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इतिहास


 
भारत में यहूदी
- महेन्द्र सिंह लालस


देश के पश्चिमी भाग के कोंकण इलाके के समीपवर्ती समुद्रतट से कुछ दूर एक जहाज डूबने लगा। हो-हल्ला हुआ। मछुआरों ने अपनी नावों की दिशा उस ओर मोड़ दी। डूबते जहाज में से चौदह लोग बचाये जा सके। सात औरतें और सात आदमी। २१६९ वर्ष पहले की बात है यह।

गोरी चमड़ीवाले ये लोग यहीं रच-बस गये। कहाँ से आये थे, कब आये थे, वक्त के थपेड़ों में सब भूल-भाल गये। कपड़े हिंदुस्तानी, भाषा हिंदुस्तानी, तहजीब हिंदुस्तानी, नाम हिंदुस्तानी। एंटिओकस एपिटेनस के चंगुल से भागकर आये और हमारी सरजमीन से अपना मुकद्दर बाँधने वाले ये लोग हमारे मुल्क में आये पहले यहूदी थे। इजराइल की जमीन से ये लोग रवाना हुए थे और यहूदियों के लुप्तप्रायः और सबसे पुराने कबीले बेने इजराइल से ताल्लुक रखते थे।

पुख्ता तौर पर तो बताया नहीं जा सकता, मगर अंदाज है कि ये लोग रायगढ़ जिले के अलीबाग गाँव के पास नवगाँव के तट से भारत में प्रविष्ट हुए थे। ये यहूदी सब्बाथ यानि विश्राम के दिन का सख्ती से पालन करते थे और मुख्यतः तेल का धंधा करते थे, इसलिए स्थानीय लोग उन्हें सनवाड़ तेली (शनिवार तेली) कहकर पुकारने लगे। नामकरण भी बड़ा सुंदर था, पेण में बसे और वहाँ से बाहर गये ये लोग अपने नाम के पीछे पेणकर, केहिम में बसे लोग केहिमकर लगाने लगे।

यहूदी कोंकण महाराष्ट्र में फलने-फूलने लगे। अपने धर्म की मूल बातें तक ये लोग भूल गये। अठारहवीं शताब्दी के मध्य में कोचीन का एक यहूदी डेविड रहाबी यहाँ आया। उसने उन्हें भूले-बिसरे कर्मकांडों की याद दिलायी। तीन चेले भी तैयार किये।

१६८८ में बंबई में अंग्रेजों ने डेरा जमाया। किला भी बनवाया। सन् १७४६ में दिवेकर नाम के यहूदी परिवार ने बंबई में पहले-पहल कदम रखा। आजादी के समय भारत के करीब बीस हजार बेने इजराइल यहूदी थे, मगर आजादी मिलने के सालभर बाद ही यहूदियों का अपना देश इजराइल बना और धीरे-धीरे ये लोग अपने पुरखों की जमीन की ओर लौटने लगे। आज भारत में इनकी जनसंख्या सिर्फ चार हजार है।

भारत के कोंकण के बाद यहूदियों ने केरल में मालाबार इलाके में अपने कदम रखे। क्रांगानूर बंदरगाह पर ये लोग उतरे। क्रांगानूर भारत का सबसे ख्यातनाम और शेष विश्व को ज्ञात हमारे मुल्क का उस समय का एकमात्र बंदरगाह था। ग्रीक इसे मुजिहिर्स और यहूदी शिर्गली कहते थे। चौदहवीं शताब्दी के हीब्रू (इजराइल और यहूदियों की भाषा) के कवि राबी निसिम ने लिखा था-
मैं स्पेन से चलता हुआ आया
मैंने शिर्गली की मिट्टी के बारे में सुना था.....

मिट्टी मातृभूमि की

शिर्गली की मिट्टी अभी तक हर यहूदी के ताबूत में उसकी मातृभूमि की मिट्टी के साथ मिलाकर डाली जाती है। क्रांगानूर के विनाश की तुलना यहूदी फिलस्तीन के विनाश से करते हैं। वे आज भी क्रांगानूर नहीं जाते, यदि भूले-भटके कोई यहूदी क्रांगानूर पहुँच जाए, तो वह शाम से पहले वहाँ से वापस हो लेता है।

बेसनेज ने लिखा है कि यहूदी राजा सोलोमन के व्यापारी बेड़े के साथ यहूदी केरल में आये थे। एक और मत के मुताबिक क्रांगानूर में पाचवीं शताब्दी में राजा कोबाद द्वारा फ्रांस से निकाले जाने के बाद यहूदियों ने अपनी बस्ती बसायी। एक और मत यह है कि शल्मानेर्जर ने बंदी यहूदियों को मुक्त किया, तो वे यहाँ आ बसे। कुछ इतिहासज्ञ कहते हैं कि वे नेबुचदनेजार द्वारा बेबीलोन ले जाये गये यहूदियों के वंशज हैं। २१ नवंबर, १६८६ को कोचीन आया डच यहूदी मोजेज डी पाहवा अपनी किताब ‘नोटिसियाज डोस जूडियोस डे कोचिन’ में लिखता है कि ईसा से ३७० वर्ष पूर्व सत्तर हजार यहूदी म्योर्का से मालावार आये। उनके पुरखों को टाईटस वेस्पासियनस ने बंदी बना रखा था। राबी राजिनोविट्ज कहता है कि भारत में यहूदी मुसलमानों के प्रवेश के बाद ही आये। मगर कोचीन के यहूदियों की मान्यता के अनुसार दूसरे मंदिर (पहली शती) के विनाश के बाद यहूदियों का हिंदू राजा ने स्वागत किया। ये यहूदी संख्या में दस हजार के करीब थे।

आधार शब्दों की समानता

हीब्रू और दक्षिणी भाषाओं के कुछ शब्दों में मजेदार समानता इस बात को पुख्ता करती है कि कम से कम दो हजार सालों से यहूदियों के भारत और विशेष तौर से धुर दक्षिणवाले इलाकों से विशेष संबंध रहे हैं। तमिल भाषा में मिलने वाला सबसे प्राचीन शब्द है ‘टकाई’ जो कि भोर के लिए प्रयुक्त होता है, यही शब्द हीब्रू में ‘टुकी’ बन गया।

ऐसा माना जाता है कि ईसा से ३७९ वर्ष पूर्व में महाराजा परकरण इरावी वनमार ने जोसेफ खान को ताम्रपट्टिका प्रदान कर अंजूवन्नम नाम के गाँव की जमीन इन्हें भेंट में दी थी और यहाँ का जमींदार घोषित किया था।

ईसा से १५०० वर्ष पूर्व में पुर्तगालियों ने भारतीय तट पर दस्तक दी। आगे के करीब १६० साल यहूदियों के लिए बड़े कष्टप्रद थे। क्रांगानूर की मूल बस्ती को तहस-नहस कर ही दिया गया था। कोचीन का सिनागोग भी तोड़ा गया। कोचीन राजा और ट्रावणकोर महाराजा के सर्वश्रेष्ठ लड़ाकों में यहूदी ही थे।

सन् १६६१ में कोचीन में डच आये। त्रस्त यहूदियों की साँस में साँस आयी। डचों को उन्होंने जमकर समर्थन दिया। वैसे भी अगले करीब १३४ सालों तक कोचीन में डच लोगों की तूती बोली। यहूदियों की समृद्धि लौटी। आज मौजूद सिनागोग सन् १५६८ में बना था। इसके क्षत-विक्षत ढाँचे को दुरुस्त करवाया गया। सन् १६६४ में इसका पुनर्निर्माण हुआ। कैंटन (चीन) से सुंदर टाइलें लायी गयीं। इटली के झाड़-फानूस भी आये। सन् १८०५ में ट्रावणकोर के महाराजा ने इस सिनागोग को सोने का एक मुकुट भेंट किया।

अंग्रेज तो यहूदियों पर मेहरबान ही रहे। लार्ड कर्जन अपने वायसराय काल के दौरान १९ नवम्बर, १९०० को यहूदियों का हाल पूछने मट्टनचेरी आये। सिनागोग भी देखा।

जो लौट नहीं पाये

आज कोचीन की यहूदी बस्तीवाले इलाके मट्टनचेरी में मात्र सात यहूदी परिवार बचे हैं, जिनमें कुल मिलाकर इक्कीस स्त्री-पुरुष हैं। ये सभी बुजुर्ग हैं, जो इजराइल नहीं लौटे। गलियों से गुजरते पर्यटकों को ये बुजुर्ग अपने मोटे चश्मों के पीछे से देखते रहते हैं। इस बस्ती में आखिरी ब्याह कोई दस साल पहले हुआ था और आखिरी बच्चा भी लगभग उन्हीं दिनों पैदा हुआ था। सिनागोग अब एक पर्यटन केंद्र है।

कोचीन, एर्नाकुलम आने वाले पर्यटक यहाँ जरूर आते हैं। बुजुर्ग जैकी क्रोहेन इसे अलबत्ता पुरातत्व विभाग को सौंप देना चाहते थे।

बेने इजराइल और कोचीन यहूदियों के अलावा बगदादी और यूरोपीय यहूदी भी हमारे देश में आकर बसे। करीब डेढ़ सौ साल पहले सीरिया, इराक, ईरान और अफगानिस्तान से बगदादी यहूदी भारत आये। सन् १८३३ में डेविड ससून, बंबई के औद्योगिकीकरण में ससून परिवार की महती भूमिका है। सन् १८५३ में बंबई में ही बायकुला और सन् १८८३ में किले में उन्होंने सिनागोग बनवाये। आज बंबई में चार सिनागोग हैं। ससूनों ने पूना में भी सिनागोग बनवाया। कलकत्ता के एजरा और कोहेन यहूदियों ने नाम कमाया।

सन् १९६१ में इजराइल में कुछ राबियों ने बेने इजराइल लोगों को यहूदी मानने से इन्कार कर दिया क्योंकि ये यहूदी परंपराओं से अनभिज्ञ थे मगर इजराइल सरकार की दखलंदाजी से मुख्य राबी की मदद से बाद में ये मसला सुलझ गया।
हिटलर की बर्बरताओं के दौरान भागे कुछ यूरोपीय यहूदी भी भारत आये, मगर ये कुछ ही अरसा यहाँ रहे और फिर इजराइल जाकर बस गये।

यहूदियों का इतिहास संघर्षों का इतिहास रहा है। अपने धर्म और कौम पर आये तमाम हमलों को झेलते हुए उन्होंने अपने रीति-रिवाजों, और संस्कारों को बचाये रखा है। अपने उतार-चढ़ाव भरे इतिहास में यहूदियों ने हिंदुस्तान की सरजमीन को भी अपना साथी बनाया और हमारी जमीन ने परदेसियों को गले तो लगाया ही है, उनके कठोर से कठोर समय में उनकी हिफाजत भी की है। यहूदी कौम और हिंदुस्तान का रिश्ता इसीलिए सदियों पुराना होते हुए भी नया है।

कौन हैं यहूदी?

वर्तमान इजराइल की धरती पर करीब चार हजार साल पहले यहूदी कौम अस्तित्व में आयी। बाईबल के अनुसार अब्राहम, इंसाक और जेकब इस इलाके में जाकर बसे। इस इलाके को उन दिनों कनान कहा जाता था, बाद में इसे फिलस्तीन कहा जाने लगा। दुर्भिक्ष के दौरान जेकब और उसके बच्चे मिस्र चले गये। मोजेज मिस्र से निकला, जहाँ सिनाई पर्बत पर उसने ईश्वर की ओर से दस निर्देश (टेन कमांडेट्स) प्राप्त किये। ये लोग लौटे और मोजेज बारह कबीलों का सरदार बना। बाद में सोल ने अपना शासन स्थापित किया। इसी के लड़के डेविड ने फिलस्तीनियों और दूसरे बाशिंदों को जेरुसलम से खदेड़कर अपनी राजधानी बनायी। डेविड के लड़के सोलोमन ने मंदिर बनवाया। सोलोमन के बाद यह साम्राज्य दो हिस्सों में बँट गया- इजराइल और जुडाह। जेरुसलम की पश्चिमी दीवार और मंदिर के भन्नावशेष यहूदियों के लिए पवित्रतम हैं। यहीं से भागकर यहूदी दुनिया के कोने-कोने में फैले। मगर आज यहूदी मुख्यतः इजराइल में ही बसते हैं। जियोनिज्म यानी यहूदियों के पुनर्जागरण के दौरान यूरोप व अन्य देशों से यहूदी अपने देश इजराइल लौट आये।

कोचीन सिनागोग

कोचीन से पैंतीस किलोमीटर उत्तर में स्थित क्रांगानूर के कोचनगड़ी में सन् १३४४ में बने सिनागोग के बाद सन् १५६८ में वर्तमान सिनागोग बनाया गया। सन् १६६२ में पुर्तगालियों ने इसे पूरा तोड़ डाला था, जिसे दो साल बाद फिर बनाया गया। अठारहवीं शताब्दी में कैंटन से एजेकील स्हाबी हाथ से चित्रित टाइलें लेकर आया। हजार के करीब इन चित्रित टाइलों में से कोई भी दो टाइलें एक-जैसी नहीं हैं।

क्रांगानूर (अंजूवन्नम) में जोसेफ रबान को राजा भास्कर रवि वर्मा (९६२-१०२०) द्वारा दी गयी ताम्रपट्टिका भी यहाँ सुरक्षित है। राजा रवि वर्मन-प्रथम ने तो यहाँ के यहूदियों को स्वतंत्र रूप से राजा ही घोषित कर दिया था। मट्टचेरी इलाका जहाँ यह सिनागोग बना है ‘ज्यूटाऊन’ या यहूदी कस्बा कहकर भी पुकारा जाता है।

धर्म और संस्कार

यहूदियों के मुताबिक हीब्रू उनकी भाषा और टोराह इनके धर्मोपदेश हैं। टोराह को ये स्वर्ग जाने का रास्ता नहीं, बल्कि अपने आप में स्वर्ग ही मानते हैं। यहूदियों की ज्यादातर प्रार्थनाएँ भगवान को समर्पित न होकर अच्छे जीवन-चरित्र को समर्पित हैं। परंपरागत तरीके से यहूदी तीन प्रार्थनाएँ करते हैं- शहरीत। (सुबह की), मिन्हाह (दोपहर की) और अरविथ (शाम की)। ऐसा माना जाता है कि पहला यहूदी ब्याह ईसाक और रेबेका के बीच हुआ था। ब्याह सिनागोग में काफी कुछ ईसाइयों की तरह ही होते हैं। यहूदी योम कापीन (माफीवाला दिन, जैन क्षमापर्व की तरह), पुरीम, हनुक्काह वगैरह त्यौहार भी मनाते हैं। यहूदियों के अनुसार टोराह में ६१३ निर्देश हैं, ये ज्यादातर सकारात्मक हैं। जिनके अनुसार हरेक यहूदी को अपना जीवन गुजारना चाहिए। यहूदियों के धर्म को जुडाइज्म कहकर पुकारा जाता है। भेड़ की खाल पर लिखा टोराह का पन्ना कोचीन सिनागोग में आज भी सुरक्षित है

९ फरवरी २०१५

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