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डाकटिकटों में बखानी तिरंगे की कहानी
-मधुलता अरोरा

२३ जून १९४७ में गठित कमेटी ने राष्ट्रीय झंडे के बारे में १४ जुलाई १९४७ में निम्नलिखित महत्वपूर्ण निर्णय लिए -

  • इंडियन नेशनल कांग्रेस के झंडे को कुछ परिवर्तनों के साथ राष्ट्रीय झंडे के रूप में स्वीकारा जाए।
  • झंडे में आड़ी पट्टी के रूप में तीन रंग होने चाहिए।
  • रंगो का क्रम इस तरह से होना चाहिए - उपर केसरिया, बीच में सफेद और नीचे हरा।
  • राष्ट्रचिन्ह के रूप में सम्राट अशोक की राजधानी सारनाथ के स्तम्भ पर अंकित चक्र को ध्वज के बीचों-बीच स्थापित किया जाए।
  • चक्र का रंग नीला होना चाहिए।

१८ जुलाई १९४७ को कमेटी ने निर्णय लिया कि नेहरू जी २२ जुलाई को यह प्रस्ताव सभा के समक्ष रखें। इस तरह हमें हमारा राष्ट्रीय झंडा मिला।

१५ अगस्त १९४७ में राष्ट्रपति भवन में ध्वज फहराया गया। दरबार हाल में नई सरकार ने शपथ ली। सामने की दीवार पर दो विशाल राष्ट्रीय झंडे और मध्य एक नीले रंग का झंडा जिसमें तारा अंकित था, फहराए गए।

१९४८ से हर वर्ष लाल किले पर राष्ट्रीय झंडा फहराया जाने लगा। इस अवसर पर जवाहर लाल नेहरू ने खेद प्रकट किया कि सुभाषचंद्र बोस जिनका सपना था कि लाल किले पर देश का ध्वज फहराया जाए, आज इस अवसर पर उपस्थित नहीं हैं।

१९५० में जब भारत गणतंत्र राष्ट्र बन गया तो इस तिरंगे को गणतंत्र राष्ट्र के ध्वज के रूप में मान्यता मिल गई। १९५१ में झंडे के लिए विशिष्ट मापदंड निश्चित कर दिया गया। १९६४ में मेट्रिक सिस्टम लागू होने पर झंडे के माप को आई.सी.आई. के नियम के अन्तर्गत कठोरता से लागू कर दिया गया।

यह जवाहर लाल नेहरू का सपना था कि भारतीय तिरंगा विश्व में दूर-दूर तक फहराए। २२ जुलाई १९४७ में अपनी सभा में भाषण देते हुए कहा था कि मैं आशा करता हूँ कि राष्ट्रीय ध्वज नेताओं और राजदूतों तक ही सीमित न रहे बल्कि जहाज़ों में फहराता हुआ विश्व के कोने-कोने जाए और भारत से मैत्री और भाईचारे का संदेश दे।

आज यह सपना पूरा हो चुका है। तिरंगा विश्व की सबसे ऊँची चोटी पर पहुँचा है, उत्तर व दक्षिणी ध्रुवों पर पहुँचा है, तृष्णा में इसने ग्लोब को नापते हुए ३०,००० नॉटिकल मीलों की दूरी को ४७० दिनों में पूरा किया है, अंतरिक्ष यात्री विंग कमांडर राकेश शर्मा के साथ यह चाँद तक जा चुका है। शायद एक दिन यह आकाश में दूर किसी नई धरती और नई सीमाओं की तलाश में भी निकल पड़े...

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