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हिंदी साहित्य में
महिला आत्मकथा लेखन
- डॉ. अहिल्या मिश्र


हिंदी साहित्य के इतिहास में महिलाओं द्वारा लिखी गयी आत्मकथाओं को देखना चाहें तो वे मुट्ठी भर ही हैं। जानकी बजाज द्वारा लिखित ‘मेरी जीवन यात्रा’ (सन १९५६) के रूप में पहली स्त्री आत्मकथा को पहली महिला की आत्मकथा कहा जा सकता है। मराठी, पंजाबी, बंगला आदि अन्य भारतीय भाषा में लिखित आत्मकथाओं से प्रभावित होकर हिंदी की लेखिकाएँ भी आत्मकथा लेखन में प्रवृत्त हुईं। इस प्रकार आत्मकथा लेखन में कौशल्या बैसंत्री की ‘दोहरा अभिशाप’ (१९९९), मैत्रेई पुष्पा की ‘कंस्तूरी कुंडलि बसै’ (२००२) एवं ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ (२००८), प्रभा खेतान की ‘अन्या से अनन्या’ (२००७), रमणिका गुप्ता की ‘हादसे’ (२००५) और अपहुदरी, सुशीला राय की ‘एक अनपढ़ कहानी’ (२००५), अनीता राकेश की ‘चंद सतरें और’ (२००२), मन्नू भंडारी की ‘एक कहानी यह भी’ (२००७), कृष्णा अग्निहोत्री की ‘लगता नहीं है दिल मेरा’ (२०१०) एवं ‘और... और... औरत’ (२०११), सुशीला टाकभौरे की ‘शिकंजे का दर्द’(२०११) और ‘मेरी कलम मेरी कहानी’ (२०१४), अमृता प्रीतम की ‘रसीदी टिकट’(१९७६), शिवानी की ‘सुनहुँ तात यह अकथ कहानी’(१९९९), पद्मा सचदेव की ‘बूँद बावड़ी’(१९९९), चंद्रकिरण सौनरेक्सा की ‘पिंजरे की मैना’(२००७), निर्मला जैन की ‘जमाने में हम’(२०१५), डॉ अहिल्या मिश्र की ‘दरकती दीवारों से झाँकती जिंदगी’ (२०२१) आदि प्रमुख हैं। इन आत्मकथाओं के माध्यम से महिलाओं ने अपनी करुणा व्यथा मानसिक घुटन एवं संघर्ष आदि को व्यक्त किया है।

मन्नू भंडारी, मैत्रेयी पुष्पा, प्रभा खेतान, प्रो. निर्मला जैन, शीला झुनझुनवाला, अजीत कौर, रमणिका गुप्ता, कृष्णा अग्निहोत्री, कौशल्या बैसंत्री, चंद्रकिरण सौनरेक्सा, डॉ अहिल्या मिश्र आदि कुछ ऐसी लेखिकाएँ हैं जिनकी आत्मकथा में उपरोक्त तथ्यों के साथ-साथ नारी अस्मिता, निज से वाद-विवाद, यौन शुचिता आदि प्रश्नों पर भी गहन विवेचन-विश्लेषण प्राप्त होता है। उपरोक्त लेखिकाओं की आत्मकथाओं में नारियों के शोषण के दोनों रूप शारीरिक एवं मानसिक शोषण के साथ भावनात्मक शोषण का भी अति सूक्ष्मता पूर्वक चित्रण हुआ है। मन्नू भंडारी की आत्मकथा “एक कहानी ऐसी भी” इसका जीवंत उदाहरण है। सुप्रसिद्ध लेखक राजेंद्र यादव से उनका प्रेम विवाह असफल सिद्ध हुआ। अपने पति से उन्हें जीवन पर्यंत बेवफ़ाई, तिरस्कार तथा अवहेलना मिली। दाम्पत्य जीवन के आरम्भ में ही उन्हें ‘समानांतर जीवन का सूत्र’ सिखा दिया गया। यानि कि छत एक ही होगी परंतु दोनों के अधिकार क्षेत्र अलग अलग होंगे। मन्नू लिखती हैं - “प्रथम रात्रि को राजेंद्र जब मेरे पास आए तो उनकी रगों में लहू नहीं अपने किए का अपराध बोध था….. बिलकुल ठंडे और निरुत्साहित। और फिर यह ठंडापन हमारे सम्बंधों के बीच स्थायी बनकर जम गया।”

मन्नू जी पैंतीस वर्षों तक इस निर्जीव रिश्ते को ढोती रहीं। निरंतर तनाव ग्रस्त रहने के कारण उन्हें न्युरोलॉजिया के दर्दनाक दौरे पड़ने लगे। ऐसी स्थिति में भी राजेंद्र यादव ने उनके दर्द और तकलीफ़ को अनदेखा कर अपने मित्र एवं उसकी पत्नी के साथ एक गोष्ठी में जहाँ मन्नू जी भी आमंत्रित थीं जाने का कार्यक्रम बना लिया। उनकी असम्वेदनशीलता को उजागर करते हुए मन्नू जी लिखती हैं कि राजेंद्र जी उनसे कहने लगे “मन्नू नहीं जा रही है तो क्या हुआ…. मैं तो हूँ, देखिए तो क्या मौज करवाता हूँ .. और खूब मस्ती मारेंगे.. आप अपना कार्यक्रम बिलकुल कैंसिल नहीं करेंगी… मेरे छटपटाते मन पर मौज करेंगे, मस्ती मारेंगे जैसे शब्द खुदते चल रहे थे। और उससे उपजी तकलीफ़ आँसुओं में बहती चली जा रही थी।

इसी तरह की मानसिक त्रासदी से अजित कौर को भी दो चार होना पड़ा। एक सुशिक्षित पति जो कि पेशे से डॉक्टर है उसका व्यवहार उनके प्रति असम्वेदनशील रहा था। उन्होंने अपने चरित्रहीन पति और ससुराल वालों को प्रसन्न करने का हर संभव प्रयत्न किया। किन्तु उनके व्यवहार में कोई अंतर नहीं आ पाया। पति का घर त्यागने के पश्चात कृष्णा अग्निहोत्री को महाविद्यालय में नौकरी मिली। वहाँ की महिला प्राचार्या उनकी नियुक्ति का आदेश देखते ही बोली- “तुम यहाँ क्यों आई? तुम्हें और कोई जगह नहीं मिली? इसी में अभी भी तुम्हारी भलाई है कि किसी और जगह चली जाओ।”

‘पिंजरे की मैना’ में चंदकिरण सोनरेक्सा सास द्वारा एक अल्पायु बालिका वधू के शोषण को उद्घाटित करती हुई कहती हैं कि घर में बहू के आते ही सास ने उससे सौतेलेपन का व्यवहार शुरू कर दिया। मिसरानी छुड़ा दी गई। पाँच-छह व्यक्तियों का खाना वह बारह-तेरह वर्ष की बालिका बना लेती पर जो गाँव से समय-असमय आने वाले मेहमान थे उनके लिए सेरों आटे की रोटियाँ सेंकना उसके लिए कठिन हो जाता था। एक अन्य स्थान पर चंद्रकिरण लिखती हैं कि उनके रिश्ते की एक बाल विधवा का पुनर्विवाह कराया गया। किन्तु उसके प्रति व्यवहार सास का व्यवहार अति द्वेषपूर्ण रहा। वह हरदम उसे नीचा दिखाने के बहाने ढूँढती रहती। यहाँ तक कि बच्चों से उनकी जासूसी करवाती। उन्हें स्कूल तक जाने नहीं देती। इसी संबंध में बच्चा अपने पिता से कहता है कि बाबूजी दादी ने मुझे चौकीदार बना दिया है मैं स्कूल का नागा कब तक करूँगा…. नई माँ दूध में पानी तो नहीं मिला रही है। मलाई छिपा कर तो नहीं रखती।” यहाँ यह सच सिद्ध होता है कि केवल पुरुष ही कटघरे में खड़े नहीं किये गये हैं। कई स्त्रियाँ भी इस घेरे में आती हैं। आत्मकथा के विभिन्न प्रसंगों के बीच रिश्तों का विरोधी स्वरूप एवं स्त्री का स्त्री के प्रति द्वेष भी सामने आता है।

मैत्रेयी पुष्पा अपने कॉलेज के समय की एक घटना स्मरण करती हुई बताती हैं कि “गरीब एवं गाँव से संबंधित होने के कारण कॉलेज में पढ़ने वाली अमीर घराने की लड़कियाँ उन्हें नीचा दिखाकर उनका आत्मविश्वास तोड़ने एवं दुख पहुँचाने के बहाने ढूँढती थीं। एक दिन तो उन लोगों ने एक बेहद शर्मनाक घटना की रचना रच दी कि मैत्रेयी को अपने लड़की होने पर शर्म हुआ साथ ही रोना आया। वे रोती हुई उस कुर्सी के पास ठहर गईं जहाँ से ये दाग लगे थे। किसी क्रूर लड़की ने कुर्सी पर लाल रंग ही उड़ेल कर लड़की होने का मज़ाक उड़ाया था। कस्तूरी मैत्रेयी जी की माँ का नाम है। वास्तव में ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ आत्मकथा उन्हीं के संघर्षों का लेखा जोखा है। कस्तूरी के पति का देहांत होने के बाद एक बाल विधवा द्वारा गोदी की बच्ची को पालना पहाड़ पर चढ़ने के समान था। समाज में पुरुषों की नज़र से अपने को बचाते हुए तथा बच्ची की रक्षा करते हुए, उसे शिक्षित करते हुए आत्म निर्भर बनाने के लिए किए जानेवाले प्रयास एवं संघर्ष की एक लम्बी शृंखला है जो कभी न ख़त्म होने वाले रास्ते पर जाती है।

मैत्रेयी जी ने अपने दूसरे उपन्यास ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ में अपने संपूर्ण जीवन को खोलकर इसके सभी पन्नों पर फैला दिया है। अलीगढ़ के बंटी की बहू से लेकर मिसेज़ शर्मा से होते हुए मैत्रेयी पुष्पा बनने तक की कहानी है यह आत्मकथा। विवाह के पच्चीस वर्ष बाद लेखिका की पहली कहानी ‘आक्षेप’ साप्ताहिक में छपी तो मिसेज़ शर्मा से बाहर आकर मैत्रेयी पुष्पा का नाम पुनः सूर्य की भाँति चमकने लगा। फिर शुरू हुआ लेखिका का लेखन संघर्ष एवं अस्तित्व की तलाश। मैत्रेयी जी ने आत्मकथा में स्पष्ट किया कि चाक, अल्मा कबूतरी, अगन पक्षी, इदन्नमम जैसे उपन्यास क्यों लिखे। ‘कहे ईसुरी फाग’ लिखने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई। लेखिका के अनुसार “विवाह स्त्री की सुरक्षा का गढ़, संरक्षण का किला, शांति के नाम पर निश्चिंतता की सन्नाटे भरी गुफा और ग़ुलामी का आनंद है।”

लेखिका को पति सत्ता के किले में रहते हुए अपना लेखन कार्य छिपा कर करना पड़ता है। अस्तित्व की इस लड़ाई की खोज में पारिवारिक कलह के समक्ष अडिग अपने स्वत्व की खोज में लेखिका मानती है कि स्त्रियों का जन्म एक ऐसे पौधे के रूप में होता है जिन्हें हिलाने-डुलाने और विकसित करने के लिए हवा ज़रूरी है। लेकिन हमारे माली बने लोग कहते हैं बोनसाई बनी करो, पौधे बढ़कर अपनी ख़ूबसूरती खो देते हैं।” लेखिका के अनुसार भारतीय समाज में गृहस्थों के संस्कार जन्म से लेकर मृत्यु व पिंडदान तक पुत्रों से बँधे होते हैं। तीन पुत्रियों की माँ बनने के साथ अपमान एवं सन्नाटे का हृदय विदारक वर्णन लेखिका ने किया है।

रमणिका गुप्ता की आत्मकथा कोयला खदानों, राजनीति तथा सड़क पर मजदूरी करने वाली स्त्रियों की दैहिक तथा मानसिक शोषण को उजागर करती है। निर्मला जैन की आत्मकथा पढ़े लिखे लोगों की सामाजिक विडंबना को सबके सामने लाती है साथ ही शिक्षण संस्थानों में चल रहे शिक्षकों एवं प्रशासन के आपसी घात-प्रतिघात से पाठक को रूबरू करवाती है। उच्च शिक्षा प्राप्त स्वाबलंबी स्त्री होने के उपरांत भी उन्हें जीवन में गुटबाजी एवं घटिया राजनीति के कारण चारित्रिक लांछन का सामना करना पड़ता है। उनके चरित्रहरण का प्रयास किया जाता है। तब उन्हें तत्कालीन कुलपति से सहायता हेतु प्रार्थना करनी पड़ती है। उन्हीं के शब्दों में - “भर्राई आवाज में इतना ही कह पाई, मुनीश भाई मेरी इज्जत बचाने के लिए आप क्या कर सकते हैं।” कहते हुए मेरी आँखें भर आईं।

मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा में स्त्रियों पर होने वाले यौन शोषण के कई उदाहरण मिलते हैं। बाल्यावस्था से ही शारीरिक शोषण का शिकार हुई रमणिका गुप्ता लिखती हैं कि उनका दैहिक शोषण बाहर वालों ने नहीं अपितु घर में रहने वालों ने तथा काम करने वालों ने किया। प्रभा खेतान अन्या से अनन्या में लिखती हैं कि वे नौ वर्ष की आयु में अपने ही घर में स्वयं अपने भाई द्वारा यौन शोषण का शिकार हुईं। कौशल्या बैसन्त्री अपनी माँ का उदाहरण देते हुए कहती हैं कि उन्हें बेटे का बड़ा शौक था। हर प्रसूति के समय पुत्र की लालसा रहती थी। संतान लड़की पैदा होने पर माँ बहुत उदास हो जाती। वे कहती थीं कि “जाओ उसे कूड़े में फेंक आओ।” प्रभा खेतान लिखती हैं कि “अम्मा ने मुझे कभी गोद में लेकर चूमा नहीं। मैं चुपचाप घंटों उनके कमरे के दरवाजे पर खड़ी रहती। शायद अम्मा जी मुझे भीतर बुला लें। शायद अपनी रजाई में सुला लें। मगर नहीं। एक शाश्वत दूरी बनी रही हम दोनों के बीच।” कौशल्या बैसंत्री ने भी अपनी मां की कठोरता का वर्णन किया है। वे बात-बात पर बैसंत्री को पीटती थीं। एक बार तो इतना पीटा की पांव का अंगूठा घायल हो गया और अस्पताल ले जाना पड़ा।

यहाँ निर्मला जैन के लेखकीय क्षेत्र के एक अनुभव के माध्यम से पुरुष सम्पादकों की मानसिकता का उदाहरण प्रस्तुत है। हंस के सम्पादक राजेंद्र यादव अपने अहं तुष्टि के लिए जाने जाते थे। उनकी ऐसी हरकतों पर मन्नू जी से गाहे-बगाहे उनकी कहा सुनी तो होती ही रहती थी। उन्होंने अपनी इन हरकतों से कई लोगों से नाराज़गी मोल ले ली थी। डॉ नगेंद्र उनमें से एक थे। नतीजा यह हुआ कि डॉ साहब भी उन्हें नाम से नहीं, अपशब्दों से नवाज़ा करते थे।

प्रभा खेतान ने ‘अन्या से अनन्या तक’ अपनी आत्मकथा में अपने जीवन के सत्य का कठोर वर्णन किया है। किस प्रकार सामाजिक एवं पारंपरिक वर्जनाओं के भीतर पली-बढ़ी एक साधारण सी लड़की अपने बल पर एक सफल उद्योगपति तथा कलकत्ता चेंबर ऑफ कॉमर्स की प्रथम महिला अध्यक्ष बनती है। आर्थिक रूप से एक सफल एवं सशक्त स्त्री होते हुए भी वह भावनात्मक स्तर पर कमजोर साबित होती हैं। अपने जीवन के एकाकीपन को दूर करने हेतु डॉ सर्राफ के साथ तथा उनके परिवार के साथ पच्चीस वर्षों के रिश्तों के पश्चात इस बेनाम रिश्ते से वे मात्र तिरस्कार बटोर पाती हैं। वे लिखती हैं कि “मैं अकेली थी। इतनी अकेली कि मैं किसी का रोल मॉडल नहीं बन सकी। कोई लड़की मेरे जैसी नहीं होना चाहिए। मेरी तमाम सफलताएँ सामाजिक कसौटी पर पछाड़ खाने लगती हैं। सारी उपलब्धियाँ अपनी चमक खो देतीं हैं। डॉक्टर सर्राफ पर उनकी निर्भरता मानसिक रुग्णता बनने लगी थी। वे प्रेमी से अभिभावक बन गए। आय, व्यय बचत आदि का लेखा-जोखा बच्चों की तरह लेने और रखने लगे। किंतु इनको शक की नजरों से देखते हुए इनपर निगरानी भी रखने लगे। इस प्रकार वह स्वावलंबी होकर भी परावलंबी बनी रहीं।

कृष्णा अग्निहोत्री की आत्मकथा से भी यह स्पष्ट होता है कि एक अच्छे परिवार की सुशिक्षित तथा आत्मनिर्भर नारी परायों के साथ-साथ अपनों द्वारा भी छली जाती है। उनका अपना भाई उन्हें पैतृक अधिकार से वंचित करता है। अपने चरित्रहीन आई पी एस पति द्वारा अमानवीय व्यवहार का शिकार बनती है। उच्च शिक्षा ग्रहण कर अपने पैरों पर खड़ी होने के पश्चात कार्यस्थल पर तिरस्कृत होना पड़ता है। पति से अलग रहने तथा जवान व सुंदर होने के कारण उन्हें स्वच्छंद प्रवृत्ति का माना जाता है और चारों ओर उपस्थित पुरुषों को लगता है कि वे सहज उपलब्ध होने वाली स्त्री है। साठ वर्ष की आयु में गोवा के रोहिताश्व चतुर्वेदी को अपना उपन्यास प्रकाशन हेतु देना था। उसने उनके सामने गोवा आकर अकेले में मिलने का प्रस्ताव रखा- “मेरी पत्नी यहाँ नहीं रहती है। गोवा में मैं बहुत अकेला हूँ। इस उम्र में हम कुछ कर तो नहीं सकते पर साथ तो चाहिए।” यह उन्हीं का लेखन है। यानी स्त्री मात्र देह और दर्शनीय वस्तु भर है। पुरुष अकेली स्त्री को देखकर सभी सीमाएँ लाँघने को उद्दत हो उठता है। इसे उजागर किया गया है।

पुरुषों द्वारा नारी को मात्र भोग्या या भोग की वस्तु समझे जाने के विषय में कृष्णा जी कहती हैं कि “सेक्स के अतिरिक्त भी स्त्री के सामने कई चुनौतियाँ रहती हैं। उसमें भी वह भागीदारी चाहती है। इसकी पूर्ति एक योग्य भाई, पति, बेटा या मित्र कर सकता है।” विवेच्य आत्मकथा में नारियों के शारीरिक शोषण के अलावा मानसिक शोषण का भी सूक्ष्मता पूर्वक चित्रण हुआ है। ऐसे शोषण का शरीर पर कोई चिह्न नहीं होता है या दिखाई देता है किंतु मन मस्तिष्क पर यह गहरा प्रभाव छोड़ता है। मन्नू भंडारी की आत्मकथा ‘एक कहानी ऐसी भी’ इसका जीवंत उदाहरण है।

अजीत कौर को भी मानसिक त्रासदी से गुजरना पड़ा है। एक सुशिक्षित डॉक्टर पति का व्यवहार उनके प्रति अति असंवेदनशील रहा है। अपने चरित्रहीन पति तथा ससुराल वालों को प्रसन्न रखने का उन्होंने हर संभव प्रयास किया। किंतु उनके प्रति उनके व्यवहार में कोई अंतर नहीं आता। एक बार वे बहुत बीमार हो जाती है। अपने पति से कहती है कि “मुझे संतरे ला दो या संतरे के लिए पैसे ही दे दो। डॉक्टर ने जूस पीने को कहा है।” बीमारी में उनसे सहानुभूति जताने के बजाय उनके पति ने कहा “जा अपने बाप के घर अगर संतरे चाहिए तो।”

पारिवारिक क्लेश की बात करें तो सर्वप्रथम सास-बहू, ननद-भाभी, देवरानी-जेठानी के रिश्तों पर उंगली उठती है। दांपत्य जीवन में दरारें औरत ही डालती है। वैसे भी ससुराल मैके के बीच आधिपत्य का दंश भी बहू को ही झेलना पड़ता है। ससुराल में मैके से जुड़ी स्त्री को कई बार सास एवं अन्य रिश्तेदारों के ताने झेलने या सुनने पड़ते हैं। स्त्री का अपना कोई व्यक्तित्व गिना ही नहीं जाता। यह भी कुछ आत्मकथाओं में पढ़ने को मिला। इससे उनके कोमल मन पर एक अतिरिक्त दवाब बनता है और वह बेचैन हो उठती है।

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध के पश्चात एक आत्मकथा आई है- डॉक्टर अहिल्या मिश्र कृत ‘दरकती दीवारों से झाँकती जिंदगी’। यह आत्मकथा अभिव्यक्ति की सादगी, जीवन के साथ जिये गए अनुभवों का खारापन, उत्तर देने की ताकत एवं साहस के साथ सार्थक अर्थों को प्रतिपादित करने की क्षमता, भावों की संप्रेषणीयता के साथ मानवीय मूल्यों को जीने की ललक सहित विभिन्न स्तरों पर संघर्ष, सामाजिक मान्यताओं को तोड़कर नई स्थापना की शक्ति से लबालब, जीवंत एवं जोश से भरी आज की स्त्री का चित्रण है। परिवार, समाज एवं रिश्तों में बलिदान देने के बजाय रिश्तों की नई परिभाषा गढ़ना ही इस उत्साही स्त्री की कहानी है। स्त्री शोषण, जमींदारी प्रथा, सीमाओं का बंधन तोड़ते हुए विकास के रास्ते पर बढ़ना यही लक्ष्य है उस स्त्री का। यह वर्ग भेद एवं इनके सामाजिक आचरण के साथ स्त्री शिक्षा को सर्वोच्च मान्यता देने वाली स्त्री का आख्यान है।

स्त्रियों द्वारा स्त्रियों के प्रति उपेक्षा पूर्ण व्यवहार का उल्लेख प्रायः सभी आत्मकथाओं में उभर कर आया है। नारी जीवन का विविधा पूर्ण चित्रण करती विवेच्य लेखिकाओं की आत्मकथाओं में एक तथ्य समान रूप से दृष्टिगोचर होता है वह है शोषण का प्रतिकार। देर अवश्य हुआ किंतु अब आधुनिक समय की स्त्रियों ने यह दिखा दिया है कि वे अब शोषण नहीं सहेंगीं। कौशल्या बैसंत्री ने इकसठ वर्ष की आयु में अपने पति को तलाक देकर जीना शुरु किया। कृष्णा अग्निहोत्री ने अपनी पुत्री सहित पति का घर त्याग दिया। अजीत कौर ने भी पति की अवहेलना के प्रतिउत्तर में अपनी दोनों बेटियों के साथ अलग जीवन जीने लगी। रमणिका गुप्ता अपनी शर्तों पर जीवन जीती रही। प्रभा खेतान विवाह संस्कार को खतरा बताते हुए अपने प्रेम को वरणकर जीवन जीती रहीं। निर्मला जैन भी राजनीति से उभर कर अपनी पहचान बनाने में सक्षम रहीं। अहिल्या मिश्र अनजान स्थान पर अपने अस्मिता की स्थापना कर एक नई पहचान बना पाई हैं। उपरोक्त सभी आत्मकथाओं से गुजरते हुए यह स्पष्ट होता है कि पुरुष वर्चस्व के कैद में जकड़ी स्त्री अपने स्वत्व के लिए अपने मान-सम्मान के लिए अपने अंतर्मन के स्त्री को प्रबल, सबल करती है। एवं उनका आत्मविश्वास एवं साहस उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।

इस प्रकार हम पाते हैं कि बीसवीं एवं इक्कीसवीं सदी के आरंभिक दशकों में नारी आत्मकथाओं के बीच स्त्री के सफल एवं सशक्त रूप उभर कर एक नई स्थापना करने में सफल एवं सक्षम हुए हैं। ये सभी नारियाँ अपने अधिकारों के प्रति जागरूक एवं अपनी अस्मिता के लिए बड़ी चुनौती का सामना करने से नहीं हिचकिचाती है। सभी स्वतंत्रता, स्वावलम्बन आत्मनिर्भरता एवं नारी अस्मिता को शिक्षा के साथ अर्थायित करती है।

१ अप्रैल २०२३

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