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आज सिरहाने

 

रचनाकार
डॉ. सुधा ओम ढींगरा

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प्रकाशक
भावना प्रकाशन
१०९-ए, पटपड़गंज,
दिल्ली- ११००९१

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पृष्ठ - १२७

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मूल्य : $ १३.९५ विदेश में
कूरियर से
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भारत में- २०० रुपये

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प्राप्ति-स्थल
भारतीय साहित्य संग्रह

वेब पर दुनिया के हर कोने में

'कौन सी ज़मीन आपनी (कहानी संग्रह)

विदेशों में रह रहे भारतीय साहित्यकारों का साहित्य अक्सर या तो अपनी धरती की याद में रचा गया भावुक साहित्य होता है, अथवा पाश्चात्य जीवन शैली को उकेरता हुआ उन्मुक्त जीवन का साहित्य। किन्तु सुधा ओम ढींगरा ने अपनी कहानियों में इन दोनों के बीच का वह मध्य मार्ग तलाशा है, जो कहानियों को न केवल भारत से जोड़े रखता है बल्कि संवेदना के धरातल पर उतर कर पाश्चात्य संस्कृति की पड़ताल भी करता है।

उसमें भी एक बहुत अच्छी बात ये है कि सुधा जी की कहानियाँ भारतीय संस्कृति के महिमा मंडन और पाश्चात्य के खंडन की कहानियाँ कतई नहीं हैं। ये कहानियाँ निष्पक्ष और निर्मम रूप से दोनों को कटघरे में खड़ा करती हैं। इस बात को पूरी तरह से भुलाते हुए कि कहानीकार की जड़ें भारत में जुड़ी हुई हैं। ये कहानियाँ उस उठी हुई तर्जनी की तरह हैं जो हर उस ओर इंगित होती हैं जहाँ भी गंदगी नज़र आती है। ये कहानियाँ अपने प्रश्न लेकर भारतीय तथा पाश्चात्य दोनों ही समाजों के दरवाज़े खटखटा रही हैं।

शीर्षक कहानी 'कौन सी ज़मीन अपनी ?' अपनी ही जड़ों पर सवालिया निशान लगाने का सफल प्रयास है। विदेशों में बसे भारतीयों की पीड़ा की एक गद्यात्मक कविता है ये कहानी। इसे उस विषय पर लिखी कुछ श्रेष्ठ कहानियों में सम्मिलित किया जा सकता है।


'एग्ज़िट' कहानी का घटनाक्रम भले ही अमेरिका में घटित हो रहा है लेकिन पढ़ने वाले को ये किसी भारतीय महानगर की ही कहानी लगती है। यही इस कहानी की सबसे बड़ी सफलता है। सुधा जी की कहानियों की खास बात ये ही होती है कि भले ही वे विदेश में घटित हो रही हों, लेकिन पढ़ते समय ऐसा लगता है कि सब कुछ यहीं अपने ही देश में हो रहा है।


'टोर्नेडो' कहानी भारतीय मूल्यों की स्थापना करने वाली कहानी है। पाश्चात्य समाज और भारतीय समाज जिस एक बिन्दु पर एक दूसरे पर सर्वथा विपरीत हैं, उस बिन्दु की विशद पड़ताल है इस कहानी में। हालाँकि इस कहानी में जो केलब का चरित्र गढ़ा गया है वह किसी भारतीय अधेड़ से बहुत अलग नहीं है।

 

'सूरज क्यों निकलता है ?' ये कहानी कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानी कफन की याद दिलाती है। इसलिये नहीं कि इसकी कथावस्तु या शिल्प में वैसा कुछ है। इसलिये कि इस कहानी के पुरुष पात्र जेम्ज़ और पीटर को लेखिका ने उसी मिट्टी से गढ़ा है जिस मिट्टी से घीसू और माधव को गढ़ा गया था। ये पात्र कोई भारतीय रचनाकार ही गढ़ सकता है।

लेखिका की सामाजिक सरोकारों के प्रति सजगता को 'लड़की थी वह', 'बिखरते रिश्ते' तथा 'उसका आकाश धुँधला है' में साफ देखा जा सकता है। टूटते परिवार, बुज़ुर्गों की उपेक्षा, स्त्रियों प्रति अन्याय जैसी बातें लेखिका को उद्वेलित करती हैं और कुछ कहानियों का जन्म होता है। इन कहानियों में वो बेचैनी, वो छटपटाहट पूरी शिद्दत के साथ महसूस की जा सकती है जो लेखिका के साथ साथ पूरे समाज के चिंता का विषय है। 'उसका आकाश धुँधला है' में ये छटपटाहट अपने चरम पर है।

सुधा जी की प्रेम कहानियाँ भी आम प्रेम कहानियों की तरह नहीं हैं। 'संदली दरवाज़ा ' में प्रेम, सतह से ऊपर उठकर एक नये तरीके से सामने आया है। यहाँ पर संदली दरवाज़े को प्रतीक के रूप में जिस प्रकार प्रयोग किया गया है, वह इसे आम प्रेम कहानियों से अलग कर देता है।


'ऐसी भी होली' कहानी भारत भूमि के सूत्र वाक्य 'वसुदैव कुटुम्बकम्' की अवधारणा को मज़बूती से स्थापित करती है।

'फन्दा क्यों ?' ये कहानी लेखिका ने मानो अपनी जन्मभूमि के प्रति तथा वहाँ के निवासियों के प्रति अपनी भावनाओं को स्वर देने के लिये लिखी है। भावना ये कि बरसों से विदेश में रहने के बाद भी कुछ बारीक तंतु अब भी मातृभूमि से जुड़े हैं। आज भी मातृभूमि को कष्ट होता है तो सात समंदर पार उसकी पीड़ा महसूस की जाती है। लेखिका ने उस पीड़ा को शब्द प्रदान किये हैं। 'परिचय की खोज ' कुछ आत्मकथ्यात्मक रूप लिये हुए है।

'क्षितिज से परे' वो कहानी है जिसका जि़क्र बार बार किया जाना आवश्यक है। ये कहानी बिल्कुल चौंका देने वाले तरीके से सामने आती है। स्त्री को दोयम दर्जे का समझने वाले पुरुष समाज के प्रति यह एक मौन क्रांति का दस्तावो है। इसमें विद्रोह के लिये कहीं कोई शोर शराबा या नारेबाज़ी नहीं है। बिल्कुल सीधे और सहज तरीके से अपनी बात रखी गई है। आत्ममुग्ध पुरुष के मानसिक आक्रोश का दंश झेलती एकाकी स्त्री का प्रतिकार इतना सधा हुआ है कि उसकी गूँज हर सन्नाटे को भरती हुई गुजरती है।

सुधा जी का यह कहानी संग्रह वैश्विक समाज के वर्तमान का दस्तावो है। जिसमें हर उस कोने में लेखिका ने जाने की कोशिश की है जहाँ अँधेरा है। ये कोशिश पूरी सफलता के साथ की गई है। 'कौन सी ज़मीन अपनी..?' ये प्रश्न मानव मन की ओर से पूछा गया है नये वैश्विक समाज से। प्रश्नम को शब्द देने में लेखिका पूरी तरह से सफल हैं उन्हें मेरी बधाई तथा 'कौन सी ज़मीन अपनी..? ' के लिये शुभकामनाएँ।

-पंकज सुबीर
१४ मई २०१२

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