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साक्षात्कार

नुक्कड. नाटकों की दुनिया


 रंगकर्मी माला हाशमी से मनोज कुमार कैन की बातचीत

नुक्कड़ नाटक को लोकप्रिय बनाने में सफदर हाशमी के बाद माला हाशमी का प्रमुख तथा अहम् योगदान है। उन्होंने उस विधा को जन–जन के साथ जोड़कर समाज में फैली बुराइयों, राजनीति में फैले भ्रष्टाचार एवं आडंबर के प्रति विरोधमूलक आंदोलन चलाया। वर्तमान में नुक्कड़ नाटक एक सचेतक का काम तो करता ही है, साथ ही समाज को एक दिशा भी प्रदान करता है। यहां प्रस्तुत है उनसे बातचीत :

प्रश्न : नुक्कड़ नाटक विधा का जन्म कब और कहां हुआ?

उत्तर : नुक्कड़ नाटक विधा का जन्म सौ साल पहले राजनैतिक थिएटर के रूप में हुआ। जिसका आयोजन यू्रोप में कामकाजी लोगों द्वारा किया गया। कहा जाता है कि सबसे पहले इरविन पिसकेटर यूरोप में कामकाजी वर्गों के लोगों के साथ मिलकर राजनैतिक रूप से थिएटर किया करते थे। यही कारण है कि यूरोप में राजनीति पटल पर नुक्कड़ नाटकों का जन्म हुआ। 1918 में रूसी क्रांति की वर्षगांठ पर  नगर के चौराहे पर नुक्कड़ नाटक खेला गया। इसका आयोजन मेयर होल्ड एवं कवि मायकोवस्की ने मिलकर किया। इसका मंचन हजारो की संख्या में मौजूद व्यक्तियों के सामने किया गया। इस नुक्कड़ नाटक की बनावट में लचीलपन था। वही नुक्कड़ नाटक के जन्म का मुख्य बिंदु (केन्द्र)था। इसके बाद जनवादी आंदोलन जहां–जहां बढ़ा वहां वहां नुक्कड़ नाटक अलग–अलग रूप से प्रस्तुत किया गया। मसलन चीन क्रांति के दौरान मार्च के महीने में सैंकड़ों नुक्कड़ नाटक खेले गए। स्पेन में गृहयुद्ध के समय छोटे–छोटे समय छोटे–छोटे नाटक हो रहे थे। लैटिन अमेरिका तथा मैक्सिको मे जन संघर्ष हुआ। वहां अलग–अलग रूप में नुक्कड़ को देखा गया। अमेरिका में 30–50 के दशक में कामकाजी(मजदूर) लोगों के बीच अधिक नुक्कड़ नाटक खेले गए। इंग्लैंड में अलग–अलग समय में मजदूरों का आंदोलन छिड़ा, जैसे– कोयला खदानों में, बड़े–बड़े शहरों में वहां 1930, 40, 50, 60 तक के दशक में नुक्कड़ नाटक खेले गए। हमारे देश में 40 के दशक में राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन चरम सीमा पर था। उस दौरान 'भारतीय लोक रंगमंच संस्थान' की छत्रछाया में बहुत नुक्कड़ नाटक हुए थे। पर उनकी कोई पांडुलिपि उपलब्ध नहीं है। आज़ादी के बाद उत्पल दत्त चुनाव के समय नुक्कड़ नाटक किया करते थे। हिंदी क्षेत्र में नुक्कड़ नाटकों का आरंभिक दौर बहुत उथल–पुथल का था।  आपात्कालीन समय की परिस्थितियों से नुक्कड़ नाटक निकले। इस प्रकार नुक्कड़ नाटकों का जन्म हुआ।

नुक्कड़ नाटकों में आपकी रूचि कैसे उत्पन्न हुई?

जनवादी नाट्य मंच ने 1973 में काम करना शुरू किया। हमारे काम का प्रमुख उद्देश्य था कि स्वस्थ चिंतन एवं संदेश जनता के बीच पहुंचे। साधारण जनता मंचीय नाटकों तक आए, इसके विपरीत हम नाटक को जनता के बीच ले गए। कभी हमने मंचीय नाटकों को प्रेक्षागृह में खेला, तो कभी चौपालों, मैदानों, चबूतरों पर स्टेज लगाकर बड़े नाटक खेले। 1975 में आपातकाल के दौरान जनवादी नाट्यमंच का काम बंद सा हो गया। उस समय दो नाटक किए तो जनता ने हमारे काम की सराहना की। तो जब यह बात सामने आई कि छोटे नाटक जनता के बीच में ले जाएं। इसी विचार से नुक्कड़ नाटक का दौर शुरू हुआ। मंचन हेतु हमें छोटे नाटक नहीं मिले जो जनता को तथा हमें पसंद आए। फिर हमने स्वयं नाटक लिखे। हमने यह बहुत नया तथा मौलिक कार्य किया। इससे पहले पूर्व लिखित नाटक करते थे। सबसे पहले 'मशीन' नामक छोटा नाटक लिखा, जिसे हमने अक्टूबर 1978 में खेला। लोगों की प्रतिक्रिया के बाद मालूम हुआ कि नुक्कड़ नाटक में असीम संभावनाएं हैं और हमें अधिक खोज करने की आवश्यकता है। तत्पश्चात् 'मशीन' की काफी प्रस्तुतियां की। इसके साथ फिर मैं जुड़ती चली गई। आज तक जनवादी नाट्य मंच के साथ नुक्कड़ नाटक प्रस्तुत कर रही हूं।

नुक्कड़ नाटक प्रेक्षागृह में मंचित नाटकों से किस तरह भिन्न है?

थिएटर के प्रति भिन्नता का दृष्टिकोण रखना एक गलत रवैया है। संभावना क्या है, क्या–क्या कार्य करने की संभावना है, लगातार उसके साथ जूझते रहकर नई–नई संभावनाएं पैदा करना ही सार्थकता है। किसी विधा को खांचे में न डालकर देखें, उसे व्यापक होने दे। कविता में, उपन्यास में, कहानी में क्या फर्क है, इस प्रश्न को छोड़कर हमें उनकी असीम संभावना को देखना चाहिए। नुक्कड़ नाटक तथा मंचीय नाटक में कोई विकल्प, विपरीतता, विरोधाभास नहीं है। दोनों की अपनी जरूरतें हैं, सर्जनात्मकता अलग–अलग है।

नुक्कड़ नाटक के कथ्य, विषय एवं रूप के बारे में कुछ बताइए।

नुक्कड़ नाटक का विषय कोई भी हो सकता है। रचना में पैनापन होना चाहिए। रचना में लचीलापन होना चाहिए। नुक्कड़ नाटक अधिक लंबा नहीं होता। इसका मंचीय समय 30–45 मिनट तक होता है। इसके अंदर किसी एक घटना की परिणति तक पहुंचने के लिए समय अधिक नहीं लगाते। विस्तृत (विशाल) विषय नहीं होता है। पृष्ठभूमि बड़ी हो तो नुक्कड़ नाटक के कथन को समाने में दिक्कत होती है। कथ्य में संक्षिप्तता हो। नुक्कड़ नाटक में म्यूजिक टेप, प्रकाश आदि साधन प्रयोग नहीं कर सकते हैं। परंतु मास्क, झंडे, कपड़े आदि प्रयोग कर सकते हैं। भावाभिव्यक्ति सशक्त हो। अभिनय द्वारा यथार्थ की अनुभूति कराने की आवश्यकता होती है। संवाद, घटना आदि का विशेष ध्यान रखा जाए। दर्शक आपकी कल्पना के साथ चलने को तैयार हो।

नुक्कड़ नाटक को अधिक लोकप्रिय बनाने में सफदर हाशमी तथा आपका बहुत योगदान है। यह कैसे संभव हुआ?

लोकप्रिय बनाने में 'जनवादी नाट्यमंच' का योगदान बहुत रहा है। इसके साथ ही इस विधा को ख्याति दिलाने में सफदर हाशमी का काम प्रशंसनीय रहा। वह सृजनशील व्यक्ति थे। यह लोकप्रियता इसलिए मिली, क्योंकि अभिनय द्वारा कला आम जन से जुड़ रही थी। नुक्कड़ नाटक व्यक्तियों के सामने सवाल एवं मनोरंजन पैदा कर रहा था। 'जनवादी नाट्यमंच' ने 78 से नुक्कड़ नाटक करने आरंभ किए। 21 साल के लंबे समय में 54 मौलिक नाटकों की 7 से 8 हजार तक प्रस्तुतियां की है। जनता के लिए नए–नए नुक्कड़ नाटक बनाकर हम निरंतर प्रस्तुत कर रहे हैं। संभावनाओं को सार्थक करने की कोशिश की जा रही है। हमारे काम से नुक्कड़ नाटक मंडलियां पैदा तथा प्रेरित हुईं। हमारे बहुत–से नुक्कड़ नाटकों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। मसलन 'औरत' सभी भारतीय भाषाओं में अनूदित हुआ है। हिंदी भाषी क्षेत्र में हमारे नुक्कड़ नाटक के मंचन इतने होते हैं कि जब हमें पता लगता है तो बहुत हैरानी होती है। नुक्कड़ नाटकों का प्रचार–प्रसार महाविद्यालयों में तथा स्कूलों में भी अलग–अलग स्तर पर हुआ है। यही बातें लोकप्रियता में सहायक सिद्ध हुई।

क्या आप मानती हैं कि जन आंदोलन को प्रभावित करने में नुक्कड़ नाटक एक सशक्त माध्यम है?

जन आंदोलन को नुक्कड़ नाटक प्रभावित करता है। समाज में हो रही घटनाएं, जन का संघर्ष, पीड़ा आदि चीजें कला को प्रभावित करती है। ऐसा नहीं कि कला सामाजिक परिवर्तन नहीं लाती है। कला समाज के बदलाव में प्रगतिशील गतिविधियों के साथ खड़े होकर परिवर्तन–संघर्ष में योगदान देती है। समाज में ही राजनीति समाहित है।

अन्य दृश्य विधाओं की अपेक्षा आज नुक्कड़ नाटक की क्या स्थिति है?

तुलनात्मक मूल्यांकन करना सहज नहीं है। लोगों का यह मानना है या धारणा है कि नुक्कड़ नाटक को करने में समय कम लगता है और करना भी आसान है, परंतु ऐसा नहीं है। मगर एक बात अवश्य है कि बहुत–से लोग रचनाकर्म से जुड़ना चाहते हैं। इसलिए वे नुक्कड़ नाटक को आसान विधा सोचकर अपनाते है। दिल्ली एक बड़ा शहर है इसलिए यहां ज्यादा व्यक्ति इस रचनाकर्म से जुड़ नहीं पाते। दिल्ली से दूर छोटे–छोटे शहरों, कस्बों आदि क्षेत्रों में काफी नुक्कड़ नाटक होते हैं। इस विधा का विस्तार हो रहा है लेकिन एक दिक्कत है कि लोग ज्यादातर (90 प्रतिशत) अपने मौलिक नुक्कड़ नाटक नहीं निकाल पा रहे हैं। उन्हें जो नाटक मिल जाते हैं, उन्हीं को अपने तरीके से करते हैं। अगर हम स्वयं अपना मौलिक नुक्कड़ नाटक तैयार करें तो और अधिक उछाल आएगा। अपने–अपने क्षेत्र से जुड़ा हुआ वास्तविक (यथार्थवादी) नुक्कड़ नाटक सामने आए तो उसमें पैनापन एवं लोकप्रियता अधिक होगी। अपने बनाए नाटक अधिक करें, लेकिन साथ ही दूसरों के नाटक भी करें।

नुक्कड़ नाटक के समक्ष वर्तमान में क्या चुनौतियां हैं?

प्रमुख चुनौती यही है कि दिन–प्रतिदिन अच्छे मौलिक नुक्कड़ नाटकों की रचना हो। इस विधा की सार्थकता एवं महत्व को समझा जाए। नुक्कड़ कर्मियों द्वारा मेहनत, लगन तथा कर्तव्य समझकर काम करने की कोशिश की जाए। समाज में फैली विसंगतियों एवं बुराइयों को समाप्त करने की कोशिश एवं बदलाव की चुनौती नुक्कड़ नाटक को स्वीकारनी चाहिए।

इतने लंबे सफर में आपने क्या अनुभव किया?

महत्वपूर्ण अनुभव यह है कि दर्शक हमारे नुक्कड़ नाटक बड़े चाव से देखते हैं। चाव से देखने के बाद हमसे आकर बात भी करते हैं, बहस भी करते हैं, सुझाव भी देते हैं। यह जो प्रतिक्रिया मिलती है यही सर्जनात्मकता का स्रोत है। जो दर्शक नुक्कड़ नाटक औरपचारिकता से देखकर चले जाते हैं, जाहिर है, उन पर प्रभाव नहीं छोड़ता। लेकिन जो वास्तव में गंभीर होकर अवलोकन करते हैं, वे हमसे बात करते हैं, हमें याद करते हैं। एक बार किसी जगह नुक्कड़ नाटक करने के पश्चात दुबारा उसी जगह नुक्कड़ नाटक करने जाते हैं तो वहां के दर्शकों को पहले नुक्कड़ नाटक की मूल बात याद रहती है। यह अपनापन ही हमें ऊर्जा तथा प्रेरणा देने का काम करता है।

लोकप्रिय विधा : नुक्कड़ नाटक

आज के समय में नाटक एक लोकप्रिय विधा है। दिन–प्रतिदिन नुक्कड़ नाटक मंडलियों का जन्म हो रहा है। क्योंकि नुक्कड़ नाटक अन्य विधाओं की अपेक्षा दर्शकों पर तत्काल प्रभाव छोड़ता है। यह व्यक्तियों को नई सोच भी प्रदान करता है। आज विभिन्न संस्थाएं भी अपने संदेश को लोगों तक पहुंचाने के लिए नुक्कड़ नाटक को माध्यम बनाती है। यह विधा दिन–प्रतिदिन लगातार लोकप्रिय होते हुए अभिव्यक्त का सशक्त माध्यम भी बन गई है।

नुक्कड़ नाटक मजमा शैली में आया। कोई मदारी जब तमाशा दिखाता है तो वह पहले विभिन्न तरीकों से भीड़ इकठ्ठी करता है। जब अच्छा–खासा मजमा जमा हो जाता है, तो वह अपने खेल का प्रदर्शन करता है। इसी प्रकार नुक्कड़ नाटक मंडलियां भी मजमा लगाकर अपने संदेश को लोगों तक पहुंचाती है। इसलिए इसका प्रदर्शन अधिकतर वहां किया जाता है जहां काफी संख्या में दर्शक मौजूद हों तथा उनके साथ नुक्कड़ नाटक में समाहित संदेश का संबंध हो।

नुक्कड़ नाटक लोगों के पास स्वयं पहुंचा। अन्य विधाओं तक वो लोग स्वयं जाकर तथा रूपये खर्च करके किसी प्रस्तुति (मंचनीय) विधा का लुत्फ उठाते है। इसके विपरीत नुक्कड़ दर्शकों के पास स्वयं पहुंचकर बिना किसी शुल्क के आनंद प्रदान करता है। यह किसी व्यक्ति को जबर्दस्ती देखने को मजबूर नहीं करता। आधुनिक मानव के पास समय का अभाव है। यह 'फास्ट फूड' की तरह एक स्वस्थ मनोरंजन एवं संदेश प्रदान करता है। कम समय में यह अपने संदेश द्वारा लोगों में अलख जगाने का कार्य तो करता ही है, साथ ही जीवंत अनुभूति भी दिखाता है।

नुक्कड़ नाटक के पास कम साधन होने के बाद भी यह दर्शक को यथार्थ के दर्शन कराता है। प्रेक्षागृह, संगीत, प्रकाश आदि संसाधनों का तिरस्कार करके नुक्कड़ नाट्यकर्मी अपने अभिनय द्वारा यथार्थ की पृष्ठभूमि का निर्माण करते हैं। उनको अपने अभिनय से ही दर्शकों को बांधना पड़ता है। नुक्कड़ कर्मी अभिनय के द्वारा ही नदी, पर्वत, संगीत आदि यथार्थवादी और काल्पनिक चीजों को अपनी प्रस्तुति द्वारा हमारे समक्ष उपस्थित करते हैं। इनके अभिनय में रस प्रदान करने वाला आनंद होता है, और वह स्वाभाविक होता है। नुक्कड़ नाटक बनावटी वस्तुओं को नकारता है और स्वाभाविकता को स्थापित करता है। इस स्वाभाविकता को स्थापित करने का काम 'जनवादी नाट्यमंच' ने बड़े ही अच्छे ढंग से किया है। 'जनवादी नाट्यमंच' ने भारत में इस विधा को लोकप्रियता तो दिलवाई ही, साथ ही साथ इसमें नए–नए प्रयोग भी किए। जैसे इस मंच के सभी कलाकार कुर्ता–पाजामा पहने, बिना किसी अन्य साधन के अच्छे रोचक, तात्कालिक, स्वाभाविक नाटक प्रस्तुत करते आए हैं। इन प्रयोगों को खरा सिद्ध किया सफदर हाशमी ने।

तात्कालिक घटनाएं, समाज में फैली विसंगतियां ही अधिकतर नुक्कड़ नाटक का विषय बनती है। नुक्कड़ नाटक जन–आंदोलन को प्रभावित करने का काम भी करता है। इसका विषय ज्यादा विस्तृत या ज्यादा सीमित न हो। इसके अंदर 30–35 मिनट के एक लघु नाटक का मंचन होता है। इसके प्रस्तुत करने वाले कलाकारों में पात्रों को जीवंतता प्रदान करने की निपुणता होनी चाहिए। यह लोगों(दर्शकों) पर तत्काल प्रभाव छोड़ता है, यही इसकी लोकप्रियता का प्रमुख कारण भी है। यह कम साधन, कम समय में ही अधिक की उपलब्धि कराता है।

(आजकल से साभार)

 
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