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कहानियाँ 

समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस माह प्रस्तुत है
भारत से
प्रभुजोशी की कहानी — "छूटते आकाश"।


अमि ने टैक्सी वाले को किराया  चुका कर फ्लैट की ओर मुंह किया। शाम के धुँधुआते लैंडस्केप में अपने ही घर का अत्मीय अस्तित्व पहली बार बहुत चुनौती भरा लगा। इतना कि उसकी ओर डग भरते हुए उसकी पिंडलियों में दहशत की शिथिल कर देने वाली एक तीखी लहर तीर की तरह गुज़र गयी।अमि को लगा इस इमारत का हर अंश उसके खिलाफ है, उसके विरूद्ध।

इस खयाल ने अमि को दहशत में आकण्ठ डूब जाने की सीमारेखा तक पहुँचा दिया। वह मारे बेचैनी के लगभग तड़प उठी। स्वस्थ रहने के प्रयास में खुद को दृढ़ किया — अब दहशत खाने से क्या होना है? यदि पापा को नाराज़ होना होगा तो डर कर रह जाना तो उससे बचने का उपचार नहीं, फिर इस प्रकार के उपचारों के वहम में कब तक खुद को बहाती रहेगी? अपनी सारी आत्मनिर्णयता आखिर क्या मायने रखती है? 

वह खुद से जूझी। पर्स को मज़बूती से पकड़ा साड़ी का पल्ला पीठ पर लिया —जैसे, इस सारी प्रक्रिया के बहाने खुद के अंदर साहस व आत्मविश्वास का कसाव भरना चाहती हो। फिर आगे बढ़ कर लॉन का गेट खोल दिया।

लॉन में आकर पलभर के लिये चारों ओर एक निगाह फेंकी—एक ख़ामोशी थी, जो शक्ल में और दिनों की अपेक्षा कहीं ज्यादा ठोस, भयावह और आतंकित कर देने वाली थी—जिसमें थी, सिर्फ टर्न लेती टैक्सी की हवा में दफन होती कमज़ोर भरभराहट।

लान ख़ाली था, लॉन के बीच बने सीमेंट के अण्डे की तरह गोल सीटिंग–स्पॉट पर चेयर्स नहीं थीं। यह पाकर अमि को लगा, आज निश्चय ही, रोज़ की तरह सूरज के बाहर आने के साथ शुरू होने वाले दिन के आखिरी टुकड़े ने अजीब ढंग से करवट ली है। वर्ना, कालेज से अमि की वापसी का वक्त और पापा का लॉन में बैठना कैलिपर्स के दोनों स्केल की तरह 'को–इन्साइड' होता है।

कई बार प्रोफेसर महिम के पीरियेड ऑफ होने की बेल की ध्वनि कान से टकराते ही उसे लगता जैसे, घर पर इन्हीं लम्हों में पापा की सख्त अंगुलियाँ बंदूक के खटके की तरह 'काल–बेल' पर जा लगी होंगी—रम्मी! लॉन में इज़ी चेयर डालो...और 'चेस बाक्स' भी...और सुनो, मिसेज़ नरूला के लिये ब्लैक काफी...।

इस दृश्य की कल्पना मात्र से अमि का मन वहाँ बैठे–बेठे घबराने लगता। कालेज ऑफ होने की एक छोटी सी खुशी भी वह जी नहीं पाती बल्कि, आतंक का सोया सांप जाग कर उसके मन को आ घेरता। अब साढ़े दस से पांच तक अभयदान देने वाली इमारत से निकल कर पहला सामना चेस खेलते पापा की शक्ल से होगा। कहीं कोई ऐसा दिन नहीं होता, जब रिटायर्ड पापा लॉन के अलावा कहीं मिलें।

पिछले दिनों अचानक, कालेज से लौटने पर लॉन खाली मिला था तो दरवाज़े के भीतर कदम रखने से पहले उसकी आँखों में खौफ़ भर आया था और आखिर, घर में जाने के बाद पता चला था, आज फ्लैट का आधा पोर्शन —जिसमें मिसेज़ नरूला को पापा  ने पता नहीं किस विशेष लगाव के कारण आश्रय दिया था—खाली हो गया है। हो गया के पीछे ' किया' या 'करवाया गया' में से कौन सी क्रिया घटित हुई वह नहीं जान पायी थी। फिर पूछती तो पूछती भी किससे?  पापा से? — पापा के सामने परोसे गये किसी भी वाक्य को वह प्रश्न की शकल कहाँ दे पाती है! हर वाक्य, महज़ सिंपल सेण्टेंस की तरह ही तो रह जाता है। 

इस पल भी उसके बंद होंठों के भीतर कुनमुनाता एक प्रश्न कैद था — आज लॉन के सीटिंग स्पॉट पर इज़ी चेयर क्यों नहीं हैं? मगर इस प्रश्न का समाधान उसके पास था।  यानी पापा ने भैया का वह खत देख लिया है, जिसे वह कालेज के लिये निकलते वक्त जानबूझ कर डाइनिंग टेबल पर छोड़ आयी थी, जिसमें लिखा था कि अमि बम्बई चली आए—इस गरज़ से कि पापा पढ़ ही लेंगे चूँकि पापा के रूबरू वह कह कहाँ पाएगी।

वह बहुत शाइस्तग़ी से बढ़ कर सीढ़ियाँ चढ़ गयी। पापा गाउन पहने दरवाज़े की ओर पीठ किये हुए बैठे थे और खिजाब से काले किये गए बालों से ढके उनके गोल सिर की पृष्ठभूमि में धुएँ की एक नीली चादर थी। उसे याद आया, भैया के लड़भिड़ कर चले जाने के बाद उसने पापा के चारों ओर ऐसी ही नीली चादर देखी थी जो हर पल मोटी होती गयी थी। मगर, वह चादर 'तूफान' के गुज़र जाने के बाद उभरी थी — आज पहले कैसे? क्या पापा ने खत पढ़ ही लिया।  वह हल्की सी भयभीत हो आयी।  फिर भी अधर में लटके अनुमान को साफ शकल देने के लिये उसने चाहा कि अपने कदमों की आहट को तरह दे कर पापा का ध्यान अपनी ओर केंद्रित करे। ज्यादा से ज्यादा उसे पाकर घूरेंगे ही न!

और अमि अपनी ओर पापा की घूरती आँखों की कल्पना से व्यग्र हो आयी।वे उसके निर्णय को चिंदा चिंदा कर डालेंगे —तब वह क्या करेगी? हाँ क्या करेगी? उसे भैया का इंतज़ार करता चेहरा याद आने लगा। कालेज से उसने कितने उत्साह से भैया को "आयम रीचिंग" का टेलीग्राम कर दिया था। मगर इस समय वह उत्सुकता मात्र मूर्ख उत्साह लगने लगी। उसने सब निरर्थ ही किया। पापा न बोल देंगे। लेकिन, तब आशा की किरण उसके भीतर की दृढ़ता में थी, पापा की संभावना में नहीं — सो हिम्मत बांधकर कर दिया।

उसने पापा का कंसन्टे्रशन डायवर्ट करने के लिये कदमों की आहट को तारत्व देने की कोशिश की। मगर ड्राइंगरूम के फर्श पर लेटा नर्म कालीन भी जैसे उससे असहयोग करने पर तुला था। उसका गुज़रना किसी बेआवाज़ हवा के झोंके में तब्दील होकर रह गया।

वह कमरे में आ गयी। आकर पलंग पर लेट गयी।मगर, कमरे में आकर रोज़ की तरह भर आने वाला उत्साह अनुपस्थित था। अमि को वार्डरोब के बिखरे–लटकते कपड़े भी व्यंग्यात्मक लगे, जबकि, टेलीग्राम की सूचना के हिसाब से कपड़े सूटकेस में तह होकर बंद होने थे। मगर, अब तो वह हिम्मत भी लुप्त हो चुकी थी।उसको फिर भैया का प्रतीक्षित चेहरा याद आने लगा।अमि ने सोचा उसके जेहन में पाकीज़ग़ी से भरी आँखों वाली एक ही सूरत तो है, तब की। और तेज़ी से बढ़ती उम्र और फै़शन ने उन्हें कितना बदल कर रख दिया होगा—फिर वह तो महानगर है। पापा के पास होते तो क्या वे भैया को फैशन करने देते।वे तो छोटी छोटी बातों को लेकर भैया पर पिल पड़ते थे। 

उसे भैया द्वारा सुनाया गया संस्मरण याद आया। पता नहीं किस बात पर पापा भैया पर बुरी तरह झपटे थे। भाग कर वे किचेन में खाना बनाती ममी के पीछे खरगोश की तरह दुबक गये थे।  पापा वहाँ भी आगये थे। ममी भैया को बचाने की कोशिश में पापा के पहाड़ी जिस्म से लिपटकर उन्हें पीछे धकेलने लगी थीं और भैया  ने बाल सुलभ फुर्ती से किचेन का दरवाज़ा लगा लिया था। 

दरवाज़ा भिड़ ज़रूर गया था मगर शेर की दहाड़ सी आवाज़, मुचहटे के मौके–सी आती रही थी— 'बाहर निकल आ...वर्ना , दरवाज़ा तोड़ कर भून दूंगा।' ओर इसके साथ पुलिस वालों की चुनिंदा कनछेदी गालियाँ। एक बारगी ममी की करूण चीखें सुनकर मन हुआ था,  दरवाज़ा खोलकर देखें। मगर भय ने हाथ पैर बांध दिये थे। फिर, शायद पापा के गुस्से ने उतरने के लिये भैया के विकल्प के रूप में ममी को खोज लिया था।

सब कुछ खामोश हो जाने के बाद किवाड़े पर ममी की थापें सुनकर दरवाज़ा खोला था। दरवाज़ा खुलते ही ममी ने भैया को ज़ोर से सीने से लिपटा लिया था।आँखों की हालत यह थी कि ममत्व से तर थीं, मगर जिस्म की हालत रवींद्र सरोवर काण्ड में भाग निकली महिला–सी हो चुकी थी—चिंदा चिंदा साड़ी, बिखरा जूड़ा। तब भैया ने ममी को पहली बार रोते देखा था—ममी, इत्ती बड़ी ममी भी इसी तरह रोती हैं। 

दरवाज़े पर उसी तरह की थापें अमि के कान में गूंजीं तो अमि चौंक गयी। रम्मी था। चाय लेकर आया था। उसने लेटे लेटे ही चाय वहीं रख जाने का इशारा कर दिया। चाय रख कर नीचे जाते हुए वह कह गया कि उसे पापा नीचे बुला रहे हैं।

वह उठ बैठी। चाय का कप उठा कर सुड़पने लगी। 
बाहर अंधेरा उतरने लगा था। लॉन के यूकेलिप्टस खिड़की में से कंधे लटका कर किसी रिटायर्ड आदमी की तरह खा़मोश खड़े थे।उसे याद आया, इन यूकेलिप्टस को लेकर अमि व भैया में खूब झगड़ा हुआ करता था— नहीं अमि, ये छोटे वाला तुम्हारा है। अमि ज़िद करती, नहीं हमारा बड़े वाला है।भैया उदार हो कर कह देते जाओ कल से दोनो तुम्हारे। एक बार उसके वाले यूकेलिप्टस पर संजोई की बेल चढ़ गयी थी। बेल की फुनगी पर फूल खिला था। सोने का सा पीला रचक। वे ममी को जूड़े में लगाने के लिये तोड़ने चढ़ गये थे। फूल तो टूट गया था, लेकिन महुए से टपक पड़े थे। कई दिनों तक पैर दर्द करता रहा था। अमि से वादा लिया था, ममी से न कहना और उन्होंने ममी को बताया था — फुटबाल खेलते वक्त स्लिप हो गया था पैर। तब अमि ने भैया को खूब ब्लैकमेल किया था। हमें टाफियाँ खिलाओ नहीं तो ममी से सही सही कह देंगे कि तुम कौन–सा फुटबाल खेले थे।

वे टाफियों का पैकेट ले आए थे। और देकर इसी खिड़की में बैठ गए थे। अमि ने उठा दिया था— "वहाँ न बैठिये।"

"क्यों ?" भैया ने पूछा था— 'नहीं गिरूंगा।' पर अमि ने नहीं ही बैठने दिया था— "बस हम कह रहे हैं मत बैठियेगा।" कारण पूछने पर भी नहीं बताया था। अमि को हॅारिजैंटल सलाइयों वाली खिड़की हमेशा ट्रेन की लगती थी। जैसे ओवर ब्रिज से गुज़र रही हो— और भैया उसको इसी प्लैटफार्म पर कभी भी छोड़ कर चले जाएँगे। उसने कहानी पढ़ रखी थी कि पापा के आतंक से एक लड़का भाग गया था और ये पापा कहानी के पापा से किसी भी कोण से उन्नीस नहीं पड़ते थे।

और जिस दिन उसे मालूम हुआ था— भैया ममी की पहली शादी के हैं — तो वह खूब रोई थी और उसे आशंका ने गिरफ्त में ले लिया था कि अब वाकई भैया कभी भी यहाँ से भाग सकते हैं। वह रात में चौंकने लगी थी। उठ–उठ कर उनके कमरे की ओर देखती ।फिर खिड़कियों के चौकोर कांचों में से बाहर झरते प्रकाश को देखकर आश्वस्त हो जाती। लेकिन एक रात उनके कमरे की खिड़की से आता प्रकाश गुल था। वह घबरा गयी थी। लेकिन फिर वह कभी नहीं जला। वही शाम थी। पापा उसी तरह बैठे थे और खिजाब वाले बालों ढके सिर के चारों ओर धुएँ की नीली चादर थी। 

उसी समय से पापा के सामने पड़ने से वह कतराने लगी थी।घड़ी का कांटा उसकी भावनाओ से खेलता हुआ ट्रेन के वक्त की ओर बढता जा रहा था। वह रूआँसा होने लगी। चाय का कप रखकर  खिड़की मे खड़ी हो गयी। बाहर अन्धेरा था और उस अन्धेरे मे डूबा भैया का कमरा जिसके भीतर की लाइट अभी तक गुल थी। तभी पलक मारते ही कमरे की कांच की खिड़कियो के चौकोर खाने जिलेटिन के पेपर की तरह दिप दिप चमकने लगे। अमि डर गयी।यह क्या भैया के कमरे की लाइट इतने लम्बे दिनों के बाद अचानक कैसे जलने लगी। कहीं कोई चोर या भूत तो नहीं। तभी एक काली छाया कोने मे से उभरी और खानों में बंट कर दिखने लगी।

पापा थे, मगर पापा आज वहाँ क्यों और किसलिये? अचरज मे मन भरने लगा।फिर वह पूरी आकृति सारे चौखानों को अपने में लील गयी। वहाँ केवल कालापन था। लाइट गुल हो गयी थी।

उसने नीचे जाने के लिये साड़ी बदल ली और खुले बालों को गांठ लगा कर एक जूड़ानुमा अकृति दे दी। जूड़ा सा बनाने के बाद लगा पापा की संजीदगी को बिखेरने के लिये यह पहली मोर्चाबंदी साबित होगी।उन्हें जूड़ा पसंद नहीं न, कम उम्र की लड़कियों पर।

उसने तय किया कि अगर पापा ने खत नहीं देखा है तो वह खुद कह डालेगी। वह जाना चाहती है और जाकर रहेगी। अभी तक हर बार निर्णय लिये गये और अंत में इनके मलबे पर घुटनों में सर दिये बैठकर पापा के आवेश के उत्ताप से व्यर्थ में गलती रही। अब किसी भी हालत में अपने निर्णयों को इस तरह घुटने नहीं टेकने देगी। 

फिर एक दूसरी ही आशंका ने हल्की सी फुत्कार मारी — चूं कि पापा को भैया के नाम से नफरत है, और यदि कह दिया—अमि जाओ मगर लौटने पर यह चौखट बंद मिलेगी तब? हाँ, तब वह क्या करेगी? कहाँ जाएगी? उसकी आँखों तले वह पांखी तैर गया जो, समंदर की सीमाहीन सतह पर उड़ रहा है और थक कर जहाज़ पर बैठना चाहता है मगर, एक मूछों वाला सिपाही डेक पर उसे बैठने नहीं दे रहा। वह घुटने लगी। लाइट ऑन की। प्रकाश फैलते ही उसमें साहस भर गया — नहीं आने देंगे तो भैया तो हैं , उन्हीं के पास रहेगी। उसने आक्रामक बनने की तैयारी में शब्दों को पैना किया और सीढ़ियाँ उतर कर नीचे आ गयी।

पापा सोफे पर अधलेटे से बैठे थे।अमि के शब्दों की आहट ने सपाट दीवार पर थमी उनकी पुतलियों में गति पैदा की। उन्होंने देखा और फिर उसी मुद्रा में लौट गये।

वह बैठ गयी और अपनी सारी चेतना लगा कर उस माकूल वक्त का इंतज़ार करने लगी जब वह सबकुछ उगल दे। मगर पापा बोलें तब न! वे बोल क्यों नहीं रहे हैं? ख़त क्या वाकई नहीं देखा? और अगर देख लिया है तो नकार का तनाव चेहरे की पेशियों में क्यों नहीं? पहली बार पापा की ऐसी निरपेक्षता उसे कोंचने लगी।

एक नन्हीं सी चुप्पी के बाद पापा चुरूट से ढेर सा धुआँ उगल कर बोलने को हुए। अमि ने सोचा, बस अगला ही वह उपयुक्त पल है, जिसमें उसे बहुत उत्सुकता से अपना निर्णय दाग देना है। वह सख्त होने लगी।

"अमि" उन्होंने सम्बोधन किया और निःश्वास ली। फिर अमि को कुछ न कह कर रम्मी को आवाज़ दी — "रम्मीऽऽऽ!"

अमि की सांसें तेज़ होने लगीं । पापा की आवाज़ ज़रा भी ऊंची होती है कि परेड का काशन लगती है —एक खुरदुरा तीखा काशन—और रम्मी के आने पर बोले, "खाना लगाओ।"

अमि ने गले के भीतर बेकाबू हो रहे शब्दों को छोड़ना ही चाहा था कि पापा बोले— "तुम भी खाने से निबट लो। दस तीस की गाड़ी के लिये तुम्हारा रिज़र्वेशन करवा दिया है।"

अमि सुनते ही ढेर हो गयी—जैसे बहुत देर तक खींच कर रखा गया रबर छूट कर एकाएक सिकुड़ गया हो। उसने पापा की सूरत की ओर देखा। पापा के चेहरे पर सख्ती लगती ज़रूर है पर ज्यादा देर टिक नहीं पाती। पापा का चेहरा उसे अतीत में भव्य रही उस इमारत की तरह लगा, जो अब बुरी तरह ध्वस्त हो चुका है। 

पापा उसे खुद से लड़ते लगे। उसे लगा कि वे रिटायरमेंट के बाद से लगातार एक लड़ाई लड़ रहे हैं, अपने भीतर। जिसमें मारे जाने पर उन्हें कोई तमगा नहीं मिलेगा। वैसे मारे भी नहीं जाते, मगर बगैर गोली लगे वे गोली से भी ज्यादा आहत होते जा रहे हैं। वे उसे बहुत निरीह लगे, इतने निरीह मुरैना में डाकुओं के लिये दी गयी दबिश में आहत होने पर भी नहीं हुए होंगे। अमि पापा की मनोदशा को देख कर अपने आक्रामक होने के निश्चय पर पछताने लगी। मगर यह मनोदशा किसके खातिर, ममी की मौत, भैया की भगाई, या मिसेज़ नरूला से... .

डाइनिंग हाल में पहुँचे तो अमि को चकित करने के लिये एक दूसरा ही दृश्य था। फ्लावर पॉट के पास टेबल पर फ्रेम में ममी का वह चित्र था जिसमें, छोटी सी अमि को उठाए वे मुस्कुरा रही थी। अमि ने पहली बार ममी की यह तस्वीर देखी। यह सब उसे बेचैन कर डालने के लिये कम नहीं था और वह भी पापा द्वारा— जो ममी के हर संदर्भ के खुलते ही गालियों की चिप्पियाँ चिपकाता रहा हो। 

उसे लगा यह सूराख है, जिसके ज़रिये टूटते पापा का थका व मर्माहत मन नज़र आ रहा है।दूसरी दीवार पर वह छोटी सी पेंटिंग थी जो अमि ने बनायी थी और जो भैया के कमरे में लगी थी— तो क्या पापा इसी के लिये भैया के कमरे में गये थे?

फिर खाना लगा तो अमि से खाया नहीं गया। पापा की ओर देख कर रूलाई आते आते को हो आई। मगर ज़ब्त कर गयी। अपने वक्त में बहुत पराक्रमी रहा योद्धा जैसे निहत्था होकर टुकुर टुकुर ताक रहा हो — पापा अमि को ऐसे ही लगे।

खाने से निबट कर हाथ धोने के लिये वाश बेसिन की ओर बढ़ते हुए पीले प्रकाश में पापा बरसों बूढ़े लगे। इतने थके गो कि किसी ने उनकी रीढ़ की हड्डी निकाल फेंकी हो और वे सीधे खड़े होकर खुद को संभालने में भी तकलीफ अनुभव कर रहे हों। 

हाथ धोकर मुड़ते समय कुर्सी से पैर टकरा गया तो गिरते गिरते बचे। कुर्सी की पीठ थाम कर दम लिया और कमरे में चले गये। जाते वक्त रम्मी को बोले कि वह अमि का सामान तैयार कर दे और राजाराम को कहे कि गाड़ी लगाए।

पापा गाड़ी का अगला दरवाज़ा खोलकर बैठ गये। अपनी बाइस तेइस बरस की इस अदनी सी उम्र में पापा को पहली बार शोफर की बगल में बैठते देखा। शायद अमी के साथ बैठना भावात्मक रूप से असहनीय हो उठा था उनके लिये। वर्ना एक बार भैया छुटपन में शोफर की बगल में बैठ गए थे तो एक कसीला चांटा टिका कर बोले थे — मैनर्स कब सीखोगे...?...आखिर, सीखोगे भी कैसे, क्रोमोसोम्स तो इस घर के हैं नहीं... ."

भैया की पिटी हुयी शक्ल और पापा का ज़हरीला संवाद याद आते ही उसे पापा फिर से क्रूर लगे। इतने कि उनसे सिर्फ नफरत भर की जा सकती है। उसे खुद पर कोफ्त होने लगी। वह व्यर्थ ही उनके प्रति कमज़ोर हो रही थी।

अमि ने जैसा कि उसकी आदत थी, अपने पर्स में से पीला गुलाब निकाल कर जूड़े में खोंस लिया। बालों में फूल खोंसते समय उसे लगा जैसे उसने कोई नश्तर निकाल कर पापा की संवेदनाओं में निर्ममता से उतार दिया है। पापा को पीले गुलाब से एलर्जी है न, गॉडी कलर्ड फ्लावर ! और पापा के पीछे मुड़ कर देखने का इंतज़ार करने लगी।

गाड़ी आ गयी। वह सीट संभाल कर बैठ गयी।रम्मी पास खड़ा रहा। पापा दूर। कुछ मिनट बाद गाड़ी ज़ोर से चीखी। इंजन ने लंबी लंबी सांसें लेना शुरू कीं। अमि ने पापा की ओर ताका— उनके सिर के चारों ओर धुएँ की नीली चादर चुरूट ने बना दी थी। वे बेचैन से लगे।

रम्मी की आँखों में आँसू आ रहे थे। फिर धीरे धीरे गाड़ी खिसकने लगी। पापा पल भर पीठ किये खड़े रहे, फिर मुड़ कर तेज़ कदमों से अमि के पास आ गये। खिसकती गाड़ी के साथ चलते हुए भर्रायी आवाज़ में बोले — "अमि बेटे, बहुत जल्द लौट आना।"

गाड़ी तेज़ हो गयी।
उसने सोचा 'ठीक से उतरना', 'पहुँचने की सूचना देना' की हिदायतों को फलांग कर सीधे 'जल्द लौटना' क्या पापा की खालीपन से भरने वाली दहशत उजागर नहीं करता— क्या पापा अमि के जाने से वाकई खालीपन और एकाकी अनुभव कर रहे हैं?

२४ फरवरी २००१

 
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