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प्रवासी हिंदी कहानी में
पुनरावलोकन की आवश्यकता
- असीम अग्रवाल


उत्तर-आधुनिकता को जिन मूल प्रवृत्तियों के लिए जाना जाता है उनमें से एक विकेंद्रीकरण भी है। केंद्रीकरण के विखंडन की यह प्रवृत्ति साहित्य में भी देखने को मिली और विभिन्न विमर्श प्रचलन में आए। स्त्री विमर्श हो या दलित विमर्श या फिर आदिवासी विमर्श, तमाम अस्मितामूलक विमर्शों को प्रोत्साहित करने वाले वर्ग में भी इजाफा होता चला गया। पर इस पूरी प्रक्रिया में साहित्य-जगत का एक तबका ऐसा भी रहा जो पहले भी हाशिये पर था और उस समय की तो क्या ही बात की जाए, आज भी बहुत उत्साहवर्धक स्थिति में नहीं है। बात की जा रही है 'प्रवासी साहित्य' की, जिसकी परिधि तक को निश्चित करने तक का कार्य करने में हिंदी के साहित्य जगत ने ज्यादा रुचि नहीं दिखाई। तभी तो आज भी इस पर विद्वान एकमत नहीं दिखाई देते कि विदेश में रचित हिंदी साहित्य को ही प्रवासी साहित्य माना जाए या फिर देश की सीमा के भीतर प्रवासी व्यक्ति द्वारा प्रवास के आयामों को उद्घाटित करने वाले रचना-कर्म को भी इसमें शामिल किया जाए। हालाँकि मोटी-सी सहमति विदेश में रचित हिंदी साहित्य को ही मानने पर बनती है।

प्रवासी साहित्य को अक्सर मॉरीशस, सूरीनाम, फिजी और त्रिनिदाद के रचनाकारों तक ही सीमित कर दिया जाता है जबकि ऐसा नहीं है। ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा व खाड़ी देशों में भी हिंदी रचनाकार सक्रिय हैं। प्रवासी साहित्य संबंधी तमाम गलत धारणाओं या अल्पज्ञता के बावजूद एक सुखद चीज यह देखने में आई है कि अब इसकी तरफ रुझान बढ़ना शुरू हुआ है। प्रख्यात आलोचक डॉ. कमल किशोर गोयनका इसे इस तरह से व्यक्त करते हैं, "हिंदी के इस साहित्य का रंग-रूप, उसकी चेतना, संवेदना एवं सृजन- प्रक्रिया भारत के हिंदी पाठकों के लिए एक नई वस्तु है, एक नए भावबोध एवं नए सरोकार का साहित्य है। एक नई व्याकुलता, बेचैनी तथा एक नए अस्तित्व-बोध व आत्मबोध का साहित्य है जो हिंदी साहित्य को अपनी मौलिकता एवं नए साहित्य संसार से समृद्ध करता है।"

प्रवासी साहित्य का जिक्र आते ही जो आम धारणा देखने को मिलती है वह है इसका 'नॉस्टेल्जिया'। नॉस्टेल्जिया से अभिप्राय अतीत की घटना या स्थान के स्मरण में संचरण है। सुदर्शन जुनेजा द्वारा रचित 'अखबारवाला' इस श्रेणी की प्रतिनिधि कहानी है। कहानी की शुरुआत जया (जो कि एक भारतीय है) के सामने वाले घर में हुई मृत्यु और उसके प्रति पड़ोसियों की उदासीनता से होती है। अपने भारतीय संस्कारों के कारण वह बार-बार चाहती है कि श्रद्धांजलि दे आए पर अपरिचय और परिवेश के हिसाब से ऊहापोह में रहती है। जया जब उनके अगले घर में रहने वाले व्यक्ति से ही उस संबंध में पूछती है तो वह उन्हें उनका व्यक्तिगत मामला कहकर बात खत्म कर देते हैं। ऐसे में ही उसे अपने यहाँ की एक घटना स्मरण हो आती है कि एक बार बाबूजी जब किसी को जाने बगैर ही श्रद्धांजलि देने जा रहे थे तो जया उनसे पूछ लेती हैं तो वह कहते हैं कि किसी आत्मा को अंतिम सत्कार देने के लिए जानना जरूरी नहीं बेटा। यह याद उसकी बेचैनी को और बढ़ा देती है। उसे लगने लगता है कि कैसी है यहाँ की जिंदगी? यहाँ के साफ-सुथरे बने घर ताबूतगाह लगते हैं और सन्नाटे में लिपटी हुई इमारते जैसे बेआवाज धीरे- धीरे सुबकती हैं। बंद कमरों में कैद जिंदगी जया को भारत के खुलेपन की याद दिलाती है। एक अजीब से द्वंद्व में वह रहती है तभी तो उदित होते सूर्य की ओर स्वतः प्रणाम में उठते उसके हाथ थम जाते हैं। उसे लगता है कि अपने देश में तो रात हो रही होगी तो वह असल मे प्रणाम किसे कर रही है? इसी उठापटक में वह उगते सूर्य से कभी गढ़ी दोस्ती ही नहीं कर पाती। पर इन तमाम मानसिक उलझनों से ज्यादा मुसीबत तो उसके लिए आज खड़ी हुई है। किसी की मृत्यु के प्रति इस स्तर की चरम उदासीनता उससे पच नहीं पाती और अपनी संस्कृति के बारे में सोचने लगती है, "ये लोग दुख में हमारी तरह चीखते-चिल्लाते नहीं रहे हैं। मौत पर आँसू तक किसी विशेष हिसाब से निकलते हैं। हमारे यहाँ भावनाओं का, स्मृतियों का, रिश्तों का, रिवाजों का जैसे अंधड़ फूट पड़ता है - अपनी पूरी उद्दाम छलाँगों और छपाकों के साथ। ...हम उम्र-भर उस जानेवाले को जाने नहीं देते। कहीं समेट-समेटकर रखते हैं। श्राद्ध न किया, पुत्र ने कंधा न दिया, अग्नि न दी तो मुक्ति न हुई। फिर भी हमारी मुक्ति नहीं होती। पर यहाँ जीवन को केवल जीवन समझकर जिया जाता है। वह भी पहले अपने लिए ...केवल अपने लिए।"

यहाँ एक चीज गौर करने लायक है कि रचनाकार अनायास ही तुलना करता जाता है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि वर्तमान और स्मृति का अनिवार्य मेल के साथ वह जीता है। उसका वर्तमान चाहे विदेशी सभ्यता और परिवेश हो परंतु स्मृतियों में तो भारतीय सभ्यता ही महकती है। ऐसे में यह प्रवृत्ति प्रवासी साहित्य में अमूमन दृष्टिगोचर होना स्वाभाविक ही लगता है।

प्रवासी साहित्य के आरंभिक दौर में जहाँ नॉस्टेल्जिया का अधिक प्रभाव देखा जा रहा था वहीं समय-समय के साथ स्थिति बदलने लगी। प्रवास के शुरुआत में प्रवासी रचनाकारों का जो चित्त स्मृतियों से आच्छादित रहता था वह नए परिवेश के प्रति भी चिंतन-मनन करने लगा और उनकी रचनाओं में इसने गुणात्मक अंतर पैदा किया। इसे आचार्य शुक्ल की प्रसिद्ध पंक्ति 'साहित्य किसी देश की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है' के माध्यम से आसानी समझा जा सकता है कि बदली हुई परिस्थितियों ने मनःस्थिति को बदला और उसने साहित्य को। इसे डॉ. हरिसुमन बिष्ट ने इस तरह विश्लेषित किया है, "प्रवासी कहानीकारों की प्रारंभिक कहानियाँ भारतीय कहानीकारों की भाँति ही अपने गाँव, प्रदेश, मिट्टी की गंध लिए होती थीं। धीरे-धीरे नई परिस्थितियों से जुड़ने के साथ-साथ उनके विचारों - सोच में बदलाव आया और उन्होंने उसी तरह की कहानियाँ लिखनी शुरू कर दीं। ...आज उनकी कहानियों में नॉस्टेल्जिया कम, आधुनिकता की बयार में मॉल कल्चर, उग्रवाद, वैश्वीकरण से बदली जीवन-शैली का प्रभाव ज्यादा देखने को मिल रहा है।"

तेजेंद्र शर्मा कृत 'कब्र का मुनाफा' इसी तरह की कहानी है जो नॉस्टेल्जिया को रखते हुए भी उसका अतिक्रमण कर अपने समय और परिवेश की नब्ज को पकड़ती है। कहानी बाजार और मनुष्य के नए संबंधों की संवेदनहीनता का अंकन करती हैं। पश्चिमी देशों में अपनी मौत से पहले ही अपनी कब्र का इंतजाम कर लिया जाता है। इस व्यापार में बाकायदा कंपनियाँ लगी हुई हैं। और इसी पूँजीवादी सोच की गिरफ्त में फँसे ख़लील को अपने लिए तथाकथित 'ऐलिट' कब्र निश्चित कर चुकने के बाद उसके अलग ख्यालात रखने वाली उसकी पत्नी नादिरा बहुत मारक व सारगर्भित बात कहती है, "ख़लील, आप जिंदगी भर तो इनसान को पैसों में तौलते रहे। क्या मरने के बाद भी आप नहीं बदलेंगे। मरने के बाद तो शरीर मिट्टी का नाम चाहे अब्दुल हो, नादिरा या फिर ख़लील।"

अगर गहराई में जाकर देखें तो लगता है कि हर बात में सीधे बाजार को गाली नहीं दी जा सकती। बाजार हमारी जरूरतों और कमजोरियों का फायदा उठाता ही है। जब हमारी संततियाँ ही हमारी अंतिम क्रिया नहीं करेंगी, तब इस प्रकार बीच में कोई तो आएगा। संततियों के ऐसा न करने के पीछे उनको उनका बचपन का हक - परवरिश और उससे भी ज्यादा साथ मे वक्त बिताना - दिया ही नहीं जाता। कहानी इस सभी बातों की ओर इशारा करती चलती ही है। कहानी का महत्वपूर्ण हिस्सा स्त्री-पुरुष संबंध को लेकर भी है। ख़लील और नजम ब्रिटेन भले ही आ गए हों, लेकिन अपनी विचारों में वह प्रगतिशील नहीं हैं। वे अपनी पत्नियों पर मानसिक और शारीरिक अत्याचार करते हैं। वहीं दोनों औरतें डिफेंस मैकनिज्म के तौर पर या तो 'मुस्कान' ओढ़ लेती हैं या फिर हिंदी फिल्मों में डूब जाती हैं। भीतर से बेहद आहत और बाहर से शांत चित्त। प्रवासी साहित्य की प्रमुख आलोचक विजय शर्मा ने लिखा है, "इस कहानी में सब एक दूसरे को बर्दाश्त कर रहे हैं, ख़लील ज़ैदी नादिरा, नजम, इरफान को बर्दाश्त कर रहा है। नादिरा खलील को सहन कर रही है। आबिदा नजम को अकोमेडेट किए हुए है। असल में न तो कोई पति-पत्नी है, न ही कोई दोस्त है। किसी का किसी से वास्तव में लगाव नहीं है। हाँ, दोनों औरतों में अवश्य बहनापा नजर आता है। दोनों की स्थितियाँ तकरीबन एक सी हैं। इसलिए भी उनमें आपसी समझ होना समझ में आता है। यह एक नए विषय पर लिखी गई कहानी है जो आधुनिक भूमंडलीकृत मनुष्य के व्यवहार और सोच को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करती है।"

प्रवासी साहित्य की विशेषता पाठकों को नए संसार से परिचित कराने में निहित है। हम अपनी-अपनी दुनिया में रहते हुए बाहर की चीजों के बारे में बहुत सी मिथ्या धारणाएँ बना लेते हैं, जिन्हें खंडित कर प्रवासी साहित्य वास्तविकता से साक्षात्कार कराता है। मसलन कि, अमेरिका जैसे संपन्न देशों में तो हर कोई अमीर ही होता होगा। वहाँ थोड़े ही न भिखारी होंगे। यह एक आम धारणा है। जिसे सुधा ओम ढींगरा की कहानी 'सूरज क्यों निकलता है' के पीटर और जेम्स तोड़ देते हैं। ये दोनों ही भिखारी हैं। दोनों ही अपने हाथ में 'होम-लेस, नीड यौर हैल्प' लिखा हुआ गत्ते का टुकड़ा थामे रहते। दोनों ही जलालत के बाद भी नहीं मानते। बची-खुची कसर लेखिका का यह चित्रण पूरा कर देता है, "जेब में वेलफेयर में मिले कूपनों के अतिरिक्त एक डॉलर भी नहीं है। ये कूपन सरकार उन्हें खाने की सामग्री खरीदने के लिए देती है। कूपन बेचकर वे शराब की बोतल और सिगरेट का पैकेट खरीदना चाहते हैं, पर कोई खरीददार नहीं मिल रहा उन्हें। दोनों निराश हैं, परेशान हैं, हलक पानी से बहल नहीं रहा। उसे बीयर चाहिए, व्हिस्की चाहिए। ये सब वे कहाँ से लाएँ?"

सरकार बुनियादी जरूरतों की पूर्ति कर रही है पर निम्नता इस स्तर की है कि शौक पूरे करने के लिए भीख माँगी जा रही है और उस पर भी जब नहीं मिलती तो मानवता के क्षय की बात करते हैं। कितनी हास्यस्पद स्थिति है कि जो लोग मानवता के खातिर भी अकर्मण्यता को न छोड़ना चाहे वे ही उसका प्रयोग अपने मत को उचित ठहराने के लिए करते हैं। टैरी के माध्यम से लेखिका अमरीकी अश्वेत नागरिकों के एक वर्ग की सोच का परिचय भी देती हैं कि कैसे वे श्वेत नागरिकों द्वारा अपने बुजुर्गों पर किये गए अत्याचारों के कारण अब सरकार द्वारा अपना पूरी तरह ध्यान रखने का कारण बताते हुए व्यवस्था की जिम्मेदारी तय करते हैं। इस लिहाज से यह कहानी एक अनभिज्ञ संसार से हमें रूबरू कराती है।

महेंद्र दवेसर द्वारा रचित 'सोना लाने पी गए' और ज़किया जुबैरी कृत 'मन की साँकल' अति-भौतिक होते परिवेश से रिश्तों में बढ़ती संवेदनहीनता को रेखांकित करती हैं। पहली कहानी में जहाँ पत्नी को इस पर खेद होता है कि पति की सजा कम होने के कारण जल्दी छूट जाने से जो किरायेदार घर खाली कर देंगे तो उसकी आय में कमी हो जाएगी और वो और अधिक गहने नहीं बनवा पाएगी जबकि एक किलो से अधिक सोना उसके पास है! दूसरी कहानी रात को गर्लफ्रैंड को घर रखने पर हुए माँ-पुत्र के विवाद के बाद माँ के मन में पुत्र द्वारा अपनी हत्या की आशंका से पैदा हुए खौफ से कमरे को भीतर से बंद करने पर खत्म होती है। इस कहानी का अंत बहुत हृदयविदारक है कि कैसे बचपन में प्याज काटते हुए आने वाले आँसुओं को देखकर ही जो पुत्र विचलित हो जाता था वो परिपक्व होकर माँ से अमानवीय व्यवहार करता है। बचपन और वर्तमान की 'बाइनरी' में लिखी जाने की तकनीक इस कहानी को ज्यादा प्रभावोत्पादक बनाती है। एक पत्नी-पति के बीच का यह अलगाव तथा माता व पुत्र के संबंधों की गहराती जाती इन दरारों को पढ़ना उन प्रवासी मूल्यों को समझना है, जिनकी टकराहट भारतीय मूल्यों से होने पर विचित्र जीवन-दृष्टि का विकास होने लगता है। भारतीय समाज की जीवन-दृष्टि का संपूर्ण मूल्यांकन इन प्रवासी परिवारों में पनप रही इस नई व्यवस्था के बिना अधूरा होगा।

प्रवासी साहित्य इस तथ्य की ओर भी संकेत करता है कि भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में पले-बढ़े होने के बावजूद मनुष्य के मन की क्षुद्रताएँ बहुत बार एक-सी ही होती हैं। डॉ. पद्मेश गुप्त की कहानी 'तिरस्कार' अपने पूर्वार्ध में भारतीय परिवेश और उत्तरार्ध में यूरोपीय परिवेश के माध्यम से यह स्पष्ट करती है कि सफेद चमड़ी को सर्वश्रेष्ठ मानने वाली ग्रंथि इसके अभाव वाले इनसानों के जीवन को कष्टप्रद कर देती है। अपने भारतीय परिवेश में अपने रंग पर दंभ करने वाली और अपनी छोटी बहन के साँवले रंग के कारण उसे हीन मानने वाली सिमरन एक अंग्रेज से शादी के बाद विदेश में अपने रंग पर किए जाने वाले कमेंट्स से हीन-भावना से ग्रसित हो जाती है। और एक दिन उसके अपने पति के ही शब्द उसे तोड़ देते हैं, "आई थिंक सिम, यू आर हाईली कांप्लेक्सड एंड पैरानॉइड। तुम बेवजह ऐसी बातों पर चिड़चिड़ाती हो और हीन भावना से ग्रस्त हो। अगर तुम्हें इंग्लिश सोसाइटी से इतनी ही दिक्कत है, तो चली क्यों नहीं जाती अपने देश? यू ब्लडी बिलांग टु अ ब्राउन रेस सो व्हाट्स द प्रॉब्लम? तुम्हें इस सोसाइटी में बुलाया ही किसने था? तुम्हीं हमेशा से किसी अंग्रेज से विवाह करना चाहती थीं।"

प्रवासी कहानियों के अध्ययन के दौरान दो भिन्न तरह की अद्भुत कहानियाँ पढ़ने का अवसर मिला - तेजेंद्र शर्मा कृत 'मुझे मार डाल बेटा...' और स्नेह ठाकुर द्वारा रचित 'प्रथम डेट'। इन दोनों पर बात करना समीचीन समझता हूँ। 'मुझे मार डाल बेटा...' आपसी प्रेम और करुणा की कहानी है। परिवार ब्रिटेन में बसा है लेकिन अपने भारतीय मूल्यों को पूरी तरह सँजोकर। मिस्टर मेहरा के बाऊ जी ने बहुत नाम और पैसा कमाया था लेकिन अचानक से पक्षाघात से बिस्तर पर हो गए। लेकिन परिवार ने उन्हें दुत्कारा नहीं। उनकी भरपूर सेवा की। दरअसल इस प्रकार की वि-संगति कहानियों की मूल संवेदना में गुणात्मक अंतर पैदा करती है। एक ओर भारत है, जहाँ परिवारों में आज एक-दूसरे के प्रति प्रेम घट रहा है। भौतिक वस्तुओं और सुविधाओं ने भावनाओं को अपदस्थ कर दिया है। उनका जीवन पश्चिमी देशों के विचारों से ग्रस्त हो चुका है। पर वहीं, विदेश में बसे कुछ भारतीय परिवार आज भी यदि अलहदा सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में अपने मूल्यों को बचाकर रखने का प्रयास कर रहे हैं तो यह उन लोगों का अपनी मिट्टी के प्रति प्रेम और समर्पण भाव दिखाता है। प्राच्य और पश्चिम का यह द्वंद्व प्रवासी लेखन का महत्वपूर्ण बिंदु है। डॉ राधाकृष्णन ने लिखा है, "एक ओर यूरोप पर नए खतरे मँडरा रहे हैं, और दूसरी और पश्चिमी विचारों और तकनीकी कुशलता के प्रभाव से एशिया और अफ्रीका का रूप बदलता जा रहा है। दुनिया अधिकाधिक परस्पर संबद्ध होती जा रही है और संस्कृतियों व सभ्यताओं का सम्मिलन हो रहा है।"

यह कहानी 'इच्छामृत्यु' की बहस में भी जाती है, और यह कमोबेश सुखद आश्चर्य का प्रश्न भी है। दरअसल हिंदी कहानियों में इस प्रकार की विषयगत विविधता की कमी महसूस की जाती रही है और इसी शृंखला की एक अहम और बिल्कुल नए थीम पर आधारित बोल्ड कड़ी है - 'प्रथम डेट'। कहानी का आरंभ ही पाठक को भीतर तक हिला देता है। चालीस की उम्र पर कर चुकी माँ और किशोर बेटी अपनी-अपनी डेट्स पर जाने के लिए एक साथ सज रही हैं। पूरी कहानी में माँ की ऊहापोह है इसी को सूक्ष्मता से व्यक्त करने के लिये लेखिका ने माँ के नजरिये से कहानी रची है। इस द्वंद्व के बीच उसकी अपनी बेटी ही संबल बनती है और अंततः माँ नए जिंदगी की इब्तिदा के लिए तैयार हो जाती है। इतने बोल्ड थीम पर लिखते हुए शायद लेखिका को भी द्वंद्व की स्थिति से गुजरना पड़ा होगा, इसी से शायद ठोस कारण को मजबूती से रखती हैं, "बयालीस साल की हो गई हूँ, पति बाईस साल का साथ मेरे से आधी उम्र की लड़की के लिए छोड़ गए हैं। ठीक ही तो है, उसकी तो उम्र ही नहीं वजन भी शायद मेरे से आधा होगा!! तीन सिजेरियन बच्चों के बाद मांस-पेशियाँ कसाव में आने का नाम नहीं लेना चाहतीं, जवानी दामन छिटक दूर खड़ी हो गई है। शादी से पहले कभी डेट नहीं की और शादी के बाद तो डेट का प्रश्न ही नहीं उठता; तुम्हारे पिता ही सब-कुछ थे। आज जिंदगी में पहली बार डेट पर जा रही हूँ।" सर्वस्व न्योछावर करने की कीमत पर भी अगर धोखा ही मिले तो फिर एक स्त्री के नए जीवन की शुरुआत के फैसले को मूल्यग्रस्त निगाहों से नहीं आँका जा सकता।

प्रवासी साहित्य अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद अपने बढ़ते क्षेत्र, विषयगत विविधता, पूर्वाग्रहों को तोड़ दुनिया की हकीकतों से रूबरू कराने के लिए और गैर-हिंदी परिवेश व भिन्न स्थितियों में भी हिंदी साहित्य से लगाव के प्रमाण के रूप में पठनीय व संग्रहणीय है। धीरे-धीरे इसके प्रति साहित्यिक जगत के बढ़ते रुझान से उज्ज्वल भविष्य की आस ठहरती है। प्रवासी साहित्य के विशेष विचारधारा से ग्रसित होने की बात सही नहीं है। जिन बदलते मूल्यों को प्रवासी साहित्य दर्ज कर रहा है, उन्हें नोटिस में नहीं लेना साहित्यिक उपजाऊ भूमि को मरु बनाना है। भारतीय मूल्यों का संपूर्ण संक्रमण को विश्लेषित करने तथा प्रवासी मूल्यों के कारण हिंदी साहित्य में आ रही नई प्रवृत्तियों को समझने की दृष्टि से प्रवासी-कहानियों को फिर से पढ़े जाने की आवश्यकता है।

१ सितंबर २०२३

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