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व्यक्तित्व

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छंदप्रसंग के आदर्श: आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री
डॉ. भारतेन्दु मिश्र


सब अपनी अपनी कहते है।
कोई न किसी की सुनता है, नाहक कोई सिर धुनता है।
दिल बहलाने को चल फिर कर, फिर सब अपने में रहते है।
सबके सिर पर है भार प्रचुर, सबका हारा बेचारा उर
अब ऊपर ही ऊपर हँसते, भीतर दुर्भर दुख सहते है।
ध्रुव लक्ष्य किसी को है न मिला, सबके पथ में है शिला शिला
ले जाती जिधर बहा धारा, सब उसी ओर चुप बहते हैं।
ऐसी सहज गीत कविता धारा के कवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री हिन्दी कविता के उन महान कवियों में से एक हैं जिन्होंने छंदोबद्ध हिन्दी कविता के कई युग एक साथ जिये हैं। प्रारंभ में शास्त्री जी संस्कृत में कविता करते थे। संस्कृत कविताओं का संकलन काकली के नाम से १९३० के आसपास प्रकाशित हुआ। संस्कृत साहित्य के इतिहास में नागार्जुन और शास्त्री जी को देश के नवजागरण काल का प्रमुख संस्कृत कवि माना जाता है। निराला जी ने काकली के गीत पढ़कर ही पहली बार उन्हें प्रिय बाल पिक संबोधित कर पत्र लिखा था। कुछदिन बाद निराला जी स्वयं उनसे मिलने काशी पहुँचे थे। कुछ महत्त्वपूर्ण सुझाव भी दिए थे। बाद में वे हिन्दी में आ गए।

शास्त्री जी स्वीकार करते हैं कि निराला ही उनके प्रेरणास्रोत रहे हैं। या कहें कि वे महाप्राण निराला के ही परामर्श से हिन्दी कविता में आए। आए तो छाते ही चले गए। वह छायावाद का युग था। निराला ही उनके आदर्श बने हैं। आज उम्र के नौ दशक पूर्ण कर वे लगभग विश्राम की मुद्रा में हैं। अब जब विष्णु प्रभाकर जी भी चले गए तो संभवत: शास्त्री जी ही सबसे वरिष्ठ साहित्यकार होंगे। निराला भी अपने अंतिम दिनों में समाधि की स्थिति में चले गए थे। निराला का संबंध बंगाल से था। वे जिस महिषासुर–मर्दिनी श्यामा सरस्वती की ओर संकेत करते चलते हैं शास्त्री जी उसी श्यामा सरस्वती के उपासक रहे हैं। खास कर निराला के उत्तर काव्य का उनके गीतों पर भी कहीं न कहीं गहरा प्रभाव पड़ा होगा। राधा सात खण्डों में विभक्त उनका महाकाव्य है। रूप- अरूप, तीर -तरंग, शिप्रा, मेघगीत, अवन्तिका, धूपतरी, श्यामा- संगीत आदि शास्त्री जी के प्रसिद्ध काव्यसंग्रह हैं। इसके अतिरिक्त गीतिनाट्य, उपन्यास, नाटक, संस्मरण,आलोचना,

ललित निबंध आदि उनकी अन्य अभिव्यक्ति की विधायें रही हैं हंसबलाका(संस्मरण) –कालिदास(उपन्यास)-अनकहा निराला(आलोचना) उनकी विख्यात गद्य पुस्तकें हैं- जिनके माध्यम से शास्त्री जी को जाना जाता है। सहजता – दार्शनिकता और संगीत उनके गीतों को लोकप्रिय बनाते हैं। वे संस्कृति के उद्गाता हैं। वे रस और आनंद के कवि हैं। राग केदार उनका प्रिय राग रहा है। उनके कई गीत राग केदार में निबद्ध है। अपने गीतों के विषय में वे कहते हैं- मेरे गीतों में जीवन का दूसरा पहलू है जो शांति और स्थिरता का कायल है। गोल गोल घूमना इसमें नहीं है। बाहर से कुछ छीन झपटकर ले आने की खुशी नहीं अपने को पाने का आनंद है। (अष्टपदी पृ.२२०) उनकी भव्यता ,उनकी दार्शनिकता और उनकी जीवन शैली वैदिक ऋषि परंपरा की याद दिलाती है। जैसा निराला कहते थे मैने मै शैली अपनायी वैसे ही शास्त्री जी ने अपने जीवन के मानक स्वयं गढे हैं। यह जो अपने को पाने का आनंद है असल में वही कविता का शाश्वत मूल्य है।

शास्त्री जी की हर रचना नये सिरे से आत्म मंथन की प्रक्रिया के सूत्र खोलती चलती है। वह दौर भी था जब वे कविसम्मेलनों में खूब सुने सराहे जाते थे। एक ओर राधा जैसा विराट महाकाव्य जहाँ उनके विशाल साहित्यिक व्यक्तित्व का परिचायक है वहीं निम्नलिखित गीत पंक्तियाँ उनकी सहज भावधारा की और संकेत करती हैं-
बादलों से उलझ, बादलों से सुलझ
ताड़ की आड़ से चाँद क्या झाँकता।

उनके गीतों में सहजता का सौन्दर्य उल्लेखनीय है। जीवजगत की तमाम उलझनों को पार करते हुए मनुष्य की आत्मा अंतत: -परमात्मा की खोज में भटकती है।
शास्त्री जी बहुत सरल बिंब के माध्यम इस सनातन भाव को चित्रित करते हैं-
बना घोंसला पिंजड़ा पंछी
अब अनंत से कौन मिलाये
जिससे तू खुद बिछड़ा पंछी।

शास्त्री जी निम्न गीत बिंब में संयम के सौंन्दर्य बिंब और संतुलन की ओर संकेत करते चलते हैं। शृंगार उनका प्रिय रस है। माधुर्य उनकी कविता गुण है। सत्यं शिवं सुन्दरम् उनके काव्य का प्रयोजन है। वे लोक और परलोक दोनों के कवि हैं। कालिदास, तुलसी, शेक्सपीयर, मिल्टन, रवीन्द्र नाथ ठाकुर, प्रसाद और निराला उनके प्रिय कवि हैं। वैसे कहीं न कहीं वे बुद्ध के मध्यम मार्ग से भी गहर तक प्रभावित जान पड़ते हैं...
जो कसो, टूट जाये, तुनुक तार ये
ढील दो, छंद-लय हों निराधर ये
साज यह जिंदगी का नहीं दिल्लगी
जो छुओ छेड़ दो और बजता चले।
तुम कि तनहाइयाँ ढूँढते शून्य की
चाँद तारे तुम्हारे लिए हैं जले।

मुक्त आकाश और गहन समुद्र जैसी उनकी कविता जितनी सहज प्रतीत होती है असल में वह उतनी ही गंभीर होती है। छायावादी गीत परंपरा की छवि देखिए कितनी मार्मिक बनकर उभरी है--
प्राणों में प्रिय दीप जलाओ
जिसकी शिखा न हो धूमाकुल,
सजग शांत वह ज्योति जगाओ।
ऊँची अहंकार की कारा, दिखता नभ में एक न तारा
अंध कक्ष में जीवन हारा, आत्मबोध का मिले सहारा
मन को और न गहन बनाओ।

निम्न पंक्तियों में तो वे बहुत कुछ निराला की तरह ही गाते हुए दिखा दे रहे हैं। अलख रूप की जिस चेतना की ओर उनका संकेत है उसकी व्यंजना कितनी अद्भुत है। उच्छसित उदासी और अश्रु हास का बिखरता हुआ रूप कितना विलक्षण है कि धरती और गगन आह्लादित हो रहे हैं। असल में यही मूलप्रकृति और पुरुष का शाश्वत उल्लास है--
नाम हीन सहस्र नामों में खिला
अलख अनमिल विकल तिल तिल में मिला
उच्वसित होती उदासी
अश्रु हास बिखर रहा है
रूप निर्झर झर रहा है
मृणमयी मधुरस पगी है
विहँस गगन शिखर रहा है

शास्त्री जी की कविताओं में कलिदास जगह जगह झाँकते चलते हैं। बादलों के माध्यम से शास्त्री जी ने कई गीत रचे हैं। नागार्जुन ने भी कालिदास सच सच बतलाना जैसा प्रसिद्ध गीत उन्ही दिनों में लिखा था। निम्न पंक्तियाँ देखें--
काली रात नखत की पाँतें-आपस में करती हैं बातें
नई रोशनी कब फूटेगी?
बदल बदल दल छाये बादल
क्या खाकर बौराये बादल
झुग्गी-झोपड़ियाँ उजाड़ दीं, कंचन महल नहाये बादल।

...और यह वर्षान्त का चित्र तो विलक्षण ही है। प्रकृति के माध्यम से यहाँ अद्भुत रागात्म सौंदर्य अपनी छटा बिखेर रहा है। यह पूरा का पूरा गीत मेरे प्रिय गीतों मे से एक है। यहाँ फिर लगता है शास्त्री जी कहीं निराला से दो-दो हाथ कर रहे हैं। कहना कठिन है कि वे सहज सौंदर्य के कवि हैं, लोकोन्मुख खेत-वन-उपवन- जनजीवन के कवि हैं या कि वैदिक ऋषि परंपरा के कवि हैं --
अंबर तर आया।
परिमल मन मधुबन का–तनभर उतराया।
थरथरा रहे बादल, झरझरा बहे हिमजल
अंग धुले, रंग घुले–शरद तरल छाया।
पवन हरसिंगार-हार निरख कमल वन विहार
हंसों का सरि धीमी –सरवर लहराया।
खेत ईख के विहँसे, काँस नीलकंठ बसे
मेड़ो पर खंजन का जोड़ा मँडराया।
चाँदनी किसी की पी, आँखों ने झपकी ली
सिहरन सम्मोहन क्या शून्य कसमसाया।
सुन्दरता शुभ चेतन, फहरा उज्ज्वल केतन
अर्पित अस्तित्व आज –कुहरायी काया।

आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री सत्यं शिवं सुन्दरम् की अजस्र भाव धारा के कवि हैं। उनके ये गीत राग रागिनियों में विधिवत निबद्ध हैं। वे किसी खास विचारधारा के कवि नही हैं। अलबत्ता समालोचना की सभी धारायें जहाँ संगमित होकर प्रयाग की रचना करती हैं वहाँ से आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री को चीन्हने का जतन करना होगा। वे बहुपठित साधनासिद्ध कवि हैं। वे मूलत: संस्कृत भाषा और साहित्य के आचार्य रहे हैं। अंग्रेजी-बांग्ला –हिन्दी आदि अनेक भाषाओं के विद्वान और अनेक भाषाओं के रचनाकार के रूप में उनकी ख्याति रही है। राका और बेला जैसी पत्रिकाओं के संपादक के रूप में उनकी छवि सभी हिन्दी जगत के विद्वानों में चर्चित रही है। हंसबलाका, निराला के पत्र, अनकहा निराला जैसी उनकी पुस्तकें हिन्दी साहित्य की संस्मरणात्मक आलोचना की दिशा को प्रखर करती हैं।

डॉ.रामविलास शर्मा जी ने निराला पर काम करते हुए अनेक स्थलों पर शास्त्री जी का उल्लेख किया है। साहित्यिक गुटबंदियों से दूर मुजफ्फरपुर जैसे शहर में उन्होंने अपना पूरा जीवन व्यतीत किया। अपना खून पसीना लगाकर बेला जैसी साहित्यिक पत्रिका का संपादन करते रहे। तथाकथित महान आलोचकों की दृष्टि में वे सदा अलक्षित ही रहे। गीतकारों और तमाम छंदधर्मी कवियों ने मिलकर यदि कोई ऐसी छंदोबद्ध जानकीवल्लभ शास्त्री जी जैसे महान कवियों का अवदान भारतीय काव्य परंपरा के विकास में स्वर्णाक्षरौं में लिखा जाता।

२२ मार्च २०१०

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