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आस्थाओं की व्यापकता व अनुभवों के आईने में
राधेश्याम शुक्ल

- देवी नांगरानी
 


डा॰ बालकृष्ण पांडेय का सिद्धांत रूप से यह कहना है "विचार प्रतिक्रिया ही रचना है, रचना ही विचारों की समावाहिका होती है। लेखक अपनी विचार-प्रतिक्रिया ही रचना में ढालता है, इस लिये रचना विचाराभिव्यक्ति का साधन है। और लेखक का व्यक्तिगत जीवन, उसकी विचार प्रतिक्रिया के निर्माण का हेतू होता है, क्योंकि लेखक का व्यक्तित्व ही विचारों का उद्भावक होता है, इसलिये व्यक्तित्व के निर्माण से ही विचारों का निर्माण होता है।"

राधेश्याम शुक्ल व्यक्ति नहीं, गीत नवगीत ग़ज़ल, दोहा, के एक विद्यालय हैं। उनके रचना संसार का क्षितिज विस्तृत व अत्यंत व्यापक है। उनकी भाषा विचलनपरक शब्दों तथा लक्षणिक शब्दावली के कारण रसमयी और विलक्षण हो उठती है। उनके गीतों में संवेदनात्मक तरलता, नवीन भाषिक प्रयोग, अभिनव और आकर्षक बिम्ब-विधान, सहज व हृदयस्पर्शी, जीवन से लिए गए प्रतीक हैं। गीत एक संगीतात्मक रचना है जो तन्हाइयों में या महफिलों में गुनगुनाई जाती है, उसे ही अनुभूति और अनुरिक्त का श्रीनगर मानकर गीत को संबोधित करते हुए वे कहते हैं-
शोध मुखरित आपसी/ संवाद दिन दिन मौन
अजनबी मेरे लिए/ कैसे बुहारे कौन

गीत एक ललित काव्य विधा है। उसकी उपज में ‘टेक्निक’ वहीं तक उपेक्षित है जहाँ तक गीत की शब्दावली जटिलता को सहजता में तब्दील करती है। गीत आज भी अपनी समग्रता लिए पूरे जनजीवन की संवेदना को आत्मसात करता, पूरे मानव जीवन के परिवेश को अपने में समाये झूमता गाता आ रहा है। उनके एक गीत का यह मुखड़ा अनकही व अनुछुई गुत्थी को सुलझा रहा है-
अनसुनी रह गई राग की बाँसुरी
अनछुई रह गई फूल की पाँखुरी

गीत में यह सहज गुण है कि वह अपनी लयात्मकता के कारण हृदय में अपना स्थान बना लेता है, गुनगुनाने पर धड़कनों में घुल-मिल जाता है। समय को व्याखित करना, उसका आकलन करना आज की गीत कविता का प्रमुख सरोकार है। आज कविता अपना स्वरूप ग़ज़ल, दोहे, मुक्तक, नवगीत, रुबाई के रूप में पा रही है। जीवन के अनेक पक्षों को शब्दों में साकार करने में सक्षम, राधेश्याम जी की रचनाएँ उनके अनुभवों का निचोड़ हैं, सार्थक चिंतन मनन का प्रतिफल हैं।

राधेश्याम शुक्ल की प्रकाशित कृतियों में पंखुरी-पंखुरी गुलाब, त्रिविधा, एक बादल मन, दर्पण वक़्त के (दोहा संकलन), ज़रा सी प्यास रहने दे (ग़ज़ल संकलन), देशराग एवं ‘कैसे बीने चदरिया’ शामिल हैं। इनमें गीतों और नवगीतों की भाषा आज के आम आदमी की भाषा है, सरल, समझने में आसान, हृदय से निकल का हृदय तक पहुँचने वाली। शब्दों की सरलता एवं सहजता अभिव्यक्ति में मन के आत्मविश्वास को दर्शा रही है। उनके संग्रह 'कैसे बुनें चदरिया साधो' में डॉ॰ सुरेश गौतम ने अपनी लिखी प्रस्तावना में ज़ाहिर किया है कि विचार तत्व को भावपरक बनाने के लिए तीन चीजों की आवश्यकता है-अनुभव, ज्ञान और अभिव्यक्ति की क्षमता। राधेश्याम शुक्ल की कलम-नोक पर इस त्रिवेणी का कोई कोण अदृश्य नहीं है। काव्य में संवाद सा स्वाद भी इनकी गीत सम्पदा में आसानी से देखा जाता है –
राजधानी की तरफ़ / मत जाइएगा / मीत मेरे! उस तरफ़ दलदल बहुत है!

कविता सिर्फ़ वही नहीं होती जो कवि लिख देते हैं। कविता आत्मा की फुसफुसाहटों से बनी वह महानदी भी है, जो मनुष्यता के भीतर बहती है। कवि सिर्फ़ इसके भूमिगत जल को क्षण-भर के लिए धरातल पर ले आता है, अपनी खास शैली में, अर्थों और ध्वनियों के प्रपात में झराता हुआ।

कविता वही जो खुद को पढ़वाकर पाठक के साथ एक गहरा आत्मीय रिश्ता क़ायम करने में सफ़ल हो, एवं जनजीवन के मनोभावों को अभिव्यक्त करने में ही कविता की सार्थकता है। उनकी अनुभूति-अभिव्यक्ति की परस्पर परिपूरकता के संवेदना भरे बिम्ब हमसे सीधा बतिया रहे हैं। काव्य की शब्दावली में कहीं अहसासों के तहों में तैरती पीड़ाएँ शामिल दिखाई देती हैं, कहीं ग़म की लोरियाँ दस्तक देती हैं, कहीं खुशियाँ रक्स करती हैं, और कहीं-कहीं तो मूकता अपना परिचय भी लफ़्ज़ों में डूबकर देती है।
बेतुके शोर के लोग आदि हैं हुए / हो विरस खो गई गीत की माधुरी
रामधारीसिंह दिनकर जी ने कविता को परिभाषित करते हुए लिखा है- “कविता मनोरंजन नहीं, आत्मानुशासन का उन्मेष है।" रचना पर शिल्प का हावी हो जाना कथ्य की चरमराहट का कारण बन सकता जाता है। इस बात का ध्यान रखते हुए ही शायद राधेश्याम जी ने अनचाहे शब्दों की खलबली से अपनी रचनाओं को बचाकर रखा है। इसलिए उनकी कविता की भाषा सीधी सरल है और मानवीय गुणों के साथ जन जन को अपनी सी लगाने लगती है।

उनके रचना संसार का विस्तार बहुअयामी है –इसमें रिश्ते नाते, प्यार-दर्द, विरह-पीड़ा, बाज़ारवाद, भ्रष्टाचार, रिश्तों के बीच व्याप्त अपनाइयत- ग़ैरत को शब्दों में बुनकर अपने मन की समस्त भावनाओं को सामने रख दिया है। विडंबनाओं का व्याकरण व्यक्त करने के लिए भावों, अनुभवों एवं शब्दों का सहारा लेते उन्होंने दोहे लिखे हैं जो हर संदर्भ का आधुनिक बोध लिए हुए हैं। उनके अपने शब्दों में दोहे अपने समय की तक़रीर है। युगीन अमानुषी भावनाओं, व्यवहारों, और परिस्थियों के प्रति इनमें जुझारू आक्रोश है, प्रतिकार है, प्रतिवाद है। देखिये उनकी इस बानगी में-
महानगर में मैं बसा, मुझमें मेरा गाँव / जिये जा रहा हूँ रखे, दो नावों में पाँव
बस्ती-बस्ती रेत है, चेहरा- चेहरा प्यास/ है पानी के नाम पर, पानी का इतिहास
दहशत ज़ारी कर रही, रोज़ नए फ़रमान/ रोज़ जंगली डर उगें, शहरों के दरम्यान

नवगीत की मानिंद नए दोहे में भी परंपरा और आधुनिकता के तनावपूर्ण द्वंद्व को भली भांति लक्षित किया गया है। ग्रामीण और शहर के वातावरण की अनुकूलता दिखाई देती है, परिस्थितियाँ सामने मंजर बन कर आ जाती हैं। विपरीत वायूमंडल, कुनीतियों पर प्रहार करती उनकी कलम की धार दक्षता के साथ घटित अवस्थाओं व हादसों को भी रेखांकित कर रही है। ऐसे दौर में समय को व्याख्यायित करना, उसका आकलन करना आज की गीतवाटिका का प्रमुख सरोकार है। यह सफल प्रयास शुक्ल जी की धारदार कलम ने किया है। ऐसे ही मनोभावों की कश्मकश इन शब्दों में आँकिए---
अम्माँ दंगे में मरी, पिता जल गए आग/ मैं नित मरुथल हो रहा, सुनसुन बादल राग
"अरी प्रजा तू तंत्र से नाहक करती रश्क/ भूख लगे, खा आँकड़े, प्यास लगे पी अश्क"

बम फटते हैं, बरबादियाँ सिर्फ़ व सिर्फ़ आम आदमी के दामन को भस्म करती हैं, खास आदमी तो शीशों के महलों में दरबानों की हिफाज़त में सुख की साँस ले रहे हैं-
"चोट पत्थर की सहेंगे सिर्फ़ माटी के मकाँ /शीश महलों की हिफाज़त में खड़े दरबान हैं"
"तुच्छ खुशियाँ माँगतीं कितनी बड़ी कुर्बानियाँ/ खून से लथपथ हुआ है उनको पाने में बशर
आदमी का दर्द सागर-सा, बयाँ कैसे करें/है मिली हमको ग़ज़ल की एक छोटी सी बहर"

सच में यह अल्प मौक़ा मिला है, बहुत कुछ करने का, पर खेद है कि हम वही कर रहे हैं जो हमें नहीं करना है, और जो करना है वह भूल बैठे हैं। मनोस्थिति, मनोवृति यही सब कुछ करने की दिशा में ले जाती है, करवाती है। फिर भी राधेश्याम शुक्ल जी ने अपनी आस्था को निश्चित ही एक भविष्योन्मुखी आयाम दिया है।

नेपोलियन ने कहा है- “दुनिया में दो ही ताक़तें हैं-एक तलवार और दूसरी कलम, किन्तु अन्तत: तलवार कलम से हार जाती है।" राधेशयम शुक्ल इसी कलम के वारिस हैं। जिया गया आदर्श, काव्य सौंदर्य तथा कथ्य और शिल्प का अद्भुत तालमेल पाठक की उत्कंठा को जगाये रखने के लिए बहुत हैं। “कैसे बुनें चदरिया” में उनकी रचनाएँ समाज में रहते हुए, गुज़र-बसर करते हुई मानवता से संवाद करती हुई शैली का स्वरूप है-
कैसे बुनें चदरिया साधो / उलझ गए हैं ताने-बाने
यह उधरा परिवेश, ढँकेगा-/ कल की कौन, राम जी जाने!
दलदल में धँसे सामाजिक प्राणी की व्यथा को परिभाषित करते हुए वे लिखते हैं-
भूमंडलीकरण ले आया / मेरे गाँव उजास
लेना देख, हँसेगा हम पर / कल, यह नया विकास
संवादों की भीड़ में /किन्तु संवेदन एक नहीं / गाने को हैं गीत/ एक भी मनहर ‘टेक’ नहीं

कुर्सियों के माध्यम से उनकी ही क्रूरता और कुटिलता को रेखांकित किया है-
आँसू से हैं नहीं पिघलती/ ये कलमुँही कुर्सियाँ शातिर
घर आँगन ही नहीं / चारदीवारी टूट गई /दरवाज़े, खिडिकियाँ, झरोखे
सहमे देख रहे हैं/ डोर समय की/ बूढ़े हाथों से है छूट गई

शब्द मानवता के प्रतीक बनकर सामने आए हैं। उनके व्यक्तित्व व कृतित्व को जान पाने की मेरी इस कोशिश की एक पहल ने मुझे उनके ज्ञान के सागर के किनारे लाकर खड़ा कर दिया है, जहाँ उनकी रचनावली, उनकी शब्दावली मेरे सहराई मन को और बहुत जान पाने की राह पर ले आई है। शत-शत नमन उनकी मानवता के सद्गुणों से महकती उस शख्सियत को जिसकी ओट में खड़ी “मैं अँधेरे में सही, रोशनी की सोचता हूँ” वाली मनोस्थिति में यही तमन्ना लिए हुए है -
क़द जो ऊँचा करना है तो मेरे शाने हाज़िर हैं
बौनेपन का ऐब छुपेगा बोलो पंजों के बल कितनी देर।

९ मार्च २०१५

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