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ललित निबंध

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गुलमोहर गर्मियों के
-नर्मदा प्रसाद उपाध्याय
 


बहुत तपन है। सरे पेड़ झुलस रहे हैं, पत्तियाँ मुरझा गईं, हरे-भरे तने ठूँठ में बदल गए लेकिन गुलमोहर चटख लाल रंग में खिल रहा है। इस वैशाख की अलाव-सी सुलगती दुपहरी में जब गुलमोहर के पेड़ पर नजर पड़ती है तो जाने क्यों यह मुरझाया मन मुस्कराने लगता है। खिले गुलमोहर को देखकर लगता है कि हाँ अभी जीवन-शक्ति जीवित है, संघर्ष की तपन में खिलने की क्षमता जीवित है, एक दीपशिखा जीवित है बर्फ के घरौंदे में।

यों वसंत में तो हरिया जाते हैं सभी, खिल जाते हैं सभी मगर ग्रीष्म के आगमन के साथ सभी सूख जाते हैं, सिमट जाते हैं, मुरझा जाते हैं। मगर गुलमोहर गर्मी में खिलता है। गर्म लू के थपेड़े, सूरज का आक्रोश और इस आक्रोश से भयभीत अन्य फूलों की भीरुता उसकी जिजीविषा को नहीं डिगा पाती। वह अकेला खिलता है, उसका कोई साथ नहीं देता, न गुलाब, न चमेली, न जूही, न गेंदा मगर वह अपने संकल्प से डिगता नहीं। वह सूरजमुखी के फूल की तरह अवसरवादी भी नहीं कि सूरज की ओर अपना माथा नवाए सूरज की दिशा के साथ-साथ अपनी दिशा भी बदलता रहे। उसकी दिशाएँ उसके खुद अपने मन की होती हैं। गर्मी ज्यों-ज्यों बढ़ती है उसकी सुर्खी भी बढ़ती जाती है। जिन्हें हम लू के थपेड़े कहते हैं वे उसके लिए सुहावनी बयार के मृदु झोंके हैं, जिसे हम झुलसना समझते हैं वह उसके लिए मुस्कराना है।

गर्मी ने गुलमोहर की गंध छीन ली, उसकी पाँखुरियों की नमी छीन ली मगर उसकी दमकती कांति को नहीं छीन सकी। प्रतिशोध की आग चाहे जितनी प्रबल हो वह सब कुछ भस्म कर सकती है लेकिन दहकते अंगारे और राख तो फिर भी बने रहेंगे अपने अस्तित्व में।

दहकते सूरज के आक्रोश की यों खिल्ली उड़ाने वाला गुलमोहर मौन हो भले मगर उसका यह मौन बहुत मुखर होता है। बिना कंठ के उसका निनाद गूँजता है। गर्मियों में गुलमोहर को निहारते हुए निकल जाना कोई मायने नहीं रखता। उसके तले खड़े होकर उसके संघर्ष के सुरों को सुनना चाहिए। इन सुरों की गूँज हमारी मुरझाने की वृत्ति के बंधनों को काट देगी और हम जूझने के लिए कृत संकल्प हो उठेंगे।

आज कहाँ नहीं है आग, कहाँ नहीं हैं दहकते सूरज और कहाँ नहीं हैं लू के थपेड़े। हर जगह हैं, हर स्तर पर हैं, हर परिवेश में हैं। मगर गुलमोहर नहीं हैं हर जगह। इसलिए तपन हमें झुलसा जाती है। यदि हम अपने आप में वह संघर्ष क्षमता सँजो लें जो गुलमोहर ने सँजोई है तो एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब तपन अपनी निरर्थकता समझ ले। गुलमोहर की तरह बिना मुरझाए यदि हम अपनी कांति बरकरार रख सकें और जूझते रहें लू के थपेड़ों से तो बहुत मुमकिन है कि गर्मी हम पर हावी न हो।

मगर ऐसा होता नहीं। गर्मी के आरंभ होते ही हम शीतलता की तलाश में निकल पड़ते हैं। कोई पहाड़ पर जाता है, कोई कश्मीर, जो जा नहीं पाते वे कूलर, एयरकंडीशन और तेज ठंडी हवा फेंकने वाले पंखों की तलाश करने लगते हैं। दोपहर आती है तो इन्हीं के आश्रयों में गर्मी से भयभीत हो दुबक जाते हैं। इसी पलायनवादी रवैये ने गर्मियों के हौंसले बढ़ा दिए और तपन हावी हो गई। इसके लिए हम खुद जिम्मेदार हैं। दोषी हम खुद हैं जो गर्मी के भय से दुबक जाते हैं, इसकी आँच से डरते हैं, ठंडक के कृत्रिम आश्रय खोजते हैं और पर्यावरण के असंतुलन का विश्लेषण करते हुए सूरज को दोषी ठहराने लगते हैं।

हमने वन काट दिए और पर्यावरण के विभाग खोल लिए, सूरज को खुद उकसा दिया और अपने लिए डी-लक्स ए.सी. रूम की व्यवस्था कर ली।

वैशाख या जेठ की तपती दोपहर में खेत जोतते किसान को सूरज से कोई शिकायत नहीं मगर ए.सी. रूम में बैठकर सूरज को कोसना हमारी आदत हो गई।

बड़ी मजेदार बात तो यह है कि पीढ़ी दर पीढ़ी किसान तो ज्यों का त्यों रहा मगर सूरज को कोसने वाले एयर कंडीशनर और कूलर के कारखाने खोल-खोलकर करोड़पति हो गए।

जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती जाती है, उसे कोसने वाले बढ़ते हैं और इन कोसने वालों की सम्पन्नता बढ़ती है। एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया है समाज में जो कोसने वालों का ही है। यह अकेला गर्मी को ही नहीं कोसता, ठंड और बरसात को भी कोसता है। यह वर्ग इन मौसमों की बुराइयों से जूझने के लिए लोगों को प्रेरित नहीं करता बल्कि बचाव के लिए रास्ते सुझाता है। इसलिए इन मौसमों के अभिमान कायम रहते हैं और बजाय जूझने के समाज दीन बना इन मौसमों की बुराइयों को झेलने लिए विवश बना रहता है। इस कोसक वर्ग को जो वास्तव में शोषक वर्ग है, हर ऋतु सम्पन्न बनाती जाती है। एक गोपन समझौता है इस वर्ग और मौसमों के बीच।

एक नियति बन गई है और उस नियति को झेलना विवशता। विवशता के बंधन बूड़ते नहीं और ग्रीष्म का अत्याचार बढ़ता जाता है। पानी चाहे सरोवर का हो, जमीन के गर्भ या सम्मान का, सूखता चला जाता है। धरती पर पड़ी दरारें गहराती जाती हैं, जंगल आग के हवाले होते रहते हैं, पहाड़ तपते रहते हैं और आदमी अंदर ही अंदर धधकता रहता है, सुलगता रहता है मगर इस नियति की विवशता को तोड़ने कोई आगे नहीं आता।

प्यास बहुत लगी है, वह बुझ ही नहीं पाती। कालिदास ने ’ऋतुसंहार’ के ग्रीष्म वर्णन में, मृगों की हालत का चित्र खींचते हुए लिखा था: ’’इस ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की प्रचंड धूप से अत्यंत तपाए गए मृग, जिनके तालू अति प्यास के कारण सूख गए हैं, एक वन से दूसरे वन में अंजन के समान नीले आसमान को जल समझ कर दौड़ रहे हैं।’’

बहुत फर्क नहीं आया इस चित्रण में। कालिदास यदि आज होते तो उनकी इस कल्पना में ’मृग’ का स्थान ’आदमी’ ने ले लिया होता। गरमी में नीला आसमान ही जल जैसा दीखता है और हर आदमी दौड़ रहा है इस छलावे भरे पानी को पाने के लिए।

गर्मी से उपजी प्यास तो बुझ सकती है मगर तृष्णा से उपजी प्यास इतना विकल बना देती है कि आदमी नीले आसमान को भी सरोवर समझ बैठता है। न प्यास बुझ पाती है, न सरोवर मिल पाते हैं और यह दौड़ निरंतर और अविराम चलती रहती है। यह सारे विश्लेषण अनंत हैं। सच सिर्फ यही है कि ग्रीष्म, ग्रीष्म है और हमारे विश्लेषण हमारे विश्लेषण।

मगर सच यह भी है कि अगर हम मानव हैं तो हमें विश्लेषण भी स्वीकारने नहीं हैं, सिर्फ यदि विवशता ही स्वीकार ली तो फिर मानवता और पशुता में क्या भेद ?

विवशता को अस्वीकार कर देना, हमारी पहली सफलता होगी। सूखी पाँखुरियों वाले लेकिन लू के थपेड़ों के बीच अपनी मस्ती में डोलते गुलमोहर से यदि एक ही सीख ले ली जाए तो बदलाव के लिए किसी वाद या दर्शन की शरण में जाने की जरूरता नहीं पड़ेगी।

जरा गुलमोहर की तरफ ताकने की बजाय गुलमोहर बनकर तो देखें।

२९ अप्रैल २०१३

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