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हास्य व्यंग्य

  भारतीय रेलें : सारे जहाँ से अच्छी
—विनोद शंकर शुक्ल 


भारतीय रेलों से मुझे प्यार है। गाय और गंगा की तरह रेलों को हमें माता मानना चाहिए। वे भी दिन–रात जनसेवा में जुटी रहती हैं। 90 करोड़ संतानों को अविचलित भाव से ढोती हैं। संतानें डिब्बों में यों खचाखच भरी होती हैं, ज्यों दड़बे में चूज़े। खिड़कियों में यो लटकी रहती हैं, जैसे पेड़ पर चमगादड़ें। फुटबोर्डों पर यों खड़ी रहती हैं, जैसे पतले तार पर नट। कुछ संतानों को छत पर बैठना अच्छा लगता है। वे छत पर ऐसे बैठी रहती हैं, जैसे सर्कस के कलाकार झूले पर। दरअसल हमारे इस गणतंत्र में डिब्बे के अंदर हवा का संकट हमेशा बना रहता है। यात्री को गंतव्य तक बिना हवा के काम चलाना पड़ता है। यह एक कठिन योग–साधना है। छत मुसाफ़िरों को इस तपस्या से बचाती है। दूसरी बात यह है कि टी. टी. चाहकर भी ऊपर नहीं पहुँच सकता। इससे भ्रष्टाचार की एक नई शाखा नहीं फूटने पाती। कुछ संतानें अत्यंत रोमांचप्रिय होती हैं। उन्हें दुर्गम स्थानों पर अतिक्रमण में आनंद आता है। वे बोगियों के बीच लगे बंपरों पर ही कब्जा कर लेती हैं। संभवत: वे रेल और घुड़सवारी दोनों का मज़ा एक साथ उठाना चाहती हैं।

भारतीय रेलों की सहनशीलता स्तुत्य है। धरती की तरह वे भी बड़ा कलेजा रखती है। संतानों द्वारा वे भी उत्पीड़ित हैं। अत: उन्हें भी माँ का दर्जा मिलना चाहिए। माँ का दर्ज़ा देकर हम किसी भी वस्तु पर ज़्यादती का अधिकार पा लेते हैं। गंगा हमारी माँ हैं। इसीलिए हमने उसे खूब प्रदूषित कर दिया है। रेलों को भी हमें पूज्य घोषित कर देना चाहिए। पूज्य घोषित कर देने से पूजित की दुर्गति करने में आसानी हो जाती है।

भारतीय रेलों की 'भारतीयता' मुझे प्रभावित करती है। इस देश की हर वस्तु पर पश्चिमी रंग चढ़ चुकी है। रेलें ही अपवाद रह गई हैं। वे भी हड़बड़ी में नहीं दिखाई देतीं। जल्दबाज़ी उनके स्वभाव में नहीं हैं। रेल–विभाग ने उनके विश्राम के लिए स्टेशन बनाए हैं। पर वे अपनी मर्ज़ी से चलती और रुकती हैं। कई बार स्टेशनों को अँगूठा दिखाते हुए आगे बढ़ जाती हैं। तब यात्रियों को ही उनके पीछे दौड़ना पड़ता है। स्वतंत्रता उन्हें बहुत प्रिय है। किसी टाइम–टेबल को वे स्वीकार नहीं करतीं। बंधी–बंधाई लीक पर चलना भी उन्हें पसंद नहीं। इसीलिए अकसर पटरी से उतर जाती हैं। रेल–विभाग इसे दुर्घटना समझता हैं। जबकि रेलें अपनी स्वतंत्रता की उद्घोषणा कर रही होती हैं।

भारतीय रेलों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। वे एक खुला विश्वविद्यालय हैं। संघर्षशीलता सिखाने में वे बेजोड़ हैं। उनमें सीट प्राप्त करना बड़ा ही वीरता का कार्य है। ओलंपिक में स्वर्ण पदक पाना आसान है। पर भारतीय रेलों में सीट पाना बहुत मुश्किल। एक डिब्बे में कितनी भेड़–बकरियाँ होंगी, यह तय है। पर इंसान कितने होंगे, यह तय नहीं हैं। पश्चिम में 'लेडिज–फर्स्ट' का शिष्टाचार प्रचलित है। भारतीय रेल–विभाग के शिष्टाचार में 'एनीमल–फर्स्ट' होते हैं।

भारतीय रेलों में ही यह सुविधा है कि आप जहाँ चाहें बैठ जाएँ। रेलों की ओर से कोई प्रतिबंध नहीं। सीट नहीं मिलती तो लगेज रखने का स्थान ही सही। वहीं हाथ–पैर मोड़कर बैठ जाइए। वहाँ भी 'हाउसफुल' हो तो फ़र्श हाज़िर है। रास्ते में ही पेटी–बिस्तर लगाकर पसर जाइए। सहयात्री आपको कष्ट दिए बिना ऊपर से आते–जाते रहेंगे।

भारतीय रेलों का यह दृश्य बड़ा ही मनोरम होता हैं। लगता है, अंतरिक्ष–यात्री यान में तैर रहे हैं। अभी आसमाँ और भी हैं। आप पंखों पर लटक कर यात्रा कर सकते हैं। वैसे भी भारतीय रेलों के पंखे हवा तो देते नहीं। शोर भर करते रहते हैं। पंखों पर जगह न मिले तो शौचालय शेष है। वहाँ आसन जमा लीजिए। अन्य यात्रियों की चिंता मत कीजिए। दरअसल भारतीय रेलों का पूरा कंपार्टमेंट ही शौचालय होता है। बैठने के इतने विकल्प विश्व की कोई रेल–सेवा नहीं दे सकती। हमें अपनी रेलों पर गर्व करना चाहिए।

भारतीय रेलों में प्रवेश करते समय आपका आत्मविश्वास विकलांग हो जाता है जबकि उतरते वक्त आप आत्मविश्वास से लबालब भरे होते हैं। सीट पाने की सफलता आपको लौह–पुरूष बना देती है। लगता है कि अब आप माउंट–एवरेस्ट भी फतह कर सकते हैं। रेल में प्रवेश करते समय आप महज़ टेकचंद थे। उतरे तो तेजसिंह नोकें में रूपांतरित होकर। भारतीय रेलों का यही कमाल है। वे आपको बहादुर बनाती हैं। जो भी ऊँची महत्वाकांक्षाएँ रखते हैं उन्हें भारतीय रेलों में अवश्य बैठना चाहिए। वे एक परीक्षा हैं।

रेलें हमें धैर्य का पाठ भी पढ़ाती हैं। वे आसानी से पकड़ में नहीं आतीं। यात्रियों के साथ लुकाछिपी खेलने में उन्हें आनंद आता है। उन्हें पकड़ने के लिए धूनी रमानी पड़ती हैं। प्लेटफ़ार्म पर डेरा डालना पड़ता है। वे बार–बार आपके साथ छल करती हैं। घोषणा होती है कि सिर्फ़ आधा घंटा लेट है। आप राहत की साँस लेते हैं। भारत में वे यात्री भाग्यवान माने जाते हैं, जो मात्र आधा घंटा इंतज़ार के बाद ट्रेन पा लेते हैं। नियत समय पर गाड़ी पाने का सौभाग्य तो यात्री को जीवन में एकाध बार ही मिल पाता है। हमारे देश में गाड़ी का समय पर आना ज़रूर एक विस्मयजनक समाचार होता है। लोग समाचार की सत्यता जानने के लिए बार–बार प्रेस में फ़ोन करते हैं।

आधा घंटा बाद नई घोषणा होती है कि विलंब की अवधि एक घंटा बढ़ गई है। आपकी राहत कराहट में बदल जाती है। आप चाय पी–पीकर किसी तरह यह समय भी काट लेते हैं। फिर पैंतालीस मिनट और आपसे इंतज़ार की अपेक्षा की जाती है। अब आपकी कराहट बौखलाहट की शक्ल ले लेती है। आप पाकेट–दर–पाकेट सिगरेट फूँकने लगते हैं। जंभाई पर जंभाइयाँ लेने लगते हैं। पर ट्रेन अगले पैंतालीस मिनट बाद भी नहीं आती। आपको घबराहट होने लगती है। इच्छा होती है ओवरब्रिज से छलाँग लगाकर जान दे दें। आगे फिर नई घोषणा होती है। आपको यकीन दिलाया जाता है कि गाड़ी बराबर चल रही है। इसलिए पहुँचेगी ज़रूर। अब घोषणाएँ आपके लिए बेमानी हो चुकी हैं। आप रेलवे की किसी बात पर यकीन नहीं करना चाहते। दिन, रात में ढल चुका है और आप यह भी भूलने लगे हैं कि कहाँ जाने के लिए निकले थे। फ़िल्म 'तीसरी कसम' के हीरामन गाड़ीवान की तरह आप भी तीन क़समें खाते हैं – अब कभी रेल यात्रा नहीं करेंगे। वोट उसी नेता को देंगे जो रेल से सफ़र न करता हो। कोई परिचित रेल से जाने लगे तो उससे संबंध विच्छेद कर लेंगे, और तभी ट्रेन उसी अंदाज़ में प्रकट होती है जैसे भक्त की परीक्षा के बाद भगवान प्रकट होते हैं। तब आप सारे कष्ट और क़समें भूलकर डिब्बे में प्रवेश करने के पराक्रम में व्यस्त हो जाते हैं।

भारतीय रेलों की सौंदर्यप्रियता भी मुझे मुग्ध करती हैं। हमारी रेलों का सौंदर्यबोध बहुत बढ़ा–चढ़ा है। वे जहाँ सुंदर झील–झरने देखती हैं, गिर पड़ती हैं। ज़्यादातर रेल दुर्घटनाएँ सुंदर प्राकृतिक स्थलों के आस–पास ही होती है। कुछ साल पहले केरल की अष्टमुदी झील में आयलैंड एक्सप्रेस गिर पड़ी थी। शायद झील का शीतल जल देख कर एक्सप्रेस से रहा नहीं गया। वह झील को स्वीमिंग पूल समझकर फ़िल्मी सुंदरी की तरह कूद पड़ी। कई बार सुंदर लैंडस्केप देख ट्रेनें पटरी से उतर जाती हैं। अकसर आशिकाना मौसम भी उन्हें बहका देता हैं। सुहाना सफ़र और मौसम हँसी हो तो भला कौन अपने को रोक सकता है। इस देश में सौंदर्य देखकर रसिक ही नहीं फिसलते, रेलें तक फिसल जाती हैं। अधिकांश दुर्घटनाओं के पीछे भारतीय रेलों का सौंदर्यप्रेम ही उत्तरदायी होती है। सरकार दुर्घटना रोकना चाहती है तो तमाम सुंदर दृश्यों को रेल के रास्ते से हटा देना चाहिए। रेलों का प्रकृति प्रेम मनुष्य को बहुत महँगा पड़ता है।

भारतीय रेलें बेरोज़गारों का सहारा हैं। रेलें आपकी संपत्ति हैं। 'हाथ की सफ़ाई के उद्योग' में यह वाक्य सदा अमर रहेगा। इसने लाखों बेरोज़गारों को रोज़गार दिया है। इस वाक्य से रेलों के सामानों की चोरी-चोरी नहीं रही, व्यापार हो गई हैं। लोग बेखटके सामान निकालते और बेचते हैं। रेलों ने चोरी को भी सम्माननीय उद्योग बना दिया है। इसके लिए इस उद्योग से जुड़े लोग भारतीय रेलों के सदा आभारी रहेंगे।

सार्वजनिक–संपत्ति होने का कारण ही भारतीय रेलों में बल्ब नहीं होते। लोग अंधेरे में यात्रा करते हैं। जिन्हें प्रकाश की ज़रूरत होती है, वे टॉर्च या मोमबत्ती साथ रखते हैं। ट्रेनों से पंखे भी ग़ायब रहते हैं। अत: भारतीय यात्री सफ़र में अख़बार पढ़ने के लिए नहीं, पंखा झलने के लिए ख़रीदते हैं। सीटों से गद्दियाँ ग़ायब रहती हैं। नलों में पानी का अता–पता नहीं होता। शीशे खिड़कियों को चकमा दे कर नौ–दो ग्यारह हो जाते हैं। कुल मिलाकर भारतीय रेलों में चक्के, ढाँचे, सीट और सवारियों के अलावा कुछ नहीं होता। वे भूत की तरह अंजर–पंजर नज़र आती हैं। फिर भी वे चलती हैं। सेवा के मार्ग से विमुख नहीं होतीं। यह चमत्कार केवल भारतीय रेलें ही दिखा सकती हैं।

हमारी रेलें बड़ी पुरातनप्रिय हैं। जो भी जीर्ण और जर्जर है – वह रेल विभाग को प्यारा है। इसीलिए समूचा रेल–विभाग एक विशाल पुरातात्विक संग्रहालय की तरह दिखाई देता है। उसके पुल, पटरी, डिब्बे, एंजिन – सभी पुरातात्विक महत्व के हैं। भारतीय रेलों का हर बारहवाँ डिब्बा कबाड़ में डालने लायक है। हर सातवाँ एंजिन पेंशन की पात्रता रखता है। हर पाँचवाँ पुल अंतिम यात्रा का मोहताज है। रेल–विभाग फिर भी सभी को सीने से लगाए हैं।

शायद वह अपनी हर संपत्ति को अनश्वर समझता है। इसीलिए वह ईस्ट–इंडिया कंपनी के ज़माने के कलपुर्जों को भी नहीं बदलता। भारतीय रेलों की यह पुरातनप्रियता अभिनंदनीय है।

सरकार हर बजट में रेल किराया बढ़ाती है। मौत भी उतनी अटल नहीं हैं, जितना भारतीय रेलों का किराया बढ़ना। सरकार बजट बनाती ही किराया बढ़ाने के लिए हैं। भारतीय रेलों का किराया ज्यों–ज्यों बढ़ता जाता हैं, सुविधाएँ त्यों–त्यों सिकुड़ती जाती हैं। सुविधाएँ कम करने के पीछे भी रेलों का एक दर्शन हैं। रेलें देशवासियों को आरामतलब नहीं बनाना चाहती। आरामतलब लोग देश पर बोझ होते हैं। किराए में वृद्धि से लोग श्रम के लिए प्रेरित होते हैं। भारत में बिना श्रम किए रेल की यात्रा असंभव है। किराया जुटाने के लिए श्रम, टिकट मिल जाए तो डिब्बे में प्रविष्ट होने के लिए श्रम, प्रविष्ट हो जाएँ तो सीट पर प्रतिष्ठ होने के लिए श्रम। मतलब यह कि श्रमवीर हुए बिना रेलों से निबाह नहीं हो सकता। भारतीय रेलें श्रम का पाठ पढ़ाने में अग्रणी हैं।

दुर्घटनाओं के लिए भी भारतीय रेलें विख्यात हैं। अपने व्यस्त और नीरस जीवन में दुर्घटनाएँ ही उनका एकमात्र मनोरंजन है। दुर्घटनाओं के माध्यम से संभवत: वे देश की आबादी घटाने में भी अपना विनम्र सहयोग प्रदान करती हैं। भारतीय रेलें न होतीं तो भारत की आबादी कब की एक अरब हो चुकी होती। जनसंख्या नियंत्रण में भारतीय रेलों की भूमिका अविस्मरणीय है। उनके बारे में प्रसिद्ध है कि आदमी एड्‌स से बच सकता है, अस्सी प्रतिशत जलकर भी उसके प्राण वापस आ सकते हैं, यहाँ तक कि दिल की रुकी धड़कन भी लौट सकती हैं, पर भारतीय रेलों में सफ़र करने वाले की जान की कोई गारंटी नहीं दी जा सकती। उसे आख़िरी सफ़र की तैयारी से ही भारतीय रेलों में बैठना चाहिए। किसी 'रेल से जले' शायर ने मिर्ज़ा ग़ालिब की तर्ज़ पर अर्ज़ किया है ––

ये रेलयात्रा नहीं आसाँ, इतना ही समझ लीजै 
मौत के मुँह में से, मंज़िल को पाना है।

 
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