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दृष्टिकोण

बच्चे पसंद करते हैं शिशुगीत
-डॉ. श्रीप्रसाद

यह युग गद्य का है इस बात को इतिहास ने स्वीकार किया है और व्यवहार में भी दिखाई दे रहा है। कथा साहित्य, नाटक और उपन्यास तथा अन्य गद्य विधाओं का जैसा विस्तार है, काव्य का नहीं है। यह तथ्य बड़ों के साहित्य के साथ भी है और बाल साहित्य के साथ भी। बाल साहित्य में उतनी विधाओं का विकास नहीं है, जितना बड़ों के साहित्य में है। पर कविता बच्चों के साथ जितने निकट भाव से जुड़ी उतनी बड़ों के साथ नहीं।

बच्चों के साथ कविता की अधिक निकटता का शायद बच्चों की कल्पना प्रधान प्रकृति है
कौवा काँव काँव बोलकर उड़ गया या बंदर खों खों कर उछला और छत पर आ बैठा यह बच्चे की कल्पना को अच्छा लगा। छोटे बच्चे के प्रत्यक्षीकरण यही सीमाएँ हैं। और छोटे बच्चों के लिये साहित्य सृजन का यही क्षेत्र हैं। बड़ी बातें बड़े बच्चों के लिये हो सकती हैं। छोटे बच्चों के लिये नहीं। खड़ा हिमालय बता रहा है डरो न आँधी पानी में। यह एक प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। पर नन्हें बच्चों की समझ से परे है। नन्हा बच्चा तो कविता में अपनी नन्हीं दुनिया खोजता है जैसे यह कविता एक छोटे बच्चे के लिये रोचक हो सकती है-
सारी रात जागकर कुत्ता पहरा देता घर में
कोई अगर दिखाई देता चिल्लाता क्षणभर में
घर का पहरेदार यही है करता है रखवाली
मे
रे इस कुत्ते की खातिर सभी बजाओ ताली

चौदह पंद्रह वर्ष के बच्चे के तीन मानसिक स्तर हैं- शिशु, बालक, किशोर। किशोर के बाद बच्चा तरुण हो जाता है और फिर युवक। साहित्य सृजन की सीमा में यह आयुवर्ग भी है। पर बाल साहित्य से असंबद्ध है। बालक का शैशव या शिशु अवस्था पहला मानसिक स्तर है। बच्चा लगभग एक साल की अवस्था में कुछ कुछ बोलने लगता है। शब्दों को समझने लगता है। और डेढ़ दो साल में पूरे वाक्य बोलने लगता है जो पूर्ण रूप से सार्थक होते हैं। पर कर्कश या मधुर ध्वनि का आस्वाद लगभग छह माह की अवस्था से ही बच्चा लेने लगता है। उस अवस्था में गाई गई लोरी बच्चा समझता नहीं पर ध्वनि का आनंद लेता है। इसलिये संसार के लोरी साहित्य में कोमल शब्दों का समावेश है। अर्थ की न्यूनता है और लोरिया संगीत से परिपूर्ण होती है। बच्चे का यही पहला काव्य या पहला साहित्य है। लोरी में माँ का बालक के प्रति वात्सल्य और आकांक्षा की अभिव्यक्ति होती है। शिशु इन्हें पसंद करता है। इनकी लय और संगीत पर सोता है।

दो और ढाई वर्ष के आसपास जब बच्चे का भाषिक विकास हो जाता है, तो बच्चे की शिशु गीतों का आनंद लेने की भावना विकास करने लगती है। एक ओर वह घर की वस्तुओं से परिचित होता है माता पिता से परिचित होता है, और दूसरी ओर बाहरी दुनिया के पेड़ पौधे और पशु पक्षियों से भी उसका साक्षात्कार होता है। फूल और तितली हाथी घोड़ा ऊँट या छोटी बड़ी चिड़ियाँ और तोता मोर आदि वह जानने लगता है। साहित्य का सृजन वायवीय आधार पर नहीं होता उसकी सृजन भूमि धरती है। नन्हें शिशुओं के साहित्य की भी सृजन भूमि धरती ही है। जब शिशुगीत इस पृष्ठभूमि पर रचा जाता है तो बच्चा प्रसन्न हो जाता है क्यों कि कविता में गेयता है। इसे नीचे के उदाहरण में देखें-
मोर नाचता, कोयल गाती कौवा देता ताली
बंदर बैठा बजा रहा है एक डाल पर थाली
तोता सुननता तोती सुनती सुनते हाथी भाई
नाच देखने को आई है भालू जी की ताई

उसके परिचय के जीव हैं तथी उसके परिचय की क्रियाएँ हैं। वयस्क अपरिचित संसार में जा सकते हैं शिशु नहीं। आजकल पत्र पत्रिकाओं में शिशुओ के लिये कविताएँ और कहानियाँ कम दिखाई देती है। पुस्तकों के रूप में शिशु गीत भी हैं और कहानियाँ भी। फिर भी हिंदी में शिशु साहित्य की अधिकाधिक आवश्यकता है। किंतु जितना सृजन अपक्षित है उतनी ही सजगता भी। यह सृजन उतना ही गंभीर है जितना गीतांजलि का कोई गीत या कालिदास का कोई श्लोक।

हिंदी के अनेक पुराने लोकप्रिय शिशु गीत ऐसे हैं जो आज भी बच्चों की जुबान पर चढ़े हुए हैं जिन्हें बच्चे खुश होकर गाते हैं-
हरी मिर्च का किला बनाया धनिया का दरवाजा
मि
र्चे की झट तोप लगाईलड़े नकलची राजा।

कभी कभी कहा जाता है कि बच्चे न कविता पसंद करते है न शिशुगीत यह भ्रम है। यहाँ बात शिशुगीतों की ही है। छोटे बच्चे शिशु गीत पसंद करते हैं सुनाते हैं और गाते भी है। यदि अच्छे संगीत के साथ शिशु गीतों के कैसेट तैयार किये जाएँ तो वे भी लोकप्रिय होंगे। इस दिशा में कार्य हुआ भी है पर अच्छे कैसेट जिनमें बच्चों की अभिरुचि का कल्पनापूर्ण संगीत हो बहुत कम हैं। बड़ों के संगीत के साथ जितना परिश्रम किया जाता है बाल संगीत के साथ नहीं। यह बच्चों के जीवन को गंभीरता से न लेने का परिणाम है। आकाशवाणी ने बालसंगीत की दिशा में एक सीमा तक सराहनीय भूमिका निभा
ई है।
 
आकाशवाणी के कार्यक्रमों में बच्चों से कुछ सुनने को कहा जाता है तो नन्हें बच्चों में दो एक बच्चे चुटकुले आदि भी सुनाते हैं पर अधिकांश बच्चे शिशुगीत ही सुनाते हैं। इनमें से कुछ शिशुगीत बहुत अच्छे होते हैं। इधर पाठ्यक्रम में शिशुगीत की पुस्तक भी लाई जाने लगी है। यह व्यवस्था सहायक पुस्तक के रूप में रहती है पर ऐसी अधिकांश पुस्तकों के रचनाकार बाल साहित्यकार नहीं होते हैं। और शिशुगीतों में बहुत अधिक अशुद्धियाँ होती है। रातों रात तैयार किये गए आर्थिक लाभ के लिये शिक्षा संस्थाओं में लाए गए ऐसे शिशुगीतों कभी कभी शिशु मनोविज्ञान का घोर अभाव झलकता है। ऐसी अभिव्यक्ति तो अत्यंत चिंतनीय है। उदाहरण के लिये-
दो शेरों में हुई लड़ाई समझाने को बकरी आई
शेरों ने झट छोड़ लडाई आधी आधी बकरी खाई

जिस किसी शिक्षा संस्था में बाल साहित्य की जानकारी के अभाव में और निजी लाभ के नाते ऐसे शिशुगीत संग्रह चलाए जाते हैं। उन्हें इस ओर ध्यान देते हुए चुनाव में सावधानी बरतनी चाहिये।

बच्चे जैसे शिशुगीत गाते हैं और जिस प्रकाऱ के शिशुगीतों में उनका मन रमता है उनमें से एक यह शिशुगीत है-
रंग रंगीली नीली पीली रेशम जैसी पाँखें
फूल फूल को देखा करतीं इनकी नन्हीं आँखें
छूते ही फुर से उड़ जाती फिर यह पास न आती
र उड़ती ही अच्छी लगती फूल फूल पर जाती
यह शिशु गीत पहेली के रूप में है बच्चे इस पहेली का उत्तर जल्दी से बूझ लेते हैं।

बच्चों के शिशुगीत पहेलियों में हो सकते हैं और हास्य परक विषयों पर भी। सामान्यतः शिशुगीत हास्य परक ही अधिक होते हैं। क्यों कि मनोरंजन से बच्चों का जीवन खुशियों से भर उठता है।

शिशुगीतों से नन्हे बच्चे का भाषिक विकास होता है, ज्ञान बढ़ता है, उसका मनोरंजन होता है और उसकी अभिव्यक्ति क्षमता समृद्ध होती है। गाए जाने पर बच्चा संगीत के प्रति आकर्षित होता है। लय से भाषा की कोमलता का परिचय मिलता है। कभी कभी शिशुगीतों में शब्दों का खिलवाड़ भी किया जाता है। यह भी शिशुगीतों का मनोरंजक तत्व है। लोकस्वरों से भी शिशुगीतों को सजाया गया है।
अटकन बटकन दही चटोकन
हाऊ हप्पा खील बताशे
गप्पमगप्पा

आज अनेक बाल शिक्षा संस्थाओं में अंग्रेजी केवल अध्यापन का विषय नहीं है संस्कृति का भी विषय होने के कारण हिंदी शिशु गीतो और बाल गीतों से भारतीय बच्चों का परिचय ही नहीं हो पाता है। इससे वे भारतीयता की मूल धारा से कट जाते हैं। भारतीय संस्कृति व्यवहार लोक संगीत ताल आदि से वे अनजान ही रहते हैं। इससे बचने के लिये अभिभावकों का यह कर्तव्य बनता है कि वे बच्चों के विकास के इस कोने की ओर भी ध्यान दें।

बच्चों के लिये कुछ नये और अच्छे शिशुगीत सुलभ कराने की उन्हें संगीत और अभिनय के साथ सिखाने की आवश्यकता निरंतर बनी रहती है। जब भी अच्छे शिशुगीत बच्चों तक पहुँचते हैं उन्हें पसंद आते हैं।

१४ नवंबर २०११

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