मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


साहित्यिक निबंध

1
पावस के शृंगारिक छंद
- उमाशंकर चतुर्वेदी
 


पावस ऋतु बड़ी सुहावन और मनभावन होती है। यह मिलन और रससिक्त होने की ऋतु है। उमड़ते-घुमड़ते पावस पयोदों की गर्जन, रस बरसन, चंचला की चमकन और तड़पन, लोकगीतों पर गवैयों की तान, मन मोह लेती है। वसुंधरा वधू नवेली बनकर अपने रसीले गर्वीले गीत पर इठलाने लगती है। पयोद मनमानी करते हैं तो ऐसा लगता है कि ‘सावन के बादलों की नीयत खराब है।’

कनकछरी सी कामनियों का-‘गोरो गोरो गात, आज ओरौ सो बिलानों जात’ की स्थिति होती है। रस में भीगती कामनियाँ अपने प्रियतमों से कह उठती हैं, ‘मोरे राजा किवडियाँ खोल, रस की बूँदें पड़ीं’ पावन पयस्विनियाँ अपने प्रियतम सागर से मिलन हेतु उमड़ पड़ती हैं। लौनी लताएँ वृक्षों से लिपट जाती हैं। मतवारे और रस लोभी मधुकर मधुरता की प्रतीक अनुरागमयी कलियों का अवगुंठन खोलकर चुंबन करने लगते हैं। महाकवि कालिदास अपने ‘ऋतुसंहार’ में लिखते हैं कि ‘वर्षाऋतु में स्त्रियाँ अपने सुंदर स्तनों पर मोती की मालाएँ पहनती हैं और अपने नितंबों पर महीन उजली रेशमी साड़ी पहनती हैं। उनके पेट पर दिखायी पड़ने वाली सुंदर तिहरी सिकुड़नों पर जब वर्षा की नयी फुहार पड़ती है तो नन्हें-नन्हें रोयें खड़े हो जाते हैं-
दधति वरकुचाग्रै रुन्नते हरियष्टिं,
प्रतनु सित दुकूला न्यायतैः श्रोणि विम्वैः।।
नव जल कण सेकाद्र उद्गतां रोम राजीं,
ललित बलिविभंगैः मध्यदेशैश्च नार्यः।।

केवल साहित्य ही नहीं लोक गीतों में पाव के शृंगार का सहज और स्वाभाविक वर्णन मिलता है। कजरारी घटाएँ चंद्र से आँख मिचौनी करती देख, रेशम सूत-सी कटि वाली कामनियाँ गाँव की गरवीली, शरमीली गोरियाँ नागर नवेलियाँ और अठखेली करती बन की सलौनियाँ अपने अपने प्रिय से प्रेम का आग्रह करने लगती हैं।
घिर घिर आयी बदरिया, सैंयाँ बैंयाँ भर लो ना।
तो उधर शायरी का प्रेमी प्रियतम भी कह उठता है- तेरी जुल्फ ऐलान फरमा रही है। बड़ी मूसलाधार बरसात होगी।

एक युवती अपने प्रियतम से कह उठती है कि अरे मोरे राजा बेंदा (सिर का आभूषण) फूल कब तक बने रहोगे, बरसात की ऋतु आ गई है और द्वार तक पानी भर गया है। उसका आग्रह सुनिए-
ऐसी आ गयी बरसात, द्वारे भरो है पानी
बेंदा कैसे फूल, कब लौ बने रै हौ राजा।

मोहिनी पावस ऋतु लोक गीतों में मुखरित होकर अमर हो गयी है। कजरी, मल्हार, सैरे, टप्पे और ददरिया आदि लोक गीतों की धुनें वातावरण को जीवंत कर देती हैं-
‘कजरी गावें ब्याहता, बिटिया गाएँ मल्हार।’

पावस ऋतु बड़ी आकर्षक होती है और जो भी इसके संपर्क में आता है वह भी इसी की तरह आकर्षक हो उठती है। वर्षा की बूँदों से सजी हुई रूप की छटा देखकर लोककवि कह उठता है-
उन पै रस बुँदियाँ बुंदयानी, चढ़ौ रूप को पानी।

जल की बूँदों से सजती देह और घुँघराले केशों से टपकती बूँदें सौंदर्य के नये सोपान रचती है। बरसात में घनानंद अपनी नायिका का वर्णन कुछ इस प्रकार करते हैं-
वारि की बूँदें चुवें चिलकें, अलकै छवि की छबकें उछली-सी
अंचल झीने, झके, झलके, पुलकें कुच कुंद कदंब कली सी

एक युवती वर्षा की ऋतु में बारिश की बूँदों से रोमांचित होकर कुछ इस प्रकार अपने मन की बात कहती है-
राजन बरसन लागी आसाढ़ बुँदियाँ
राजा कबहुँ न सोये लगाय छतियाँ
पावस पयोद भी मानिनी नायिकाओं को प्रिय से मिलाने का काम करते हैं। वर्षा ऋतु में रूठी नायिका भी अपना हठ छोड़ देती है। बरसात में मान की गाँठ खुल जाती हैं-
हठ न हठीली कर सके, यह पावस ऋतु पाय
आन गाँठ घबि जात ज्यों, मान गाँठ छूट जाए।

वर्षा में भीगने के अनेक रोचक वर्णन लोक गीतों में मिलते हैं। एक युवती अपने पलंग पर सो रही है। पावस के मेघ अचानक आकर वर्षा कर देते हैं और वह भीग जाती है। इस बात की शिकायत वह अत्यंत सुंदर शब्दों में अपने प्रियतम से करती है- बरसौ अटरिया पै पानी, सिजरिया पै भीग गयी राजा। लहँगा भी भीगा चुनरिया भी भीगी, भीग गयी अँगिया हमारी सिजरिया पै भीग गयी राजा।

वर्षा ऋतु में जिनके प्रिय पास हैं वे अपने प्रिय के साथ पावस का सरस आनंद लेती हैं और जिनके प्रिय परदेश गये हैं वे प्रिय के आगमन की प्रतीक्षा करती हैं। जिनके प्रिय परदेस जाने को हैं उनकी प्रियतमाएँ अपने प्रियों को परदेश-जाने से यों रोकती हैं-
घुमड़त मेघ गंभीर हमारे सैंया घरै रही।
घरै रहो ननद के वीर, हमारे सैंया घरै रहौ।
बादर गरजै बिजुरी चमके सीत लगै मोरे अंग
ऐसे में सैंया घरै रहौ, न छोड़ो हमारौ संग।

मेघों की काली घटाएँ और उनका गर्जन तर्जन विरही जनों को व्याकुल कर देता है। विरही नायिका पिय बिन तड़प उठती है क्योंकि ‘पिय बिन बदरा बदराह दिखाबत’। जिनकी रस गागरी खाली है वे अपने मन मोहन से रंग रस की गगरी भराने को व्याकुल है। प्रियतम परदेश में हैं, विरह व्याकुलता में प्रकृति भी साथ दे रही है-
करूँ कौन जतन अरी ऐरी सखी
मोरे नयनों में बरसे बदरिया।
भर दे रे रंगीले मन मोहन
मोरी खाली पड़ी है गगरिया।

उधर जुल्मी मेघ जब गर्जना करते हैं, तब विरहीजनों की स्थिति और भी कठिन हो जाती है। अकेली युवती, उस पर पावस ऋतु, मेघों की गर्जन और बिजली की चमक ये सभी मिलकर उसका विरह सौ गुना कर देते हैं। उसकी स्थिति देखिए, वह कहती है-
रात दरक गई छतियाँ गरज सुन।
चातक मोर पपीहा बोले, हूक उठत सुन बतियाँ गरज सुन

वर्षा ऋतु बड़ी जुल्मी होती है। अच्छे-अच्छे संयमी पुरुषों का संयम तोड़ देती है। प्रकृति मनमोहक हो उठती है, सर सरिताएँ पागल हो उठतीं हैं।-
वर्षा में उफनाती नदियाँ हो जाती हैं पागल।
मन ज्यों यौवन में इठलाता तोड़ लाज की साँकल।

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम भी अपनी प्रिया के विरह में व्याकुल होकर मर्यादा छोड़कर अपने अनुज से कह उठे थे-
घन घमंड गरजत नभ घोरा, प्रिया हीन डरपत मन मोरा

सांसारिक पुरुषों और उनकी प्रियाओं की स्थिति तो कल्पना से परे है। बरसात हो रही हो और अपना प्रिय पास न हो तो सारा रसमय वातावरण फीका लगता है। मौसम दिल जलाने वाला लगने लगता है, ऐसे मन की व्याख्या करते हुए एक शायह कहता है-
क्या बला झूम के घन घोर घटा छायी है
हाय इस वक्त मेरा गेसुओं वाला न हुआ?

बादलों को निहारकर एक नायिका कहती है- ‘किसी के नयन का संदेश लेकर आ गये बादल, तुम्हारी आज भी पाती नहीं आयी’ और जब पावस की घटा के साथ जुल्फों की घटा भी घिरी हो, तब डूबने का आनंद भी कुछ और ही है। जुल्फों की घिरी घटाएँ और उधर रस की बरसात, फिराक गोरखपुरी के शब्दों में-
ये गरम निगाहें, ये रसीली बातें,
ये गेसुए शवगूँ की भरी बरसातें
रिमझिम, रिमझिम ये रस की बूँदों की फुहार
सोता संसार मँझीली रातें।

बादलों की गरजन और बिजुरी की चमकन प्रेमियों के दिल मिला देती है। ऐसे में एक प्रेमी कह उठता है-
लिपट जाते हैं वो बिजली के डर से, इलाही ये घटा दो दिन तो बरसे

पावस ऋतु में लोकगीतों की मधुर ध्वनि आनंद को और भी गहरा कर देती है। रस में सराबोर युवक, युवतियाँ, बुजुर्ग व्यक्ति और बालाएँ जब लोकगीतों की धुनें छेड़ते हैं, तब समाँ देखने लायक होता है। रस बुँदियाँ बरस रही हैं, प्रियतम की गोरी भीग रही है, उसका रसिया लोकगीत की यह तान छेड़ता है-
मेहा में भीगे चुनरिया, ओ गोरी धना
मेहा में भीगे चुनरिया
चुनरी पहन गोरी मेहँदी रचा ले, नैनों में डार ले कजरवा। ओ गोरी धना।

प्रियतमा अपने प्रिय से सावन का मेला दिखाने का आग्रह करती है और उससे अपने लिए बजनवारी पैजनियाँ, छापे की चुनरी और जरतारी चोली की फरमाइश करती है-
पिया मोहि लै दे बजन घुघरिया, पिया लै दे चुनरिया मोय।
अँगिया लै दे रतन जड़ाव की, जी में लिखे पपीहा मोर।

उसका प्रियतम उसे सावन के मेले से प्रणय के प्रतीक वस्त्र दिला देता है। इसी में तो जीवन का असली आनंद है। पावस पयोदों की जब झड़ी लगती है, तब जन मानस भी सरस हो जाता है, मन पावस हो जाता है, हृदय उल्लासित हो जाता है और उल्लास में वह बेसुध हो जाता है। प्रिय रस विभोर होकर कहने लगते हैं-
‘तुम्हारे रूप की मदिरा, छुपाकर पी गये बदरा’।

ऐसे में बेसुध नायक की नायिका शिकायत न करें तो क्या करें? वह सुंदर शब्दों में प्रियतम को उलाहना देती है-
रात बरस गयौ पानी, काय पिया तुमने न जानी
सेजा भी भीगी चुनरिया भी भीगी, अँगिया गयी बुँदयानी

पावस ऋतु मिलन की ऋतु होती है जो बिछुड़े प्रेमियों को भी मिला देती है। प्रियतम ऊपर अटरिया पर है, बादल गरज रहे हैं और बरस भी रहे हैं उसकी प्रियतमा तो मिलन को आतुर है, कहती है-
कारे बदरवा रहे गदराय
पिया खोलौ चंदन किवरियाँ
चुनरिया मोरी भीगी जाए।

जब उसके प्रियतम मिल जाते हैं, तब बिछोह के लिए वह तैयार नहीं है। प्रिया का मन अपने प्रियतम को पाकर सरस हो उठा है, वह बादलों से प्रार्थना करती है- अमुवा की डाल पर झूला डरो है
दूर कहीं बाजे बाँसुरिया।
कारे बदरा तुम ऐसे बरसियो
पिया छोड़ न जावे नगरिया।

लोक कवि ईसुरी की नायिका अपने परदेश जाते प्रिय को रोकती है और कहती है कि जीवन थोड़ा है, उसका उपभोग कर लीजिए- वह आग्रह करती है- पौंढ़ लेहु कम्मर छौरो, अजी थोरौ जियन मुख न मोरौ।

पावस ऋतु बड़ी ही मदमस्त और फिसलन भरी होती है, अच्छे अच्छों को फिसला देती है, संयमी का भी संयम टूट जाता है। संयमी पुरुष का भी हाल देखिए- आज पीता हूँ घटा आयी है घिर कर जाहिद / कल किसी वक्त खुलेगा तो मुसलमाँ होंगे। घटाएँ घिरती हैं तो सारी कसमें टूट जाती हैं- देखिए कैसे- क्यों न टूटे मेरी तौबा, जो कहे न साकी / पीले, पीले अरे, घनघोर घटा छायी है। रसभरे माहौल में मद्यपी की तो बात ही क्या है, समझदार बुजुर्ग लोग भी मतवाले हो जाते हैं- जब झूम के आएगी घटा हजरते ताँवा, हम रिद की क्या, शेख भी मतवाल बनेगा।

अंत में महाकवि कालिदासजी की इच्छा के अनुरूप अपने बहुत से सुंदर गुणों से सुहावनी लगने वाली, स्त्रियों का जी खिलाने वाली, पेड़ों की टहनियों और बेलों की सच्ची सखी तथा जीवों का प्राण बनी यह वर्षा- ऋतु आपके मन की साधें पूरी करे-
बहुगुण रमणीय, कामिनी चित्तहारी, तरू विटप लतानां वाँधवो निर्विकारः।
जलद समय एष प्राणिनां प्राण भूतो, दिशतु तव हितानि प्रायशो वांछितानि।

२१ जुलाई २०१४

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।