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आज सिरहाने

 

रचनाकार
पवन जैन
*

प्रकाशक
 अपना प्रकाशन
भोपाल
*

पृष्ठ - १२०
*

मूल्य - ३७०

फाउन्टेन पेन (लघुकथा संग्रह)

समकालीन लघुकथा पटल पर पवन जैन एक सुपरिचित हस्ताक्षर है। विगत कई वर्षों से लघुकथा के विभिन्न समूहों में आपकी सक्रिय भागीदारी रही है एवं लघुकथा शोध केंद्र, जबलपुर के संयोजक की महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा रहे हैं आप, तथापि ‘फाउण्टेन पेन’, पवन जैन का प्रथम लघुकथा संग्रह है और ऐसा संभवतः इसलिए कि संग्रह की कथाएँ भी कह रही हैं कि पवन जी कहने से अधिक गुनने में विश्वास रखते हैं। संग्रह में ७७ लघुकथाएँ है। इन कथाओं में मात्र विषयों की ही विविधता नहीं है, शैली एवं बोली का वैविध्य भी पाठक मन को संतुष्टि से आप्लावित करता है। खड़ी बोली के साथ कभी पंजाबी, कभी बुंदेली जैसी क्षेत्रीय भाषाओं का रसास्वादन रोचकता में तो वृद्धि करता ही है कथाओं को सजीव बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

सामाजिक सरोकार, जीवन संघर्ष, नैतिक मूल्य, विसंगतियाँ, विषम परिस्थितियाँ, भावनाओं के उतार- चढ़ाव कमोबेश हर लघुकथा संग्रह में, हमारे जीवन, वैचारिक प्रक्रिया और हमारे चारों ओर के परिदृश्य को प्रभावित करते हैं। इन्हीं मुद्दों पर आधारित लघुकथाएँ होती हैं और होनी भी चाहिए क्यों कि विधा कोई भी हो साहित्य का धर्म तो होता ही है अपने समय को कलमबद्ध करना और भीषण उठा-पटक के दौर में भी समाज का मनोबल बचाये रखना, दिशा दिखाना। विषय एक होने पर भी दृष्टिकोण और बात को कहने का ढंग प्रत्येक रचनाकार को उसका अपना वैशिष्ट्य प्रदान करता है और यही बात इस लघुकथा संग्रह को भीड़ से अलग ला खड़ा करता है।

आज के मुद्दों के बीच हमारे कल का जो कुछ भी हमारी पकड़ से छूटता जा रहा है, उसे बिम्बों के रूप में या शब्दकोशीय रूप में संजोए रखने का आग्रह, संग्रह की कतिपय कथाओं को मेरे लिए अत्यंत हृदयग्राही बना गया, दृष्टांत स्वरूप- फाउण्टेन पेन, ‘गहाई’ का पोस्टकार्ड आदि।

‘फाउण्टेन पेन’ इस संग्रह की शीर्षक कथा मात्र ही नहीं है वरन प्रथम कथा भी है और प्रथम कथा प्रायः पुस्तक के प्रति पाठक का मूड सेट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कथा में फाउण्टेन पेन साहित्यिक रचनात्मकता का द्योतक तो है ही आदर्शों की विरासत को पीढ़ी दर पीढ़ी सहेजने में प्रेरणा स्रोत बन कर भी उभरता है। भ्रष्टाचार के पंक के बीच सच्चाई, ईमानदारी के प्रतीक फाउण्टेन पेन को बचा कर ले आने का कथानायक का सफल प्रयास सामाजिक विसंगतियों और विषमताओं के इस दौर में अपने पर, अपने भीतर की अच्छाइयों को जीवित बनाये रखने पर, विश्वास जगाता है और यह कथा इस संग्रह की सकारात्मक ऊर्जा के प्रति आशान्वित करती है।

‘चैम्पियन’ एक मनोवैज्ञानिक कथा है। इसमें भ्रामक सत्य प्रभाव के विषय में बात की गयी है। यह एक ऐसी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसके कारण हम बार-बार कहे जाने वाले झूठ को भी सत्य मानने लगते हैं। अधिकांशतः मस्तिष्क की इस प्रतिक्रिया का दुरुप्रयोग हम दूसरों का मनोबल तोड़ने में, भ्रामक प्रचार आदि करने में करते हैं। यह नकारात्मकता हमारे लिए सामाजिक एवं व्यक्तिगत दोनों ही स्तर पर अत्यंत घातक होती है। इसी संवेदनात्मक मुद्दे को पवन जी ने विषय बनाया है अपनी लघुकथा ‘चैम्पियन’ का। कथा के अंत में स्पष्ट हो जाता है कि सम्पूर्ण प्रकरण को सरिता स्वप्न में देख रही है। वस्तुतः भ्रामक सत्य के पाश में फंस जाना भी सुप्तावस्था में होने जैसा ही होता है। जिस प्रकार हम नींद से जाग कर वास्तविकता का सामना करने को स्वयं को तैयार कर सकते हैं, वैसे ही इस प्रभाव के चंगुल से भी बाहर निकलना संभव है, यही संदेश कथा के प्रभाव में वृद्धि करता है।

‘वैवाहिकी’ का अंत हमें पल भर को स्तब्ध कर जाता है, और फिर हमारे आज के परिवेश, समाज की समस्याएँ जैसे एक साथ हमारे चारों ओर नागफनी सी उठ खड़ी होती हैं। जीवन की मूल भूत आवश्यकताओं की पूर्ति और आर्थिक सुरक्षा की जद्दोजहद के ऐसे भीषण संग्राम से जूझ रही है आज की युवा पीढ़ी कि विवाह एवं जीवन साथी का संबंध नवीन उमंगों, सपनों एवं उल्लास से न हो कर बस रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत आवश्यकतों की पूर्ति भर से ही रह गया है, फिर उस पूर्ति के लिए हमें कैसे भी समझौते क्यों न करने पड़ें। ये कैसे भयावह दौर में जी रहे हैं हम! मात्र यही नहीं इस लघुकथा में हमारे परिवर्तित होते समाज की अन्य समस्याओं की ओर भी हमारा ध्यान आकर्षित किया गया है। दो पीढ़ियों की सर्वथा भिन्न स्तरों की समस्याएँ और वे भी चंद शब्दों में एक ही लघुकथा में देखकर लेखक के कथा बुनने के कौशल के प्रति मन प्रशंसा से भर उठता है।

‘पशोपेश’, व्यक्तिगत रूप से एक ही नजर में भाती ही नहीं वरन मन में घर भी कर जाती है। कोमल चुहल से भरे संवाद मन की माटी को नम करते हैं और भाव दूब से अंकुआना प्रारम्भ करते ही हैं कि यथार्थ फिर सपनों के सामने तन कर आ खड़ा होता है। इस विसंगति को कथा में बहुत सहज एवं प्रभावशाली ढंग से उभारा गया है। संवादों में क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग कथा के रस को बढ़ा जाता है।

‘पास बुक’ संभवतः संवादात्मक शैली की लघुकथा की श्रेणी में नहीं आयेगी किंतु आत्मालाप भी तो संवाद ही है न, स्वयं से संवाद। इस कथा में, शहीद हो गए सैनिक के नन्हें पुत्र के मन में उठते भावों, विचारों एवं प्रश्नों को बेहद संवेदनशीलता से उकेरा गया है। इतना ही नहीं माँ की पासबुक को कपड़ों की गड्डी में ऊपर नीचे करने की प्रक्रिया के माध्यम से शहीद की पत्नी के मन की उठापटक को भी बहुत बारीकी से अभिव्यक्त किया है। मातृभूमि पर प्राणोत्सर्ग करने वाले वीरों के साथ-साथ उनके पीछे छूट गए आत्मीयजनों को अपनी स्मृतियों में बनाये रखना हर काल, हर समय के साहित्य का कर्तव्य है।

जीवन एक संघर्षशील श्रम है और स्त्री के लिए स्वयं को स्थापित करना उससे भी बड़ा संघर्ष इस मर्म का कलात्मक ढंग से प्रस्तुतीकरण किया गया है कथा, ‘मंजिल’ में। आत्मविश्वास से भरे, मंजिल की ओर बढ़ते शुरुआती कदमों का बिम्ब पटियाला सलवार के माध्यम से सटीक बन पड़ा है।

‘रेत का महल’, मात्र सात- आठ पंक्तियों की कथा है और पूर्णतया रचनाकार की जबानी है अर्थात पात्रों के मुँह से कुछ नहीं कहलाया गया है। जो कहा है लेखक ने स्वयं कहा है। अक्सर लघुकथा के कहन और गढ़न की बात करते समय यह कहा जाता है कि कथा में रचनाकार की प्रत्यक्ष उपस्थिति नगण्य होनी चाहिए। स्वाभाविक रूप से ऐसा हो भी जाता है कि जब लेखक स्वयं किसी बात, तथ्य, दृष्टिकोण को विवरणात्मक शैली में व्यक्त करता है तो वह विस्तृत हो जाता है। ‘रेत का महल’, विवरणात्मक शैली में होते हुए भी लेखकीय संयम का अनुपम दृष्टांत है। दो पात्रों द्वारा भिन्न वैचारिक दृष्टिकोण, महत्वाकांक्षाओं के चलते, भिन्न रास्तों का चुनाव और बनने- मिट जाने का फासला लिए दो भिन्न अंत, इतना सब कुछ मात्र सात पंक्तियों में संभव हो पाया है तो उसका श्रेय जाता है लेखक की प्रतीकों को चयन करने की क्षमता को।

जातिगत आरक्षण एवं उसके परिणामों को बहुत सारी लघुकथाओं का विषय बनाया जाता रहा है, कथा ‘पी.ओ.’ में भी मुद्दा यही है किंतु लक्षणा के प्रयोग ने कथा को पृथक रूप दे दिया है।
कथा ‘फाइल’ का मुद्दा आधिकारिक प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार है किंतु दो फाइलों के मध्य हुई वार्तालाप के माध्यम से बात कहना, कथा को रोचक बना गया है।

वैसे तो पवन जी की कई लघुकथाओं में कहीं-कहीं कोई बात इस प्रकार से कही गई है कि हो सकता है किसी पाठक को उसे समझने, मर्म तक पहुँचने के लिए थोड़ा गहरे उतरना पड़े, किंतु ‘सृष्टि की रचना’, ‘पिरेम’, ये दो रचनाएँ ऐसी हैं जो पाठक को थोड़ी देर ठिठकने, फिर से लौट कर प्रारम्भ से यात्रा करने को विवश करती हैं। लेखक ने सृष्टि की रचना में माँ और प्रकृति इन दोनो मातृ-शक्तियों को मौली के लाल-पीले धागे सा एक साथ मिला कर अत्यंत पावन रूप में पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया है। प्रकृति का सानिध्य वैसे भी मनुष्य को अधिक संवेदनशील बनाता है, उसके भीतर के उद्दात भावों को जागृत करता है।

‘पिरेम’ आध्यात्म रस में डूबी हुई कथा है। इस कथा में भी मनुष्य के भीतर जो कुछ भी कोमल है, निश्च्छल है, उसे बहुत खूबसूरती से उकेरा गया है। कथा में नीति वाक्य सा संदेश भी है, किंतु कथा के मर्म तक पहुँचने के लिए गहरे उतरना पड़ता है।

नोटबंदी पर चार कथाएँ हैं। नोटबंदी के हम सबके अलग-अलग अनुभव हैं। उसके दौरान हमने आदमी की विवशता भी देखी और विद्रूपता भी, और इन कथाओं में पवन जी ने यही कहा है। कथाओं का आधार नोटबंदी अवश्य है पर फोकस में आदमी के भीतर का लालच, बेईमानी और मजबूरी है।

‘गहाई’, ‘वर्धक’ और ‘अन्नदाता’ कथाओं के केंद्र में भारतीय किसान है। ऐसा किसान जो अपनी जमीन पर स्वयं बीज बोता है और फसल उगाता है। इन कथाओं में किसान के द्वारा झेली जा रही परेशानियाँ और उसके शोषण की बात तो है ही किंतु जो मुख्य है, वह है किसान का अपनी जमीन से प्रेम, हर हाल में किसान ही बने रहने की प्रतिबद्धता। इन कथाओं का स्वर कृषक को बेचारा नहीं दिखाता वरन् गरिमा मंडित करता है। कथावस्तु की दृष्टि से देखें तो इस संग्रह की लघुकथाओं में मानवीय सरोकार, संघर्ष, भावनाओं का आलोड़न, सुखद-दुखद परिस्थितियों का लेखा-जोखा, समसामायिक उत्थानशीलता, पतनशीलता आदि अनेक आयामों का विस्तृत फलक है। संवादात्मक, आत्मकथात्मक, मानवेतर, विवरणात्मक आदि विभिन्न शैलियाँ तथा शिल्प हैं। बोलियों का वैविध्य भी है। संग्रह के अंत में तो कतिपय कथाएँ पूरी की पूरी बुंदेली बोली में हैं।

‘फाउण्टेन पेन’ की भूमिका में कांता रॉय जी कहती है, ”दरअसल स्वयं के लिए बिना प्रचार-प्रसार के लघुकथा के इस व्यापक संसार में नेपथ्य की शक्ति बन कर पवन जैन अपना कर्तव्य निभाते हैं। बड़ी ही आत्मीयता से सबका मार्गदर्शन करते हैं। छोटे बड़े सभी साथियों का मनोबल बढ़ाते हुए कभी गुरू, कभी दोस्त का रिश्ता निभाते हैं।“ ऐसे व्यक्तित्व की विचारधाराओं से उनकी कथाओं के माध्यम से परिचित होना हमारे जैसे पाठक के लिए भी अत्यंत सुखद अनुभव रहा। पवन जी को उनकी लेखकीय यात्रा के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ। उनकी कलम (फाउण्टेन पेन) यों ही अनवरत चलती रहे।

- नमिता सचान सुंदर
१ फरवरी २०२३

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