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दो पल

तत्व की तलाश में...
-अश्विन गांधी

करीब साढ़े पन्द्रह साल का होऊँगा – हाई स्कूल की पढ़ाई खत्म हो गयी, अच्छे नम्बर से। ठीक है, अव्वल नहीं आया। एक लड़की थोडी सी आगे निकल गयी।सबने सोचा कि मेरे लिये इंजीनियरिंग की पढ़ाई ही ठीक रहेगी, अच्छी ज़िन्दग़ी बनाने के लिये।

बम्बई के नज़दीक थाणा में एक तत्वज्ञान विद्यापीठ बना था। बिलकुल आश्रम जैसा। हिंदू धर्म और तत्वज्ञान पर आधारित, रहना वहाँ आश्रमवासी की तरह और साइंस की पढ़ाई के लिये विद्यापीठ की बस नज़दीक की साइंस कालेज में ले जाएगी। किसी प्रकार का कोई खर्चा नहीं। यह तो बहुत अच्छी बात बन सकती है। सादगी, साधना, संयम, भगवान की पूजा, धर्म और शास्त्रों का अभ्यास... वाह...यह सब साइंस की पढ़ाई के साथ साथ, और कोई खर्चा नही!

क्या मुझे प्रवेश मिल सकेगा? बिलकुल! अव्वल नंबर जो आए थे, और फिर ज़रूरत हुई तो रईस रिश्तेदार की सिफारिश हो सकती थी, जिसने विद्यापीठ की स्थापना में हिस्सा दिया था। सन उन्नीस सौ बासठ के वर्ष में मुझे प्रवेश मिला। एक अजीब सी तत्व की तलाश में यात्रा शुरू हुई... एक सफ़र... अनायास... वजह थी आर्थिक समस्याएँ।
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छोटा सा कमरा... चार कोने चार विद्यार्थी... कमरा बिलकुल ख़ाली... सादगी के लिये ज़रूरी था कि कोई फर्नीचर न हो। हर कोने में घर से लायी हुई चादरों से ज़मीन पर बिछाए गए बिस्तर, कुछ किताबें और कुछ जीवन ज़रूरियात की चीज़ें। क्या तत्व की तलाश में भौतिक चीज़ों का त्याग करना होगा? शायद ! विद्यापीठ में सिर्फ दो भाषाएँ बोली जाएँगी — गुजराती और मराठी। संस्कृत सीखने की सुविधा थी किंतु बातचीत करना उसमें अभी संभव नहीं था। कमरे में मेरा एक साथी था कैलाश। यह गुजराती ब्रह्मन कैलाश, विद्यापीठ में मेरा पहला दोस्त बना— ज़िन्दग़ी के पहले कुछ सबक मैने कैलाश से सीखे।

रोज़ सुबह पाँच बजे उठना। नहा धो के तैयार, छे बजे समूह प्रार्थना, आधा घंटा सामूहिक व्यायाम, व्यायाम के लिये कोई साधन नहीं। सिर्फ सूर्य नमस्कार। एक बड़ा लड़का नायक की भांति सबके सामने खड़े हुए मार्गदर्शन देता रहता। सात बजे रसोईघर में सुबह के प्रथम जलपान के लिये। ये काढ़ा, ये उबाला अमृतपान जैसा। उबला हुआ गरम–गरम पानी, जिसमें थोड़ा सा दूध, थोड़ी सी शक्कर और ज्यादातर सोंठ। ये अमृतपान तन्दुरूस्ती के लिये और सात्विकता के लिये बड़ा आवश्यक रहा। भोजन के लिये जो सब्ज़ी बननेवाली थी उसको काटना, हम विद्यार्थी रसोइये की मदद में। विद्यापीठ की बस साढ़े आठ बजे सायंस कालेज ले जाती आधे घंटे की मुसाफिरी। हम साइंस का अभ्यास करते दुपहर में विद्यापीठ से भेजा हुआ खाना खाते ओर शाम के करीब साढ़े पाँच बजे बस से लौट आते। छे बजे फिर से समूह व्यायाम सात बजे शाम का भोजन, आठ बजे गीता का प्रवचन और नौ बजे अपने कमरे में।

करीब करीब हर शनि रवि बम्बई की दुनिया के रहने वाले और अपनी उलझनों में घिरे हुए लोग सादगी और सात्विकता का अनुभव लेने विद्यापीठ आते। हम विद्यार्थी शनि रवि विद्यापीठ की साफ सफाई करते— कमरे, रास्ते, स्नानगृह, शौचगृह। साथ ही मेहमानों की देख भाल करते। कुछ समूह खेल भी होते और हरिफाइया भी होती। कुछ उम्र में बड़े लोग हम विद्यार्थियों से कबड्डी भी खेलते।
विद्यापीठ का कम्पाउंड बहुत ही सुंदर था। बस्ती से दूर जंगल में शांति ही शांति। चारों ओर नज़ारे भी ऐसे कि जैसे दूषितता यहाँ थम ही नहीं सकती। अगर मन के वशीकरण की चाहत है, अगर तत्व की तलाश है तो शायद वह यहीं हो सकती थी। विद्यापीठ का माली कभी कभी हमें विद्यापीठ की ज़मीन से उगी हुई चीज़े दिखाता। मैं वह सफेद लंबी सी तंदुरूस्त मूली देखता ही रहता और सोचा करता कि अगर हवा, पानी और ज़मीन पवित्र है तो हर कृति पवित्र ही बनेगी।

कैलाश शायद मुझसे दो साल बड़ा था और ऐसे कुटंब से आया था जहाँ उसके पूर्वज मांदिर के पुजारी रह चुके थे। मेरे इस पुजारी दोस्त कैलाश को दुनियादारी का पूरा ज्ञान था। जब भी मुझे कुछ उलझन होती, कुछ समझ में नहीं आता मेरे कैलाश भगवान मुझे राह दिखला देते।
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हम जहाँ आवास करते थे वह दोमंज़िला मकान था। ऊपर की मंज़िल के एक कोने वाले कमरे में जो दो लड़के रहते थे उनका बर्ताव मुझे कुछ समझ में नहीं आया। एक लड़का लड़की जैसा खूबसूरत और दूसरा मूछों वाला दो साल बड़ा। वे दोनों हमेशा साथ साथ नज़र आते और आपस में बात करते रहते।

एक दिन शायद मेरी उलझन बढ़ गयी होगी और मैं कैलाश से पूछ बैठा, "मेरी कुछ समझ में नहीं आता। ये दोनों दरवाज़ा बंद कर के कमरे के अंदर क्या कर रहे होंगे?"
कैलाश इतना हँसा, इतना हँसा कि कुछ बोल नहीं पाया।
"अरे कैलाश भगवान, कुछ बताओगे भी या फिर हँसते ही रहोगे?"
कैलाश हँस हँस के गिर पड़ा और कुछ नहीं बताया मुझे। शायद बरसों बाद, अमरीका आने के बाद, मुझे उस हँसी के पीछे छिपे रहस्य का पता लगा।

विद्यापीठ का खाना बहुत ही स्वादिष्ट बनता। रसोइये का नाम था भद्र। भद्र था जन्म का ब्राह्मण और काया थी गणेश भगवान जैसी। रसोईघर में गरमी इतनी होती कि भद्र ऊपर कुछ नहीं पहनता सिर्फ नीचे के भाग में घुटने तक धोती होती। ब्राह्मण का मोटा धागा गले से लेकर पेट तक लटका हुआ पूरा दिखाई देता।
एक दिन भद्र को दूर से रसोईघर में देखा।

"कैलाश, देख देख, भद्र को रसोईघर में, लगता है जैसे कोई नृत्य कर रहा है।"
कैलाश का गोल भरा हुआ मुख, गोल चश्मा पहने हुए, हँसी के मारे खुल पड़ा,"अरे, वो भद्र इस समय हमेशा यही करता है। शायद रोटी का आटा बना रहा होगा।"
नृत्य की तल्लीनता देखकर शंकर भगवान के ताण्डव नृत्य की याद आगयी। जैसे जगत का कोई नया आकार बन रहा हो।
"मगर देख तो सही भद्र को कितना पसीना हो रहा है, पूरा का पूरा पिघला जा रहा है।"
कैलाश की हँसी और भी बढ़ गयी।
"तो क्या हुआ पार्वती है ना पसीना पोंछने वाली, इधर पसीना निकला, उधर पसीना पोंछा। मालूम है यहाँ बड़े बड़े लोग दूर दूर से भोजन के लिये आते हैं।
दृष्य अजीब सा था। एक ओर पिघलती हुई भद्र की महाकाया और दूसरी ओर घूँघट ओढ़े हुए पतली सी पसीना पोंछती हुई उसकी धर्मपत्नी।

विद्यापीठ में गीता का बहुत अध्ययन किया। बहुत से श्लोक पढ़े और अर्थ जाने। 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' आज भी जीवंत है मेरे मानस में।

एक दिन विद्यापीठ की बस में सायंस कालेज जा रहे थे। एक बायोलाजी की प्रोफेसर रास्ते में बस में चढ़ीं और मेरे पास वाली सीट पर आकर बैठ गयीं। रास्ते में एक शव यात्रा जा रही थी। उसे देखकर मेरे मुँह से अनायास ही निकल पड़ा, "फ्री फ्राम द बाण्डस आफ द वल्र्ड" ह्यमुक्त हो गया दुनिया के बंधनों सेहृ। "क्यों तुम्हें कुछ तकलीफ है?" बाजू में बैठी हुई प्रोफेसर ने मुझसे पूछा। सोलह साल के मुँह से यह सुनकर शायद वह चकित रह गयी होगी। मैने कुछ जवाब नहीं दिया। सिवाय हल्की सी मुस्कान के।
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मालूम नहीं वह कैलाश कहाँ है, कैसा है, क्या कर रहा है...मालूम नहीं भद्र का नृत्य कहाँ और कैसे जारी है...
ज़िन्दगी की तलाश में मिलते हैं, बिछड़ जाते हैं,
सिर्फ रह जाती हैं
यादें
और तत्व की तलाश...
१६ मार्च २००१

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