मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


हास्य व्यंग्य

मैं अकेला बैठा हूँ
- विष्णु बैरागी


राखी पर मैं घर में अकेला ही बैठा हूँ। पत्नी तो हिम्मत करके मायके चली गई है किन्तु मैं उसके जैसा हिम्मतवाला नहीं हो सका।

हर साल की तरह इस साल भी जीजी को फोन किया था तय करने के लिए कि वह राखी पर आ रही है या फिर मैं ही उसके पास चला जाऊँ। उसने न तो आने की हामी भरी और न ही मुझे आने को कहा। यह सब इशारों-इशारों में नहीं, खुल्लम खुल्ला हुआ। सो, इस राखी पर मैं घर में अकेला ही बैठा हुआ हूँ। मेरी राखी इस बार भारत सरकार और मनमोहनसिंह की खुली अर्थनीति से बनी सामाजिकता की भेंट चढ़ गई। जीजी ने इनका नाम तो नहीं लिया लेकिन जो कुछ कहा, वह इन्हीं का कहा हुआ था।

उसने कहा कि यदि मैं आऊँ तो त्रिभुवनदास जवेरी और वोडाफोन के और ऐसे ही सारे विज्ञापन देख कर इनमें से किसी एक की सलाह पर अमल करके ही आऊँ। ‘वर्ना आने का क्या फायदा?’ जीजी ने कहा।

मैंने कहा कि उसकी रक्षा करने के वचन का ‘रीन्यूअल’ करने का मौका मुझे साल में इसी दिन मिलता है। मेरा जवाब सुनकर वह बहुत हँसी। बोली- ‘मेरी रक्षा की फिकर छोड़। तू अपनी ही कर ले तो बहुत है।’ उसने आगे कहा –‘बड़े नेता की बात तो छोड़, तेरे वार्ड का पार्षद भी तेरी नहीं सुनता। शहर का कोई गुण्डा-बदमाश तेरी नमस्ते का जवाब नहीं देता। पुलिस का अदना सा जवान भी तुझे नहीं जानता। तू तो भला आदमी है। रक्षा की जरुरत तो तुझे ही है।’

जीजी की बातों से मुझे शर्मिन्दगी होने लगी। फोन के दूसरे सिरे पर बैठे-बैठे ही उसने ताड़ लिया। मुझे दुलराती बोली -‘देख भैया! मैं जानती हूँ कि तू ईमानदार, नेक, चरित्रवान और साफ बोलने वाला है। लेकिन अब तेरा जमाना नहीं रहा। तू खुद जानता है कि तेरी इन्हीं बातों के चलते तू अब तक बाबू की कुर्सी पर ही बैठा हुआ है और तेरे जूनियर तेरे सेक्शन हेड हो गए हैं। तू तो अपने अफसर की चापलूसी भी नहीं कर पाता। तेरे जैसे लोगों की जगह अब किस्सों-कहानियों, किताबों में या फिर समारोहों के भाषणों में ही रह गई है। मुझे तो तुझ पर गर्व है लेकिन तेरे कारण मुझे अपने सर्कल में झेंपना पड़ सकता है।’

मैं, जन्म से लेकर अब तक के सिलसिले को तोड़ना नहीं चाहता था। फिर, भाई-बहन के नाम पर हम दोनों ही एक दूसरे के लिए ‘इकलौते’हैं। सो मैंने इसरार किया- ‘मैं तेरे किसी भी मिलने वाले के सामने नहीं आऊँगा। चुपचाप आऊँगा और राखी बँधवा कर वैसा ही चुपचाप चला जाऊँगा।’

जीजी बोली-‘यही तो! तेरा चुपचाप आना ही सबसे ज्यादा बोलेगा। तू जानता है कि तेरे जीजाजी की सोशल लाइफ ऐसी है कि मेरी कोठी पर रात तो होती ही नहीं। तू अपने हिसाब से भले ही अँधेरे में आएगा लेकिन मेरे यहाँ तो उजाला ही रहेगा। फिर तू स्टेशन से मेरी कोठी तक या तो पैदल आएगा या बहुत हुआ तो ताँगे से। कन्धे पर झोला लटकाए, हाथ में पोलीथिन में लिपटा कोई पौधा लिए, ताँगे से उतरता हुआ तू! नहीं भैया, मैं तो इस सीन की कल्पना से ही पसीना-पसीना हो रही हूँ। तू खुद ही तय करले कि राखी के पवित्र त्यौहार पर तू मेरा स्टेटस बढ़ाएगा या कम करेगा?’

मैंने कहा- ‘भाई-बहन के रिश्तें में ये सारी बातें नहीं आतीं। यह तो तेरे और मेरे बीच की बात है।’ जीजी बोली-‘तू सही कह रहा है। लेकिन भैया! अब तो सब कुछ ग्लोबल और ओपन है।’

मैं भली भाँति समझ रहा था कि जीजी न केवल सच कह रही है बल्कि वह मेरा भला भी चाह रही है। वह बात और चिन्ता भले ही अपने स्टेटस की कर रही थी किन्तु वास्तव में मुझे उपहास से बचाना चाह रही थी। मैंने निरुपाय हो पूछा-‘तो मैं क्या करूँ?’ जीजी शायद इसी सवाल की प्रतीक्षा कर रही थी। तत्काल बोली -‘एक काम कर। तू मुझे एक मँहगा और खूबसूरत कार्ड भेज दे। मेरे यहाँ आने के लिए तुझे जितना भी खर्च करना पड़ता, उसके मुकाबले, मँहगे से मँहगा कार्ड भी तुझे सस्ता ही पड़ेगा। वह कार्ड मेरे सर्कल में मेरा स्टेटस बढ़ाएगा और तेरा स्टेटस छुपा लेगा। तू चुपचाप आने-जाने की बात कर रहा है लेकिन मैं तेरे कार्ड को अपने ड्राइंग रूम में बड़ी शान से एक्जिबिट करूँगी और अपनी सहेलियों के सामने इतराऊँगी। जमाना भी तो अब कार्ड का ही हो गया है। रिश्ता भले ही न निभा पाएँ, कार्ड तो होना ही चाहिए।’

मैंने जीजी का कहना मान लिया। उसे कार्ड भेज दिया है।
आसपास के घरों से बच्चों, किशोरियों के खिलखिलाने की आवाजें आ रही हैं। बन रहे व्यंजनों की गन्ध नथुनों में समा रही है। पूरे मुहल्ले में राखी के त्यौहार ने डेरा डाल दिया है।

बस, एक मैं ही हूँ जो घर में अकेला बैठा, अपनी सूनी कलाई को घूर रहा हूँ।

अगस्त २०१६

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।