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प्रवासी साहित्य और गाँधी
- पूर्णिमा वर्मन


गाँधी एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने पूरे विश्व और पूरी सदी को प्रभावित किया। न केवल आम जन बल्कि राजनीति साहित्य, संगीत कला और दर्शन पर उनके नाम और उनकी विचारधारा का प्रभाव देखने को मिलता है। फिर प्रवासी रचनाकार इससे अप्रभावित कैसे रह जाते। व्यंग्य में कहानियों में, नाटकों में, संस्मरणों में और कविताओं में कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में गांधी की विचारधारा के सत्य, अहिंसा, तप, त्याग और रामराज्य की भावना लगभग पूरे विश्व के प्रवासी साहित्य में दिखाई देती हैं। लेकिन यहाँ मैं केवल उन्हीं रचनाओं का उल्लेख कर रही हूँ जिनमें गांधी का नाम लेकर विशेष रूप से उनकी किसी विचारधारा या व्यक्तित्व की बात की गयी है।

अभिमन्यु अनत के तीन उपन्यास "लाल पसीना", 'और पसीना बहता रहा' तथा "गांधी जी बोले थे" एक क्रम में जुड़े हुए उपन्यास हैं। लाल पसीना दलितों की पीड़ा का स्वर बुलंद करता है, "पसीना बहता रहा" संघर्ष की दास्तान है और "गांधी जी बोले थे" शोषण के विरोध की अभिव्यक्ति हैं। ‘लाल पसीना’ मॉरिशस की धरती पर प्रवासी भारतीयों की शोषणग्रस्त जिन्दगी के अनेकानेक अँधेरों का दर्दनाक दस्तावेज है, लेकिन गांधी जी बोले थे उपन्यास में हम उसी जिन्दगी और उन अँधेरों से चेतना का एक नया सूर्योदय होता हुआ देखते हैं।

उपन्यास के नायक परकाश ने शैशव में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट रहे गांधीजी को सुना था। उन्हीं के आदर्श से वह प्रेरित है अन्याय के अस्वीकार के लिए शिक्षा और राजनीति का स्वीकार तथा मानवोचित अधिकारों की प्राप्ति के लिए संगठन और संघर्ष के रास्ते पर चलता हुआ वह जीवन में सफलता को प्राप्त करता है। आज से सत्तर-अस्सी वर्ष पूर्व के मॉरिशसीय समाज में भारतीयों की जो स्थिति थी मर्मान्तक गरीबी के बीच अपनी ही बहुविध जड़ताओं और गौरांग सत्ताधीशों से उनका जो दोहरा संघर्ष था उसे उसकी समग्रता में हम यहाँ बखूबी महसूस करते हैं। मदन, परकाश, सीता, मीरा, सीमा आदि इस उपन्यास के ऐसे पात्र हैं जिनके विचार, संकल्प, श्रम, त्याग और प्रेम-सम्बन्ध गांधी की विचारधारा से पूरी तरह प्रभावित प्रतीत होते हैं।

भारत के पहले प्रवासी रचनाकार धनीराम प्रेम गांधीवाद के प्रबल समर्थक थे। 1904 में जन्मे धनीराम महात्मा गाँधी की कांग्रेस पार्टी के युवा सदस्य बने और ब्रिटिश राज के विरुद्ध एक किशोर स्वतंत्रता सेनानी के रूप में दो बार जेल भी गए। एमबीबीस करने के बाद वे ब्रिटेन चले गए, स्नातकोत्तर डिग्री ली, वहीं कार्य किया। वहाँ की राजनीति में स्थान बनाया और लेखन भी निरंतर करते रहे। उन्होंने अपने समय के अत्यंत प्रसिद्ध पत्र ’चाँद‘ तथा ’भविष्य‘ का संपादन भी किया था। उनकी कथा-कृतियों में ’वल्लरी‘, ’प्रेम समाधि‘, ’वेश्या का हदय‘, ’चाँदनी‘, ’मेरा देश‘, ’प्राणेश्वरी‘ और ’डोरा की समाधि‘ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त ’रंग और ब्रिटिश राजनीति‘, ’रूस का जागरण‘ और ’वीरांगना पन्ना‘ आदि पुस्तकें भी उनकी प्रतिभा की परिचायक हैं। चिकित्सक, लेखक तथा राजनयिक होने के बावजूद पत्रकारिता में डॉ. धनीराम ने अपनी रुचि बनाए रखी। उन्होंने एक स्थानीय रेडियो की स्थापना की तथा बीबीसी के एशियन सर्विस के सलाहकार भी रहे। वे स्वयं कार्यक्रम प्रसारक भी थे। उनकी रचनाओं में गांधीवादी विचारधारा का प्रबल समर्थन मिलता है।

जापान में बसे लक्ष्मीधर मालवीय ने ‘दायरा’, ‘किसी और सुबह’, ‘रेतघड़ी’ और ‘यह चेहरा क्या तुम्हारा है?’ इन उपन्यासों द्वारा मेहनतकश समाज को केंद्र में रखकर मार्मिकता से गांधीविचारों का आदान−प्रदान करने का प्रयास किया है।

यूएई में बसे रचनाकार कृष्ण बिहारी के एकांकी संग्रह 'गाँधी के देश में’ मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था का उत्तम उदाहरण है। गांधीजी ने उन सभी लोगों को सहारा दिया जो हिंसा के शिकार थे। कहना आवश्यक नहीं कि प्रवासी भारतीय साहित्यकार गांधीवादी विचारधारा की प्रतिष्ठा कर विदेशों में आर्थिक स्वावलंबन का विचार प्रवासी भारतीयों को दे रहें हैं। प्रवासी भारतीय साहित्यकारों की रचनाओं का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि इन रचनाओं में विशेषतः कहानियों और उपन्यासों में गांधीवाद की अभिव्यक्ति हुई है।

ब्रिटेन में बसी रचनाकार दिव्या माथुर की कहानी "अंतिम तीन दिन" की नायिका माया के जीवन में अंतिम 3 दिन बचे हैं। वह सोच रही है कि इन्हें कैसे बिताया जाय और अपनी मृत्यु को शानदार कैसे बनाया जाय। इसी बीच उसे एक ऐसी संस्था का पता चलता है जो मृत्यु के बाद मानव शरीर को सुरक्षित रखने का काम करती है। दिव्या जी कहती हैं- "माया को यह समझ नहीं आता कि ऐसा क्या है मानव शरीर में कि उसे सदा जीवित रखा जाए। गाँधी, जैसे महानुभावों को सुरक्षित रख पाते तो और बात थी। प्रकृति से टक्कर लेकर भला क्या लाभ। उसे जो करना था वह कर चुकी। बच्चे अपने-अपने घरों में सुख से हैं।" यानि एक महानुभाव के रूप में गाँधी उसे अपने अंतिम समय में भी याद रहते हैं।

ब्रिटेन की ही एक और कथाकार उषा वर्मा की कहानी कौस्ट इफेक्टिव या फायदे का सौदा में जब एक भारतीय महिला एक ब्रिटिश महिला से यह पूछती है कि बहुत दिनों से आप दिखी नहीं कहाँ थी तब ब्रिटिश महिला कहती है- ''मैं यहाँ थी ही नहीं। मैं शांति-आंदोलन में व्यस्त रहती हूँ और उसी सिलसिले में जर्मनी गई थी। मुझे भारतीय दर्शन में सब कुछ मिल जाता है। योगाभ्यास बहुत पसंद है उसके करने के बाद कितनी स्फूर्ति मिलती है। भारत में महावीर, बुद्ध और गांधी जैसे महान लोग हुए हैं। मैं सोच रही थी आपके यहाँ आत्मा की शांति के लिए क्या कुछ नहीं है। एक न एक दिन मैं भारत ज़रूर जाऊँगी। आपके यहाँ अहिंसा की धारणा कितनी ऊँची है।''

इसे सुनकर भारतीय महिला के विचारों को शब्द देते हुए उषा जी लिखती - "मेरा मन अंदर ही अंदर गदगद हो रहा था। हम कितने भी ग़रीब हों पर हमारे पास गर्व करने लायक बहुत कुछ है।" कहानी विदेशी महिला की अहिंसा नीति के साथ आगे बढ़ती है पर अचानक एक दुर्घटना से भारतीय महिला का सामना होता है। विदेशी पड़ोसन रक्त रंजित छुरी और नवजात बकरे के सिर के साथ देख ली जाती है। तब वह कहती है कि बकरे का माँस तो ब्रिटेन में खाया नहीं जाता, यह बकरी होता तो बड़ा होकर दूध देता लेकिन बकरा किसी काम का नहीं।" और इसलिये उसको मौत का सामना करना पड़ा। इस कहानी में हमें यह भी देखने को मिलता है कि गांधी की विचारधारा को लोगों ने व्यावसायिक सफलता के लिये तो अपनाया है लेकिन व्यक्तिगत रूप से वे कितने स्वार्थी हैं।

इला प्रसाद की कहानी रोड टेस्ट की नायिका सुनीता विदेश में ड्राइविंग लाइसेंस के लिये टेस्ट दे रही है। अभी वह कार नहीं चला सकती। हर जगह के लिये बस की प्रतीक्षा करना कठिन है। ऐसे में एक दिन वह पैदल घर लौटने का निर्णय लेती है। नये शहर में दूरी का ठीक से अनुमान न होने के कारण वह बहुत थक जाती है और देर से घर पहुँचती है ऐसे में लेखिका कहती हैं- उस दिन घर पहुँचने तक अँधेरा घिर आया। लाइब्रेरी के चक्कर लगाकर और आस पास उसे ढूँढ़कर राजीव उससे पहले घर वापस आ चुके थे।। बेचैनी और गुस्सा दोनों चरम पर। उसने उन्हें मोबाइल पर सूचित क्यों नहीं किया, इसका हिसाब माँगा गया। उसके पैदल चलने की तुलना गांधी जी के डांडी मार्च से की गई और सुनीता फिर से घर में बंद हो गई।

प्रेम जनमेजय जब त्रिनिडाड में थे तब वहीं की पृष्ठभूमि पर लिखी एक कहानी क्षितिज पर उड़ती स्कार्लेट आइबिस में इस बात का उल्लेख है कि विदेशों में स्थिति महात्मा गाँधी संस्थानों ने किस प्रकार भारतीय संस्कृति को जीवित रखने का कार्य किया है। कहानी में एक स्थान पर शहर का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं- "सौ से अधिक हिन्दुस्तानी परिवार है जो नौकरी और व्यापार के चक्कर में यहीं बस गए हैं। भारतीय उच्चायोग और महात्मा गांधी सांस्कृतिक केन्द्र में काम करने वाले लोगों के पंद्रह के लगभग परिवार हैं। उनका अपना समुदाय है... कुछ पश्चिमी और बहुत कुछ भारतीय बने रहने की चिंता और डॉलेरी प्रेम में लिपटा हुआ। खान–पान और रहन–सहन पश्चिमी, त्रिनी और भारत संस्कृति का अजब–सा मिश्रण।"

कैनेडा में बसे रचनाकार समील लाल समीर ने अपनी अनेक व्यंग्य रचनाओं और संस्मरणों में गांधी जी का उल्लेख किया है। अपने व्यंग्य गांधी जी का टूटा चश्मा में वे इस बात की याद दिलाते हैं गांधी अब कबाड़घर में रख दिये गए हैं और उनके नाम का इस्तेमाल लोग सिर्फ अपने स्वार्थ के लिये करने लगे हैं। वे कहते हैं- "जब चपरासी रामलाल जाले हटाता, धूल झाड़ता कबाड़घर के पिछले हिस्से में गाँधी जी की मूर्ति को खोजता हुआ पहुँचा तो उड़ती धूल के मारे गाँधी जी की मूर्ति को जोरो की छींक आ गई। अब छड़ी सँभाले कि चश्मा या इस बुढ़ापे में खुद को।।चश्मा आँख से छटक कर टूट गया। गुस्से के मारे लगा कि रामलाल को तमाचा जड़ दें मगर फिर वो अपनी अहिंसा के पुजारी वाली डिग्री याद आ गई तो मुस्कराने लगे। सोचने लगे कि एक चश्मा और होता तो वो भी इसके आगे कर देता कि चल, इसे भी फोड़ ले। मेरा क्या जाता है? जितने ज्यादा चश्में होंगे, उतने ज्यादा लंदन से नीलाम होंगे। मुस्कराते हुए बोले- कहो रामलाल, कैसे आना हुआ? पूरे साल भर बाद दिख रहे हो? गाँधी जी की मूर्ति को सामने बोलता देख रामलाल बोला-चलो बापू साहेब, बुलावा है नयी पार्टी बना रहे हैं आपके सामने आपका नाम लेकर बनायेंगे। नहा लो, नये कपड़े पहने लो और चलो, फटाफट। बहुत भीड़ लगने वाली है। आपको नई पार्टी की योजनाओं, प्रत्याशियों और भविष्य को शुभकामनाएँ देनी हैं।"

अपने एक संस्मरण में एक जुआघर का वर्णन करते हुए वे कहते हैं- उस रात कुछ मित्र परिवारों के साथ जुआघर गया। सभी मित्र हिंदुस्तानी थे। दरवाज़े पर पहुँचते ही हम ठिठक गये। मेरे मित्र के मुँह से अनायास ही निकल पड़ा- वो देखो गाँधी जी! एकाएक धक्का लगा-कहाँ ये जुआघर और यहाँ कहाँ गाँधी जी! फिर भी हम पलटे तो देखा लॉबी के दायीं ओर एक मंचनुमा पत्थर पर मेनीकुइन - आदमी जो पुतला बना खड़ा रहता है, गाँधी जी के रुप में खड़ा था। गाँधी-लोगों को जुआघर में आने का निमंत्रण देता, गाँधी-एक जिंदा पुतला, न हिलता न डुलता, बस तटस्थ भाव से सबको ताकता गाँधी। जिन अंग्रेजों को कभी अपनी चुप्पी से डरा देने वाला गाँधी- आज उनके मनोरंजन का साधन बना बेबस खड़ा गाँधी। शराबियों और जुआरियों का आकर्षण का केंद्र बना गाँधी वहाँ पर सबसे ज़्यादा माँग और बिकने वाला जिंदा पुतला गाँधी है। ऐसा मैंने वहाँ सुना...लोग आते जाते थे, थोड़ी देर खड़े होकर गाँधी जी को निहारते थे और उनके कँधे पर टँगे झोले में कुछ लोग चंद रुपये भी डाल जाते थे। चार घंटे की ड्यूटी के बाद खुशी खुशी उन पैसों को गिनता गाँधी अपने घर लौट जाता है।

गांधीवाद के मूल तत्वों के अन्तर्गत सत्य, अहिंसा और सेवाभाव प्रमुख हैं। गांधीजी का समस्त जीवन दर्शन इन्हीं तत्वों से अनुप्राणित है। यही कारण है कि भारतीयों का साथ साथ प्रवासी भारतीय भी उनका नाम आदर के साथ लेते हैं उनका आवाहन करते हैं और उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं।

कविताओं की बात करें तो यूएसए के विजय ठाकुर अपनी कविता आवाहन में कहते हैं-
हे महापुंज बापू महान
फिर से फूँको हर मानव में
मंत्र अहिंसा का संधान
सत्य शांति फिर लौटाओ
तुम पुन: धरा पर आ जाओ
यूएसए की ही नीलम जैन अपनी कविता श्रद्धांजलि में कहती हैं-
नहीं अहिंसा सहमे रहना
दानवता को सहते रहना
आत्मशक्ति की
बोलें बोली
शांति-अहिंसा का जीवन हो
रामराज का सत्य-स्वप्न हो
करें तरक्की
बन हमजोली
नार्वे में बस रचनाकार सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक कहते हैं-
तुम भारत के शिखर पुरुष, थे जग के तुम शांतिदूत
जहाँ कहीं था अंधकार, जल उठे अनेकों विश्वपूत
अंत में मैं यह कहना चाहूँगी कि यह प्रवासी साहित्य का संपूर्ण लेखा जोखा नहीं है। यहाँ केवल उन्हीं रचनाओं का उल्लेख है जो पिछले २३ सालों में अभिव्यक्ति अनुभूति का संपादन करते हुए मेरी नजर में आयीं और गाँधी या गाँधीवाद का एक नया रूप प्रस्तुत करने के कारण याद रह गयीं। आज लगभग 500 रचनाकार भारत से बाहर हिंदी में निरंतर लेखन कर रहे हैं वे सभी किसी न किसी रूप में गाँधी की सत्य अहिंसा और भारतीयता से जुड़ी विचारधाराओं को अपनी लेखनी में आवाज दे रहे हैं।

यूएसए से उषा प्रियंवदा, कृष्ण बलदेव वैद, कविता वाचक्नवी, सुषम बेदी, अंजना संधीर, डॉ. सुरेन्द्र गम्भीर, शैलजा सक्सेना, सुमन घई, रामेश्वर अशांत, डॉ. विजय कुमार मेहता, विनोद तिवारी, सोमावीरा, सौमित्र सक्सेना, सुधा ओम ढींगरा, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, सीमा खुराना, स्वदेश राणा, सुरेन्द्रनाथ तिवारी, पुष्पा सक्सेना, प्रतिभा सक्सेना, नीलम जैन, इला प्रसाद, अनिल प्रभा कुमार, राम गुप्ता, कैनेडा से अश्विन गांधी, स्नेह ठाकुर, मानोशी चैटर्जी, सुरेश कुमार गोयल, ब्रिटेन से अचला शर्मा टी. एन. सिंह, तेजेन्द्र शर्मा, उषा राजे सक्सेना, उषा वर्मा, ओंकारनाथ श्रीवास्तव, कीर्ति चौधरी, डॉ. कृष्ण कुमार, दिव्या माथुर, पद्मेश गुप्त, पुष्पा भार्गव, मोहन राणा, शैल अग्रवाल, सत्येंद्र श्रीवास्तव, शिखा वाष्णेय, जकिया जुबेरी, गौतम सचदेव, कादंबरी मेहरा, जय वर्मा, नीना पॉल, महेन्द्र दवेसरे दीपक, मारीशस से अभिमन्यु अनत, रामदेव धुरंधर, धनराज शम्भू, धर्मानन्द, डॉ. ब्रिजेन्द्रकुमार भगत ‘मधुकर’, मुकेश जीबोध, मुनाश्वरलाल चिन्तामणि, राज हीरामन, सूर्यदेव खिरत, अजामिल माताबदल, अजय मंग्रा, डॉ. उदयनारायण गंगू, नारायणपत देसाई, प्रहलाद रामशरण, हेमराज सुन्दर, पूजाचंद नेमा, अन्य देशों में- संयुक्त अरब इमारात से कृष्ण बिहारी, पूर्णिमा वर्मन, अर्जेन्टीना से प्रेमलता वर्मा, जापान से लक्ष्मीधर मालवीय, फीजी से प्रो. सुब्रह्माणियम, डॉ. विवेकानन्द शर्मा, डेन्मार्क से अर्चना पेन्यूली, नार्वे से अमित जोसी, सुरेशचंद्र शुक्ल, ट्रिनीडाड से बासुदेव पाण्डे, दक्षिण अफ्रीका से डॉ. रामभजन सीताराम, नेपाल से उषा ठाकुर, नीदरलैंड से डॉ. पुष्पिता, सूरीनाम से मार्टिन हरिदत्त लक्ष्मन, महादेव खुनखुन, सुरजन परोही आदि ने गांधीवादी विचारधारा को किसी न किसी रूप में अपनी रचनाओं में स्थान दिया है। सत्य और ईश्वर को गांधीजी एक दूसरे से भिन्न नहीं मानते हैं। उनके अनुसार सत्य, ईश्वर का ही दूसरा रूप है। इसी कारण ईश्वर को सच्चिदानन्द अर्थात् सत् चित व आनन्द कहा जाता है। प्रवासी भारतीय साहित्यकारों ने सत् चित और आनंद के साथ-साथ शोषित जनता को भी अपने साथ लिया है।

“महात्मा गांधी अपनी प्रकृति में आदर्शवादी पर अपने चिन्तन में व्यावहारिक थे। इसलिए उन्हें एक व्यावहारिक चिंतक और विचारक माना जा सकता है। उन के आदर्श थे स्वराज्य, समता मूलक समाज, सादा जीवन, घरेलू उद्योगों का विस्तार, जिसे स्वदेशी आन्दोलन के दौरान बल मिला। सत्य निष्ठा, अहिंसा और स्वराज्य उन के चिन्तन के मूलाधार थे, जिन के आधार पर गांधीवाद की मूर्त्ति गढ़ी गई। ये मानवता के चिरंतन मूल्य हैं इसलिये सदा प्रांसंगिक रहेंगे। प्रवासी साहित्य में भी इन विचारों का अनुकरण देखा जा सकता है।

१ अक्टूबर २०२३

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