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                         चैत्र 
                        नववर्ष पर 
                        
                        घोटिया अंबा में
                        झरतानव वर्ष का संगीत
 डॉ. दीपक आचार्य
 
 भारतीय 
                        संस्कृति में वर्ष का शुभारम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से 
                        होता है जब अमावस्या की काली रात के साथ वर्ष का समापन 
                        होकर नवप्रभात का सूरज उल्लास की रश्मियाँ बिखेरता है और 
                        शुक्ल पक्ष की दूधिया चाँदनी उमंग की सुधा बरसाती है।
                        देश भर में चैत्री नव वर्षोत्सव की अनेकानेक 
                        इन्द्रधनुषी परम्पराएँ, मुग्ध कर देने वाले अनुष्ठान, लोक 
                        रंग और अनूठे टोने-टोटके सदियों से विद्यमान रहे हैं। देश 
                        के जनजाति बहुल इलाकों में आज भी नव वर्ष के आवाहन की ऐसी 
                        मनोहारी परम्पराएँ विद्यमान हैं जिनका दिग्दर्शन आह्लाद का 
                        ज्वार उमड़ा देने वाला है।  राजस्थान 
                        के सुदूर दक्षिण में मध्यप्रदेश और गुजरात के सटे वाग्वर 
                        प्रदेश (वागड़) में नव वर्ष का अभिनन्दन विशेष शैली में 
                        किया जाता है। वहाँ झंकृत होती रहती हैं लोक नृत्यों की 
                        स्वर लहरियाँ, वातावरण में बिखरते हैं लोक रंग और पावन 
                        सलिलाओं का स्वागत गान उफन-उफन कर हिलोरें लेता हर किसी को 
                        मदमस्त कर देता है। इस अँचल का हर पर्व, तीज-त्योहार और 
                        मेला, मेल-मिलाप की पुरातन संस्कृति का प्रतीक रहा है 
                        जिसमें वनवासी संस्कृति के पुरातन रंग और भीनी-भीनी महक 
                        फैलाते रस समाए होते हैं। घर-गृहस्थी में उलझे दैनिक जीवन 
                        से कोसों दूर रहकर पुराने वर्ष की विदाई और नव वर्ष के 
                        स्वागत की परम्परा यहाँ के लोग दुर्गम जंगलों में अवस्थित 
                        घोटिया आम्बा तीर्थ के पहाड़ों में पूरी करते हैं जहाँ की 
                        उपत्यकाएँ 'जंगल में मंगल' का जयगान कर पूरे वनाँचल को नव 
                        वर्ष का संदेश देती हैं। जाने 
                        कितने युगों से सतत प्रवह्मान इस परम्परा में पाण्डवों की 
                        विहारस्थली रहे घोटिया आम्बा तीर्थ पर हर साल होली के 
                        पन्द्रह दिन बाद विक्रम संवत के अंतिम दिन अमावस्या को 
                        लगने वाले मेले में इस सीमावर्ती अँचल के हजारों-हजार 
                        वनवासी अपने परिवार के साथ यहाँ आकर सामूहिक रूप से पुराने 
                        वर्ष को विदा कर नव वर्ष के स्वागत में उत्सव मनाते हैं।
                        इसमें 
                        मेलार्थी खाने-पीने का सामान अपने साथ लाते हैं व घोटिया 
                        आम्बा तीर्थ के देवस्थलों में दर्शन व मेले का आनंद लेते 
                        हैं। कई किलोमीटर छितराए पहाड़ों के आँचल में ये समूह 
                        दाल-बाटी, चूरमा, दूध-पानीये आदि पका कर परिजनों के साथ 
                        सामूहिक गोठ (पिकनिक) कर मौज-मस्ती लूटते हैं तब पारिवारिक 
                        सौहार्द और प्रगाढ़ आत्मीयता की लहरें उफन-उफन कर वनाँचल की 
                        पारंपरिक मैत्री और सद्भाव का पैगाम गूँजाती प्रतीत होती 
                        हैं। घोटिया 
                        आम्बा का मनोहारी नैसर्गिक परिवेश ही ऐसा है कि यहाँ आने 
                        वाला हर कोई जीवन के संत्रासों, विषादों और भविष्य की तमाम 
                        आशंकाओं को भूल कर असीम आनंद के सागर में डूब जाता है।
                        रमणीय 
                        घोटिया आम्बा क्षेत्र में चारों और बडे़-बडे़ वृक्षों से 
                        भरी पहाड़ियाँ, दुर्गम घाटियाँ, शीतल जल के सोते और वन्य 
                        जीवों की अठखेलियाँ प्रकृति के अनुपम वैभव को व्यक्त करती 
                        है तो राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश के सीमावर्ती अँचलों 
                        से परम्परागत परिधानों में जमा वनवासी स्त्री-पुरुषों, 
                        लोकवाद्यों के साथ फाल्गुनी गीतों की झंकार और नृत्यों के 
                        मनोहारी दृश्य वनवासी संस्कृति के प्राणों को बखूबी 
                        रूपायित करती है। करीब दो 
                        लाख से ज्यादा वनवासी इस परम्परागत मेले में नव वर्ष का 
                        स्वागत करने जुटते हैं। इनका मस्ती भरा माहौल मेले के लिए 
                        अपने घर से रवाना होते समय ही शुरू हो जाता है जब ये 
                        समूहों में पैदल ही पहाड़ी रास्तों से होते हुए फागुनी 
                        बयारों के साथ पहुँचते हैं। 
                        ढोल-ढमकों, कोण्डियों व थालियों को बजाते हुए लोक लहरियों 
                        का संचरण करते इन मेलार्थियों का उत्साह उनके उल्लसित 
                        चेहरों और लोक गीतों की स्वर लहरियों से निरन्तर झरता ही 
                        रहता है। भगत परम्परा के लोग घोटिया आम्बा के जंगलों में 
                        आकर भगवान का स्मरण करते हुए अलग-अलग समूहों में जमा होकर 
                        भजन-कीर्तन व संत वाणियों का गान करते हुए अगले वर्ष में 
                        सुख-समृद्वि के लिए कामना करते हैं।  वनवासी समाज सुधारक एवं संत महात्मा भी बड़ी संख्या में 
                        यहाँ पहुँचकर धार्मिक एवं समाजिक चेतना का संचार करते हैं। 
                        नव वर्ष के स्वागत और अभिनन्दन के उल्लास में नहाते 
                        मेलार्थी यहाँ रंगझूलों व चकड़ोल में बैठकर हवा में तैरने 
                        का आंनद लेते हैं और मेले का भरपूर लुत्फ उठाने के बाद 
                        जंगल के पहाड़ों पर खुले आसमान तले खो जाते हैं नींद के 
                        आगोश में। महुए का पुष्प रस भी इस मेले में अपनी मदमस्ती 
                        भरी गंध बिखेरता दीख ही जाता है। विक्रम 
                        संवत की पहली प्रभात चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को बड़े सवेरे उठ 
                        कर पवित्र कुण्डों में स्नान व देव-दर्शनादि कर वर्ष अच्छा 
                        गुज़रने व खुशहाली की प्रार्थना के बाद मेलार्थी 
                        मेला-बाजारों से खरीदारी कर, नूतन 
                        उमंग, उल्लास व संकल्प के साथ अपने घर की राह लेते हैं। अंग्रेज़ी वर्ष के भड़काऊ शहरी आयोजनों को कहीं पीछे धकेल 
                        देने वाले इस नव वर्ष अभिनन्दन मेले में शहरी लोग भी 
                        परिजनों के साथ आकर सामूहिक पिकनिक का आनंद लेते है और 
                        प्रकृति की गोद में रहकर नई ताज़गी का अनुभव करते हैं। पाँच-सात 
                        दिन तक चलने वाले इस मेले में लोग बीते वर्ष की खट्टी-मीठी 
                        यादों को लेकर आते हैं और दिल खोलकर मस्ती के दरिया में 
                        नहाने के बाद भगवान की साक्षी में नया साल अच्छा गुजरने की 
                        कामना और कई-कई नवीन संकल्पों को लेकर चेहरे पर उन्मुक्त 
                        हास्य और हृदय में प्रबल आत्मविश्वास पाकर लोटते हैं और 
                        जुट जाते हैं घर-गृहस्थी और समाज के लिए कुछ करने...। नव 
                        वर्ष का यह पारंपरिक अभिनन्दन सदियों से प्रकृति प्रेम और 
                        जंगल में मंगल का पैगाम सुना रहा है। 
                        १ मार्च 
                        २०१० |