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विज्ञान वार्ता

आप का सूरज–आप की मेज पर
डेस्कटॉप न्युक्लियर फ्यूज़न संयंत्र(2)

डा गुरू दयाल प्रदीप 

तलयारखान न्यूक्लियर फ्यूज़न संयंत्र पर
अपने सहयोगी के साथ प्रयोग करते हुए

नाभिकीय संलयन का एक और तरीका है–‘जड़त्व परिसीमन’ (inertial confinement)। 1974 से काम म़ें लाई जा रही इस विधा में डियुटेरियम–ट्राइटियम से बने कुछ मिली मीटर व्यास वाले बर्फीले, ठोस गोले पर चारों तरफ से लेज़र या ऑयन पुंज की बौछार कर, उ सकी बाहरी सतह को वाष्पित किया जाता है। यह वाष्प  गोले के चारों तरफ प्लाज़्मा किरीट का निर्माण करती है। चारों तरफ से पड़ रहे दबाव के कारण विस्तारित होने वाले प्लाज्मा का संवेग गोले के बचे हुए भाग के नाभि की ओर निर्दिष्ट होने लगता है। इसके परिणाम स्वरूप नाभि में नाभिकीय संलयन की प्रक्रिया हेतु आवश्यक ऊष्मा की व्यवस्था हो जाती है।

नाभिकीय संलयन–प्रक्रिया द्वारा समुचित मात्रा में ऊर्जा के दोहन की स्थिति 1983 में ‘हाइड्रोजन प्लाज्मा’ में पहली बार अर्जित की गई। परंतु व्यावहारिक रूप से ऊर्जा उत्पादन के लिए इस प्रक्रिया से इससे जुड़े संयंत्रों के निर्माण तथा उनके रख–रखाव की लागत अकल्पनीय है। साथ ही इससे जुड़ी  बहुतेरी समस्याओं से निपटना भी आसान नहीं है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा अभिकरण के तत्वाधान में प्रस्तावित इंटरनेशनल थर्मोन्युक्लियर एक्सर्परिमंटल रिएक्टर के निर्माण की लागत लगभग पॉच अरब डॉलर आंकी गई है,जो अबसे कम से क़म दस वर्ष बाद तैयार हो पाएगा, वह भी तब, जब इस परियोजना पर सुचारू ढंग से कार्य चले। 

तुलनात्मक दृष्टि से कम ताप पर उपरोक्त ढंग से होने वाले ‘डि्युटेरियम–ट्राइटियम’ के नाभिकों के संलयन से उत्पादित ऊर्जा के दोहन पर ही वैज्ञानिकों का ध्यान केंद्रित है। हालाँकि इस प्रक्रिया से प्राप्त ऊर्जा की मात्रा कम है, फिर भी इससे हजारों साल का काम तो चलाया ही जा सकता है। दूसरी ओर, डि्युटेरियम–डि्युटेरियम के नाभिकों के संलयन से इतनी प्रचुर मात्रा में ऊर्जा का उत्पादन संभव है कि वर्तमान समय से ले कर सूर्य के निष्क्रिय होने के पश्चात् भी पूरी दुनिया की ऊर्जा–खपत को आसानी से पूरा किया जा सकता है, परंतु इनके संलयन के लिए अत्यधिक ताप की आवश्यकता होती है।

तलयारखान ने सांभवत: पहली बार डियुटेरियम–डियुटेरियम के बीच नाभिकीय संलयन की प्रक्रिया को ध्वनि–तरंगों के उपयोग से कराने में सफलता प्राप्त की है, वह भी एक सस्ते तथा छोटे से उपकरण में। इसके अतिरिक्त प्लाज्मा परिसीमन तथा नाभिकीय संलयन के लिए अपेक्षित ऊष्मा का स्तर इस विधा में  ‘चुंबकीय अथवा जड़त्व परिसीमन विधा’ की तुलना में बड़ी आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। इसके पूर्व 1989 में अमेरिका तथा इंगलैंड के दो वैज्ञानिकों ने भी मेज पर रखे जा सकने वाले एक अन्य संयंत्र में ‘शीत संलयन’ की विधा द्वारा सामान्य ताप पर नाभिकीय संलयन की प्रक्रिया कराने का दावा किया था। लेकिन अन्य अनुसंधानकता इसे दुहराने में असमर्थ रहे, अत: अधिकांश वैज्ञानिक फिलहाल इससे सहमत नहीं हैं। तलयारखान द्वारा विकसित ‘सोनेफ्यूज़न’ की नई विधा में घटित हो रही नाभिकीय संलयन की प्रक्रिया के संदर्भ में विश्वसनीय प्रमाण मिल रहे हैं।

हालाँकि अभी इस विधा से ऊर्जा दोहन की संभावना न के बराबर है, लेकिन तलयारखान के अनुसार भविष्य में ऐसी संभावना, कम से कम सैद्धांतिक रूप से अवश्य बनती है। इस तकनीकि का उपयोग न्युट्रॉन विसर्जन के आधार पर कार्य करने वाले नाना प्रकार के छोटे, सघन एवं सस्ते उपकरण विकसित करने में भी किया जा सकता है। सुरक्षा जाँच के समय किसी सूटकेस के अंदर छिपाए गए सामान का पता लगाने वाले संसूचक यंत्र (detector), किसी पदार्थ की आणविक संरचना का विश्लेषण करने वाले यंत्र, सिंथेटिक पदार्थों के निर्माण में काम आने वाले उपकरण, आदि के विकास से ले कर लीथियम  (जिसका उपयोग चिकित्सा के क्षेत्र में काम आने वाले ‘इमेज़िंग’ तकनीकि से ले कर घड़ी के डायल बनाने में किया जाता है) के प्रभावी उत्पादन की संभावना, कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं। यही नहीं, इसकी मदद से ‘न्युट्रॉन तारों’ तथा ‘ब्लैक होल’ की क्रिया–विधि एवं ऐसे ही अन्य ब्रह्मांडीय क्रिया–कालापों को समझने में भी आसानी हो सकती है।

कम खर्च में बन सकने वाला तथा उपयोगिता की अपार संभावनाओं से जुड़ा, तलयारखान द्वारा विकसित, यह उपकरण आखिर है क्या , कैसे कार्य करता है एवं इसमें होने वाली नाभिकीय संलयन की प्रक्रियाओं की पुष्टि के संदर्भ में क्या–क्या नए प्रमाण जुटाए गए हैं–आइए, अब हम इन सब बातों पर चर्चा करें।  

एक दूसरे के ऊपर रखे दो कॉफ़ी मग की ऊँचाई वाले ग्लास से निर्मित तथा ‘डियुटेरियेटेड एसिटोन’ जैसे तरल रसायन से भरे बर्तन, तलयारखान द्वारा विकसित उपकरण के मुख्य भाग हैं। ‘डियुटेरियेटेड एसिटोन’ नामक रसायन सामान्य ‘एसिटोन’ से थोड़ा अलग होता है। इसकी संरचना में सामान्य हाइड्रोजन के स्थान पर डियुटेरियम का उपयोग होता है। इस उपकरण में नाभिकीय संलयन की प्रक्रिया की स्थिति उत्पन्न कराने के लिए ग्लास के इस बर्तन में रखे डियटेरियेटेड एसिटोन पर प्रति पाँच मिली सेकेंड ( एक सेकेंड का हाजारवाँ हिस्सा ) के अंतराल पर अगले पाँच मिली सेकेंड तक न्युट्रॉन्स के पुंज की लगातार बौछार की गई। न्युट्रॉन्स के पुंज की बौछार के साथ–साथ, उतने ही समय तक बीस हजार प्रति सेकेंड की दर से ऑन–ऑफ होने वाले ‘अल्ट्रासाउन्ड’ उत्पन्न करने वाले उपकरण की सहायता से, विशिष्ट आवृति वाले अल्ट्रासाउन्ड तरंगों की बैछार भी की गई।

इस प्रकार से किए गए न्युट्रॉन्स की बौछार ने तरल डियुटेरियेटेड एसिटोन में अति सूक्ष्म गुहिकाओं (cavities) का निर्माण कर दिया। ये गुहिकाएँ अल्ट्रासाउन्ड की बौछार के प्रभाव से लगभग 60 नैनोमीटर के व्यास वाले बलबुलों में परिवर्तित हो गईं। धीरे–धीरे इनका आकार बढ़ कर अशातीत 6000 मइक्रॉन तक हो जाता है। आकार में लगभग एक लाख गुना तक बढ़ चुके इन बुलबुलों को नंगी आँखों से भी देखा जा सकता है। इस आकार तक पहुँच कर कुछ ही नैनो सेकेंड के अंदर ये बुलबुले अति विशाल शक्ति के साथ संकुचित होते हैं एवं अपने पूर्व आकार में वापस आ जाते हैं। लगभग एक लाख गुना छोटे आकार में संकुचित होने की प्रक्रिया में इतनी भयानक  ऊष्मा तथा दबाव का  उत्पादन होता है जिसकी तुलना सूर्य तथा तारों के नाभि में उत्पन्न होने वाले ताप एवं दबाव से किया जा सकता है। बुलबलों के आकार में होने वाला यह असाधारण परिवर्तन ही इस प्रक्रिया के दौरान ऊष्मा उत्पादन के लिए उतरदायी है।

अनुसंधानकताओं के अनुसार बुलबुलों के संकुचन की इस प्रक्रिया के दौरान इनका आंतरिक ताप लगभग एक करोड़ डिग्री सेल्सियस तथा दबाव पृथ्वी के सामन्य वायुमंडलीय दबाव की तुलना में लगभग एक अरब गुना तक बढ़ जाता है। इतनी अधिक ऊष्मा तथा दबाव की उत्प़ित के बाद भी यह उपकरण पूरी तरह सुरक्षित रहता है, क्यों कि इस प्रकार के ताप एवं दबाव की स्थिति संकुचित हो रहे बुलबुलों में ही परिसीमित रहती है। इस प्रक्रिया में प्रकाश की  क्षणिक चमक भी दिखाई देती है। सामान्य ‘सोनो ल्युमिनिसेंस’ की तुलना में बुलबुलों  के संकुचन के लिए लगभग दस खरब अधिक उर्जा उपलब्ध होती है।

इस अति उच्च ताप एवं दबाव की अवस्था में डियुटेरियेटेड एसिटोन में स्थित डियुटेरियम के परमाणु उसी प्रकार संलयलित होने लगते हैं, जिस प्रकार सूर्य तथा तारों में हाइड्रोजन के परमाणुओं का संलयन होता है। इस प्रक्रिया से ऊर्जा तथा न्युट्रॉन के निस्सरण के साथ–साथ गामा किरणों का विकिरण एवं ट्राइटियम जैसे रेडियो–धर्मी पदार्थ का उत्पादन भी होता है।  अतिसंवेदनशील उपकरणों तथा विशेषज्ञों की सहायता से सेनोफ्यूज़न की इस प्रक्रिया से जुड़े इस पूरे प्रयोग के दौरान होने वाले उपरोक्त सभी परिवर्तनों से संबंधित आंकड़ों को एकत्र कर, उनका विश्लेषण किया गया।

रेंसेलर पॉलीटेक्निक के न्युक्लियर इंजीनियरिंग के प्रोफेसर रॉर्बट ब्लॉक ने इन प्रयोगों में निस्सारित न्युट्रॉन्स तथा गामा किरणों की संसूचना (detection) के लिए अतिसंवेदनशील एवं नए प्रकार के उपकरण तंत्र के विकास में सहायता दी। विशिष्ट प्रकार के कंप्यूटर जनित ‘हाइड्रोडायनमिक शॉक कोड्स’ को विकसित कर रेंसेलर पॉलीटेक्निक के इंजिनीयरिंग के एक अन्य प्रोफेसर लेही तथा रशियन एकेडमी ऑफ साइंस से संबद्ध प्रोफेसर निग्माटुलिन ने बुलबुलों के निर्माण एवं संकुचन के दौरान होने वाले परिवर्तनों से जुड़े आंकडों का सैद्धांतिक विश्लेषण किया।

ये आंकड़े तथा उनका विश्लेषण बुलबुलों में हो रहे नाभिकीय संलयन की प्रक्रियाओं की पुष्टि करते हैं। बुलबुलों  के संकुचन के समय प्रकाश की क्षणिक चमक के साथ न्यूट्रॉन निस्सरण की दर लगभग दस लाख न्युट्रॉन प्रति सेकेंड तक पहुँच जाती है तथा इस समय न्युट्रॉन निस्सरण से उत्पादित ऊर्जा का स्तर लगभग 2.5 मेगाएलेक्ट्रान वोल्ट तक पहुँच जाता है। ऊर्जा का यह स्तर डियुटेरियम–डियुटेरियम के संलयन के लिए पर्याप्त है। ट्राइटियम –उत्पादन भी यहाँ हो रही नाभिकीय संलयन की प्रक्रियाओं  की ओर ही इशारा करते हैं, क्यों कि इसका उत्पादन नाभिकीय प्रतिक्रियाओं द्वारा ही संभव है। सामान्य एसिटोन के साथ इन प्रयोगों को दुहराने पर ट्राइटियम का उत्पादन नहीं होता है। केवल डियुटेरियेटेड एसिटोन में ही होने वाली ये प्रक्रियाएँ डियुटेरियम–डियुटेरियम संलयन की ही पुष्टि करती हें।

जैसा कि पहले भी कहा गया है इन प्रयोगों द्वारा ये वैज्ञानिक अभी उस स्थिति तक नहीं पहुँच पाए हैं, जहाँ इस प्रक्रिया के लिए खर्च की गई ऊर्जा की तुलना में उत्पादित ऊर्जा का स्तर अधिक हो। इस दिशा में अभी बहुतेरे प्रयोगों तथा अनुसंधान की आवश्यकता है। प्रयोगों की अगली श्रृंखला में इन लोगों का उद्देश्य सोनोफ्युज़न के उपकरणों को उस स्तर तक परिमार्जित करना तथा ऐसे प्रयोग करना है, जो न्युट्रॉन तथा ऊर्जा उत्पादन की संभावना  के व्यावहारिक पक्ष को साधने में सहायक हो। आशा है, हमारे वैज्ञानिक एक न एक दिन ज्ञान के इस स्तर पर अवश्य पहुँचेंगे तथा ऊर्जा–उत्पादन तथा न्युट्रॉन निस्सरण के आधार पर काम करने वाले बहुतेरे ऐसे उपकरणों का विकास संभव हो सकेगा, जो सस्ते एवं बहुउपयोगी होंगे।

24 अप्रैल 2004
 
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