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हास्य व्यंग्य


राजनीति में पालतू
राजेंद्र त्यागी


शहर भर के पालतू सारी रात वार्तालाप में व्यस्त रहे। गली-मुहल्ले में जा-जाकर, घर-घर जा-जाकर। कई जगह तो नुक्कड़ सभाओं जैसा आलम था। शहर स्तब्ध था। एक-दूसरे को फूटी आँख भी न सुहाने वालों के बीच अचानक प्रेम संबंध! स्तब्ध होने के साथ-साथ शहर भयभीत भी था। शहर सोच रहा था कि पालतुओं के मध्य ऐसा प्रेम व्यवहार, ऐसा सौहार्द पूर्ण वार्तालाप पहले, न तो कभी देखा और न सुना! कहीं कोई मुसीबत न खड़ी कर दें। पालतू आने वाले खतरे को भी दूर से भाँप लेते हैं, पालतुओं के मध्य इतनी सक्रियता, कहीं संभावित खतरे के कारण ही तो नहीं! कारण कुछ भी हो, कोई न कोई खतरा तो अवश्य है। यही सोच-सोचकर शहर भयभीत भी था। बावजूद इसके शहर सोया, मगर श्वान निद्रा में!

दरअसल शहर पालतू-प्रेमी था। किसी का कोई वीरान घर ऐसा होगा, जो पालतुओं से शोभायमान न हो, उनकी मधुर आवाज से गुंजायमान न हो। कमजोर वर्ग कमजोरों पर स्नेहिल हाथ फिराकर पालतू-प्रेमी होने का अहसास कर लेते थे। मध्यवर्गीय अपनी-अपनी हैसियत के हिसाब से बाकायदा एक-दो पाले रखते थे। उच्चवर्ग की तो बात ही अलग थी, जब तक दो-तीन पालतू और दो-तीन बे-पालतू फालतू में दरवाजे पर न हों तो कैसी रईसी! शहर में नेताओं की भी कमी न थी। छुट भइया से लेकर बड़-भइया तक हर किस्म के और हर स्तर के नेता शहर के बाशिंदे थे। और यह भी जग जाहिर है कि नेता के दरवाजे पर एक-दो पालतू न हो, तो काहे की नेतागीरी।

मंत्रीजी और विधायक जी का आवास भी इसी शहर की शोभा बढ़ा रहा था। उनके दरवाजे पर पालतुओं की संख्या! नहीं-नहीं, हमने गिनने की जहमत क्या, कभी हिम्मत भी नहीं की और करते भी, तो क्या गिन पाते। कुछ स्थायी पालतू थे, तो कुछ बे-पालतू किस्म के पालतू अर्थात फालतू! कुछ दरवाजे पर ही जमे रहते तो अधिकांश आवागमनित रहते थे। कुछ जड़-खरीद थे, तो कुछ टुकड़ा देखकर पूँछ हिलाने की परिवर्तित प्रवृति के धनी! शहर में ऐसे पालतुओं की संख्या भी कम न थी, जिन्हें नेता किस्म के जीव म्यूनिसपैलीटी के लॉकअप से समय-समय पर मुक्त कराते रहते हैं। दरअसल नेतागीरी में म्यूनिसपैलीटी के लॉकअप से रिहा पालतू कुछ ज्यादा ही कारगर साबित होते हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मथुरा-वृंदावन में गाय का जैसा महत्त्व प्राप्त है, वैसा ही महत्त्व इस शहर में पालतुओं को प्राप्त है।

पालतुओं की सक्रियता के कारण जब समूचा शहर स्तब्ध था, भयभीत था। तब मंत्रीजी का घर चैन की नींद में सो रहा था। दरअसल मंत्रीजी पूरे घटनाक्रम से वाकिफ थे। हुआ यों कि एक दिन मंत्रीजी के पालतू पिल्लू सिंह के मन में ख्याल आया कि जब ऐरे-गैरे भी हमारे बल पर सत्ता के गलियारों में आराम फरमा रहे हैं, तो क्यों न हम भी उन गलियारों का मजा लें। वैसे भी हमारे बल पर सत्ता तक पहुँचने वाले, वहाँ जाकर हमारा ख्याल कहाँ रखते हैं! फिर, क्यों न हम वहाँ जाकर अपने अधिकारों की रक्षा करें। और, एक दिन मंत्रीजी के प्रिय पालतू पिल्लू सिंह ने सक्रिय राजनीति में प्रवेश करने की इच्छा उनके सामने जाहिर की।

प्रिय पिल्लू की इच्छा सुन मंत्रीजी स्तब्ध रह गए। आश्चर्यचकित मंत्रीजी बोले, ''तू और राजनीति में! ..तुझे इस पचड़े में पड़ने की क्या आवश्यकता! मैं हूँ न!''
मंत्रीजी के वचन सुन पालतू मन ही मन बोला- बात ठीक है, मुझमें और तुम में शक्ल के अलावा अंतर भी क्या है! फिर वह बोला, ''मालिक इसमें हर्ज भी क्या है? एक की जगह दो हो जाएँगे। पालतू ने राजनैतिक पैंतरा चलते हुए कहा, यहाँ भी पालतू हूँ, वहाँ भी पालतू रहूँगा।''
मंत्रीजी ने दूसरा सवालिया निशान लगाया, ''मगर राजनीति के काबिल तेरी हैसियत कहाँ और न ही चरित्र!''

पूँछ हिलाते हुए पिल्लू बोल, ''मालिक! तुम्हारे विरोधी उस नेता की हैसियत क्या मुझ से बेहतर है? वह भी तो आज सत्ता-सुख भोग रहा है! रही चरित्र की बात, तो आप ही बताओ मालिक राजनीति और चरित्र का परस्पर मेल कैसा? ये तो दोनों ही दो अलग-अलग ध्रुवों की अलग विचारधाराएँ हैं! फिर भी एक बात बताओ तुम्हारे विरोधी दल के नेता के मुकाबले मेरा चरित्र कहाँ कमजोर है? वह तो जिस थाली में खाता है, उसी में छेद करता है।''

पिल्लू दौड़ा-दौड़ा बाहर की ओर गया और वहाँ से खाने की थाली उठाकर लाया और मंत्रीजी को थाली दिखाकर बोला, ''बरसों से इसी थाली में खाना खा रहा हूँ, कहीं एक भी छेद है, इस थाली में!''
पिल्लू ने जीभ से लार टपकाई और बोला, ''मालिक! मैं तुम्हारे टुकड़े खाता हूँ और केवल तुम्हारे हर तलवे चाटता हूँ और वह! उसने तो तुम्हारे भी तलवे चाटे, और उसके भी और न जाने किस-किस के तलवे चाटकर टिकट ले गया! फिर भी आप मेरे चरित्र को राजनीति के काबिल नहीं मानते।''

पिल्लू भावुक हो गया और आँसू टपकाता हुआ बोला, ''मालिक! उसने तलवे चाटना हमसे सीखा, पूँछ हिलाना हमसे सीखा, काटना हमसे सीखा, भौंकना हमसे सीखा और सभी कुछ हमसे सीखकर फिर उनका दुरुपयोग किया! मैंने अपने चारित्रिक गुणों का कम से कम कभी दुरुपयोग तो नहीं किया! आपने जिस पर गुर्राने के लिए कहा, में उस पर गुर्राया, जिसे काटने के
लिए कहा, उसे काटा और वह..!''

मंत्रीजी के दिमाग में बात कुछ-कुछ धँसी। बात तो ठीक कह रहा है। मेरे विरोधी से तो कहीं ज्यादा ही बेहतर है और फिर राजधानी जाकर भी तो पालतू ही रहेगा। वहाँ भी तो एक अदद भौंकने वाला, गुर्राने वाला, काटने वाला चाहिए ही! वैसे भी राजनीति तो ऐसे गंगा है, जिसमें उतरकर सभी दूध के धुले हो जाते हैं! वहाँ कोई भेद-भाव तो है नहीं -सब धान सत्ताईस सेर!

सोच-विचार करने के बाद मंत्रीजी बोले, ''ठीक है! तू कहता है, तो राजनीति की पवित्र धारा में तेरा प्रवेश करा देता हूँ। मगर कुछ व्यवहारिक अड़चनें आएँगी, उनसे कैसे निपटेगा?''
एकलव्य बन पिल्लू ने मंत्रीजी के चरणों मे ही बैठे-बैठे राजनीति के गुर सीख लिए थे। वह तलवे चाटता-चाटता राजनीति के सभी दाँव पेच और रहस्यों से परिचित हो गया था, अत: उसने आत्मविश्वास के साथ कहा, ''कैसी व्यवहारिक अड़चनें, मालिक! बताएँ, आपकी शरण में रहकर राजनीति की पैंतरेबाजी सीखी है, सभी अड़चनें सहज ही हल कर लूँगा।''

मंत्रीजी बोले, ''तुम भाषण देना तो जानते ही नहीं? बिना भाषण के नेतागीरी कैसे संभव, बरखुरदार!''
मंत्रीजी की आशंका सुन पिल्लू ने ठहाका लगाया और मन ही मन बोला-मालिक तुम भी तो मेरी ही तरह भाषण देते हो। तुरंत ही पिल्लू ने अपने आपको सहज किया और बोला, ''माननीय! अधिकांश नेता मेरे ही सुर में भाषण देते हैं। उन्होंने यह कला हम ही से तो सीखी है और आप जानते ही हैं, मैं तो इस कला में निपुण हूँ। इस कला के आधार पर ही तो मुझे आपका पालतू होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। ..नहीं, नहीं भाषण देना कोई समस्या नहीं है!'' शंका निवारण कर पिल्लू ने वा
णी को विराम दिया और मंत्रीजी के मुख से नई व्यवहारिक दिक्कत सुनने की प्रतीक्षा करने लगा।

''भाषण तो ठीक है, मगर इस देश में तो गरीब, अमीर मध्यवर्गीय सभी तबके के जीव हैं। सभी का समर्थन कैसे प्राप्त करोगे?'' मंत्रीजी ने अगला सवाल किया।
पिल्लू बिना किसी लागलपेट के बोला, ''जैसे आप जुटा लेते हैं, मालिक!''
पिल्लू का उत्तर सुन मंत्रीजी सकपका गए और बोले,''क्या मतलब?''
''साफ तो है, मालिक! गरीब तबके को मैं शोषण से मुक्ति दिलाने की बात करूँगा। उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत करने के लिए समाजवाद का नारा बुलंद करूँगा।''
''मगर, बरखुरदार! पूँजीपतियों से क्या कहोगे? उनके बिना तो राजनीति नहीं चला करती!''
''मैं जानता हूँ, मालिक! चार-पाँच साल में केवल वोट के लिए ही गरीब आम आदमी की आवश्यकता पड़ती है, किंतु अमीर से तो रोज-रोज कमरबंद घिसना है। अत: उनके कान में कहूँगा- तुम्हारे खिलाफ सर्वहारा संगठित हो रहे हैं, मैं उनसे तुम्हारी रक्षा करूँगा। जहाँ कहीं आवश्यकता होगी तुम्हारे हित में आवाज उठाऊँगा। और मालिक आगे की बात भी बता देता हूँ-
सभी एक स्थान पर मिल गए, तो सर्वोदय का सिद्धांत जिंदाबाद! सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय! ..जैसा गाल वैसा तमाचा!''

पिल्लू सिंह की राजनैतिक विचारधारा सुन, मंत्रीजी के चेहरे पर गंभीर भाव काबिज हो गए। पालतू और अपने बीच किसी प्रकार का पर्दा न रखने की गलती पर उन्हें पछतावा आने लगा। और सोचने लगे पछताने से भी अब क्या होता है, चिड़िया तो अब खेत चुग कर ही दम लेंगी। कोशिश बस यही होनी चाहिए कि नुकसान कम से कम हो। इस पछताने के गलियारे बाहर निकलने का प्रयास करते हुए मंत्रीजी ने शंकायुक्त अंतिम प्रश्न किया, ''यह तो ठीक है कि राजनीति के हर पैंतरे का तुम्हें ज्ञान है, किंतु, प्रिय पिल्लू! राजनीति में पालतुओं के प्रवेश को विरोधी दल के नेता मुद्दा बना लेंगे और राजनीति की शुद्धता, शुचिता को आधार बनाकर इसका विरोध करेंगे। इस मुद्दे पर आम जनता भी उनके साथ हो जाएगी! तब क्या करोगे?''
''बेशक! ..किंतु कोई फर्क नहीं पड़ता! इस मुद्दे को भी आपके ही फार्मूले से ध्वस्त कर दूँगा।'' पिल्लू के मुख पर पहले जैसा ही आत्मविश्वास झलक रहा था।
नेताजी ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा, ''मेरा फार्मूला!''
''हाँ, मालिक! आपका फार्मूला! ..जिस प्रकार राजनीति में प्रवेश पा चुका प्रत्येक अपराधी राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ बोलता है। उसी प्रकार मैं भी जहाँ आवश्यकता होगी राजनीति में पालतुओं के प्रवेश खिलाफ खुलकर बोलूँगा और अपने
साथियों से भी खिलाफत कराऊँगा। मगर मालिक पतनाला तो वहीं गिरेगा जहाँ मैं चाहूँगा!''

अंतत: मरता क्या न करता की तर्ज पर मंत्रीजी ने उसे राजनीति में प्रवेश करने में प्रिय पालतू पिल्लू सिंह को हर संभव सहायता देने का वचन दे ही दिया। वे जानते थे यदि न भी देते तो भी पिल्लू का राजनीति में प्रवेश-निषेध वैसे ही असंभव था जैसे कि राजनीति में भ्रष्टाचार अथवा अपराध निषेध! मंत्रीजी ने गीली आँखों से उसे आशीर्वाद देते हुए कहा,''जाओ वत्स! पालतू-रथ पर सवार होकर जनसंपर्क करते हुए दिल्ली प्रवेश करो। मैं तुम्हारे स्वागत के लिए वहाँ तत्पर हूँ।''
भोर हुई उनींदा-उनींदा सा शहर जागा। शहर अभी रात के भय और स्तब्धता से मुक्त भी न हो पाया था कि आँख खुलते ही शहर के सभी पालतुओं को सेंटर पार्क की ओर गमन करते पाया। शहर की आँखें फटी की फटी रह गई।

दरअसल सेंटर पार्क में पालतू एकता कमेटी की सभा थी। इसी सभा के आयोजन के लिए शहर के पालतू रात भर जनसंपर्क और गुफ्तगू में मशगूल थे। इसी सभा के बाद मंत्रीजी के पालतू ने बिरादरी की सहमति प्राप्त कर उनके अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष का बिगुल बजाना था। और इसी पार्क से रथ पर सवार होकर पालतू-रथ-यात्रा का शुभारंभ
भी करना था। और समूचे देश की यात्रा करते हुए समापन राजधानी जाकर करने की योजना थी।

धीरे-धीरे समूचा पार्क पालतुओं से भर गया था। चारों दिशाएँ पालतू एकता जिंदाबाद के नारों से गुंजायमान थी। भीड़ की तादाद देखकर गली मोहल्ले के पालतुओं ने जाकर पिल्लू सिंह को सूचना दी। सूचना पाते ही पिल्लू ने अपने कारवां के साथ पार्क की चारदीवारी में प्रवेश किया। उसने आज मलमल कर स्नान किया था। माथे पर तिलक सुसज्जित था और गले में तिरंगा पट्टा। पिल्लू को देखते ही जिंदाबाद के नारे गूँजने लगे। मंच पर आकर पिल्लू ने हाथ हवा में लहराकर सभी का अभिवादन किया और मान-सम्मान की रस्म अदा होने के उपरांत उसने भाषण दिया।

अपने भाषण में उसने सर्वहारा, अक्सरियत, दलित, समाजवाद, साम्यवाद, सामाजिक न्याय, सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय और सर्वोदय जैसे राजनीतिक शब्दों का खुलकर इस्तेमाल किया। सर्वजन को उनके अधिकारों की रक्षा के प्रति आश्वस्त कर रथयात्रा का शुभारंभ किया। नेता पिल्लू सिंह ने अपने दल में कुछ गधों को भी शामिल करने की मंच से घोषणा की। उनमें से एक वयोवृद्ध को राजधानी के विजय रथ पर सम्मानित स्थान भी दिया और उसकी मेहनत, ईमानदारी और वफादारी की चर्चा करते-करते उसने दल-बल सहित राजधानी की ओर कूंच किया। और, शहर! ..शहर अतीत और वर्तमान को भुलाकर भविष्य की चिंता में डूब गया।

२८ जून २०१०

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