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                            दिन निकलने का पता इस 
                            शिशु को तब होता जब माँ आटे के सफ़ेद-सफ़ेद सूरज को 
                            आकार देती। दीपक के उजाले को देखना तो हम बहुत समय बाद 
                            में सीखे- हमें सिखाया गया तब! वह भी थोड़ा-थोड़ा! 
                            हमें तो चूल्हा जलता तभी दिन निकलने का अहसास होता! 
                            मानव को सूरज निकलने का ज्ञान तब हुआ जब उसकी माँ ने 
                            दोनों हाथों से आटे का सूरज बनाना आरंभ किया। उससे 
                            पहले तो वह पशु की तरह यहाँ-वहाँ मुँह मारता, छीनता, 
                            झपटता कुछ खा लेता। वह आदिम लोक था, यह मेरा लोक... 
                            माँ ने आटे का सूरज बनाया, तब मानव लोक का जन्म हुआ। 
                            मनुष्य ने पहले चूल्हा 
                            जलाया, उसके बाद उसे लगा कि दिया जलाऊँ। पहले तो 
                            चूल्हे के उजाले में एक-दूसरे के चेहरे देख लेते उन पर 
                            नाचते प्रकाश की आभा देख लेते... धुआँ होता तब 
                            सूर्यग्रहण जैसा लगता, किंतु माँ चूल्हे में फूँक 
                            मारती, फिर खाँसती, उसका चेहरा खिंच-सा जाता। फिर 
                            ग्रहण छूट जाता। उसके लिए ब्राह्मण या अत्यंज को दान 
                            देने की ज़रूरत नहीं पड़ती। आकार लेते सूरज को हम किसी 
                            विस्मय से नहीं, आशा से भी नहीं, लेकिन बस देखते रहते। 
                            मंदिर बन रहा था तब 
                            हमने आकार लेते ईश्वर को भी देखा था। ... था वह 
                            लंबा-चौड़ा पत्थर। बनाने वाले को लगता कि उसके मूल 
                            आकार के आस-पास अनेक परतें जम गई हैं, उसे दूर करूँ तो 
                            ईश्वर प्रकट होगा, किंतु यह काम वह छैनी-हथौड़ी लेकर 
                            करता। यह मुझे पसंद नहीं था। मेरी माँ तो आटे के पिंड 
                            में छिपे सूरज को प्यार से थपथपाकर प्रकट करती है। ऐसा 
                            ही उसे भी कुछ क्यों नहीं आता होगा? वह तो कलाकार 
                            कहलाता है! और माँ तो बस माँ है, उससे विशेष कुछ नहीं! 
                            आटे के सूरज की भी वही माँ ही है न! इस सूरज को 
                            रोज़-रोज़ आकार देना पड़ता है, क्यों? माँ अपने 
                            अस्तित्व के लिए, अपने जीवन के लिए, मातृत्व के लिए यह 
                            अनिवार्य मानती होगी, सूरज रोज़ उगना चाहिए- मातृत्व 
                            को जीवन और अखंड रखने के लिए। कहते हैं, आकाश का सूरज 
                            शाम को अस्त हो जाता है, पर माँ आटे के सूरज को दोनों 
                            हाथों से इधर-उधर कर उसे यहाँ-वहाँ घुमाकर आकार देती 
                            है सुबह शाम...! 
                            वह मूर्तिकार पुरुष 
                            है। मूर्ति पुरुष की कठोरता से कभी नहीं पिघलती, वह 
                            ईश्वर को भी कठोरता से गढ़ता है। आटे का सूरज जब आकार 
                            लेता है तब कैसा आनंद मिलता है, बस, सुनते ही रहे उस 
                            थपथपाहट की ध्वनि को! उसमें जीवन की लय और यति का 
                            अनुभव होता है। दूर सड़क पर चले जा रहे सूरज के घोड़ों 
                            की टाप भी माँ की उस थपथपाहट में सुनाई देती है। 
                            ईसाई तो ईश्वर को 
                            पिता और ईशु को ईश्वर-पुत्र कहते हैं, पर मुझे तो वह 
                            मेरी का ही बेटा लगता है। वह पिता के पुत्र की अपेक्षा 
                            मेरी का पुत्र अधिक लगता है। हाँ, सच कहता हूँ.... सच 
                            कहता हूँ, पिता कठोर ही होते हैं, कठोर! वह निर्ममता 
                            से गढ़ते हैं। मूर्तिकार हथौड़ी और छैनी से जिस तरह 
                            ईश्वर को गढ़ता है, उसी तरह! वह पिंड के आस-पास... 
                            ज़मीं परतों को प्यार से थपथपाकर आकार नहीं दे सकता! 
                            ऐसे दयालु ईसु को पिता ने बनाया होगा? नहीं-नहीं! आटे 
                            के सूरज को बनाने वाली मेरी माँ ने ही उसे बनाया होगा। 
                            पिंड को किस तरह आकार 
                            देना चाहिए, यह माँ ही जानती है... माँ ही जानती है। 
                            पिता जब पिंड को हाथों में लेता है, तब भी यही मानता 
                            है कि मुझे उसे पत्थर को ही गढ़ना है और माँ जब पत्थर 
                            को भी हाथ में लेती है तो वह मानती है कि मुझे 
                            स्वादिष्ट चटनी ही पीसनी है। और फिर एक लय बनती है। 
                            गोल पत्थर आगे जाता, पीछे जाता और चटनी पिसती। माँ, 
                            मानो चटनी नहीं, एक लय को पीसती है, लय को! मैंने पहली 
                            बार घड़ी के लोलक को देखा, उससे पहले उसकी लय इस पिसती 
                            लय में देखी थी। 
                            ये भद्र लोगों की 
                            रोटी, सच कहूँ, मुझे पसंद नहीं। ज्वार की सफ़ेद-सफ़ेद 
                            रोटियों से मेरा पिंड बना है। वह सूरज मेरी जठराग्नि 
                            बना उसमें सृजन की लय थी- दोनों हाथों के बीच इधर-उधर 
                            झूलता, थपथपाता। चूल्हे के उजाले में वह कांतिमान लगता 
                            और थप्प से मिट्टी के तवे पर गिरता, पलटे से फिराया 
                            जाता फिर उसकी सुगंध जठराग्नि को आतुर कर डालती! ऐसा 
                            कुछ भी इस रोगी में नहीं है। वह थपथपाहट से आकार नहीं 
                            लेती, बल्कि वह तो बेलन से बेली जाती है। वह 'प्रोडक्ट' 
                            लगती है, माँ के हाथों की बनी आकृति नहीं! 
                            हमारा दिया-बत्ती का 
                            समय नहीं होता था। दिया-बत्ती का समय तो यह रोटी आई तब 
                            से हुआ। माँ के समय में तो चूल्हा-समय होता था। माँ 
                            चूल्हे के उजाले में हमारे चेहरे देखती... फिर कहती, 
                            ''फूँक मार तो भैया!'' और हम धुएँ के साथ राख भी 
                            उड़ाते। बच्चे वैसे भी मस्तीखोर न हों तो बच्चे नहीं। 
                            हमें मस्ती तब भूल जानी पड़ती, जब पिता के पास जाते। 
                            पिता कठोर व्यवस्था का प्रतीक। व्याकरण का एक कठोर 
                            नियम-समास करते वक्त दोनों शब्दों को जोड़ते नहीं। 
                            पुरुष 'पिता' नहीं बनते। पुरुष... पिता की जोड़ी ही 
                            स्वीकार्य होती। समास में भी अंतर रखते। प्रत्यय की 
                            तरह माँ की पीठ पर झूला जा सकता है लेकिन पिता की पीठ 
                            पर? खतरा है न? माँ को प्रत्यय बोझ नहीं लगता। वह उसे 
                            अपना ही अभिन्न अंग मानती है। 
                            सचमुच आटे का सूरज 
                            जिस समय बनता, वह 'समय' समय लगता। बाहर घूमने निकल गए 
                            हों तथा अलग-अलग रहते पुत्र-पुत्रवधुओं को 'न्यू इयर' 
                            याद आए और माँ के पास 'डिनर-टेबल' पर जमा हो जाए, उसी 
                            तरह हमारे लिए हर शाम 'न्यू इयर टाइम' होती। हम चाहे 
                            जहाँ हों लेकिन समय पर हाजिर हो जाते- माँ के पास, 
                            चूल्हे के पास। वह तो अ-कवि के शब्द है। 
                            आटे का सूरज बनता माँ 
                            के वात्सल्यपूर्ण हाथों से। तब रोज़ 'समय' आता। उसके 
                            लिए कैलेंडर या पंचांग नहीं देखने पड़ते थे। नहीं... 
                            बिल्कुल नहीं। हमारे चेहरे चूल्हे के उजाले में 
                            कांतिमान होते गए। हम मेहनती कहलाने वाले मानवों को 
                            इसी उजाले ने कांति दी। हाँ, पहले माँ कपास की गोल 
                            बाती बनाती उसे घी में डुबोकर मिट्टी के दिए में रख 
                            जलाती। उसका सौम्य तेज़ चेहरे पर झेलती दो हाथ जोड़ती। 
                            उसके बाद ही चूल्हा जलाती। किंतु दिया-बत्ती करने में 
                            देर होती तो हमें अकुलाहट होने लगती... पहले दिया- फिर 
                            चूल्हा। यह क्रम माँ को समझता, हमें नहीं। दिया-बत्ती 
                            का समय, चूल्हे का समय...। हम तो मात्र समय का ध्यान 
                            रखते। क्रिसमस की रात, बिखरा हुआ क्रिश्चियन परिवार 
                            जिस तरह माँ-बाप के यहाँ डिनर-टेबल पर एकत्रित हो 
                            जाता, उसी तरह हम सब शाम को चूल्हे के आस-पास माँ के 
                            आस-पास जमा हो जाते हमें जीवन की सुगंध आने लगती। 
                            न जाने ऐसा क्या हो 
                            गया है कि अब जिजीविषा की गंध शाम के वक्त आती है! 
                            'वह' माँ, हाँ 'वह'। यह रही माँ, कहने के अवसर तो निकल 
                            गए, ... गए... गए ही तो... जीवन की गंध, माँ के हाथों 
                            बनते सूरज और बनते हुए अश्विनी कुमार की गंध...! 
                            अब अधीरता को क्रिया 
                            में जोड़कर उसे 'सौम्य' करने को कोई नहीं कहता। कोई 
                            नहीं कहता- 'चलो हाथ-पैर धो लो, कांथी पर से थाली 
                            उतारो, पोंछो और लेकर बैठ जाओ।' अब आटे का सफ़ेद सूरज 
                            भी नहीं बनता। रोटी किस तरह बनती है, यह भी नहीं 
                            मालूम। हाँक लगाई जाती है- ''खाने चलो...!'' और 
                            आदतानुसार कह दिया जाता है- ''आते हैं अभी... ऐसा 
                            करो... यहीं पर भेज दो थोड़ा!'' डिलीवरी ड्राइंग रूम 
                            में बैठे-बैठे डिलीवरी! चेहरे पर इलेक्ट्रिक बल्ब की 
                            रोशनी पुती है। चूल्हे की नाचती रोशनी, चेहरे पर पड़ती 
                            उसका प्रतिच्छाया सब माँ के साथ चला गया 'अपनों' को 
                            'उनको' कहना पड़ता है। पास को दूर रहना पड़ता है। 
                            हाथों में रखे सूरज को वह दूर-दूर... दिखता सूरज कहना 
                            पड़ता है! यह सब कितना जटिल लगता है! युद्ध पर जाते 
                            पुरुष को ही 'वापसी मुश्किल' होती है? अपना अपनापन 
                            लेते जाते, यही विरह है, यही विरह है, जुदाई है।  |