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हास्य व्यंग्य

भगौने में चम्मच
-प्रतिभा सक्सेना  


अपने मन की किताबमिल जाए तो उसे पढ़ने का मज़ा ही कुछ और है। पर ऐसी किताब आसानी से मिलती कहाँ है जिस के रस में मन डूब कर रह जाए। बहुत दिनों बाद आज कहीं एक मन की किताब मिल पाई है। जब से पढ़ना शुरू किया है और सब चीज़ों से मेरा ध्यान हट गया है। सारे काम पड़े हुए हैं और मैं बैठी हूँ उसमें डूबी हुई। बीच में किसी का आना-जाना न हो, यही मना रही हूँ मैं। सुबह ग्यारह बजे लोग चले जाते हैं, पति अपने काम पर, कामवाली सुबह जाने के बाद दुबारा आती है साढे पाँच-छ: तक। तब तक मेरी छुट्टी। पाँच बजे जब ऑफ़िस से लौटेंगे, चाय नाश्ते का काम होगा। पर तब तक तो मैं उसे पूरी कर लूँगी।

जब चाहो घर पर कोई न आए तब उपट कर कोई-न-कोई आ धमकता है। आज पड़ोस की अम्मां जी आकर बैठ गई। बहू घर पर है नहीं, मन नहीं लग रहा सो इधर चली आईं। बैठना पड़ा उनके साथ। मन किताब में ही उलझा रहा। उन्होंने पूछा, 'क्या बात है बहू, आज कुछ अनमनी लग रही हो।'
'हाँ अम्मां जी, सुबह से सिर धमक रहा है। बाद में सो लूँगी आप बैठिए।'
'अरे हम तो, यों ही चली आईं। बहुत दिनों से तुम्हारी ख़बर नहीं मिली, सोचा चलो देख आएँ। तुम आराम करो। सो लो थोड़ा।'
वे उठकर चलने लगी।
'अरे आप तो सच्ची चली जा रहीं हैं' कहते-कहते मैं उन्हें छोड़ आई पर, दरवाज़े तक नहीं। 'अरे, दूध रह गया। कहीं बिल्ली' बोलते अंदर भाग ली। क्या करूँ, उनकी आदत है निकलते-निकलते रुक कर ऐसे बोलने लगती हैं जैसे कोई ज़रूरी बात याद आ गई हो और आधे-आधे घंटे खड़ी रहती हैं, देहरी के उस ओर वह और इस ओर मैं - श्रोता बनी, लाचार।

पौन घंटा यों ही चला गया। वैसे वे जब भी आती हैं तो कम से कम डेढ़ घंटा बैठती हैं और सारे मोहल्ले की ख़बरें दे जातीं हैं। आज यह सब जानने में मेरी रुचि नहीं है। इस सब से परे मेरे भीतर कुछ चल रहा है। इस अनुभूति में डूब कर भूख-प्यास तक खो जाती है। बाहर क्या चल रहा है इसका भान नहीं होता। कुकर पर वेट रखना रह जाता है, दाल जल-जल कर कोयला हो जाती है। मुझे तो उसकी महक भी अपने घर की नहीं, पड़ोस से आती हुई लगती है। वह भावलोक किताब बंद कर देने के बाद भी मनोजगत पर छाया रहता है। और कई-कई दिनों तक उस खुमार की मादकता में डूबी इतराती हूँ। बाहरी दुनिया की कोई बात जब चौंका कर जगाती है, तो एक झटका-सा लगता है।
मन में कथा के पात्र भीड़ लगाए हैं और मैं जानने को व्याकुल हूँ किसके साथ क्या हो रहा है। अचानक टेलीफ़ोन की घंटी बजने लगी है। इस समय सब लोग आराम करते हैं, झपकी लेते हैं, फ़ोन करने की कौन-सी तुक है। किसी महिला की आवाज़ है, अरे हाँ, सोनल है। अब आधे घंटे घेरे रहेगी। मैंने आवाज़ बदल कर बोलना शुरू कर दिया, 'आप किसे पूछ रही हैं?' नाम सुनकर मैंने भरभराती आवाज़ में रांग नंबर कह कर फ़ोन रख दिया।

अभी न शाम के खाने की प्लानिंग की है, न चाय के साथ नाश्ते की। एक दिन तो बिस्कुट से भी काम चल सकता है। और तब तक तो किताब पूरी हो जाएगी, तभी सोच लूँगी। अभी तो नायिका और उसकी सहेली के बीच जो तमाशा चल रहा है उसका समापन कैसे होगा यही सबसे बड़ी समस्या है। ऐसी विचित्र स्थितियाँ हैं कि मुझे तो उबरने का कोई रास्ता नज़र नहीं आता। मैं पढ़े जा रही हूँ, समस्याएँ घनीभूत होती जा रही हैं। कहानी खीचे जा रही हैं टी व़ी स़ीरीयलों की तरह। सूत्र जाने कहाँ-कहाँ तक उलझे हैं। कैसे सुलझेगी यह पहेली। क्या होगा न जाने। मुझे अंत की प्रतीक्षा है।

दरवाज़ा खड़का। घड़ी पर निगाह गई। अरे पाँच बज गए। लौट आए दफ़्तर से।
अब। अब तो छोड़नी पड़ेगी अधबीच में। सिर्फ़ बावन पेज रहे हैं। अम्माजीं न आई होती तो पूरी हो गई होती। किताब बिस्तर पर औंधा कर रख दी और दरवाज़ा खोल आई। पीछे-पीछे ये आ रहे थे।
'आज आफ़िस में चाय पी।'
'चाय नहीं पी। माथुर ने केक खिला दिया था।'
'अच्छा।'
'दो बजे खा लिया था, लंच टाइम पर।'
'हाँ, हाँ तुम बैठो। चाहे फ्रेश हो लो, चेंज कर लो। अभी चाय देती हूँ।'
'चेंज-वेंज कुछ नहीं करना है। तुम चाय-नाश्ता दे दो। शायद सतीश आ जाए।'
'क्यों, सतीश क्यों आ रहा है?'
'उसे अपना एक फ़ार्म भरवाना है।'
वे वहीं ड्राइंगरूम में बैठ गए। मैं अपने कमरे में आई, औंधी रखी किताब उठा ली। यह पेज ख़तम करके चाय बनाऊँगी। पढ़ते-पढ़ते बैठ गई। उस पेज का वाक्य अगले पेज तक गया था। बड़ा रुचिकर प्रसंग चल रहा है। पन्ना पलटा तो भूल गई ये बाहर बैठे चाय का इंतज़ार कर रहे हैं। अब तो ख़तम कर के ही उठूँगी, नहीं तो सारा मज़ा ही ग़ायब हो जाएगा, मन की रसमयता पर पानी फिर जाएगा।
'अरे, तुम कहाँ हो? क्या कर रही हो?'
'क्यों, चाय बना रही हूँ।'

यह कमरा किचन के पास ही है। किताब पढ़ते-पढ़ते मैं किचन में गई और दो-तीन बर्तन खटका दिए। अगर ऐसे में चाय का पानी रख भी दिया, और चीनी की जगह नमक डाल गई तो सब बेकार हो जाएगा। एक बार ऐसे ही मन किताब में लगा था और मैंने दूध छान कर चढ़ा दिया। किताब पढ़ते-पढ़ते जाने कैसे मैं कमरे में आ गई। दूध उबलता रहा, फैलता रहा और अंत में भगौना जलने लगा। जलन की महक लगी, मैंने सोचा पड़ोस के घर से आ रही है। उस समय घर में कोई था नहीं। भगौना जल कर काला पड़ गया। फिर मैं चौंकी 'अरे दूध, दूध कहाँ था वहाँ। भगौना काला हुआ जा रहा था। मैंने झपट कर गैस बुझाई, पढ़ना बीच में छोड़कर। यही तो होता। ऐसा कुछ हो यह मैं नहीं चाहती।

कुछ पैंतीस पेज बचे हैं, कितनी देर लगेगी। मुश्किल से दस मिनट। बार-बार उठना न पड़े मैं भगौना और चम्मच किताब के साथ कमरे में लेती आई। हर दो पेज के बाद भगौना बजा देती हूँ। ये इत्मीनान से बाहर बैठे हैं।
किताब पढ़ते पर कोई आवाज़ देता है तो एकदम झटका लगता है, लगता है जैसे मैं आसमान से ज़मीन पर आ पड़ी हूँ। कितनी समस्याओं का समाधान होना है। मन में शंकायें-कुशंकायें उठ रही हैं, बिना पूरी पढ़े उनका निवारण कैसे होगा। मुश्किलों का कोई ओर-छोर नज़र नहीं आ रहा था। ऐसी विषम परिस्थिति में पड़े रहना किसे अच्छा लगेगा।
'अरे अभी चाय नहीं बनी।'
'ओफ्फोह, अपने यहाँ के आदमी। इन्हें किसी के जीने-मरने की परवाह नहीं। मौका पड़ने पर एक कप चाय भी नहीं बना सकते। लेकिन मैं कह नहीं सकती, अभी कहा-सुनी होने लगी तो एकदम मूड चौपट हो जाएगा। सारा आनंद ग़ायब हो जाएगा और किताब धरी की धरी रह जाएगी। नहीं इस समय कोई झक-झक नहीं।
'बस, होनेवाली है।'
मैं फिर भगौना बजाया, सिर्फ़ दस पेज बाकी है।
आप सोच रहे होंगे कि ये उठकर आ गए तो क्या होगा।

मैं जानती हूँ उनकी आदत। वहीं बैठे-बैठे चीख-पुकार मचाते रहेंगे, उठकर नहीं आएँगे। कम से कम दस मिनट तो नहीं ही। और अब बचा ही कितना। पाँच-सात पेज। इसके बाद तो जाकर चाय चढ़ा ही दूँगी। मैंने भगौने में चम्मच डालकर फिर बजाया। सुन रहे होंगे चौके में बरतन खनक रहे हैं - चाय बन रही होगी।
सारी दुविधाओं का अंत, दुश्चिंताओं का निवारण अगले तीन मिनट में होने वाला है। मन व्याकुल है, उत्कंठा अपनी चरम सीमा पर है। अभी मैं कैसे उठ सकती हूँ। हाथ बढ़ा कर बिना देखे मैंने चम्मच से भगौना बजाना चाहा, भगौना नीचे जा गिरा।
'क्या हुआ?'
'भगौना गिर पड़ा।'
'तुम्हारे ऊपर तो नहीं गिरा?'
'मैं बिलकुल बच गई। यहाँ फिसलन है, तुम इधर मत आना। वहीं बैठे रहो। बस अभी चाय लेकर आती हूँ।'
दिमाग़ तो किताब में लगा है। इसमें डूबी-डूबी मैं चाय कैसे बनाऊँ? वैसे भी इस मनोजगत से इतनी जल्दी निकल थोड़े ही पाऊँगी, बहुत देर तक दिलोदिमाग़ पर यही खुमार छाया रहेगा। ये कुछ कहेंगे, मेरी समझ में नहीं आएगा, दिमाग़ कहीं और व्यस्त होगा। पाँच मिनट और निकल गए।
'अरे चाय ला रही हो?'
'हाँ हाँ, बस होनेवाली है।'
अब तो सिर उठाने का भी मन नहीं है। सारी उत्कंठाओं, दुश्चिताओं और उलझी हुई समस्याओं का समाधान और समापन होनेवाला है। बस, तीन पेज। फिर मैं निश्चिंत-निर्विघ्न मन ले कर उठूँगी, भगौने में पानी भर कर गैस पर चढ़ा दूँगी और खड़ी हो जाऊँगी वहीं उसी रस में डूबी। इस मायालोक से इतनी जल्दी थोड़े ही बाहर निकल पाऊँगी। कुछ करने का मन नहीं होगा। कोई कुछ कहता रहे सुनाई नहीं देगा, कानों तक पहुँचेगा पर समझ में नहीं आएगा। मैं चाय बनाती खड़ी रहूँगी उसी रस में भीगी डूबी-डूबी।

मैंने भगौना उठा कर ज़ोर से रक्खा, इतनी ज़ोर से कि इन तक आवाज़ जाए। आख़िरी पेज भी बहुत भरे-भरे निकले,
'बस बस, होनेवाली है चाय। ला रही हूँ।'
और मैंने आख़िरी बार भगौने में चम्मच झनझना कर बजा दिया है।

16 जुलाई 2006

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