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इतिहास


 
कश्मीर के कृष्णभक्त कवि: परमानंद
डा० शिबन कृष्ण रैणा

 


कश्मीरी साहित्य का आंरभ प्रसिद्ध संत कवयित्री ललद्यद से होता है। यह बात १४ वीं शताब्दी की है। ललद्यद से पूर्व कश्मीरी में रचित (शितिकंठ के महानयप्रकाश को छोड़कर) किसी अन्य साहित्यिक कृति या साहित्यकार का उल्लेख नहीं मिलता। ललद्यद का वाक-साहित्य दार्शनिक चेतना का आगार है जिसपर शैव, वेदांत तथा योगदर्शन की छाप स्पष्टतया अंकित मिलती है। ललद्यद ने जिस भक्ति को अपनी काव्य-साधना का माध्यम बनाया, वह निर्गुण भक्ति थी। आगे चलकर १६ वीं शती के आसपास से कश्मीरी कविता धर्म-दर्शन के नीरस वायु मंडल से निकलकर प्रेम व सौंदर्य के स्वच्छंद वातावरण में साँसें लेने लगी।

हब्बाखातून, अरणिमाल, ख्वाजा हबीब अल्लाह नौशहरी आदि इस काल की कविता के उल्लेखनीय कवि हैं। १७५० ई. से १९०० ई. तक जो काव्य-रचना हुई उसे दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम भाग के अंतर्गत वह काव्य आता है जिसका मूलाधार सूफ़ी दर्शन है। इस काव्य-वर्ग के कवियों ने फ़ारसी काव्य-पद्धति का अनुसरण किया तथा कश्मीरी में फ़ारसी मसनवियों के आधार पर अनेक प्रेम-काव्य लिखे। ये सभी कवि प्रायः मुसलमान थे। इनमें उल्लेखनीय हैं- स्वच्छक्राल, महमूद गामी, वली अल्लाह मत्तू, मकबूल शाह क्रालवारी, शमस फकीर आदि। दूसरे भाग के अंतर्गत वह काव्य आता है जिसका मूलाधार कृष्णभक्ति व रामभक्ति है। इस काव्य-वर्ग के कवियों ने भारतीय काव्य-पद्धति का अनुसरण किया तथा कृष्ण एवं राम संबंधी चरित्-काव्यों को कश्मीरी में वाणी दी। ये कवि प्रायः हिंदू थे जिनमें उल्लेखनीय हैं- कविवर परमानंद, कृष्ण राजदान, लक्ष्मण रैणा बुलबुल, प्रकाशराम आदि।

भक्ति, ज्ञान और प्रेम की रसधारा से कश्मीरी काव्य को सिंचित करने वाले कृष्ण-भक्त कवि परमानंद को कश्मीरी भक्ति साहित्य में विशिष्ट स्थान प्राप्त है। इनकी कविता में धर्म और कर्म का सुंदर उन्मेष तथा संसार की असारता, जीवन की सार्थकता एवं मानवीय चेतना के आध्यात्मिक विस्तार का सफल-सुंदर निरूपण मिलता है। इनका अधिकांश काव्य कृष्ण-भक्ति से ओतप्रोत है। कवि ने कृष्ण चरित का उपयोग भक्ति के रागात्मक स्वरूप एवं मानवीय दर्शन के अंतर्गत किया है जो सगुण-निर्गुण के भेद से ऊपर है।

कविवर परमानंद का वास्तविक नाम नंदराम था। इनका जन्म अमरनाथ तीर्थ के मार्ग में पड़ने वाले प्रसिद्ध धार्मिक स्थान मटन के निकट एक छोटे से गाँव सीर में १७९१ ई. में हुआ था। पिता का नाम कृष्ण पंडित तथा माता का नाम सरस्वती था। डॉ.शशिशेखर तोषखानी के अनुसार मटन कुंड का झलमल जल और पास की अनेक-अनेक जल-धाराएँ, चीड़ वन और उनसे छनकर आती हुई हवा, ऊँचे, गिरि शिखर, शांत प्रकृति-इस परिवेश में नंदराम के व्यक्तित्व के कवि और विरक्त संत, इन दोनों रूपों को विकास का उपर्युक्त वातावरण मिला। शिक्षा उन्होंने फ़ारसी मकतब में किसी मुल्ला से पाई थी और जो दल-के-दल साधु, संन्यासी और तीर्थयात्री मटन आया करते थे उनके सम्पर्क में आकर परमानंद का परिचय महाभारत, भागवत, शिवपुराण तथा वेदांत दर्शन से हुआ। उत्तर भारत के वैष्णव संत-कवियों की वाणी, कबीर और सिक्ख गुरुओं के शब्द और साखियों से लेकर सूर के पद इसी माध्यम से उनके पास पहुँचे।पच्चीस वर्ष की आयु में परमानंद अपने पिता के बाद गाँव के पटवारी बने पर कबीर की तरह ’मन लागो यार फकीरी में‘ का भाव लेकर वे पटवारी का बोझ घर चलाने भर के लिए जैसे-तैसे सँभाले रहे।

परमानंद के पिता कृष्णपंडित ने उनकी शादी बाल्यकाल में ही मालद्यद नाम की एक लड़की से कर दी। परमानंद जितने सरल और शांत स्वभाव के थे, उनकी पत्नी मालद्यद उतनी ही कर्कश और उग्र स्वभाव की थी। गार्हस्थ्य-सुख से वंचित रहने के कारण परमानंद ज्यादातर साधु-संतों की संगत में रहते। परमहंस स्वामी आत्मानंद जी के साथ इनका काफी समय बीता और उनके सम्पर्क में रहकर वेदांत का पूर्ण अध्ययन किया। एक सिक्ख साधु के सान्निध्य में रहकर उन्होंने गुरू ग्रंथ साहब का भी अध्ययन किया। कहते हैं परमानंद के जीवन के अंतिम वर्ष शारीरिक और मानसिक कष्ट में बीते। दो पुत्रों की अकाल मृत्यु ने उनके दिल को ऐसी चोट पहुँचाई जिसे वे झेल न पाए। अपनी लड़की के पुत्र को गोद लिया, पर अपने स्वभाव और रुचियों में वह कवि से इतना भिन्न था कि परमानंद उससे वह भावानात्मक संबंध न बना सके जिसकी उन्हें अकेलेपन में आवश्यकता थी।
बढ़ती हुई वृद्धावस्था और तद्जनित शारीरिक अशक्तता के कारण उनकी आँखों की रोशनी कम और श्रवण-शक्ति क्षीण हो गई। अपनी असहाय स्थिति का मार्मिक वर्णन कवि ने फारसी में रचित इन पंक्यिों में किया है-
हमें गुफ्तम खुदावंदा करमकुन l
नमे गुफ्तम खुदावंदा करम कुन ll

(हे खुदा! मैंने तुमसे कहा था कि मुझपर करम (कृपा) करो। यह तो नहीं कहा था कि मुझे बहरा बना दो।)
“परमानंद के जीवन के एकाकीपन की व्यथा को बहुत कुछ उनके प्रतिभावन शिष्यों ने पाट दिया जिनमें लक्ष्मण रैणा बुलबुल जैसे कवि तथा नारायण मूर्चगर (मूर्तिकार) जैसे चित्रकार थे। इन्हीं के बीच भजन गाते-बजाते हुए इस कवि ने कश्मीरी को अपनी महान काव्य-कृतियाँ दीं।” (डॉ. तोषखानी)
परमानंद की काव्य-प्रतिभा उनके युवाकाल से ही विकासोन्मुखी रही। प्रारंभ में उन्होंने “गरीब” उपनाम से फारसी में काव्यरचना की और बाद में कश्मीरी को अपनी भावाभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। बीच-बीच में मौज में आकर पंजाबी, ब्रज और खड़ी बोली के अटपटे सम्मिश्रण, जिसे उन्होंने “भाखा” की संज्ञा दी है, में भी उन्होंने कुछ गीत लिखे, जो काफी दिलचस्प हैं।

कालक्रम की दृष्टि से परमानंद के काव्य को विभिन्न वर्गो के अंतर्गत विभाजित करना उसके मूल्यांकन के लिए विशेष सहायक नहीं हो सकता क्योंकि स्पष्ट संकेत-सूत्रों के अभाव में इस बात का निर्णय करना असंभव है कि कवि ने कौन-सी रचना कब लिखी, पर काव्य-मूल्यों की दृष्टि से परमानंद के कृतित्व के श्रेष्ठतम अंशों को सरलता से अधोरेखित किया जा सकता है। उनकी प्रतिभा का पूर्ण प्रतिफलन उनकी तीन काव्य-कृतियों “राधा-स्वरंवर”, “सुदामा-चरित” और “शिव लग्न” के अतिरिक्त “पेड़ और छाया”, “कर्मभूमिका”, “सहज व्यचार” जैसी स्फुट कविताओं तथा प्रतीकात्मक रचनाओं में देखा जा सकता है।

’कृष्ण चरित‘ पर आधारित राधा-स्वयंवर शीर्षक काव्य-रचना में कविवर परमानंद की अद्भुत कवित्व शक्ति एवं अनन्य भक्ति-भावना का परिचय मिल जाता है। लगभग १४०० छंदों वाली इस वृहदाकार काव्यकृति में, जो कृष्णचरित संबंधी विविध आयाम उभरे हैं, जिनका मूलाधार भागवत पुराण का दशम-सकंध है। संपूर्ण काव्य एक अध्यात्म-रूपक बन पड़ा है। कृति के प्रांरभ में ही कृष्ण को ’चित्-विमर्श देदीप्यमान भगवान‘ कहकर पात्रों और कथासूत्रों के प्रतीकात्मक स्वरूप को उद्घाटित किया है:
गोकुल हृदय म्योन तति चोन गूर्यवान
च्यत विर्मश दीप्तीमान भगवानो...
हृदय मेरा गोकुल
विचरती जहाँ तेरी गायें हैं,
गोपियाँ हैं मेरे मन की वृत्तियाँ
पीछे-पीछे जो तेरे दौड़ पड़ती हैं...
हे चित्त-विमर्श देदीप्यमान भगवान्।
“राधा-स्वयंवर” में वर्णित मुख्य प्रसंग इस प्रकार हैं-कृष्ण और राधा का जन्म, गोचारण करते एक-दूसरे पर मुग्ध हो जाना, किशोरनुराग का वर्णन, वनलीला, मुरली वादन, रास क्रीड़ा,गोपिका चीरहरण, माँ द्वारा बिटिया को झिड़कना किंतु मुरली की धुन सुनते ही बेटी से पहले दौड़ पड़ना, राधा की सगाई, राधा और रुक्मिणी का सामंजस्य आदि। इन सभी कथा-प्रसंगों से होती हुई काव्यकृति की परिणति राधा-कृष्ण के परिणय में हो जाती है और अपने शीर्षक “राधा-स्वयंवर” ो सार्थक करती है।

जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है “राधा स्वयंवर” में परमानंद की काव्य प्रतिभा और उनकी कवित्व शक्ति की उत्कर्षता पाठक को बरबस अभिभूत कर लेती है। एक उदाहरण प्रस्तुत है। लोकापवाद के भय से माँ अपनी बेटी राधा को टोकती है:
राधा से माँ बोली-
बिटिया लाज रखो माँ की
नहीं तो तात से पिटवाऊँगी तुमको,
बोली राधा-
माँ, भोली हो तुम
कौन है किससे खेल रहा
वहाँ तो कोई भी नहीं बिन कान्ह।
कान्ह ही ग्वालबाल और बालाएँ
कौन वहाँ जो कान्ह नहीं
लोग यों ही बातें उडाएँ...।
मुरली नाद उठा इतने में
दूर-दूर और निकट-निकट,
बौराई माँ और निकल पडी बिटिया के पीछे-पीछे...।

“राधा-स्वयंवर” में श्रीकृष्ण और राधा के विवाह का वर्णन अतीव सजीव बन पड़ा है:
राधा को कवि ने प्रकृति का प्रतीक और कृष्ण को पुरुष का प्रतीक माना है। इस विवाह का प्रबंध करने के लिए प्रकृति की विभिन्न शक्तियाँ योगदान करती हैं-
वाव लूकपाल द्राव लछ डुवनावान इंद्राजअ वथ लिव नावान,
बसंत रंग-रंग पोश वथरावान सिरिय चंद्रम ह्यथ शमा चरागान...।

(वायुदेव स्वयं मार्ग साफ करने लगे। इंद्रदेव पानी का छिड़काव करने लगे तथा वसंतदेव मार्ग पर रंग-बिरंगे फूल बिछाने लगे। सूर्य और चंद्रदेव ने अपने प्रकाश से सकल दिशाओं में जगमगाहट कर दी। यामिनी देवी के हाथों में मेघ-छतरी सुशोभित हो रही थी तथा पक्षी अपने पंखों से आकाश में पंखा झल रहे थे। जैसे ही बारात वृषभानु के घर पहुँची तो वहाँ के सभी लोग बारातका स्वागत करने के लिए निकल पडे। घर के भीतर अग्निदेव भाँति-भाँति के पदार्थ तैयार करने में लगे हुए थे जिन्हें स्वादिष्ट बनाने के लिए अमृतरस का प्रयोग किया जा रहा था।)

परमानंद की दूसरी महत्वपूर्ण कृति है “सुदामाचरित”। २५० छंदों वाली इस अपेक्षाकृत लघु काव्य-रचना में कृष्ण की बाल-लीलाओं, ग्वालिनों की यशोदा से शिकायत, मीत सुदामा का विपदाग्रस्त जीवन, मीत की याद, अनुग्रह, मित्र-मिलन आदि का वर्णन है। “राधा-स्वयंवर” की तरह इस काव्य-कृति में भी एक आध्यात्मिक रूपक की परिकल्पना की गई है। डॉ. तोषखानी के शब्दों में- ’एक महत भाव, एक दार्शनिक विचार-सूत्र राधा स्वयंवर की ही तरह सुदामाचरित के केंद्र में भी स्थित है और संपूर्ण काव्य में रक्तवाहिनी नाड़ियों की भाँति अपनी ऊर्जा संचारित करता है। ईश्वर और मनुष्य, जीवात्मा और परमात्मा के परस्पर नैकट्य की एक मैत्री-संबंध के रूप में परिकल्पना परमानंद से लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व सूरदास ने भी की थी और बीसवीं शती के जर्मन कवि रिल्के ने भी।‘

परमानंद के अनुसार दोनों से पार्थक्य अथवा दूरी की प्रतीति का कारण जीव का अहंभाव है। पार्थक्य का बोध पृथक इच्छा का परिणाम है, अन्यथा जीव का परमात्मा से अभेद है। जब सद्-बुद्धि (सुशीला) की प्रेरणा से सुभेच्छा का उन्मेष होता है तो जीव (सुदामा) पुनः ईश्वर की ओर अपनी यात्रा आरंभ करता है और सभी दुःखों का अवसान हो जाता है। रूपक और अन्योक्ति परमानंद की प्रिय तकनीक है। सुदामाचरित में इस तकनीक के प्रयोग द्वारा कवि ने कृष्ण-सुदामा मैत्री प्रसंग को आत्मा-बोध का आध्यात्मिक धरातल प्रदान किया है। सतह से गहरे अर्थों की ओर ले जाने का परमानंद का यह प्रयत्न उनके काव्य की एक बड़ी विशिष्टता है। सुदामाचरित को यह बात एक महत्वपूर्ण काव्य कृति बनाती है। इसमें कृष्ण और सुदामा अपने सहज व्यक्तित्वों को बनाए रखते हुए भी प्रतीक पात्रों के रूप में कथा को गति और अर्थ प्रदान करते है।‘‘

जैसा कि कहा जा चुका है “सुदामा चरित” मुख्यतया भगवान श्रीकृष्ण और उनके बाल सखा सुदामा के सम्मिलन की प्रसिद्ध घटना पर आधारित है। इस काव्य कृति में आध्यात्मिकता के भी दर्शन होते हैं। साधक (सुदामा) अविद्या के कारण साध्य (श्रीकृष्ण) से विमुख हो जाता है तथा अनेक प्रकार की दुविधाओं में उलझ जाता है। आत्मबोध हो जाने पर वह साध्य को पुनः प्राप्त कर लेता है। भगवान श्रीकृष्ण और सुदामा के मिलन-प्रसंग को चित्रित करने में परमानंद का कवि-हृदय यों विभोर हो उठा है:-
वुनि ओस वातनय द्वारिका मंदरो सखरित रूदमुत शामसंदरो,
ब्रोंठ नेरि यारस त सूल्य रूकमनी अथन हृयथ पोशमाल दोनवय बअच...।
(अभी सुदामा द्वारिका पुरी पहुँचे भी न थे कि भगवान श्रीकृष्ण रुक्मिणी समेत उनके स्वागत के लिए तैयार हो गए। दोनों पति-पत्नी के करकमलों में पुष्पमालाएँ सुशोभित हो रही थी। श्रीकृष्ण रुक्मिणी से कहते हैं- आज मेरा पुराना मित्र आ रहा है, क्या तुम्हें प्रसन्नता नहीं हो रही? जो कोई भी भगवान को पाने के लिए एक कदम बढ़ाता है, भगवान उसे प्राप्त करने के लिए दस कदम आगे बढ़कर आते हैं। उनके नैकट्य में आने पर वे भी दोनों पति-पत्नी आनंदित होकर हड़बड़ाते हुए नंगे पाँव भागे। आगे-आगे श्रीकृष्ण थे और पीछे-पीछे रुक्मिणी जी। भगवान को देख भक्त सुदामा ने अपने आप को श्रीकृष्ण की बाँहों में सौंप दिया। दोनों को ऐसा लगा मानो स्वप्न देख रहे हों।

भगवान सुदामा को अपनी गोद में बिठाकर अंदर महल में ले आए। रुक्मिणी जी ने उनके पैर थामे थे। तत्पश्चात भगवान ने सुदामा के हाथ-पैर धोए क्योंकि उसने सच्चे मन से भगवान के नाम की माला जपी थी। तब भगवान सुदामा की फटी-पुरानी गुदड़ी को टटोलने लगे,वैसे ही जैसे कोई योगी परम तत्व को टटोलता है। दो बार भगवान ने तंडुल अपने मुँह में डाले और तीसरी बार रुक्मिणी ने हाथ पकड़ लिया। सुदामा यह सबकुछ चकित होकर देखने लगे। उन्होंने चारों ओर नजर दौड़ाई और लगा जैसे वहाँ पर कोई न हो, केवल भगवान ही सर्वत्र व्याप्त हों...।)
“सुदामाचरित्र” के ही अंतर्गत श्रीकृष्ण जन्म-प्रसंग यों वर्णित हुआ:-
गटि मंज गाश आव चान्ये जेनय जय जय जय दीवकी नंदनय। (तेरे जन्म लेने पर अंधकार प्रकाश में बदल गया। हे दवकी-नंदन ! तेरी जय-जयकार हो। तू देशकाल से परे तथा अगोचर है किंतु फिर भी तेरे जन्म लेने से सभी का मन आनंदित हो रहा है। यशोदा ने तेरे ऊपर फूलों की वर्षा की तथा सभी ने तुझे गोद में उठा-उठाकर झुलाया गया। सकल गोप-गोपिकाएँ यशोदा को पुत्र-जन्म पर बधाई देने के लिए आई। कृष्ण को देखकर वे उसकी चिरायु की कामना करने लगीं। पूरे नगर में खुशियाँ मनाई गई...।)

“शिवलग्न” परमानंद की तीसरी काव्यकृति है जिसका प्रतिपाद्य पार्वती-परिणय है। २८० छेदों में निबद्ध इस प्रबंधात्मक कृति में भी अन्योक्ति का प्रयोग हुआ है। कवि के अनुसार शिव और शक्ति क्रमशः पुरुष और प्रकृति के प्रतीक हैं और इन्हीं के संयोग से इस सृष्टि का निर्माण हुआ है।

प्रबंध काव्य-रचनाओं के अतिरिक्त परमानंद ने स्फुट कविताएँ भी लिखी हैं जिनमें प्रमुख हैं- कर्मभूमिका, पेड़ और छाया, अमरनाथ यात्रा, सहज-विचार आदि। स्फुट कविताओं में कवि ने तत्व-ज्ञान की बडी ही सटीक और सारगर्भित व्याख्या की है। इन कविताओं को पढ़ने के उपरांत ज्ञात होता है कि परमानंद वास्तव में उच्चकोटि के तत्वद्रष्टा थे। अपने जीवन के चिरकालीन अनुभवोपरांत ही वे ऐसी व्याख्याएँ प्रस्तुत कर सके हैं।
उनकी पैनी जीवन-दृष्टि से संयुक्त दो पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
कर्म बूमिकायि दीज दर्मुक सग
संतोष ब्यालि बवि आनंदुक फल।
(कर्मरूपी भूमि में संतोष के बीज को धर्म के पानी से सींचने पर जो प्राप्ति होगी, वह आनंदरूपी फल होगा।)

इनकी हिंदी कविताओं के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं:- श्रीकृष्ण का जन्म होने पर भगवान शंकर के मन में उन्हें देखने की इच्छा हुई। वे एक योगी का रूप धारणकर तथा हाथ में भिक्षा-पात्र लिए गोकुल गाँव की ओर चल दिए:-
भिख्या मांगन साँग बनायो, आयो सदासिव गोकुल में। दर्शन करने को ध्यान धरायो, आयो सदाशिव गोकुल में।
नंगे सिर और नंगे पैर, नंदेश्वर का सवारी था, अंग मं भस्मा भभूत चढाए, आयो सदाशिव गोकुल में।
हाथ में त्रिशूला, कान में मुंदरा, सुदर मुख को करा कराल,घंटा शब्द और शंख बजायो, आयो सदाशिव गोकुल में।
गल में नागेंद्र, हारा पग में, जल में जैसे उठी तरंग, गोकुल में भूकंप मचायो, आयो सदाशिव गोकुल में...।।

परमानंद की हिंदी कविताओं में पंजाबी शब्द-प्रयोगों का आधिक्य है। कहीं-कहीं पर कवि ने कश्मीरी, हिंदी तथा पंजाबी भाषाओं के मिश्रित रूप में कविताएँ की है:-
ना तुम देखो कृष्ण श्यामा पतिया हमारा पारा लूको,
बाजीगर ने बाजीगरी की, जिगर हमारा पारा लूको।
आखूँगा हम ना कह सकूँगा, ना कहूं तो मर जाऊँगा,
रिस के नसना, उसका हँसना, चोरों का अलंकारा लूको...।।
कविवर परमानंद के कुछ चित्र कश्मीर में उपलब्ध हैं जिनसे उनके भव्य व्यक्तित्व का भान होता है। उनकी आँखें चमकीली तथा नाक उभरी हुई थी। ललाट प्रशस्त तथा देह गठीली थी। परमानंद के दो पुत्र हुए थे किंतु दोनों का निधन अल्पायु में ही हुआ। अपनी दीन-हीन स्थिति का उल्लेख कवि ने एक स्थान पर यों किया है:-
कुन तअ कीवल, सोरमुच आश, नअ पुतुर तअ नअ रूदमुत गाश। (मैं अकेला रह गया हूँ। मेरी आशाएँ मिट गई हैं। निःसंतान हूँ तथा आँखों की ज्योति भी समाप्त हो गई है।) कश्मीरी साहित्य के ये महान कृष्ण-भक्त कवि सन १८७९ ई. में दिवंगत हुए।

१ अगस्त २०२२

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