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रत्न रहस्य (6)

दमा  


वी के जैन 

मा विश्व के सब से व्यापक रोगों में से एक है पर इसकी तीव्रता सबके लिये एक जैसी नहीं रहती। मौसम और परिस्थितियों और रोगी के व्यक्तिगत लक्षणों के अनुरूप यह अलग–अलग हो सकती है । यही वजह है कि इसके कारणों को जानने के बावजूद भी इसका इलाज मुश्किल है। अभी तक दमा का कोई स्थायी उपचार नहीं है, परन्तु अनेक प्रकार के उपचार व साधन उपलब्ध हैं जिनके द्वारा इसकी तीव्रता को नियंत्रित किया जाता है।

दमा लंबा चलने वाला रोग है। इसका मुख्य कारण फेफड़ों में सूजन होना है जिससे हवा लेने वाली नलियों का रास्ता तंग हो जाता है तथा द्रव्य से भर जाता है। ऐसी अवस्था में सांस लेने में कठिनाई व आवाज पैदा हो जाती है तथा बलगम होता है। कम तीव्रता वाले रोगी अधिकतर थकान महसूस करते हैं और उनका मस्तिष्क भी एक चीज पर केन्द्रित नहीं हो पाता है। अस्थमा के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं —

  • एलर्जी : मुख्य कारण सांस लेने वाली हवा में धूल के कण का विद्यमान होना हैं। धूल के कणों की तीव्रता समयानुसार व स्थान परिवर्तन पर बदलती रहती है। इन कणों में अनेक तरह के पराग कण, खाल तथा अनेक प्रकार के जीवित या मृत विषाणु भी शामिल हैं जो एलर्जी कर सकते हैं।

  • वातावरण जैसे कि ठण्डी हवा या नमी।

  • संक्रमण या भावनात्मक दबाव।

  • कसरत : कुछ कसरतें दमे को बढ़ावा दे सकती हैं इसके लिए डाक्टर की सलाह लेनी चाहिये। 

दमे का दौरा किसी भी समय पड़ सकता है। इसका दौरे को ठीक होने में कुछ मिनिट से लेकर कुछ दिन तक लग सकते हैं। निम्नलिखित निर्देश दमे के दौरे के दौरान सहायता प्रदान करते हैं।

  • सीधा बैठें। 

  • रोगी को सांत्वना दें।

  • शांत रहें।

  • राहत देने वाली दवा के पफ तुरन्त लें।

  • अगर आराम न मिले, तुरन्त डाक्टर की सलाह लें।

रत्न चिकित्सा में अनेक प्रकार के उपचार व साधन उपलब्ध हैं, जिनका लाभ इसकी तीव्रता व पुनरावृत्ति को कम करने में लिया जा सकता है। दमे के इलाज के लिये यह पद्धति नयी नहीं है।  आज विज्ञान की व्यापकता के कारण इस पद्धति की सुलभता और व्यापकता भी बढ़ी है। वैज्ञानिक तौर पर रत्न रंगीन धारा को एकाग्र करते है और अपनी विभिन्न तरंगों से मानव के संरचना पर अनेक प्रकार का प्रभाव डालते हैं। सात रंग की किरणें सात ग्रहों की उर्जा रूपांतरित करती हैं और इनका प्रभाव मानव के शरीर में सात ग्रहों के केन्द्रों पर डालती हैं। सब केन्द्र पृथक होते हुए भी एक केन्द्रीय शनि ग्रह से जुड़े हुए हैं। यदि शरीर में केन्द्रों का समुचित समन्वय हो, मानव का रोगों से छुटकारा हो सकता है।

अगर केन्द्रों का समन्वय न हो तथा कुछ में रंगीन उर्जा की कमी या अधिकता हो तो यह स्थिति रोगों को जन्म देती हैं तथा रंगों तरंगों रत्नों द्वारा संजोकर इस उर्जा को संतुलित किया जा सकता है और रोग कम या समाप्त किया जा सकता है। इसके निदान के लिये जिस रंग की उर्जा चाहिए उस रंग का रत्न पहनना चिकित्सा का प्रमुख अंग हैं जिससे केन्द्र की उर्जा की कमी को दूर किया जा सके। अधिक उर्जा वाले केन्द्रों को कम करने के लिये विपरीत रत्नों का सहयोग लेते हैं। इन केन्द्रों का सम्बन्ध अंगुलियों व शरीर के विभिन्न अंगों से हैं जिनके द्वारा रंगीन उर्जा को रत्नों से प्रवाहित करते हैं। रंगीन किरणों को प्राप्त करने हेतु अप्राकृतिक रत्न भी सक्षम हैं इसलिये उपचार भी अपेक्षाकृत सस्ता है।

रोग से निदान पाने के लिये ग्रहों की रंगीन उर्जा के सिद्धांत को समझना तथा विश्लेषण करना अति आवश्यक हैं जिससे मूल कारणों का पता चल सके और आवश्यकतानुसार रत्नों का चयन किया जा सके। यद्यपि यह आसान कार्य नहीं है। अतः इसके लिये योग्य रत्न चिकित्सक से सलाह लेकर ही रत्न धारण करना चाहिये। रत्न शरीर के किसी विशेष स्थान या अंगुलियों में पहनते हैं जिससे असमन्वय वाले केन्द्रों की उर्जा को कम या अधिक किया जा सके। जैसे–जैसे केन्द्र की ऋणात्मक व धनात्मक उर्जा सुचारू स्तर तक पहुँचने लगती हैं वैसे वैसे रोग में निदान होता चला जाता है।

रत्न चिकित्सा में दमा के कारणों के विश्लेषण से पता चलता है कि इस रोग के कारक शनि, चन्द्रमा व बुध ग्रह है। इन ग्रहों से नीली, सफेद और हरी रंग की किरणें निकलती हैं। इनकी उर्जा को प्राप्त करने के लिये नीले, मोती व हरे रंग के रत्नों का उपयोग किया जाता हैं। इस दिशा में अनेक प्रयोगों द्वारा निष्कर्ष निकलता है कि रत्न दमे के उपचार के लिये एक अच्छा माध्यम है और दमे की अनेक अवस्थाओं में कारगर सिद्ध होते है। फिर भी रोगी के ठीक होने की गति बड़ी विभिन्न है। उपचार का समय भी भिन्न–भिन्न है जो शायद अस्थमा की किस्म और रोग की कितना पुराना है इस पर निर्भर करता है। अभी तक के प्रयोगों से पता चलता है कि रत्न चिकित्सा इसको जड़ से समाप्त नहीं कर पायी हैं, परन्तु 60 से 80 प्रतिशत तक रोगियों की दवाई में कटौती हुई। 

इस अध्ययन में जो विशेष सफलता मिली वह थी पुरानी धूल की एलेर्जी से विशेष राहत। सच तो यह कि यह रोग एक दम सही नहीं होता और अधिक समय उपचार चलता रहता है। अभी प्रयोग जारी है। यह भी समझना जरूरी है दौरे के समय ऐलोपैथिक चिकित्सा ही सही हैं पर दोनों चिकित्साओं का संयोग एक साथ होने से उपचार हेतु एक नयी दिशा मिल सकती है और पीडितों के लिये यह एक वरदान साबित हो सकता है।

 
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