समकालीन कहानियों में
इस माह
प्रस्तुत है- भारत से महेश केसरी
की
कहानी क्यू आर कोड
दशहरे
की कलश स्थापना हो चुकी थी। एक ओर रामलीला शुरू हो चुकी थी तो
दूसरी ओर दुर्गापूजा के पंडालों में उत्सव और उल्लास की झलक
देखी जा सकती थी। दूकानें जगमग हो उठी थीं। बाजारों की रौनकें
देखने लायक थीं। हर शो-रूम में सेल लगी हुई थी, शाम की भीड़ का
ठिकाना न था। सड़क जाम और गाड़ियों की पों पों से कान फट रहे
थे। इस सबके बावजूद मिंटू की दूकानदारी मंदी चल रही थी। वह
गुब्बारे और फुँकनी बेचता है। कभी किसी मॉल के सामने तो कभी
मेले ठेले के द्वार पर। काम ठप हो जाने से खाने के लाले पड़े
हुए थे और ऊपर से उसका बेटा बीमार हो गया।
जब से सावन लगा था। तब से ही पूरा का पूरा सावन और भादों निकल
गया। लेकिन कहीं से पैसा नहीं आ रहा था। हाथ बहुत तंग चल रहा
था। ये सावन भादों और पूस एकदम से कमर तोड़ महीने होते हैं।
बरसात में कहीं आना जाना नहीं हो पाता। पूस खाली-खाली रह जाता
है। पितृपक्ष के कारण लोग कोई नया काम इस महीने शुरू नहीं
करते। ...आगे-
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