मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


साहित्यिक निबंध

हिंदी दिवस के
अवसर पर विशेष

 

हिंदीतर राज्यों में हिंदी की दशा दिशा और संभावनाएँ
- डॉ. शुभ्रता मिश्रा


किसी भी तथ्य की वर्तमान दशा पर उसकी दिशा निर्धारित होती है और दिशा के निर्धारण के पश्चात् उसकी सीमा रेखा पर अंकित किए गए धनात्मक व ऋणात्मक बिन्दुओं की संख्या के आधार पर गणितीय तौर पर भविष्य के परिणामों से सम्बद्ध सम्भावनाएँ जताई जा सकती हैं। वर्तमान में समूचे भारत में चाहे वे हिन्दी भाषी राज्य हों अथवा हिन्दीतर, हिन्दी की दशा शोचनीय तो है। और कोई विषय यदि शोचनीय स्तर तक पहुँच जाए, तब निश्चित तौर पर उसकी दशा उसके स्वस्थ होने की निशानी तो कदापि नहीं हो सकती है। कहते हैं न कि जैसी दशा होगी, वैसी दिशा भी होगी। हाँलाकि दूसरी ओर यह भी उतना ही सच है कि अनेक बार इतिहास में दशाओं को सुधारकर दिशाओं के मुख भी सफलताओं की ओर मोड़े गए हैं। यही गणितीय सूत्र हिन्दी पर भी लागू किया जाए, तब हिन्दी के गिरते स्वास्थ्य को सुधारना भी कोई असम्भव बात नहीं रह जाएगी।

ऐसे देखा जाए तो हिन्दी संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा है और भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जानेवाली भाषा भी है। यूनेस्को के दस्तावेजों के अनुसार मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से संसार की भाषाओं में चीनी भाषा के बाद हिन्दी का दूसरा स्थान है। भारत और अन्य देशों में ६० करोड़ से अधिक लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फिजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम की अधिकतर और नेपाल की कुछ जनता हिन्दी बोलती है। भारत में हिन्दी और इसकी बोलियाँ उत्तर एवम् मध्य भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं। भारत के वे राज्य जहाँ हिन्दी का प्रयोग अत्यंत नगण्य रहा है, उनको आधिकारिकतौर पर हिन्दीतर राज्यों की श्रेणी में रखा जाता है।

हिन्दीतर राज्यों से तात्पर्य भारत के उन राज्यों से है, जहाँ हिन्दी भाषा उनकी मातृभाषा नहीं है, वरन् वहाँ हिन्दी या तो राजभाषा की अनिवार्यता के रुप में अथवा हिन्दीभाषियों से वार्तालाप के लिए प्रयुक्त होती है। इन राज्यों को "ग-क्षेत्र" में वर्गीकृत किया गया है । इन राज्यों के अन्तर्गत केरल, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, पांडिचेरी, जम्मूकश्मीर, अरुणाचलप्रदेश, असम, मणिपुर, मिजोरम, नागालेंड, त्रिपुरा, सिक्किम, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, लक्षदीप और गोवा शामिल हैं। इन "ग-क्षेत्रीय" राज्यों में से अधिकांश वे राज्य हैं जिन्हें मेरी दृष्टि में पूरी तरह से हिन्दीतर कहना उचित नहीं होगा क्योंकि इनकी मातृभाषाएँ कहीं न कहीं हिन्दी से कुछ न कुछ संबंध अवश्य रखती हैं। परन्तु दक्षिण भारत के विशेष चार राज्य केरल, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु की मातृभाषाएँ क्रमशः मलयालम, कन्नड, तेलुगु और तमिल भाषाएँ हैं, जो द्रविड़ परिवार की हैं और इनका हिन्दी से कोई भी भाषायी संयोजन नहीं है। दक्षिण की इन चारों भाषाओं की अपनी-अपनी विशिष्ट लिपियाँ हैं। सुसमृद्ध शब्द-भंडार, व्याकरण तथा समृद्ध साहित्यिक परंपरा है। इन विसंगतियों के बावजूद भी हिन्दी का सभी भारतीय भाषाओं के साथ साम्य भाव रहा है। यही कारण है कि प्रारम्भ से ही सभी भारतीयों का एकसमान मत रहा है कि हिन्दी से ही राष्ट्रीय एकता सम्भव है। भारतीय संस्कृति की अक्षुण्ण धारा हिन्दी भाषा से ही सुरक्षित रह सकती है।

इसी संदर्भ में एक सुखद पहलू उभरकर सामने आया है कि देश में जब से हिन्दी का प्रयोजनमूलक स्वरूप चलन में आया है तब से भाषायी तौर पर हिन्दी का विकास बहुत अधिक दिखाई देता है। प्रयोजनमूलक हिन्दी से तात्पर्य हिन्दी के विज्ञान, तकनीकी, विधि, संचार एवं अन्यान्य गतिविधियों में प्रयुक्त होने वाली हिन्दी से है। हिन्दी केवल साहित्य की भाषा न रहे बल्कि जीवन के विविध क्षेत्रों में प्रभावी रूप से प्रयुक्त हो, ऐसा उद्देश्य रखकर ही हिन्दी के इस स्वरुप का प्रादुर्भाव हुआ। प्रयोजनमूलक हिन्दी आज हमारे देश में एक वृहत पैमाने पर प्रयुक्त हो रही है। केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच संवादों का सेतु बनाने में इसकी महती भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। आज इसने एक ओर कम्प्यूटर, टेलेक्स, तार, इलेक्ट्रॉनिक, टेलीप्रिंटर, दूरदर्शन, रेडियो, अखबार, डाक, फिल्म और विज्ञापन आदि जनसंचार के माध्यमों को अपनी ओर आकृष्ट किया है, तो वहीं दूसरी ओर शेयर बाजार, रेल, हवाई जहाज, बीमा उद्योग, बैंक आदि औद्योगिक उपक्रमों, रक्षा, सेना, इन्जीनियरिंग आदि प्रौद्योगिकी संस्थानों, तकनीकी और वैज्ञानिक क्षेत्रों, आयुर्विज्ञान, कृषि, चिकित्सा, शिक्षा, प्रबंधन के साथ साथ विभिन्न संस्थाओं में हिन्दी माध्यम से प्रशिक्षण प्रदान करने महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों, सरकारी, अर्द्धसरकारी कार्यालयों में मुहरों, नामपट्टिकाओं, स्टेशनरी के साथ-साथ विभिन्न तरह के पत्रों जैसे कार्यालय-ज्ञापन, परिपत्र, आदेश, राजपत्र, अधिसूचना, अनुस्मारक, प्रेस–विज्ञाप्ति, निविदा, आदि में प्रयुक्त होकर अपने महत्व को स्वतः सिद्ध कर दिया है। सार रूप में कहें तो अब देश के प्रत्येक राज्य चाहे वे हिन्दीभाषी हों अथवा हिन्दीतर भाषी हों में विशुद्ध रुप से न सही परन्तु प्रयोजनमूलक हिन्दी का प्रयोग हर जगह दिखाई देता है।

हिन्दी का प्रयोजनमूलक स्वरुप इसके व्यावहारिक बोलचाल के प्रयोग से भिन्न होता है क्योंकि किसी भी भाषा का अपने जातीय क्षेत्र से बाहर प्रयोग राजनीतिक, सांस्कृतिक या वाणिज्यिक कारणों से संभव होता है। जातीय भाषा के रूप में प्रयोगकर्ताओं के अलावा एक बड़ी संख्या उसका प्रयोग द्वितीय भाषा या संपर्क भाषा के रूप में करने लगती है। हिन्दीतर राज्यों में हिन्दी इसी श्रेणी में रखी जा सकती है। अपने भूगोल से बाहर कोई भी भाषा, प्रकाशित-प्रसारित रूप में किसी दूसरे जातीय क्षेत्र के मौलिक भाषाई व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं बन पाती। किसी भी जातीय क्षेत्र का मौलिक और सर्जनात्मक चिंतन उसकी अपनी भाषा के माध्यम से ही साकार हो पाता है। यही कारण है कि हमारी इतनी कोशिशों के बावजूद भी भारत के हिन्दीतर राज्यों में हिन्दी की दशा व्यावहारिक तौर पर संतोषजनक स्थिति प्रदर्शित नहीं करती है।

इन द्रविड़ भाषायी दक्षिण भारतीय क्षेत्रों में हिंदी का प्रवेश धार्मिक, व्यापारिक और राजनीतिक कारणों से उत्तर भारत के लोगों के दक्षिण में आने-जाने की परंपरा शुरू होने के साथ हुआ था। विशेष रूप से चौदहवीं से अठारहवीं सदी के बीच भारत के दक्षिणी भू-भाग पर जब मुस्लिम शासकों का आधिपत्य हुआ तो उस दौरान हिन्दी भाषा का एक नया स्वरूप चलन में आया उसका नाम था- 'दक्खिनी हिंदी'। दक्खिनी हिंदी का विकास एक जन भाषा के रूप में हुआ था। इसमें उत्तर-दक्षिण की कई बोलियों के शब्द जुड़ जाने से यह आम आदमी की भाषा के रूप में प्रचलित हुई। वर्तमान में हिन्दीतर राज्यों में हिन्दी की दशा का विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि इन क्षेत्रों में वास्तव में जहाँ हिन्दी लोकप्रिय भी है, समझी भी जाती है, बड़े नगण्य से प्रतिशत में सम्मानित सी भी दिखती है, पर कहीं न कहीं अपनत्व के अभाव में किसी हाशिए पर अकेले खड़े होने के विलगाव की पीड़ा से कराहती सी भी अनुभूत होती है।

भारत में हिन्दीतर राज्यों विशेष रूप से इन चार दक्षिण भारतीय राज्यों में स्वतंत्रता के पूर्व, फिर स्वतंत्रता के निकटस्थ कालों में और शनैः शनैः वर्तमान तक आते आते हिन्दी के दशा-स्वरूप में एक उल्लेखनीय परिवर्तन दिखाई देता है। दक्षिण के हिन्दीतर राज्यों को इस संज्ञा के साथ सम्बोधित करना हमारी आज की अनिवार्यता सी हो गई है क्योंकि हिन्दी यहाँ इतर की स्थिति में है। वरन् तो ये वही राज्य हैं जहाँ शताब्दियों पूर्व केरल प्रांत में 'स्वाति तिरुनाल' के नाम से सुविख्यात तिरुवितांकूर राजवंश के राजा राम वर्मा (१८१३-१८४६) हिंदी के निष्णात् साहित्यकारों में से एक थे। इसी तरह ये वही राज्य हैं जहाँ दक्षिण के प्रमुख संतो वल्लभाचार्य विट्ठल, रामानुज, रामानन्द आदि ने अपने धर्म और संस्कृति का प्रचार हिन्दी में ही किया है क्योंकि इन सभी का अडिग विश्वास था कि भारत में उनके वैचारिक संवहन का एक मात्र सशक्त साधन हिन्दी ही हो सकती है। और ये वही राज्य हैं जहाँ तमिल के प्रसिद्ध कवि सुब्रह्मण्य भारती ने अपनी तमिल पत्रिका 'इंडिया' के माध्यम से विशेष रूप से दक्षिण भारतीयों को हिंदी सीखने के लिए प्रेरित किया था। और अधिक दूर न जाया जाए तो ये वही राज्य हैं जहाँ हिन्दी को राजभाषा घोषित करने वाले प्रस्ताव को रखने वाले प्रथम व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि दक्षिण भारतीय विद्वान श्री गोपालस्वामी अय्यंगर थे, जिसे १४ सितम्बर १९४९ को संविधान में राजभाषा के रुप में स्वीकारा गया।

लेकिन विडम्बना बस यही हो जाती है कि आज इन्हीं हिन्दी विद्वान समृद्ध राज्यों को हिन्दीतर कहना पड़ रहा है। लेकिन फिर भी एक आशा की किरण पिछले कुछ दशकों से पुनः प्रस्फुटित सी होती दिख रही है क्योंकि वर्तमान में हिंदी भाषा को दक्षिण भारत तक पहुँचाने में कार्यालयीन व प्रशासनिक गतिविधियों ने एक उत्तरदायीपूर्ण भूमिका निभाते हुए भिन्न भाषा-भाषियों के मध्य इसे भावों और विचारों के आदान-प्रदान का एक सशक्त एवं स्वीकृत भाषा का रूप प्रदानकर वहाँ इसे पुनः प्रचलित कर पाने में प्रसंसनीय सफलता पाई है।

भाषायी दृष्टिकोण से यदि हम भारतीय इतिहास पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिंदी औपनिवेशिक सांस्कृतिक दमन के प्रतिकार का प्रतीक बन गई थी। भारत की बहुभाषायी राष्ट्रीयता की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के रूप में हिन्दी का अन्य भारतीय भाषाओं के साथ एक विश्वसनीय संबंध स्थापित हो रहा था। हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित कर पाने की परिकल्पना को मूर्त रूप देने के लिए ही उसके प्रचार-प्रसार की आवश्यकता अनुभूत होने लगी थी। दक्षिण भारतीय क्षेत्रों में हिन्दी के प्रचार के लिए किए गए गाँधीजी के भागीरथ प्रयास किसी से छिपे नहीं हैं। ये अलग बात है कि उस समय हिन्दी के इस प्रचार-प्रसार की पृष्ठभूमि में मुख्य कारण पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति की तथाकथित श्रेष्ठता की अभिधारणा का विरोध करना था। इस प्रतिरोध का एक सुखद परिणाम यह उभरकर आया था कि स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व पूरे देश में हिन्दी में कामकाज होने लगा था। यहाँ तक कि अंग्रेजों द्वारा निर्मित संविधान भी इसे रोक नहीं पाया था।

भारत के द्रविणभाषी हिन्दीतर प्रदेशों में हिन्दी के व्यापक प्रसार के लिए गाँधी जी की प्रेरणा से हिन्दी के प्रचारकों का एक दल गठित किया गया था। इस दल के प्रचारकों में पंडित हरि हर शर्मा, श्री देवदूत विद्यार्थी, मोटूरि सत्यनारायण, भालचंद्र आप्टे, पट्टाभि सीतारमैया, एस. आर. शास्त्री, आदि ने हिन्दी के प्रति अपनी निःस्वार्थ त्याग-भावना एवं तपस्या-मूलक जीवन को मूलाधार बनाते हुए दक्षिण-भारत के प्रत्येक भूभाग में रहकर एवं वहाँ जा-जाकर हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए परम स्तुत्य कार्य किए हैं। इनके अतिरिक्त दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रसार के लिए शारंगपाणि, बालशौरि रेड्डी, शौरिराजन, चंद्रमौलि, एस.सदाशिवम्, के. वी. रामनाथ, एम. सुब्रह्ममण्यम्, महीलिंगम्, पी. के. बालसुब्रह्मण्यम्, डॉ. एन. सुन्द्ररम्, जंध्याल शिवन्न शास्त्री, पीसपाटि वेंकट सुब्बाराव, मुडुंबि नरसिंहाचार्य, मल्लादि वेंकट, सीतारामांजनेयुलु, दंमालपाटि रामकृष्ण शास्त्री, मेडिचर्ल वेंकटेश्वरराव, एस. वी. शिवराम शर्मा, भट्टारम वेंकट सुबय्या, आंजनेय शर्मा, जी. सुन्दर रेड्डी, बोयपाटि नागेश्वर राव, पंडित वेंकटाचलय्या, पी. के. केशवन नायर, के. भास्करन नायर, पंडित सी. वी. जोसेफ आदि अनेक हिन्दीसेवियों के नाम सदैव आदर के साथ लिए जाते हैं।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् का कालखण्ड दर्शाता है कि धीरे धीरे हिन्दी के लिए संस्थापित संस्थाओं को राष्ट्रीय महत्व की संस्थाओं के रूप में घोषित करने की परंपरा शुरू की गई थी। इन संस्थाओं में विशेष रूप से केरल की १९३४ में स्थापित की गई केरल हिंदी प्रचार सभा, आंध्रप्रदेश की १९३५ में स्थापित हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद और कर्नाटक की १९३९ में प्रतिष्ठित की गई कर्नाटक हिंदी प्रचार समिति, १९४३ में मैसूर हिंदी प्रचार परिषद तथा १९५३ में कर्नाटक महिला हिंदी सेवा समिति सम्मिलित हैं। इन सभी समितियों के संस्थानों द्वारा हिंदी प्रचार कार्यक्रम के माध्यम से विभिन्न हिंदी परीक्षाओं का संचालन कर उच्च शिक्षा एवं शोध की औपचारिक उपाधियाँ प्रदान की जाती हैं। ये समस्त संस्थाएँ हिंदी प्रचार कार्य में अपने ढंग से सक्रिय भूमिका निभा रही हैं।

सरकारी स्तर पर भारत के सभी राज्यों में हिन्दी के प्रयोग को लेकर कार्यालयीन स्तर पर जो मुहिम चल रही है वह प्रशंसनीय है। लेकिन व्यावहारिक विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि इन राज्यों में हिन्दी की बहुत अच्छी दशा तो नहीं है। इस दिशा में हिन्दी की व्यावहारिक दशा को सुधारने के प्रयास करना अत्यावश्यक है। सिर्फ निंदा करने से या किसी एक बात को पकड़ लेने से समस्या का समाधान नहीं मिल सकता। अतः इस दिशा में कुछ सार्थक पहल व प्रयास किए जाने आवश्यक हैं। जैसे कि जो हिन्दीभाषी लोग हिन्दीतर राज्यों में रह रहे हैं, कम से कम वे उनसे हिन्दी में वार्तालाप के माध्यम से हिन्दी के प्रति उनको आकर्षित करें। एक बात और सामने आती है कि इन राज्यों में हिन्दी के समाचारपत्रों की सँख्या नगण्य है। हिन्दीतर राज्यों के बड़े शहरों में तो नहीं परन्तु अंदरूनी इलाकों के छोटे शहरों, कस्बों आदि में बाजारों में यदि आप दूकानदार से हिन्दी में कुछ माँगेगे तो उसकी प्रतिक्रिया बेहद ही निराशाजनक होती है। इस संकीर्ण मानसिकता से कि कोई उनसे हिन्दी में बात कर रहा है, तो उसका उन्हें उत्तर ही नहीं देना है, इससे उनको ऊपर उठाना होगा। मेरी दृष्टि में इसके लिए हिन्दी सिनेमा में अभिनय करने वाले दक्षिण भारतीय कलाकार एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं क्योंकि इन राज्यों में हिन्दी फिल्मी गाने और हिन्दी फिल्में बहुत देखी जाती हैं। यदि दक्षिण भारतीय कलाकार अपनी हिन्दी फिल्मों के माध्यम से लोगों को मनोरंजित कर हिन्दी की परोक्ष सेवा कर रहे हैं तो उसके प्रचार प्रसार के लिए उनको आगे आकर प्रत्यक्ष सेवा में भी अपनी भागीदारी दिखानी चाहिए।

वर्तमान में सोशल मीडिया ने हिन्दी की दशा और दिशा को सशक्त करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ रही हिन्दी की साख से प्रेरित होकर हिन्दीतर राज्यों के लोग भी फेसबुक और इण्टरनेट के माध्यम से हिन्दी के निकट आ रहे हैं। हिन्दी के लिए किए जा रहे प्रयासों से इस दिशा में विकास निःसंदेह दिखाई दे रहा है। हिन्दी हिन्दीतर राज्यों के साथ साथ समस्त भारत और अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी में भी अपना सम्मानित गौरवपूर्ण स्थान बना सकेगी, ऐसी सम्भावना से तनिक भी इंकार नहीं किया जा सकता। जब हम दृढ़ संकल्प और इच्छाशक्ति के साथ, मनोग्रंथि की मानसिकता से परे होकर हिन्दी को उसके समानुकूल स्थान पर स्थापित करने की दिशा में प्रयास करेंगे, तो अनुकूल सम्भावनाएँ जन्म लेंगी और वह दिन दूर नहीं होगा कि अगले आने वाले वर्षों में हम हिन्दी का विश्लेषण उन्हीं काफी वर्षों से चले आ रहे बिन्दुओं पर न करते हुए कुछ अन्य नए से, उजले से और मनोग्रंथि की संकीर्णता से ऊपर उठकर एक विश्व भाषा के रुप में करेंगे।

१ सितंबर २०१६

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।