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हास्य व्यंग्य

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केमिकल लोचा...हे राम
नीरज दीवान


ऑफ़िस से घर की ओर पैदल जाना होता है...बीस मिनट की दूरी पैदल चलते पूरी हो जाए तो दो फ़ायदे और एक मजबूरी होती है। एकमात्र मजबूरी यह कि अपनी ऑफ़िशियल औक़ात के लोग अब कारों में चलते हैं और अपने पास पैसा नहीं तो कार नहीं। दो अनॉफ़िशयल फ़ायदे गिनाकर मैं इस इकलौती मजबूरी को ढाँक लेता हूँ। पहला फ़ायदा यह कि इससे सेहत बनी रहती है और दूसरा गली-कूचों से निकलते हुए मेरे पत्रकारी मन की संवेदनाओं को बड़ी राहत मिलती है। अपने जागरुक और संवेदनशील होने का भ्रम बना रहता है। यहाँ से गुज़रते हुए अपने ज़मीनी जुड़ाव के सरोकारवादी दंभ में कभी-कभी इतना चूर हो जाता हूँ कि नाली से भी जुड़ाव महसूस करने लगता हूँ।

फ़िल्मसिटी से वाया रजनीगंधा चौक होते हुए अपने सेक्टर की ओर पैदल जा रहा था। बीच में एक पुल पड़ता है, जिसके किनारे पसरे अँधेरे से पगडंडी पर चलते हुए जाना होता है। कुछ ही दूर चला था कि एक साया मेरी ओर बढ़ता जा रहा था। दस-बारह मीटर की दूरी बची थी कि अचानक से मेरी नज़र उस साये के चेहरे पर पड़ी. वो किसी दिव्य पुरुष का चेहरा था। पास पहुँचते ही इस दिव्य पुरुष के दर्शन मात्र से मेरे हाथ-पैर ढीले हो गए। चेहरे-मोहरे से जाने-पहचाने से लग रहे थे। समझ नहीं आ रहा था कि कौन हो सकता है यह दिव्य पुरुष। सिर के पीछे प्रकाश की छटा बिखरी थी, माथे पर तिलक और कानों में कुंडल, लंबी नाक और बड़ी आँखे...रंग साँवला। चेहरे-मोहरे से अपने भगवान राम दिख रहे थे। मैंने सोचा कि दशहरे के लिए स्पेशल प्रोग्राम कराने कोई स्टूडियो लेकर आया होगा...खाली टाइम में यहीं घूम रहे होंगे रामलीला वाले ये सज्जन...लेकिन प्रभामंडल देख हैरानी में पड़ चुका था। मुझे वो अलौलिक लग रहे थे। अँधेरे में चेहरा ही नहीं बल्कि पूरा शरीर शनैः शनैः प्रकाशित हो रहा था…मैंने सोचा कि कहीं लगाई तो नहीं…फिर याद आया कि अरे, अभी घर पहुँचा ही नहीं हूँ।

भक्त नैतिक रूप से समर्थवान होना चाहिए जो भगवान से आँखे चार कर सके। मेरी क्या बिसात.. मेरे माथे पर पसीना आने लगा। कुछ पल वो देखते रहे, मैं सँभला और पूछा..."आप मुझे देख रहे हैं?" उस सज्जन ने कहा, "हाँ पुत्र, तुम कहाँ जा रहे हो? क्या मेरी सहायता करोगे?"
मैंने हिम्मत कर पूछा..."आ...आ...आप कौन?"
वो बोले, "मैं राम हूँ। अयोध्या का राम।"
इतना सुनते ही मैं मूर्छित होने की कगार पर था कि फौरन सँभला और सवाल किया, रा...रा...राम...आप…आप प्रभु श्री राम?
उन्होंने कहा, "हाँ पुत्र…मैं ही राम हूँ।"
इतना कहते ही उनका एक हाथ ऊपर उठा...हथेली खुली और उसमें से मेरी तरफ़ आशीर्वाद की किरण लपकी। ठीक वैसे ही जैसे फ़िल्मों में देखा था। धन्य हुआ मैं साक्षात प्रभु मेरे सामने थे। अहा...मर्यादा पुरुषोत्तम राम वो भी अकेले में...कई आशीर्वाद, वरदान वगैरह मिलेंगे, यह सोचकर खुश हुआ जा रहा था। सारी दुनिया का ऐश्वर्य मेरी आँखों के सामने तैर रहा था।

"पुत्र, मेरी सहायता करो" प्रभु बोले। मैंने कहा, "हे मर्यादा पुरुषोत्तम, हे दयानिधान, सर्वशक्तिशाली...मैं तो धन्य हूँ आपके दर्शन मात्र से...किंतु प्रभु...मैं अदना-सा प्राणी आपकी क्या सहायता करूँ?"
"पुत्र, बैकुंठधाम में मुझे समाचार मिला था कि मेरे होने ना होने की बात कलयुग में उठ रही है। पृथ्वीलोक के किसी राजा ने मेरे अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाया है।"
''नहीं...नहीं प्रभु...राजा ने नहीं रानी ने-'' मैं तत्क्षण बोला। प्रभु फिर बोले, "हाँ वही पुत्र...किंतु मैं विचार कर रहा हूँ कि मेरे होने नहीं होने का सवाल कैसे उठता है। क्या कलयुग में प्राणियों ने मेरी शिक्षाएँ विस्मृत कर दीं? क्या असुरों का वर्चस्व हो गया?"
"नहीं प्रभु, ऐसे असुर तो इधर इंडिया में दिखते नहीं। हाँ...बाहर से इंपोर्ट होते रहते हैं...यहाँ की सरकार पकड़ भी ले तो घुमा-फिराकर पुष्पक में बिठाकर बाहर तक एक्सपोर्ट कर आ जाती है। बाकियों को छुड़ाने के लिए ह्यूमन राइट्स वाले हैं। किंतु रावण के जिन वंशजों को आपने जीवनदान दिया था, उन्हीं की पुश्तों ने यहाँ पार्टियाँ ज्वाइन कर ली हैं। वे ही राजपाट सँभाल रहे हैं।"
प्रभु बोले, "पुत्र, जो भी हो। चूँकि, सभी युगों में विविध आचार व्यवहार संहिता होती आई है। इसलिए मैं कलयुग में आकर वर्तमान मानदंडों के अनुरूप आचरण करूँगा। नारद मुनि का कहना था कि किसी न्यायालय में मुझे अपने अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए सशरीर उपस्थित होना पड़ेगा। मुझे वहाँ ले चलो जहाँ न्यायालय हो। मैं स्वयं उपस्थित होकर अपने होने का प्रमाण दूँगा पुत्र।"

कहाँ मैं सांसारिक सुखों को भोगने की प्लानिंग कर रहा था और कहाँ प्रभु मुझे अदालती चक्कर में फँसाने की बात कर रहे थे। मैं भक्तिभाव की तंद्रा से जागा…सांसारिक अवगुणों से ग्रस्त हूँ, इसलिए तुरंत भक्तिरस के कैमिकल लोचे से बाहर आ गया। सबसे बड़ा डर मुझे प्रभु के इस तरह एकाएक पदार्पण पर था। तत्क्षण मेरा दिमाग़ चकराया और मुझे सरकारी हलफ़नामे से लेकर चक्काजाम, ख़ून खराबा, कोर्ट कचहरी, संसदीय जूतम-पैजार, रैली-भाषण, दंगे-फ़साद सब याद आने लगे। ओहहह…

"प्रभु…सरकार से बड़ा कोई नहीं है प्रभु...सरकार ने कह दिया कि आप नहीं थे तो मानने में क्या हर्ज़ है? मान लो प्रभु...सरकारों से पंगे लेना विवेकपूर्ण कृत्य नहीं है प्रभु। प्लीज़, आप इधर कोने में आइए हे पुरुषोत्तम...कहीं यू.पी. पुलिस ने देख लिया तो शामत आ जाएगी। आए दिन एनकाउंटर करते रहते हैं। पता नहीं कब रासुका-वासुका, टाडा-मकोका लगाकर अंदर कर दे। सरकार ने कहीं आपको देख लिया तो राष्ट्रद्रोह का आरोपी बनाकर जेल में ठूँस देगी। प्रभु, आप कोई नेता-अभिनेता तो हो नहीं जो ज़मानत-अमानत करवा लेंगे। आप जगत के सामने सशरीर आ गए तो सरकार की विश्वसनीयता का क्या होगा? सरकार की बेइज़्ज़ती हो जाएगी। हे कौशल्यानंदन…मेरी मानो कलटी मार देते हैं यहाँ से...।"
प्रभु बोले, "तो चलो पुत्र...जहाँ से आए हो वहीं चलते हैं।"

मैं सकपका गया, तुरंत बोला, "नहीं नहीं प्रभु, जहाँ से आया वहाँ फिर क्यों ले जा रहे हो। ड्यूटी पूरी कर चुका हूँ। आप ही का नाम लेकर ड्यूटी करता हूँ। 'जितनी तनख्वाह उतना काम, रघुपति राघव राजा राम'...उधर फ़िल्मसिटी है। कई चैनलों के स्टूडियों हैं। अपन वहाँ पहुँच गए और किसी रिपोर्टर ने देख लिया तो पकड़ लेगा। फिर जो दुर्दशा होगी…ओह। सारा दिन आपसे चमत्कारों के खेल कराएँगे, रामानंद सागर की 'रामायण' के डायलॉग बुलवाएँगे। दर्शकों से फ़ोन पर सीधी बात कराएँगे। इतना ड्रामा जब दिनभर में हो जाएगा तो रात होते-होते पुलिस भी बुला लेंगे और सरेंडर का लाइव टेलीकास्ट करेंगे। दिन में चैनल और फिर रातभर पुलिस। बड़ा बुरा होगा प्रभु, भक्त की अर्ज सुनो और निकल चलिए मेरे साथ...।"
इतने अनुरोध पर भी प्रभु नहीं माने, कहने लगे, "भक्त तो आओ इधर चलते हैं।" और आगे बढ़ने लगे।

मैं उनके चरणों में लपका और कहा, "उधर, कहाँ जाना है प्रभु, आप मर्यादा पुरुषोत्तम राम हैं। उधर मर्यादित आचरण नहीं होता प्रभु। वो रास्ता दिल्ली को जाता है। जैसे आपकी राजधानी अयोध्या थी, इस कलयुग में भारत (अनुच्छेद एक के अनुसार भारत, जो कि इंडिया है) की राजधानी यही दिल्ली नगरिया है। वहाँ बहुत सारे राजनीतिक दलों के दफ़्तर हैं। प्रभु चुनाव निकट हैं, आप सशरीर हाथ लग गए तो रैलियाँ-भाषण करा-कराकर थका देंगे। आपके आने से पहले ही रामानंद की रामायण के कई एक्टरों को ये लोग रोड़ शो करा चुके हैं। एक बार इन पर तरस खाकर इनका काम कर भी दिया तो अगले चार साल तक ये आप पर तरस नहीं खाएँगे। हे अयोध्या नरेश, आप इस कचाइन में कूदने की चेष्टा क्यों कर रहे हैं।"

प्रभु मेरी प्रार्थना मान गए और मेरे साथ चलने लगे। हम कुछ आगे बढ़े, नाला क़रीब था। दिल्ली की सारी गंदगी इसी नाले में बहते हुए नोएडा तक आती है। बदबू से नाक सिकोड़ते हुए प्रभु आगे बढ़ते रहे। नाले पर बने पुल को देखते ही प्रभु बोले, "पुत्र, नल और नील की याद आ गई। उन कुशल वानरों ने इससे सहस्त्र गुना चौड़े सागर के दो पाटों पर सेतु बना दिया था।"

मैं नए संकट में! जैसे-तैसे प्रभु को फ़्लैशबैक में जाने से रोकता हूँ, वो बार-बार त्रेतायुग में चले जाते हैं। जिस सवाल से पुरातात्विक विभाग वाले नहीं पार पा सके, उस सवाल को मेरे जैसा अपुरातात्विक महत्व का प्राणी से कैसे हल कर सकता है। मैंने दोबारा कहा, "चलिए आप मेरे साथ," प्रभु मेरे साथ चल पड़े।
एक रिक्शेवाले को रोका। वो रुककर प्रभु को ग़ौर से देखने लगा। इससे पहले कि वो भी जकड़ता, मैंने फ़ौरन रिक्शेवाले को कहा, "क्या देख रहे हो भाई, हम रामलीला वाले हैं। सेक्टर 15 ले चलो, पंद्रह रुपए देंगे।" प्रभु को बिठाया आगे और मैं पीछे लटक लिया। रिक्शा घर तक पहुँचा.. शुक्र है, किसी ने ज़्यादा देखा-देखी नहीं की। मेरे अनुमान से सभी अपने-अपने घरों में भारत-पाकिस्तान के बीच ट्वेंटी-ट्वेंटी विश्वकप का मैच देख रहे थे।

घर पहुँचते ही प्रभु को अपने कमरे तक लेकर आया और हाथ पैर धुलाए। घर में सारी चीज़ें अस्त-व्यस्त पड़ी थीं। प्रभु देखकर मुस्कुराए और कहा, "तुम अभी तक कुँवारे हो।" मैंने कहा, "प्रभु आपकी कृपा रही तो आगे नहीं रहूँगा।"
प्रभु को शबरी ने जूठे बेर खिलाए थे। बेर मेरे पास कहाँ से होते, फ्रिज खोलकर देखा तो कोला, केक और अगड़म-बगड़म पड़े थे। नीचे देखा...हाँ सेब दिखा...मैंने प्रभु को प्रस्तुत किया। अयोध्यानंदन सेब खाने लगे। कृपानिधान किसी का निवेदन ठुकराते नहीं...मैं प्रभु के चरणों में बैठ गया।

टीवी चालू किया तो चैनल ख़बरियाने लगे। सरेआम मुँह काला करने की ख़बर, तोड़-फोड़, रिश्वतखोरी, स्टिंग ऑपरेशन, बलात्कार… प्रभु की आँखे छलछला रही थीं…मैंने टीवी बंद कर दिया।
प्रभु की डबडबायी आँखे...मेरी ओर उठी और कहा, "पुत्र, तुमने अच्छा किया जो मुझे बता दिया कि इस स्वार्थी संसार में मेरे जीवनचरित का कोई महत्व नहीं रहा। अब मेरी किसी को आवश्यकता नहीं। ऐसे कलयुग से मेरा युग अच्छा था। राक्षस उस काल में भी थे किंतु उस समय सुर और असुर में अंतर देखते ही समझ आ जाता था। क्या करूँगा इन्हें अपने अस्तित्व का प्रमाण देकर। मुझे वापस जाना होगा, अपने बैकुंठधाम में।"

प्रभु के वचन सुनकर मेरी आँखों में आँसू उतर आए...प्रभु सर्वशक्तिशाली थे। आज अपने को अप्रासंगिक मान रहे हैं। मुझे अपने कलयुगी होने पर शर्म आने लगी। मैंने प्रभु से कहा, "हे मर्यादा पुरुषोत्तम…आप मेरे मन में बस जाओ..मन में रहो प्रभु, आप खुद यही कहते आए हो कि मैं तो चाहने वाले के दिल में रहता हूँ, भक्तों के हृदय में रहता हूँ। मेरे मन में ही रहो प्रभु, सरकार का डर भी नहीं होगा। सरकार खुद कह चुकी है कि लोगों के मन में रहते हैं राम। तो क्यों ना लोकतांत्रिक कल्याणकारी राज्य में संवैधानिक आचरण करते हुए आप मेरी बात मान ही लो...हे कौशल्यानंदन, मान लो मेरी बात...मेरे मन में रहो।"
और प्रभु मान गए। मेरे राम मान गए और मेरे मन में समा गए..
राम हृदय में है मेरे, राम ही धडकन में है
राम मेरी आत्मा में, राम ही जीवन में है
राम हर पल में है मेरे, राम हैं हर स्वांस में
राम हर आशा में मेरी, राम ही हर आस में
राम ही तो करुणा में है, शांति में राम है
राम ही है एकता में, प्रगति में राम है
राम बस भक्तों नहीं, शत्रु के भी चिंतन में है
देख तज के पाप रावण, राम तेरे मन में है
राम तेरे मन में है, राम मेरे मन में है
राम तो घर घर में है, राम हर आँगन में है
मन से रावण जो निकाले, राम उसके मन में है
(अंतिम पंक्तियाँ जावेद अख़्तर की लिखी हुई हैं। फ़िल्म 'स्वदेस' से साभार)

१६ अक्तूबर २००७

 
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