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संस्कृति


अग्नि- सभ्यता के विकास की महत्वपूर्ण कड़ी

-डॉ. दया ललित श्रीवास्तव


अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नधातमम्।
अग्निना रयिमश्नवत् पोषमेव दिवेदिवे यशसं वीरवत्तमम्।।
अर्थात्, ‘यज्ञ के देवों को बुलाने वाले तथा रत्नों के श्रेष्ठ दाता अग्नि की स्तुति करता हूँ जिनके द्वारा दिनों-दिन बढ़ने वाला धन, संपत्ति और यश प्राप्त हो।’ ऋग्वेद के प्रथम मंडल के प्रथम सूक्त (अग्नि सूक्त) में अग्नि की प्रार्थना में आगे कहा गया है-‘अंधकार को प्रकाशित करनेवाले हे अग्नि ! तुम हमारे लिए सुगम बनो, जैसे पिता अपने पुत्र के लिए सुगम होता है और हमारे कल्याण के लिए हमारे साथ रहो।’

ऋग्वैदिक युग में अग्नि के उपयोगी स्वरूप को भली-भांति समझ लिया गया था और तभी उसे देवमंडल में सम्मिलित किया गया था। अग्नि की महत्ता इसी बात से समझी जा सकती है कि ऋग्वेद जैसे अपौरुषेय ग्रंथ के प्रारंभ में ही स्वस्ति प्रदान करने के लिए उसकी स्तुति की गयी है। क्यों न हो ? अग्नि यज्ञ का माध्यम था और यज्ञ धन-धान्य, यश, सुख, आरोग्य आदि प्रदान करने का सबल साधन। यज्ञ करवाने वाला यजमान यज्ञवेदी में हविष या बलि अर्पित करता था और अग्नि उस हविष को निमित्त देवता तक पहुंचाकर यजमान का कल्याण-मार्ग प्रशस्त करता था। इसीलिए अग्नि धन-धान्य और यश का प्रदाता माना जाता था।

आविष्कार अग्नि का

अग्नि का आविष्कार मानव सभ्यता के विकास की महत्वपूर्ण कड़ी थी। जिस प्रकार कृषि और पहिए की जानकारी ने मानव सभ्यता के विकास में, क्रांतिकारी योगदान दिया था, उसी प्रकार का योगदान अग्नि का रहा। सच कहा जाए तो अग्नि ने ही मनुष्य को मनुष्य बनाया, अन्यथा वह किसी पशु से अधिक नहीं था।

जैसे अन्य वन्य प्राणी शिकार करके भोजन पाते थे, वृक्षों के कोटरों या पर्वतों की खोहों में छिपकर आँधी, धूप, बारिश और अपने से बड़े हिंसक पशुओं से अपनी रक्षा करते थे, उसी प्रकार पहले मनुष्य का भी जीवन था। वह जंगलों में इधर-उधर घूमा करता था। पत्थरों के टुकड़ों को घिसकर उन्हें नुकीला बनाकर वह वृक्षों से फल तोड़-तोड़कर खाता था या फिर छोटे-मोटे जंगली जानवरों का शिकार करके उनके कच्चे मांस से अपना पेट भरता था। सोचिए, कितना हिंसक था मनुष्य। क्या वह किसी पशु से कम था ?

एक दिन मनुष्य द्वारा मारा गया कोई पशु अनायास जंगल की आग में भुन गया। मनुष्य ने जब उसे खाया, तो वह उसे रोज से अधिक स्वादिष्ट लगा। तब से मनुष्य ने आग की खोज शुरू कर दी, ताकि वह मांस को उसमें भूनकर खा सके। चकमक पत्थरों की रगड़ से आग की चिनगारियाँ निकलती हैं, यही ज्ञान तत्कालीन मनुष्य को आग की खोज का कारण बना। तब से मनुष्य ने पशुओं के मांस को भूनकर खाना प्रारंभ कर दिया। उस काल में मनुष्य को आग से और भी कई उपयोग सूझे। सरदी के मौसम में आग की आँच से उसे बड़ा सुख मिला। आग जलाकर हिंसक पशुओ से अपनी रक्षा करने का उपाय भी उसने ढूंढ निकाला और अग्नि के प्रकाश से अंधकार को दूर करने का भी।

अग्नि की इस खोज से मानव के जीवन में युगांतरकारी परिवर्तन हुए। आगे चलकर जब मनुष्य ने कृषि की जानकारी प्राप्त कर ली, तो उसने अपने खेतों के पास ही अपने स्थायी घर बना लिए। कृषि के लिए पशुपालन आवश्यक था। गाय का दूध और खेती से उत्पन्न अनाज ने मनुष्य को शाकाहारी बना दिया। अब नियमित रूप से वह अनाज को अग्नि में पकाकर अपने भोजन को स्वादिष्ट बनाने लगा। शायद, इसी अवस्था में मनुष्य ने दाल, रोटी और शाक-सब्जी बनाना सीखा होगा।

धीरे-धीरे मनुष्य सूर्य, आकाश, पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि आदि के गुणों और उनके उपयोगी स्वभाव से परिचित होता गया। अपने जीवन में उनके महत्वपूर्ण योगदान का ज्ञान होने पर उसने उन्हें देवता मानकर उनकी पूजा-अर्चना आरंभ कर दी। प्रारंभिक वैदिक देवमंडल में प्रकृति के यही अंग सम्मिलित थे। सूर्य और चंद्र आकाश के, इंद्र, मरुत (वायु) आदि अंतरिक्ष के और जल, वनस्पति, अग्नि आदि पृथ्वी के देवता माने गये। आकाश और पृथ्वी भी देव-कोटि में ही थे।

तीन तरह की अग्नियाँ

अग्नियाँ तीन प्रकार की मानी गयी हैं- दावाग्नि, वड़वाग्नि और जठराग्नि। जंगल में पेड़ की सूखी शाखाओं व पत्तों के घर्षण से उत्पन्न अथवा आकाश से गिरी बिजली से लगी आग को दावानल कहते हैं। वड़वाग्नि समुद्र के भीतर होती है। दिन-रात नदियों का पानी समुद्र में गिरने के बावजूद उसमें कभी बाढ़ नहीं आती, क्योंकि नदियों से आने वाले पानी को समुद्र की अग्नि वड़वा उसे सदैव सोखती रहती है। जठराग्नि शरीर के भीतर होती है। इससे एक तो शरीर का तापमान नियंत्रित रहता है, जिससे वह सदैव चुस्त-दुरुस्त रहता है, और दूसरे जो भी खाया-पिया जाता है वह जठराग्नि द्वारा पचा दिया जाता है। लिंगपुराण में भी तीन प्रकार की अग्नियों का उल्लेख है। मंथन से प्राप्त अग्नि को पवमान, सूर्य से प्राप्त अग्नि को शुचि और आकाश के बादलों से प्राप्त अग्नि को वैद्युत कहा गया है। वैदिक कर्मकांड में गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणात्य नामक तीन प्रकार की अग्नियों का उल्लेख मिलता है। वैदिक देवताओं में इंद्र के बाद अग्नि का दूसरा महत्वपूर्ण स्थान था। अग्नि के माध्यम से ही देवताओं को, आहुतियों में डाले गये उनके बलि-भाग उन्हें प्राप्त होते थे। गृहस्वामी का कल्याण करने और सदैव गृह में वास करने के कारण ही अग्नि को गृहदेवता का सम्मानित पद प्राप्त हुआ था। अग्नि को घर में सदैव बनाये रखने का विधान था, ताकि जब भी आवश्यकता हो अग्नि का उपयोग किया जा सके।

कालांतर में अग्नि का कल्याणी स्वरूप विकसित हुआ। अपने कल्याण्कारी स्वभाव के कारण ही अग्नि ने सती को उनके पिता दक्ष प्रजापति द्वारा किये जाने वाले यज्ञ में अपमान में मुक्ति दिलायी, लंका से वापसी में सीता की पवित्रता प्रमाणित की, भगवद्भक्ति में लीन बालक प्रह्लाद की रक्षा की और जौहर की ज्वाला बनकर कर्मवती तथा अन्य राजपूत ललनाओं की लाज बचायी।

अग्निदेव का अंकन शिल्प में

भारतीय मूर्ति-शिल्प में अग्निदेव की अनेक प्रतिमाएँ अंकित हैं इन प्रतिमाओं का स्वरूप-निर्धारण, पूजा-विधान और कर्मकांड के ध्यान मंत्र में चिरकल्पित अग्नि के स्वरूप के आधार पर किया गया था। ध्यान मंत्र इस प्रकार है-

सप्तहस्तश्चतुश्रंगः सप्तजिह्वो द्विशीर्षकः
त्रिपाद प्रसन्नवदनः सुखासीनः शुचिस्मितः।
स्वाहां तु दक्षिणे पार्श्वे देवीं वामे स्वधां तथा
विभ्रद्दक्षिइस्तैस्तु शक्तिमन्नं स्रुचं स्वरम्।
तोमरं व्यजनं वामैर्घृतपात्रं च धारयन्
मेषारुढ़ो जटाबद्धो गौरवर्णः महौजसः।
धूम्रध्वजो लोहिताक्षः सप्तार्चिः सर्वकामदः
आत्माभिमुखमासीनः एव रूपो हुताशनः।

अर्थात्, अग्नि के सात हाथ, चार सींग, सात जिह्वाएँ, दो मस्तक और तीन पैर हैं। उनके दायें-बायें पार्श्वों में उनकी पत्नियाँ-स्वाहा तथा स्वधा हैं। अग्नि के दायें हाथ में शक्ति, अन्न, स्रुक तथा स्रुव और बायें हाथ में तोमर, व्यंजन और घृत-पात्र है। मेष पर सवार हैं और उनका वर्ण गौर है। उनके शरीर पर जटाजूट है, उनकी प्रसन्न मुखमुद्रा पर तेज विराजमान है, उनकी ध्वजा धूम की है, उनके नेत्र लाल हैं। सर्वकामनाओं को फलीभूत करनेवाले अग्नि का यही स्वरूप है।

महाभारत के खिलपर्व हरिवंश में भी अग्नि को गांठ बंधा जटाजूट और उगते सूर्य के समान लाल नेत्रों वाला बताया गया है। भारतीय शिल्प ग्रंथों में अग्नि को द्विभुजी अथवा चतुर्भुजी तपस्वी के रूप में बनाने का प्रावधान है। उनके हाथों में वर, कमंडल, शक्ति, अक्षमाला अथवा ज्वाला, स्रुक, स्रुव आदि आयुध बताये गये हैं। उनका वाहन मेष अथवा छाग (अज यानी बकरा) है। जटाजूट, श्मश्रु तथा यज्ञोपवीत उनकी पहचान के अन्य चिह्न हैं।

भारतीय कला में अग्नि का प्राचीनतम अंकन पंचाल-नरेश अग्निमित्र के सिक्कों पर पाया गया है, किंतु उनकी प्रस्तर प्रतिामएँ कुषाणकाल से बनायी जाने लगी थीं। इस युग की गढ़ी गयी अग्नि की प्रतिमाएँ राजकीय संग्रहालय, मथुरा तथा राज्य संग्रहालय, लखनऊ में प्रदर्शित हैं। मानव रूप में अंकित इन प्रतिमाओं के शीश पर जटाजूट, कंधे पर यज्ञोपवीत और हाथ में कमंडल है। वे तुंदिल बनाये गये हैं। उनके पीछे उकेरी गयी ज्वालाओं से उनकी पहचान सरल हो जाती हैं गुप्त काल में मेष पर सवार अथवा पैरों के निकट मेष वाहन समेत अग्नि की मूर्तियाँ बनायी जाने लगी थीं।

अष्ट दिक्पाल

आगे चलकर अग्नि अष्ट दिक्पालों में सम्मिलित कर लिये गये। वे दक्षिण-पूर्व दिशा के लोकपाल माने गये थे। इस रूप में अग्नि का उल्लेख विष्णुधर्मोत्तर पुराण और मत्स्य पुराण में पाया जाता है। एलोरा की सोलहवीं गुफा में अग्नि की चार मूर्तियाँ हैं, जिनमें उन्हें द्विभुज दिखाया गया है और अज उनका वाहन है।

मध्यकाल में अग्नि की उत्कीर्ण स्थानीय मूर्तियाँ इलाहाबाद, झांसी तथा लखनऊ संग्रहालयों में देखी जा सकती हैं। इलाहाबाद संग्रहालय में चित्रकूट (जिला बांदा), मानिकपुर (जिला प्रतापगढ़) तथा कड़ा (जिला इलाहाबाद) से पायी गयी मूर्तियाँ हैं श्मश्रु, यज्ञोपवीत और पैरों के निकट मेष वाहन से इन चतुर्भुजी मूर्तियों की पहचान निःसंदिग्ध है। कड़ा वाली मूर्ति की दोनों बायीं भुजाएँ टूट चुकी है। उसकी दायीं भुजाओं में स्रुक तथा अक्षमाला है। मानिकपुर वाली मूर्ति के ऊपरी हाथों में स्रुक तथा स्रुव है, निचले बायें हाथ में कमंडल है और निचला दायाँ हाथ वरद मुद्रा में है। इन मूर्तियों में ज्वालाओं से युक्त प्रभामंडल भी है।

झाँसी संग्रहालय में ललितपुर जिले के सिरोन खुर्द नामक स्थान से मिली दो मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं। इंद्र के साथ उकेरी गयी अग्नि की ये मूर्तियाँ त्रिभंगी मुद्रा में हैं। जटाजूट, श्मश्रु, यज्ञोपवीत, वनमाला और मेषवाली इन मूर्तियों की ऊपरी भुजाएँ खंडित हैं, निचली बायीं भुजा में कमंडल है और दायीं वरद मुद्रा में है। एक मूर्ति में ज्वालाओं से बने प्रभामंडल का कुछ हिस्सा बच रहा है। इन्हीं लक्षणों से युक्त तथा ज्वालाओं वाले प्रभामंडल वाली दो अग्नि की मूर्तियाँ लखनऊ संग्रहालय की शोभा बढ़ा रही हैं। ये मूर्तियाँ मिर्जापुर तथा गोरखपुर से प्राप्त हुई है। मध्यकालीन ये सभी मूर्तियाँ ११वीं शती की हैं।

खजुराहो के मंदिरों में अष्ट दिक्पालों का उल्लेखनीय अंकन पाया गया है। पार्श्वनाथ नामक जैन मंदिर में अन्य ब्राह्मण देव-प्रतिमाओं के साथ चतुर्भुजी, तुंदिल अग्नि का भी अंकन है। उनके पैरों के निकट उनका वाहन मेष बैठा दिखाया गया है। अग्नि की प्रतिमाएँ नालंदा, बादामी, ओसियाँ, कुंभकोणन आदि अनेक स्थानों पर भी पायी गयी हैं, जो उनकी सर्वव्यापकता की सूचक हैं।

२३ जून २०१४

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