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							समुच्चय देव लक्ष्मी गणेश
 - ललित शर्मा
 
 
 भारतीय धर्म की 
							शिक्षा पद्धति प्रतिमा-प्रतीक पूजन के रूप में प्रचलित 
							है। धर्म और अध्यात्म के रहस्यों को भारतीय संस्कृति 
							में प्रतीक-प्रतिमाओं के माध्यम से समझाया गया है। 
							देवताओं की विचित्र कल्पनाएँ की गयी हैं। उनकी 
							मुखाकृति, रहन-सहन, वाहन, विन्यासादि के ऐसे विचित्र 
							कथानक तैयार किये गये हैं कि उन्हें पढ़कर यह अनुमान 
							करना भी कठिन जान पड़ता है कि ऐसे भी कोई देवी-देवता 
							हैं भी अथवा नहीं।
 गंभीरतापूर्वक विचार करने पर यह पता चलता है कि 
							पौराणिक देवी-देवताओं के जो वर्णन मिलते हैं, उन 
							विचित्रताओं के पृष्ठ में बड़ा आध्यात्मिक रहस्य निहित 
							है। ऋषियों ने समष्टिगत चेतना और उसके अनुशासनों का 
							बोध प्रतीक-पूजा के माध्यम से करवाया है। भगवान की 
							अनेकानेक विशेषताओं को ध्यान मे रखकर आदर्शों के 
							प्रतीक देवी-देवताओं को चित्रित किया गया है। सभी 
							देव-प्रतिमाओं के पीछे भावपूर्ण संकेत सन्निहित हैं। 
							इस संकेत के माध्यम से जीवन-दर्शन के गूढ़ रहस्यों को 
							समझा और समझाया जा सकता है।
 
 प्रतिमा-प्रतीकों के दृश्य-स्वरूप के सहारे सामान्यजन 
							भी काफी कुछ जान और सीख सकते हैं। उनकी आकृतियाँ, 
							मुद्रायें आदि निर्धारित करने के पीछे यह उद्देश्य रहा 
							है कि देव परंपराओं के साथ आबद्ध नियमों, तथ्यों व 
							रहस्यों को सर्वसाधारण में समझाने का उत्साह व आकर्षण 
							बना रहे। अनेकता में एकता के मध्य वह दर्शन 
							ज्ञानवर्द्धक और मनोरंजक भी है। इस आशय में मानवीय 
							मनोविज्ञान का समुचित समावेश निहित किया गया है, जिसका 
							अवगाहन करके मनुष्य बहुत थोड़े मे सत्य और जीवन-लक्ष्य 
							की उन्मुक्त अवस्थाओं का ज्ञान उपलब्ध कर सकता है।
 
 लक्ष्मी
 
 भगवान की विभिन्न विभूतियों के समुच्चयदेव स्वरूपों 
							में से एक प्रख्यात हैं लक्ष्मी देवी। उनके स्वरूप में 
							अनेक गुणों का आभास होता है। वे मूलतः धन और ऐश्वर्य 
							की देवी हैं। मानव स्वर्ण, हीरे-मोती, महल आदि को धन 
							मानता है। यही उसका ऐश्वर्य-वैभव है। लक्ष्मी का 
							स्वरूप इसी समृद्धि का रहस्य है। यह वैभव कभी स्थाई 
							नहीं रहता, बनता-बिगड़ता रहता है। वस्तुतः यही इसका 
							स्वभाव भी है। मूलतः इस चंचल स्वभाव के कारण ही 
							लक्ष्मी को ‘चंचला’ कहते हैं। कमल-पुष्प पर विराजने के 
							कारण उनका एक नाम ‘कमला’ है। कमलासन की एक कमल-नाल 
							भूमि की ओर जा रही है, जिसका अर्थ यह है कि संसार का 
							समूचा धन-वैभव भूमि के अंतरगर्भ में छिपा है। भूमि में 
							अनेक प्रकार के मणि-माणिक्य, खनिज रत्न आदि छिपे-दबे 
							हैं, जिन्हें कमल-नाल की भाँति भूमि से चूसकर (बाहर 
							निकालकर) कमल पल्लिविति होता है और अपनी आभा, सुगंध 
							चहुंओर बिखेरता है। वह अपने लाल रंग की सुदंरता से हर 
							किसी को आकर्षित करता है। लक्ष्मी का यही सुंदर आकर्षण 
							धन-वैभव ‘कमलासन’ का प्रतीक है। लक्ष्मी का एक 
							प्रतीकात्मक विन्यास उनका वाहन उलूक (उल्लू) है। वह 
							अमंगलकारी माना जाता है। लक्ष्मीपति विष्णु का वाहन 
							गरुड़ है, जो मंगलकारी माना जाता है। इस आशय का अर्थ यह 
							है कि जो लोग केवल लक्ष्मी के उपासक होकर लक्ष्मी की 
							भक्ति करते हैं, तब लक्ष्मी उल्लू पर सवार होकर आती 
							है। इस मुद्रा में वे धन के साथ कुप्रवृत्तियाँ भी साथ 
							लाती हैं, जिससे मानव की बुद्धि धन के लालच में 
							अहंकारी तथा लोभी हो जाती है। जब लक्ष्मी के साथ 
							विष्णु की भी आराधना की जाती है और उनका भी आह्वान 
							किया जाता है, तब वे विष्णु के साथ गरुढ़ पर सवार होकर 
							संपत्ति और सद्प्रवृत्तियाँ अपने साथ लाती हैं। अतः 
							लक्ष्मी की विष्णु देव के साथ आराधना करनी चाहिए।
 
 लक्ष्मी के दोनों ओर सेवा मुद्रा में खड़े दो गजों का 
							अर्थ यह है कि वैभव-समृद्धि होने से व्यापार-व्यवसाय 
							में वृद्धि होती है। इसके संचालन हेतु योग्य और 
							कार्यकुशल व्यक्तियों को नौकरी पर रखा जाता है तथा 
							अधिक वेतन दिया जाता है। ऐसी नियुक्तियाँ अपने घर के 
							दरवाजे पर हाथी बाँधने वाली उक्ति को चरितार्थ करती 
							है। इन हाथियों की सूंड में जल उड़लते पात्र होते हैं, 
							जिनका अर्थ है कि जो व्यक्ति समृद्धि चाहते हैं, 
							उन्हें अपने अधिकारी, मालिक का विश्वास पात्र होना 
							चाहिए, जिससे ये पात्र अपने सेवा रूपी जल से मालिक का 
							हमेशा अभिषेक करते रहें।
 
 लक्ष्मी की अभय हस्त मुद्रा का अर्थ यह है कि जो अति 
							सम्पन्न व्यापारी, सेठ-साहूकार हैं और अपना 
							व्यापार-समृद्धि बढ़ाना चाहते हैं, वे अपने सेवकों, 
							कर्मचारियों को सुरक्षा का अभयदान दें। इन्हीं 
							कर्मचारियों के मानसिक और शारीरिक परिश्रम से समृद्धि 
							बढ़ती है। जड़-परिश्रम की ऐसी स्थिति में इन्हें व इन पर 
							आश्रितों के पोषण हेतु सुरक्षा व विविध सुविधा जुटा कर 
							उन्हें अभावों, कष्टों से मुक्त रखने का सदैव प्रयास 
							करते रहना चाहिए, जिससे उनके मन में सेवा कार्य में 
							समय तनाव, असंतोष, प्रतिशोध, विरोध आदि की भावना न रहे 
							तथा उन्हें अभयदान सतत मिलता रहे।
 
 लक्ष्मी के धन लुटाते मुक्त हस्त का अर्थ है कि जो 
							व्यक्ति समृद्धि चाहता है, उसे अपना पैसा परोपकार के 
							लिये खुले हाथों देना चाहिए। उसमें सदैव दान-दया का 
							भाव जागृत रहना चाहिए। इस भाव से लक्ष्मी सदैव उससे 
							प्रसन्न रहती है और दानवीर पर कृपा करती रहती है। ऐसा 
							करने से दाता को सम्मान प्राप्त होता है। अर्थात् 
							दानवीर के पास जब भी याचक आये, उसे दोनों हाथों से 
							सेवाभावी कार्यों के लिए समर्पित कर देना चाहिए।
 
 लक्ष्मी का विष्णु की चरणदासी बन उनके पैर दबाने का 
							अर्थ पति-सेवा, भक्ति तथा पतिव्रता होता है, अर्थात् 
							लक्ष्मी विष्णु के चरणों में रमती हैं, इसी से उन्हें 
							‘रमा’ कहा गया है। जिसे लक्ष्मी चाहिए, उसे विष्णु की 
							उपासना करनी चाहिए। लक्ष्मी की कृपा उसी पर होती है, 
							जो विष्णु भक्त वैष्णव होते हैं और जब लक्ष्मी के साथ 
							विष्णु आते हैं तब भक्त के लिये सोने में सुहागा वाली 
							उक्ति चरितार्थ हो जाती है।
 
 गणेश
 
 ‘ग’ से ज्ञान और ‘ण’ से निर्वाण। अर्थात् ज्ञान और 
							निर्वाण के ईश गणेश सदैव मंगलकारी हैं। वे अग्रणीय 
							होकर भी शांत-सौम्य तथा आशीषमयी हैं। विघ्न-विनाशक 
							हैं। गणेश मातृ-शक्ति की रचना है। माँ पार्वती माया 
							हैं, जो शिव से निजत्व पाकर ब्रह्म हो जाती हैं। गणेश 
							रिद्धि-सिद्धि के स्वामी तथा लक्ष्य और लाभ के पिता 
							हैं। गणेश का गजमस्तक दृढ़ संकल्प तथा मजबूती का प्रतीक 
							है। गज अपनी छोटी आँखों से सब कुछ देखते हैं। उनकी 
							आँखों में छोटी-से-छोटी वस्तु को भी बड़े आकार में 
							देखने की शक्ति प्राप्त होती है। यही कारण है कि गज को 
							अपने विशाल शरीर का घमंड नहीं होता। वह छोटी-सी चींटी 
							को भी बचाकर चलता है। अर्थात् जो व्यक्ति अपने कार्य 
							में सफलता प्राप्त करना चाहता है, वह अपने सहयोगी को 
							कभी छोटा नहीं देखता है। प्रत्येक बात में तीक्ष्ण नजर 
							से परखना हाथी की छोटी आँखों की विशेषता है। गणेश की 
							लंबी नासिका (सूंड) बलिष्ठ होने के साथ-साथ अनेक बातों 
							को सार्थक करती। वह सबसे ऊँची नाक वाले माने जाते हैं। 
							यह विशेषता कार्य-सिद्धि के लिए आवश्यक है। ऊँची नाक 
							वाले न तो नाक पर मक्खी बैठने देते हैं और न नाक कटने 
							देते हैं। हाथी अपनी नाक को सदैव ऊपर उठाये रखता है। 
							इस प्रकार गणेश की नाक प्रतिष्ठा की प्रतीक है।
 
 गणेश के कान विशाल हैं। विशाल कानों वाला कान का कच्चा 
							नहीं होता। वह हमेशा दोनों कानों का उपयोग करता है। 
							अच्छी बातों पर ही वह ध्यान देता है और बेकार की बातों 
							को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल बाहर कर देता है। 
							वे एक दंती भी हैं। एक दंत का होना द्वंद्व व द्वेष से 
							मुक्त होना है। यह दांत निर्विघ्न कार्य सिद्धि का 
							कारक है। गणेश की जिह्वा अंदर की ओर लपलपाती है, बाहर 
							की ओर नहीं। उनकी जिह्वा इस तथ्य की परिचायक है कि जीभ 
							हमेशा अंदर रखो और दूसरों की नहीं स्वयं की आलोचना 
							करना व स्वयं के गुण-दोष देखना सीखो। ऐसा करने वाला 
							मनुष्य अनाचार से सदैव दूर रहता है। गणेश लंबोदर हैं 
							तथा वे उदर पाचन शक्ति और विशालता के लिए प्रसिद्ध 
							हैं। इनमें सूर्य-चंद्र, पृथ्वी, बुध, शुक्र, मंगल आदि 
							सभी तारागण परिक्रमामय हैं। लंबोदर का अर्थ यह भी है 
							कि अन्य बातें पेट में रखकर उन्हें पचाने की क्षमता 
							स्वयं में पैदा करनी चाहिए। ऐसा करने वाला व्यक्ति 
							अनेक प्रकार के झंझटों से मुक्त रहता है।
 
 गणेश का शरीर पौरूष का प्रतीक है। अर्थात् सद्पुरुष 
							सदैव मानवोचित सदाचार में संलग्न रहता है। हमें ऐसे 
							सद्पुरुष के गुण ग्रहण कर स्वयं को सच्चा पुरुष बनाना 
							चाहिए। उनकी चारों भुजाएँ चारों दिशाओं में कार्यशील 
							रहने के साथ-साथ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जैसे चार 
							पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिए कार्यशील रहने की सूचक 
							हैं। उनके एक हाथ में माला एकता और साधना की तथा दूसरे 
							हाथ में कमल धन-समृद्धि का प्रतीक है, जो यह संदेश 
							देता है कि धन के प्रति लोभ नहीं होना चाहिए। उनके 
							तीसरे हाथ में परशु है, जो जीवन में आने वाले विघ्नों 
							को काटने का संदेश देता है। उनके चौथे हाथ की मुट्ठी 
							बंद है। बंद मुट्ठी यह दर्शाती है कि हमें अपने रहस्य 
							गुप्त रखने चाहिए। बंद मुट्ठी जीवन-रहस्य की सफलता का 
							प्रतीक है।
 
 गणेश को मोदक प्रिय है। ब्रह्मनंद, ज्ञान, निर्वाण में 
							लीन गणेश जैसे देव को मोदक इसलिए प्रिय होता है कि 
							अनंत ब्रह्माण्ड का रूप ही मोदक समान है। उनका वाहन 
							मूषक ऐसा जीव है जो अत्यंत निरीह, शूद्र और सामान्य 
							होकर भी बुद्धि, ज्ञान और कर्म में असाधारण है। वह 
							अपने गुणों में विवेचक, विशेषक और विस्तारक है, जिसका 
							ज्ञान निश्चयात्मक होता है। विशाल पर्वतों की जड़ों में 
							अपने लिए मार्ग और स्थान बना लेने की क्षमता मूषक में 
							होती है। विरोधियों के क्षेत्र को खोखला कर देना और 
							उनके अभेद्य दुर्ग में बिल बनाकर तथा प्रवेश कर सारे 
							रहस्य ले आना एक असाधारण बात है। इस प्रकार भारी भरकम 
							गणेष के वाहन मूषक का अर्थ है कि छोटे व्यक्तियों के 
							सहयोग को भी आवश्यक मानना चाहिए। इनके अभाव में कोई 
							कार्य संपूर्णता को प्राप्त नहीं होता।
 
 गणेश द्वारा अपना मस्तक कटा देने का अर्थ स्वयं को 
							आहूत कर देना है। सिर कटना अहंकार का नाश है। गणेश 
							अहम् से परे होकर मंगलमय हो जाते हैं। वे अहम् का शमन 
							व दमन इस सीमा तक कर देते हैं कि नर शरीर पर अन्य सिर 
							धारण कर लेते हैं और उसका भार लेकर कृतार्थ हो जाते 
							हैं। ‘ब्रह्मवैवर्तपुराण’ के ‘गणेश खण्ड’ में इस 
							स्वरूप को वंदनीय माना गया है। हाथी के सिर, कान, देह 
							से जुड़ना संयोजक, समाहाकारक, समन्वयक और संश्लेषक 
							बुद्धि का प्रतीक है। गणेश का कद बौना है। इससे यह 
							शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि समाज सेवी पुरुष सरलता, 
							नम्रता आदि सद्गुणों के साथ अपने आपको छोटा मानता हुआ 
							चले, जिससे अंदर अभिमान के अंकुर उत्पन्न न हों। गणेश 
							को सिंदूर लगाने का अभिप्राय यह है कि वह सौभाग्य सूचक 
							और मंगल द्रव्य है। उन्हें दूर्वा चढ़ाने का तात्पर्य 
							यह है कि गज को दूर्वा प्रिय है। दूर्वा में नम्रता और 
							सरलता है। इस प्रकार गणेश की आराधना करने वाले व्यक्ति 
							का वंश दूर्वा की भाँति अभिवृद्धि को प्राप्त होकर 
							स्थायी सौभाग्य व मंगल को प्राप्त होता है।
 
                            १ नवंबर 
							२०१५ |