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 मौसम में ठंड ने घुसपैठ करनी शुरू कर दी थी। 
अयोध्यावासी दीपावली की तैयारी करने में ज़ोर-शोर से जुटे थे। वायुमंडल में रह-रहकर 
विस्फोट और बारूद की बू अपने लगी थी। जैसे-जैसे विस्फोट की आवाज़ और बारूद की बू का 
हवा में प्रसारण होता, वैसे ही वैसे लंकेश-पत्नी मंदोदरी का धड़ी भर का मन 
छटंकी-छटंकी हो जाता। ''लो, विजयादशमी फिर आ गई'' वह यह सोच सिर पकड़कर बैठ जाती। 
उसकी चिंता उचित थी। विजयादशमी को फिर लंकेश परिवार का अंतिम संस्कार होगा और एक 
बार पुन: मंदोदरी को मंगल सूत्र तार-तार करना पड़ेगा। हाथ की चूड़ियाँ फिर टुकड़े-टुकड़े 
करनी होंगी। हर वर्ष विधवा! आखिर कब तक सहन किया जाए, यह दारुण दुख। चिंतित मंदोदरी 
ने राम के समक्ष आत्म-समर्पण करने का आग्रह लंकेश से करने का विचार किया और छटंकी 
मन व प्रस्ताव के साथ लंकेश दरबार की ओर चल दी। 
लंकेश का जनता दरबार लगा था। द्वार पर तैनात प्रहरी एक-एक व्यक्ति की जमा-तलाशी 
लेकर उन्हें दरबार में प्रवेश करा रहे थे। दरबार में प्रवेश कर वे महाराज का 
अभिवादन करते और उनका सचिव भ्राता खर-दूषण छीनने की तर्ज पर उनके हाथ से ज्ञापन ले 
लेता। कोई व्यक्ति कुछ बोलने की हिम्मत करता कि उससे पूर्व ही सुरक्षा कर्मी उसे 
बाहर का रास्ता दिखला देते।  
इस प्रकार जन-नायक लंकेश के साथ जनता की भेंट का 
सिलसिला जारी था, तभी दूत ने अभिवादन करते हुए लंकेश को सूचना दी, 'महाराज! मलेच्छ 
प्रदेश की मुख्यमंत्री आदरणीय मंदोदरी दरबार में पधार रही हैं।'  
इसी के साथ काले वस्त्रों में सुसज्जित मंदोदरी ने दरबार में प्रवेश किया। उसके 
खुले केश हवा में ध्वज की समान लहरा रहे थे। कमल पात के समान विस्तृत कमल-नयनी की 
पलकों पर अश्रुकण सुशोभित थे और जनता दरबार में दरबारियों के हाथ अपनी पीड़ा छिनवा 
कर दरबार से बाहर की तरफ़ धकियाए जा रहे लोगों के समान उनका चेहरा क्लांत था। 
महारानी मंदोदरी का ऐसा रूप देख लंकेश के दरबारी ऐसे सहम गया, मानो कोई मानव-बम 
दरबार में प्रवेश कर गया हो। 
गरीबी रेखा के नीचे खिंची रेखा पर लटकी जनता के 
समान लंकेश को प्रणाम कर मंदोदरी बोली, 'हे, नाथ! पीड़ा अब असहनीय हो गई है। मैं 
बार-बार विधवा होती रहूँ, मुझ से अब यह और सहन नहीं होता। बार-बार आपके दिवंगत होने 
और मेरे विधवा होने का यह सिलसिला आखिर कब तक चलता रहेगा।'  
अश्रुओं से कोमल कपोल सिंचित करती मंदोदरी आगे बोली, 'हे प्राणनाथ! आपको तो भगवान 
शिव का वरदान प्राप्त है, जितनी बार दिवंगत होंगे, आप तो उतने ही नए शीश लेकर 
पुनर्जन्म को प्राप्त होते रहेंगे! जीवन-मरण की इस राजनीति में आप तो दशानन से 
शतानन हो गए हो, मगर मैं?... मैं तो निरीह जनता की तरह लोकतंत्र की इस चक्की में 
उसी तरह पिसे जा रहीं हूँ, जिस तरह गेहूँ के साथ घुन!' 
प्रिय मंदोदरी के ऐसे वचन सुन लंकेश हँस दिया 'प्रिय तुम एक विशाल प्रदेश की 
मुख्यमंत्री हो और क्या चाहिए, तुम्हें। क्या तुम विधवा होने का नाटक भी नहीं कर 
सकती?'  
लंकेश ने प्रिय मंदोदरी को ढाढ़स बँधाते हुए कहा, 'प्रिय! राजतंत्र नहीं अब 
लोकतंत्र है और लोकतंत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए नाटक परम आवश्यक है।'  
चेहरे पर गंभीर भाव का आवागमन करते हुए क्षणिक विराम के उपरांत लंकेश ने आगे कहा, 
'कौन कहता है, तुम बार-बार विधवा हो रही हो? त्रेता से लेकर आज तक तुम अक्षुण्ण 
सुहागिन हो और सदैव सुहागिन ही रहोगी। चिंता का त्याग करो, प्रिये और निश्चिंत हो 
कर सत्ता का सुखोपभोग करो।' 
पलकों से टपके आँसू पोंछ मंदोदरी बोली, 'निश्चिंत 
हो कर सत्ता का सुखोपभोग करूँ! ..कैसे? सुहाग रोज़-रोज़ उजड़ते देखती रहूँ! 
...कैसे?  
आवेशित-लालिम-नथुने हथेली से रगड़कर मंदोदरी ने आगे कहा, 'हे नाथ! प्रतिदिन मृत्यु 
को प्राप्त होने की अपेक्षा एक बार ही मृत्यु का पूर्ण वरण कर लेना क्या श्रेयस्कर 
नहीं होगा? मैं निरंतर विधवा होने की पीड़ा से तो मुक्त हो जाऊँगी।' 
लंकेश ने अट्टहास किया, 'प्रिय, मंदोदरी! तुम मलेच्छ प्रदेश की मुख्यमंत्री अवश्य 
हो, मगर लोकतांत्रिक मूल्यों से अभी अनभिज्ञ हो! तुम नहीं जानती कि 
लोकतांत्रिक-राजनीति में पूर्ण मृत्यु का वरण करने की अपेक्षा प्रति क्षण मृत्यु को 
प्राप्त करना अधिक लाभप्रद है। वही नेता सत्ता का परम पद प्राप्त करने में सफल होता 
है, जो प्रति क्षण मृत्यु का वरण करता है। प्रिये! जिसे तुम मृत्यु कह रही हो, वह 
मृत्यु नहीं, नव-जीवन है, नव-जीवन। लोकतंत्र में यही श्रेयस्कर है।' 
मंदोदरी ने वक्ष-स्थल से खिसक आए साड़ी के पल्लू को 
पुन: यथास्थान जमाया, खुले केश सँवारे और बूचड़खाने में बँधी बकरी के समान मिमियाते 
हुए बोली, 'नहीं-नहीं-नहीं, प्राणनाथ नहीं! विजयदशमी पुन: नजदीक है। आपका वध किया 
जाएगा और सार्वजनिक रूप से पुन: बंधु-बांधवों सहित आपका अंतिम संस्कार कर दिया 
जाएगा! 
मंदोदरी के कपोल-सीमा पार कर अश्रु वक्षस्थल पर सुशोभित होने लगे थे। उसने दृष्टि 
वक्षस्थल पर डाली और विलाप करती हुई बोली, 'मुझे इस पीड़ा से बचा लो नाथ! ...इस पीड़ा 
से बचा लो। ...भगवान राम के समक्ष आत्मसमर्पण कर दो नाथ!  
...युगों से चली आ रहे इस वैर पर सदैव के लिए विराम लगा दो, नाथ...!' 
मंदोदरी अपनी व्यथा को विस्तार दे पाती, इससे 
पूर्व ही लंकेश अट्टहास करते हुए बोला, '...और लंकेश पुन: एक नई शक्ति के साथ 
अवतरित होगा, आहऽऽऽहा।'  
इसके उपरांत लंकेश आश्चर्य-भाव से बोला, '..अंतिम संस्कार! ..नहीं, प्रिये! मेरा 
अंतिम संस्कार करे, राम के पास अब वह शक्ति कहाँ! मेरा अंतिम संस्कार नहीं, मेरे 
पुतले दहन कर कुंठा का निष्कासन है, यह।'  
लंकेश मुस्करा कर बोला, 'पुतले दहन के अतिरिक्त लोकतंत्र में विपक्ष के पास अन्य 
कोई विकल्प भी तो शेष नहीं है। सुनो, प्रिये! पुतले दहन कर राम मुझे महिमा-मंडित कर 
रहा है, महिमा-मंडित! ऐसा कर तुम्हारा राम बता रहा है कि सत्ता पर आज भी मेरा ही 
अधिकार है और मैं ही लंकेश हूँ।' 
मंदोदरी ने पुन: दोहराया, 'भगवान राम के समक्ष आत्मसमर्पण करना ही श्रेयस्कर होगा, 
नाथ!' 
'क्या कहा तुमने, राम के समक्ष आत्मसमर्पण कर दूँ! उसके समक्ष जो स्वयं शक्ति विहीन 
है। प्रिय, तुम्हारा राम राजनीति के दुष्चक्र में फँस चुका है और उसकी तमाम 
शक्तियाँ आज मेरे साथ हैं।' लंकेश ने गर्व के साथ कहा। 
प्रिय मंदोदरी को दिलासा देते हुए लंकेश ने आगे कहा, 'प्रिय! ...भ्राता विभीषण का 
राम दरबार से मोह भंग हो चुका है। उसे लंका का राज्य तो क्या विधायक का भी टिकट 
नहीं दिला पाए राम। भ्राता विभीषण आज लंका के गृहमंत्री पद पर सुशोभित हैं। 
परिधान-प्रिय विभीषण को क्षण-प्रतिक्षण परिधान बदलने की पूर्ण प्रबंध कर दिए गए 
हैं। प्रिय सुग्रीव खाद्य मंत्री हैं और मस्त चारा चर रहें हैं। बाली पुत्र, प्रिय 
अंगद के हाथों में लंका का प्रतिरक्षा विभाग है और समुद्र वित्तमंत्री। प्रिय 
तुम्ही बताओ तुम्हारे राम के पास अब बचा ही क्या है?' 
'मगर, महाराज! यह तो आपके आदर्श व मर्यादा के विपरीत है।' मंदोदरी बोली। 
लंकेश के अट्टहास से पुन: दरबार गूंज गया। 
अट्टहास करते-करते वह बोला, 'आदर्श-गरिमा! लोकतांत्रिक-राजनीति में आदर्श-गरिमा 
महत्वहीन हैं। ...प्रिय! राजनीति में दोस्ती और दुश्मनी कभी स्थायी नहीं होती। वही 
मार्ग आदर्श कहलाता है, जो सत्ता तक पहुँचाए और सत्ता को अक्षुण्ण रखे। ऐसी गरिमा 
का क्या लाभ प्रिय, जो व्यक्ति को भटकने की राह पर ला खड़ा करे। गरिमा तो 
क्रय-विक्रय की वस्तु है। सत्ता यदि हाथ में हो तो गरिमा स्वयं वरण कर लेती है।' 
लंकेश ने पुनः: मंदोदरी को दिलासा दी, 'प्रिय मंदोदरी! जाओ भयमुक्त हो कर राज करो। 
त्रेता से आज तक तुम्हारा पति लंकेश प्रति क्षण मृत्यु का वरण कर लंकेश से 
सहस्र-सहस्र शतानन हो गया है और राम बेचारा तब भी वन-वन भटक रहा था और आज भी। 
जाओ सत्ता सुखोपभोग करो मंदोदरी, सत्ता सुखोपभोग करो!' 
६ अक्तूबर २००८  |