल, विष्ट, गिरिराज किशोर को लेकर बहे चली जा रही है, क्या उसकी श्रेष्ठता नकारने योग्य है।

जहाँ तक भाषा का सवाल है हिंदी भाषा को देशज शब्दों की भरमार से सजा डालना, या उसकी शब्दावली की सृजनात्मक तोड़मरोड़ श्रीलाल शुक्ल और फणीश्वरनाथ रेणु जैसे अनेकों लेखकों में मिलती है। नई कहानी का दौर ही हिंदी की अनेकों बोलियों और बातचीत की जुबान को सृजनात्मक दर्जा देना था। एक तरह से यह भी कह सकते है कि यह सब कुछ जो नई कहानी के दौर में हुआ और जिसका विकास निरंतर हिंदी कथा साहित्य में होता रहा एक वैसी ही धारा की शाखा भारतीय अंग्रेज़ी लेखकों में भी मिलती है। वैसा ही बड़ा बेलौस, बेबाक और वार करनेवाला और यथार्थ की नब्ज़ पर हाथ रखता हुआ लेखन। पर रेणु में जैसी व्यापकता और गहराई या मार्मिकता और देशकाल की पकड़ एक साथ है, या जैसा व्यंग्य शुक्ल के राग दरबारी में और पहला पड़ाव में है, उस ऊँचाई को रशदी के अलावा और किसी भी अंग्रेज़ी में लिखने वाले हिंदुस्तानी का लेखन नहीं छू पाया। (मैं प्रेमचंद टैगोर या मंटो वगैरह की बात जानबूझकर नहीं कर रही क्यों कि उनको तो कहीं स्वीकृति पश्चिम जगत में मिल ही चुकी है और हम स्वातंत्र्योत्तर लेखन की बात कर रहे हैं।)

देखा जाए तो उत्तरउपनिवेशवादी साहित्य के कथा-विषय और शैलियाँ बहुत हद तक एक से ही रहे हैं। फिर वे चाहे अंग्रेज़ी में लिखे गए हों या अफ्रीकी भाषाओं या भारतीय भाषाओं में। मसलन आयरनी या मैजिक रियलिज़्म जैसी प्रवृत्तियाँ लातिन अमेरीकी, अंग्रेज़ी और हिंदी के साहित्य में भी मिलती है। इस तरह से ये साहित्य एक तरह की समानता लिए है। और समानता का मूल इनका एक समय विशेष में लिखा होना और एक से ऐतिहासिक परिदृश्य को भोगना है- दासता का इतिहास या उपनिवेशवाद का इतिहास।

बहुत साल पहले ब्रिटिश लिबरल मैकाले ने अपने अज्ञान की वजह से ही लिबरल होते हुए भी यह कहा था कि पूर्व का सारा साहित्य पश्चिम के सामने कुछ भी नहीं। अब रशदी के निर्देश पर अंग्रेज़ीदां समाज यही दुहरा रहा है।

रशदी का एक और योगदान है कि उनकी आवाज़ प्रबल होने से उत्तरउपनिवेशिक साहित्य की ओर पश्चिम ने ध्यान दिया इससे दूसरे अंग्रेज़ी के साहित्यकारों की भी एक जगह बनी है- विक्रम सेठ या अरुंधती राय को इसी दिशा में ख्याती मिली। वर्ना इनके विषयों में ऐसी कोई नवीनता नहीं जो कि दूसरी भाषाओं में पेश न की जा चुकी हो। इनकी ख्याति का एक कारण पश्चिमी प्रकाशकों का सफल व्यापार चातुर्य है। जबकि हमारे प्रकाशकों ने अभी लेखकों को भाव देना नहीं सीखा। लेकिन देखा जाए तो इस दिशा में सिर्फ़ रशदी ही नहीं, तीसरी दुनिया के बहुत से विचारकों का हाथ ही तीसरी दुनिया के लेखन की ओर ध्यान आकर्षित करने में। ख़ास तौर से पैलस्तीनयन लेखक एडवर्ड सईद। अपनी पुस्तक ''औरियेंटलिज़्म'' में उन्होंने सारे पश्चिमी मानवतावाद का मुखौटा उधेड़ते हुए कहा है कि पश्चिम द्वारा पूर्व का अध्ययन साम्राज्यवाद की नींव को पक्का करने के लिए था। उसका कोई मानवतावादी उद्देश्य नहीं था जबकि मैकाले और दूसरे उदारवादी अंग्रेज़ों ने संसार और खुद को मानवतावाद के भुलावे में रखकर यह विश्वास दिलाने की कोशिश की कि उपनिवेशवाद के नाम से दरअसल वे भारत और उसके जैसे कूपमंडूक देशों में ज्ञान और विज्ञान की रौशनी जलाने चले हैं। इसलिए इन देशों को उपनिवेश बनाने के किसी अपराधभाव को महसूस करने की जगह उन्होंने इस बात का ढिंढोरा पीटना शुरू किया कि अगर वे न आते तो दुनिया के ये सारे देश असभ्य रह जाते। इस तरह साम्राज्यवादी फैलाव न्यायोचित ठहराया गया। सईद का कहना है कि वह सारी शिक्षा जो उपनिवेशवादी देशों में फैलाई गई थी उसका मूल्य लक्ष्य लगातार पश्चिमी सभ्यता की श्रेष्ठता को स्थापित करना और औपनिवेशिक देश की सभ्यता को धीरे-धीरे मिटाना और उसे दोयम साबित करना था। यहाँ तक कि उनका प्रचार इस ढंग से हुआ कि स्वयं उपनिवेशक देशों के नागरिक ही स्वयं को दोयम और अंग्रेज़ी सभ्यता को श्रेष्ठतर मानने लगे। यह सिर्फ़ भारत ही नहीं सारे विश्व में हुआ। जहाँ-जहाँ भी उपनिवेशवाद फैला यही हालत देखने को मिलती है। ग्लोबलाइजेशन ने इसे और भी फैलने का मौका दिया है उत्तरउपनिवेशवाद के युग में। चाहे वे दक्षिण अमरीका के देश हों या अफ्रीकी या एशिया या रैडइंडियन-- सभी जगह यही हाल है। बात यह है कि इन सभ्यताओं का आपस में इतना ज़्यादा अंतर है कि एक दूसरे को समझ पाना आसान नहीं। जबकि पश्चिम में जो भी ज्ञान, दर्शन आदि का विकास हुआ उसमें यह मानकर चला गया कि इंसान तो हर जगह एक है और इसलिए पश्चिम का यह दर्शन सभी देशों के लोगों पर लागू होता है। उन्नीसवीं सदी के विचारकों की सोच भी यही थी। मार्क्स, फ्रायड ने जो सिद्धांत विकसित किए, उन्हीं द्वारा पश्चिम ने सारे औपनिवेशिक देशों को समझने की कोशिश की। शिक्षा का विषय भी वही बने। पर आज जब पश्चिम में ही भारतीय और तीसरे देशों के लोग पहुँच गए हैं और उन्होंने नज़दीक से अपनी भिन्नता को देखा-पहचाना है तो अब वे खुद को पश्चिम से एक अलग हस्ती मानना चाहते हैं। जिनके स्वप्न अलग है, जिनकी भाषा अलग है और सोचने-समझने का ढंग अलग है। उन पर न तो फ्रायड लागू होता है न मार्क्स।

रशदी को यह सारी विचारधारा विरासत में मिली है और अंग्रेज़ी में लिखने वाले बहुत से दूसरे एशियाई लेखकों को भी। जहाँ इस विचारधारा ने तीसरी दुनिया के लेखकों के आत्मविश्वास में बढ़ोत्तरी की है। वही रशदी में यह अभिमान भी पा लिया है कि दरअसल वे सर्वश्रेष्ठ लेखकों में से है। कोई भी विचारधारा अचानक पैदा नहीं हो जाती। पहले की धाराओं से बहुत कुछ लेकर अपना नया रास्ता खोजती है। रशदी ने जो कुछ पाया है उसमें भारत का ज्ञान और अंग्रेज़ी समाज और साहित्य के साथ उनका लंबा सहवास सभी ने मिल जुल कर उनके लेखन को जीवन और स्फूर्ति दिया है। लेकिन जो कुछ भी इसमें भारतीय था उसके प्रति रशदी का रुख इस तरह है जैसे घर की गंदगी को देखकर आदमी एम्बैरेस हो जाता है। यह भी रशदी की एक औपनिवेशिक मन की ही प्रतिक्रिया है। इस्लाम या भारतीय जीवन के दूसरे तत्वों में वे अपना जातीय छोटापन देखते हैं। या सचमुच जो घर है उसे नकारते हुए अपने चुने हुए घर को ही अपना मानने की भीतरी इच्छा है। उस सचमुच के 'अपने' की समीक्षा या लांछना करते हुए वे खुद को एक पश्चिमी मन के आसन पर बैठा लेते है। इस तरह उनका खिसियायपन अपने प्रति होते हुए भी अपने प्रति नहीं होता बल्कि उस अपने से अलग किए 'पर' या 'अदर' की ओर हो जाता है।

वे इस बात के शुक्रगुज़ार होने के बजाय कि भारत ने उन्हें सिंचित किया है और उसका समुचित दाय दे, ऐसा करने के बजाय अपनी जड़ों पर ही हमला करने का बहुत ही अनौचित्यपूर्ण कार्य करते हैं। रशदी के इस अज्ञानमूलक वक्तव्य का यह लाभ भी हुआ कि कुछ लोगों ने इसके विरोध में थोड़ा बहुत लिखा। (कारणेल युनिवर्सिटी में हाल में हमने एक कॉन्फ्रेंस की जिसका मुख्य विषय यह था कि दूसरी भारतीय भाषाओं में क्या लिखा जा रहा है इसे जाना जाए। आधुनिकता, उत्तरउपनिवेशवाद क्या है, इसकी सही परिभाषाएँ खोजी जाएँ और अनुवाद कार्य को औऱ गंभीरता से किया जाए) जिससे दूसरी भाषाओं के साहित्य पर पश्चिम के विचारकों ने कुछ ध्यान देना शुरू किया है और अब उनके अनुवादों की माँग जाने लगी है।

यह सच है कि उपनिवेशवाद की यह अवश्यंभावी निगति है कि उपनिविशित देश सदियों तक मानसिक रूप से दासता भोगता रहता है और मुक्त नहीं हो पाता है। उसकी सोच, दृष्टि सभी अपने उपनिवेशवादी की हो जाती है। यह बात पश्चिम ने भी देख समझ ली है और पश्चिम में बैठे या बाहर के बुद्धिजीवियों ने भी समझ ली है।

पर उसके साथ यह भी सच है नया साहित्य उन दोनों-- देशज और उपनिवेशवादिता का समागम संकर रूप होगा। पर उनका रूप भारत में फ़र्क है-- मुझे लगता है कि उसमें भारतीय साहित्य की नकल अंग्रेज़ी में पेश की गई है। आखिर इन सब ने टैगोर, शरत, प्रेमचंद आदि को पढ़ा ही है। अंग्रेज़ी में लिखा साहित्य दोनों साहित्यपरंपराओं का जोड़ पेश करता है। जैसे कि रोहिनतन मिस्त्री का फाइन बैलेरुस। हिंदी में ऐसे बहुत से उपन्यास मिल जाएँगे.. इस तरह की गरीबी का चित्रण हिंदी फिल्मों में भी बहुत हो चुका है। पर वह भारतीय साहित्य से अविज्ञ पश्चिमी पाठक के लिए नया है।

अमरीका में अल्पसंख्यकों के साहित्य-संस्कृति के अध्ययन की शुरुआत बीसवीं सदी के छठे दशक के अंत में हो गई थी। पर इसमें मुख्यतः अफ्रीकी या बाद में लातिन अमरीकी अध्ययन शुरू हुए। एशिया में बाद में चीनी और जापानी साहित्य-संस्कृति भी थोड़े-बहुत शुरू हो गए थे। पर दक्षिण एशियाई विषयों को कुछ नाममात्र यूनिवर्सिटियों को छोड़ कोई जगह नहीं मिली थी। नवें दशक में यह शुरू हुआ है।

जैसा कि अपनी पुस्तक 'ओरियैंटलिज़्म' में एडवर्ड सईद ने दिखाया है कि पश्चिम ने अपने ग्रहण के लिए पूर्व का पूर्वीकरण किया और उसे सचमुच के 'पूर्व' का नाम दे दिया जबकि यह पूर्व उनकी अपनी कल्पना की गढंत थी। उसी तरह आज के भारतीय या दक्षिण एशियाई पश्चिमीकृत वर्ग के सदस्य समकालीन भारत और उसके साहित्य को अपनी खपत के लिए मनगढ़ंत रूप से पेश कर रहे हैं।

कहना मैं यह चाहती हूँ जिस उपनिवेशवादिता के खिलाफ़ रशदी और दूसरे तीसरी दुनिया के लोग लड़ रहे हैं, ये वही एशियाई ही अपने देश में एक नया उपनिवेशवाद शुरू कर रहे हैं जहाँ ये अपने देश के लोगों के विचारों के कच्चे माल को पश्चिम में बेच कर दौलत, इज़्ज़त और शोहरत की कमाई खा रहे हैं और इस नए उपनिवेशवाद को समझते हुए उसके खिलाफ़ एक नई लड़ाई लड़नी होगी।

३ अगस्त २००९

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