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ललित निबंध

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रामराज्य
- डॉ. शोभाकांत झा
 


राम और उनके काज इतने व्यापक हैं कि विचार करते रहिये विराम नहीं मिलेगा। उनमें रमते रहिए अघा नहीं पायेंगे। उनके कार्य करते जाइये विश्राम नहीं मिलेगा –

राम काज कीन्हें बीना मोहि कहाँ विसराम। हनुमान जी रामजी के काज करते चले गए-एक के बाद एक सँवारते चले गए पर क्या उन्हें विश्राम मिल पाया? नहीं, वे अब भी उनके कार्यों को सँवार रहे हैं, क्योंकि अजर अमर भक्त जो हैं। विश्वास बढ़ाने के लिए मंगल मूर्ति मारुति नंदन के भक्तों से पूछ लीजिए।

वास्तव में जन-जन और कण-कण में रमे राम के कार्य जन-जन के कार्य हैं। जीवमात्र के कार्य हैं। उनके कार्यों के न कोई ओर है न छोर। सामान्यतः सीता-खोज को प्रमुख रामकाज माना जाता है। जिसके लिए राम ने सुग्रीव को राज्य में प्रतिष्ठित करते हुए कहा था कि अब हे सुग्रीव ! आप अंगद के साथ मिलकर राज करें, किंतु मेरे कार्य सम्पादन का ध्यान हृदय में हमेशा रखें –
अंगद सहित करहु तुम राजू।
सतत हृदय धरेहु मम काजू।। - ४ /१२ /९

अब विचार करें कि सीता खोज का सतत चिंतन क्या है? वस्तुतः सीता खोज तो शांति, भक्ति, शक्ति, मुक्ति की तलाश है। शंकराचार्य ने सीता को शांति रूप में नमन किया है –
शान्ति सीता समाहिता आत्मारामो विराजते।

शांति की तलाश तरह-तरह की उठती समस्याओं के निदान की खोज है। व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राजनैतिक समस्याएँ उठ-उठकर शांति पर प्रहार करती हैं, दबोचती हैं, व्यक्ति, राज-समाज–सब को अशांत करती हैं, आकुल करती हैं, संघर्ष को न्यौता देती हैं और अंत में महाभारत जैसे महाविनाश के जिम्मे जिंदगी को झोंक देती हैं। मनुष्य के सदियों के अर्जित मान-मूल्यों को मिट्टी में मिला देती हैं, अतः शांति-सीता की खोज एक व्यापक अवधारणा है। खो गई धरती की बेटी की खोज है। जमीनी सच्चाई की तलाश है। सीता कृषि संस्कृति का प्रतीक है। लंका की औद्योगिक सभ्यता, जो हर जगह कृषि संस्कृति और उससे जुड़े मान-मुल्यों को लील रही है, हमें अशांत बना रही है, सबूत है। इसीलिए गाँधी ने इसे चाण्डाल सभ्यताकहा था। इन्हीं सब अर्थों में सीताखोज को देखा जाना चाहिए।

सीता करुणानिधान श्रीराम को अतिशय प्रिय तो थी ही, भारतीय नारी का आदर्श भी थी। सीता की खोज यदि राम की व्यक्तिगत समस्या मात्र होती तो राम स्वयं समर्थ थे, सर्व समर्थ। किसी की सहायता की जरूरत नहीं थी। तुलसी तो राम को ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री और वैराग्य के सपुंज भगवान मानते ही हैं, वाल्मीकि भी उन्हें अपने युग का सर्व समर्थ महानायक मानते हैं। इस महानायक के सेवक हनुमान की सर्व समर्थ सेवकाई में भी किसी तरह के संशय की कोई गुंजाइश नहीं है। हनुमान की शक्ति पर जबसीता को संशय हुआ तो पवनसुत ने पर्वताकार रूप का विस्तार करते हुए कहा था माँ! आप अधीर न हों। शपथ राम की! यदि उनका आदेश मिला होता तो मैं अभी आपको यहाँ से लिवा ले जाता-
अबहिं मातु मैं जाऊँ लनाई।
प्रभु आयसु नहि राम दोहाई।। - सुंदरकांड १६ /२

हनुमान जी बुद्धि-विवेक के निधान हैं। वे और उनके राम सीता की उस रूप में वापसी चाहते हैं, जिससे पृथ्वी पर मर्यादा प्रतिष्ठित हो। शील संयम की शिक्षा लोक प्राप्त करे। अत्याचार बंद हो। लोक को रुलाने वाले रावण जैसे लोगों पर अंकुश लगे। मूल्यों की प्रतिष्ठा हो-
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।
तिहुंपुर नारदादि जसु गैहहिं।। - सुंदरकांड १२ /३

निश्चय ही हनुमानजी सीता-खोज और उनकी सही ढंग से वापसी के द्वारा तीनों लोक को सबक देना चाहते थे। युग को संदेश देना चाहते थे कि मर्यादा की सीमा लाँघने वाला व्यक्ति राम-कोप का भाजन है। राम का कोप लोक कोप का पर्याय है। देवराज इन्द्र हों या असुरराज रावण। यदि वे अहंकार और आतंक से लोक को आकुल करेंगे तो राम-कोप से बच नहीं पायेंगे। सीता का अपहरण करेंगे तो सीता रूपी प्रजा की आह से जलकर खाक हो जायेगी उनकी स्वर्णमयी लंका शीत निशा में कोमल वन की तरह। मंदोदरी तीखे शब्दों में सच्चाई समझाती हुई रावण से कहती है-
तब कुल कमल बिपिन दुखदाई।
सीता सीत निसा सम आई।।
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें।
हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें।। - सुंदरकांड ३६ /४

मंदोदरी न मंद मति है न भीरु। उसकी सुमति दूर तक साफ-साफ देख रही है, द्वार आये खतरे को। जब से सीता लंका लाई गई तब से अपशकुन एक के बाद एक आकर आने वाले अनिष्ट की सूचना दे रहे हैं। उसका विवेक मानता है कि सीता यद्यपि सर्वश्रेयस्कारी है, सर्वमंगला है, परन्तु श्रेयस और शांति को कोई बलात अपने अधिकार में करना चाहेगा तो वह श्रेयस उसके लिए अमंगलकारी बन जायेगा। शांति अशांति बन जायेगी। मंगला लक्ष्मी जब चौर्य, छीन-झपट और गलत तरीके से अर्जित की जाती है तो वह अर्जनकर्ता के लिए अशांति और आपदा बन जाती है, इसलिए मंदोदरी सीता को लंका रूपी कमल वन के लिए शीत निशा समझती है – कमल वन को जला सी देती है। शीतल होकर भी ताप देती है। लंका का जलना स्पष्ट प्रमाण है।

सीता खोज के बहुत सारे आशय हैं। निर्मल मति से सोचें तो इस खोज के बहाने ढेर सारे संदेश राम और उनके सेवक, सखा, सहायक संसार को देना चाहते हैं, क्योंकि अवतार के कार्य मात्र दुष्टों का दमन या वध और सज्जनों का रक्षण ही नहीं होता। तरह-तरह की लीलाओं के द्वारा मर्त्यों को शिक्षा देना, धर्माचरण का संस्कार देना अवतार के विशद् प्रयोजन होते हैं-
मर्त्यावतारः खलु मर्त्य शिक्षो।
रक्षोवधायैव व केवलं विभोः।। - पुराण विमर्श पृ. १६५

जरा विचार किजिए कि -
“तिहुंपुर नारदादि जसु गैहहिं”

अर्थात् सीता को जब भगवान राम लंका से वापस ले जाएँगे, तो इसमें राम की कौन-सी यशगाथा निहित होगी कि तीनों लोक गायेगा? यह लांक्षण गाथा क्या गाने योग्य है? क्या राम-सीता इससे मिले लोकापवाद से जिंदगी भर तपते नहीं रहे? सीता तो पाताल में ही समा गई। फिर तुलसी ने ऐसा क्यों लिखा, जबकि उनकी कलम में स्खलन का अवसर कम ही होता है। मेरे वीचार से सीता की वापसी से समस्त आसुरी शक्ति का शमन, शांति और व्यवस्था की स्थापना और लोकरंजन का साध्य सधने वाला है। दैहिक, दैविक और भौतिक ताप से निजात मिलने की संभावना है , राम राज्य के द्वारा। महि भार उतारने और देवों को भी भयमुक्त करने के लिए राम अवतरित जो हुए थे। इन आशयों का संकेत स्वयं रावण को दी गई सलाह में है।
गो द्विज धेनु देवहितकारी। कृपासिंधु मानुष तनु धारी।।
जनरंजन भंजन खलब्राता। बेद धर्मरच्छक सुनु भ्राता।।

- सुंदरकांड ३९

यदि सीता का पता लगाना ही राम काज होता, तो हनुमान सीता से मिलकर लौट आते। रावण के दरबार में जाकर उसे विनम्र और विवेकमय सिखावन नहीं देते। वे उसे सर्वनाशी अहंकार और सर्वग्रसी मोह से बचाकर युद्ध में निर्दोष जनता का खून बहाने से रोकना चाहते थे। उन्होंने जाते ही उसे चुनौती नहीं दी, न खरी-खोटी सुनाई। वे रुद्रावतार थे और रावण रूद्र भक्त, अतः वे अप्रत्यक्ष रूप से भक्त को आपदा से बचाना चाहते थे-

मोह मूल बहु सूल प्रद त्यागहुँ तम अभिमान।
भजहुँ राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान। - सुंदरकांड २३

साफ है कि रामकाज जीव के बाहर-भीतर की सफाई है। अहंकार और मोह-लोभ, जो बढ़िया से बढ़िया व्यक्ति को पतन का पात्र बना देते हैं, अच्छे कार्यों पर पानी फेर देते हैं, उनको दूर करना और सुर दुर्लभ मानव जीवन को कृतार्थ करना रामकाज के वृहत् आशय हैं। रावण महाज्ञानी और कुलीन होकर भी अपने दुर्गुणों के कारण नष्ट हुआ। वह तो राक्षस था या अपने कृत्य से असुर बन गया किंतु नारद तो मुनि थे। वे भी साधना के अहंकार और मोह में फँसकर मुनि से वानर बन गए। विरूप हो गए, इसलिए तुलसी काक भुशुंडि के माध्यम से मानस रोग और उसके निदान का बखान करते हैं। और यह भी रामकाज से असंदर्भित नहीं है। नर वानर न बन जाये, यह भी रामकाज का उद्देश्य है।

रामकाज के विशद् संदर्भों की आख्या करते हुए पंडित रामकिंकर उपाध्याय कहते हैं कि “वेदान्तियों की दृष्टि में सीता शांति हैं, भक्तों की दृष्टि में वे भक्ति हैं, कर्मयोगी की दृष्टि में वे शक्ति हैं और तुलसीदास जैसे अपने आप को दीन मानने वालों की दृष्टि में वे माँ हैं। सीता के खोजने का मतलब है शांति का खो जाना, भक्ति का खो जाना, शक्ति का खो जाना, माँ का खो जाना।” – पंडित रामकिंकर उपाध्याय श्री हनुमत चरित्र, पृ. १२४

स्पष्ट है कि इन सब की खोज और उपलब्धि रामकाज और फलश्रुति हैं। ये सारे जीवन के संग्राह्य संदर्भ हैं। इनके बिना सब कुछ व्यर्थ है। आप भी सोचिये जीवन में सब कुछ हो, पर शांति न हो, आधुनिक समृद्ध आदमी की तरह तो समृद्धि कैसी? अशांत को सुख कहाँ? केवल भागमभाग हो, तनाव हो, लगावरहित यांत्रिक जिंदगी हो, तो सुख कैसा? प्रतीति न हो तो अकूत सम्पदा के स्वामी से मिलकर देख लीजिए। इसी तरह भक्तिभाव रहित जिंदगी दरिद्र मानी जानी चाहिए।

राम विमुख प्रभुताई।
जाई रही पाई बिनु पाई।। - सुंदरकांड २३


यहाँ भक्ति का तात्पर्य केवल राम या ईश्वर भक्ति से नहीं है। न नाम रटन से है, न पूजा पाठ से, अपितु उन मूल्यों के प्रति आदर-आचरण से है, जिनके राम प्रतीक हैं। राम को जो-जो प्रिय हैं, प्रेम, सत्य,शील, मर्यादा, सदाचार,परोपकार आदि की ओर उन्मुखता होने से ही रामभक्ति है। भक्ति प्रेम और श्रद्धा का समन्वय है। जीवन में प्रेम न हो, श्रद्धा न हो, राग-रस न हो तो जीवन मात्र साँसों का मेला बन जाता है। इसी श्रद्धा-प्रेम के अभाव में दुर्योधन कृष्ण की नारायणी सेना तो पा गया, पर वह उन्हें नहीं पा सका। परिणामस्वरूप वह विजयश्री से वंचित रहा। स्वयं नष्ट हुआ और वह तत्कालीन राज-समाज के लिए अभिशाप बन गया।

शक्ति का आभाव व्यक्ति को शव रूप में बदल देता है। माँ की ममता के अभाव में मानुष अधूरा, अतृप्त, असंतुलित बन कर रह जाता है। अतएव सीता की खोज इन सब जीवन मूल्य रत्नों की खोज है, प्राप्ति का अनुष्ठान है। समूचेपन की चाहत है। रामायण या मानस की कथा का सार दो पंक्तियों में बताया जाता है कि राम कथा का आरंभ राम वन गमन से होता है। राम स्वर्ण मृग के पीछे भागते हैं। सीता का हरण हुआ। जटायु रक्षा करते मारे गए। सुग्रीव से मैत्री हुई। बालि मारा गया। हनुमान सागर पार गए। लंका जली। कुम्भकर्ण और रावण का वध हुआ। यही रामायण है।
आदौ राम तपोवनादि गमनं हत्वा मृगं काञ्चनं।
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीव सम्भाषणं।।
बालीनिग्रहणं समुद्रतरणं लंका पूरी दाहनं
पश्चात् रावण-कुम्भकर्ण हननं एतदि रामायण्।।

जरा ठहरकर सोचिये कि क्या यही है? क्या इतनी-सी ही कथा वस्तु रामायण के चौबीस हजार श्लोकों में निबद्ध है? क्या रामकथा का यही अभिप्राय है? फिर तुलसी का लक्ष्य रामकथा को दुहराना भर है? राम भक्ति भर प्रकट करना है? क्या नानापुराण निगमागम और अन्यत के ये अन्यतम हैं? नहीं, मात्र इतने ही तात्पर्य रामायण के होते तो न यह आदि काव्य अमर होता, न रामकथा को लेकर मानस जैसे बहुत सारे राम काव्य लिखे जाते। न राम काव्य परम्परा का विकास होता न राम अब तक पूजे जाते। अब तक काल के गाल में समा गये होते। देश की सीमा में सिमटकर महज पोथी पुराण की जिल्दों में लिपटकर रह गये होते। परन्तु अपने काज और चरित के द्वारा राम देश और कालजयी बन गये। विश्वव्यापी बनी रामकथा आज भी सूरीनाम, मॉरीशस, मलाया आदि देशों में रामकाज सम्पादित कर रही है।

दरअसल पूरी रामकथा के भीतर रामकाज समाहित है, माटी के अंदर की गंध की तरह, पवन के भीतर सुगंध की भाँति। सारी घटनाएँ, सारे पात्र और समस्त प्रसंग रामकाज सूत्र से आबद्ध हैं। सारे तागों को बटोरकर रामकाज पूरी खूँटे से बाँध दिया गया है। सीता का अन्वेषण तो एक तात्कालिक महत्वपूर्ण काज था। नहीं तो हनुमान के बल-बुद्धि की परीक्षा लेने गई नाग-माता सुरसा उन्हें यह आशीर्वाद नहीं देती कि तुम सारे राम काज को सम्पन्न करोगे –
रामकाज सबु करिहहु, तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान।। - सुंदरकांड २

चलिए एक श्लोकी रामायण पर ही विचार करें। तपोवन गमन से आरंभ राम जीवन-यात्रा विभिन्न पड़ावों को पार करती है और अंत में राज्य की स्थापना के साथ पूर्ण विराम लेती है। इसके एक-एक पड़ाव पर अटक कर यदि राम काज का आकलन करें तो तुलसी जैसे सामर्थ्यवान कवि अब भी अनेक रामचरित मानस, उप मानस लिख सकते हैं। राम के सम्पूर्ण चरित–आचरण ही राम काज का पर्याय हैं। यदि सीता-खोज ही प्रमुख घटना या कार्य होता तो मानस का शीर्षक रामकाज रामायण कदाचित रखा जाता। राम का प्रतिद्वन्द्वी रावण स्वयं भीतर से स्वीकारता है कि शायद सुर काज साधने और पृथ्वी के भार को उतारने के लिए राम अवतरित हुए हैं। मुझे भी राक्षसवृत्ति से मुक्ति मिलेगी। इस तामस शरीर से भजन-भाव तो होने से रहा।
“सुर रंजन भंजन महिमारा।”
“होइहि भजन न तामस देहा।
मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा।।” – अरण्य कांड ३ /२३ /३,५

वास्तव में लोकाराधन राम-लीला का लक्ष्य था। लोक उनकी आराधना करता है और वे लोक की। अतिशय प्रिय जानकी को भी लोकाराधन के लिए उन्होंने भेंट चढ़ा दिया। “आराधनाय हि लोकस्य मुञ्चतो नास्ति में व्यथा” – (उत्तर रामचरित – भवभूति)। देव और मनुज का पारस्परिक भावन भाव विश्व को महाभाव से भर देता है – “परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यतः”–गीता। जनाराधन के लिए जनार्दन ने सेवा, त्याग, प्रेम, दया और मर्यादा के जो-जो प्रतिमान स्थापित किए वे आज भी लोक में अमिट हैं। उनकी लीला से लोक संस्कारित है। भारतीय लोग चाहे वे किसी धर्म के उपासक हों, घर-घर के बड़े भाई राम और छोटे लखनलाल होते हैं। हम और आप यदि बड़े होकर जन्मे हैं तो थोड़ा बहुत ही सही, जरूर इस भाव को जी रहे होंगे अथवा दूसरे को जीते देख रहे होंगे, क्योंकि राम हममें रमे हैं और हम राम में रमते रहेंगे। “लोग कहते हैं कि हनुमान राम की शक्ति से सब कुछ करते हैं। और राम मेरी दृष्टि में लोक की शक्ति करते हैं।”

– डॉ. युगेश्वर – तुलसी का प्रतिपक्ष, पृष्ठ ५३

राम की तरुणाई ने विश्वामित्र को निर्भय किया, जनक के परिताप को मेटा, ऋषि-मुनियों को भयविहीन बनाते हुए जन-जन को अभयता दी। स्वतंत्रता भयमुक्तता का नाम है। जो स्वाधीनता भयमोचिनी होती है वह अर्थवती होती है। जो आजादी आतंक, अराजकता, अन्याय, अभाव, व्याधि के भय से मुक्ति नहीं दिला पाती, वह कागजी होती है। जिस शासन तंत्र में मंत्रणा देने वाले सचिव-सयाने सही सलाह देने में खौफ खाते हों, उचित कहने लिखने वाले के लिए सिर कलम कर दिया जाने का फतवा दिया जाता हो, देश का पहरेदार चोर और नेतृत्व निष्ठाहीन हो, उस देश की स्वतंत्रता बेमानी हो जाती है। और तो और घर की मंदोदरी भी मात्र भोग की वस्तु समझी जाय और उचित कहने के कारण सगा भाई लतियाया जाय, भयग्रस्त हो, उस लंका का स्वर्ण सुख किस काम का? वह तो डराता है, आकुल ही करता है। विभीषण से पूछ लीजिए –
“सुनहु पवन सुत रहनि हमारी।
जिमि दसनन्ही मँह जीभ बिचारी।।
अब मैं कुशल मिटे भय भारे।
देखि रामपद कमल तुम्हारे।।”

राम का पद सुग्रीव को भी भयमुक्त करता हुआ आया था और लंका विजय के बाद उसने सब को भयमुक्तता के लिए आश्वस्त किया-
“निज निज गृह अब तुम सब जाहू।
सुमिरेहु मोही डरपहु जनि काहू।।”

राम के सुमिरन में सामंती अहंकार की बात नहीं है। नीति, न्याय, सुव्यवस्था, शांति की बात है।
तात्पर्य यह कि राम काज एक व्यापक अवधारणा है। पूरी रामायण रामकाज की चौहद्दी है। राम और उनके सखा-सहाय, सेवक के सारे मर्यादित कार्य के विविध रुप हैं और प्रतिपल प्रतिपक्षी पात्रों के अकार्य में राम कार्य के पृष्ठपोषक हैं। प्रकाश के पृष्ठपोषक अंधकार की भाँति, नायक के गुणों के प्रकाश, खलनायक की तरह, अच्छाइयों की महत्ता बढ़ाने वाली बुराइयों के समान। सिया राममय जगत के सारे हित साधक प्रयोजन और लोकमंगल राम के काज हैं। वे अनन्त की तरह अनन्त हैं, इसलिए हनुमानजी को राम काज से आज तक विश्राम नहीं मिल पाता है, न मिल पायेगा और न वे ऐसा कभी चाहेंगे।

२० अक्तूबर २०१४

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