मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


माटी की गंध

भारतवासी लेखकों की कहानियों के संग्रह में इस सप्ताह प्रस्तुत है
'मुंबई से 
सूरज प्रकाश की कहानी बाबू भाई पंड्या'


बाबू भाई पंड्या से मेरी मुलाकात डॉक्टर भाटिया ने करायी थी। उन दिनों मेरी पोस्टिंग अहमदाबाद में थी और डॉक्टर भाटिया सिविल अस्पताल के बर्न्स विभाग में काम कर रहे थे। डॉक्टर भाटिया की पत्नी पारूल मेरी दोस्त थी और उसी ने भाटिया को मेरे लेखन के सिलसिले में बताया था। एक दिन डॉक्टर भाटिया ने बातों ही बातों में मुझसे पूछा था कि मैं अपनी कहानियों के लिए पात्र कहाँ से लाता हूँ तो मैंने हँसते हुए जवाब दिया था कि कहानियों के पात्र न तो तय करके कहीं से लाये जा सकते हें और न ही लाकर तय ही किये जा सकते हैं, बहुत सारी बातें होती हैं जो पात्रों के चयनका फैसला करती हैं।
"लेकिन किसी न किसी तरह के पात्र के चयन तो करते होंगे आप लोग?" उन्होंने जोर देकर पूछा था।
मैंने कहा था उनसे कि कौन व्यक्ति कब और कैसे हमारी किसी रचना का पात्र बनता चला जाता है और हमें पता भी नहीं चलता, बल्कि ये कहना भी बहुत मुश्किल होता है कि जो व्यक्ति हमारी किसी रचना का पात्र बना है, वह हू–ब–हू वैसा ही हमारी कहानी में उतरेगा भी या नहीं। कई–कई बार एक ही पात्र रचने के लिए हम बीसियों व्यक्तियों के जीवन की घटनाएँ उठाते हैं तो कई बार एक ही व्यक्ति के इतने रूप हमारे सामने खुलते हैं कि जितनी मर्जी कहानियाँ लिख लो।

"लेकिन कुछ न कुछ तो ऐसा होता होगा सामने वाले व्यक्ति में कि उसमें से आप लोग कहानी तलाश कर लेते हों।"
"होता भी है और नहीं भी होता। दरअसल, पहले से कुछ भी तय नहीं किया जा सकता कि सामने वाला व्यक्ति हमें सारी सम्भावना के बावजूद कोई कहानी देकर जायेगा ही।"
"और अगर मैं आपको कहानी की असीम सम्भावनाओं वाले पात्र से मिलवाऊँ तो?" वे अभी भी अपनी जिद पर अड़े थे।
"मैंने कहा ना कि जरूरी नहीं कि मुझे उसमें कहानी की सम्भावनाएँ नज़र आयें ही। हो सकता है उस पर कहानी तो क्या लतीफा भी न कहा जा सके और ऐसा भी हो सकता है कि वह पात्र मुझे इतना हांट करे कि पूरा उपन्यास लिखवा कर ही मेरा पीछा छोडे़। लेकिन ये सारी बातें तो आपके पात्र से मिलने के बाद ही तय हो सकती हैं, किस बाँस से बाँसुरी बनेगी, ये तो बाँस देखकर ही तय किया जा सकता है।
"आप एक काम करें। कल बारह बजे के करीब मेरे डिपार्टमेंट में आ जायें। वहीं आपको मैं एक ऐसी ही शख्सियत से मिलवाऊँगा जिसे आप हमेशा याद रखेंगे। कहानी तो आप उस पर लिखेंगे ही, ये मैं आपको अभी से लिखकर दे सकता हूँ।"
"जरूर लिखूँगा कहानी अगर वो खुद लिखवा ले जाये।"
"आप लिखें या न लिखें वह खुद लिखवा ले जायेगा।"
और इस तरह से बाबू भाई पंड्या से मुलाकात हुई थी मेरी।

मैं ठीक बारह बजे डॉक्टर भाटिया के पास पहुँच गया था। हम दोनों अभी चाय पी रहे थे कि केबिन का दरवाजा खुला और एक बहुत ही बूढ़ा सा आदमी अन्दर आया और बोला, "नमस्कार डॉक्टर साहब।"
डॉक्टर ने उसके नमस्ते का जवाब दिया और उसके हाल–चाल पूछे। तभी उस बूढ़े आदमी ने एक लिफाफा मेज़ पर रखते हुए कहा, "डॉक्टर साहब, ये आपका टेलिफोन का बिल जमा करा दिया है और ये आपने अपने भाई के लिए जो फार्म मँगवाये थे, वो भी लाया हूँ, भगवान उसे भी खूब तरक्की दे।"
"ठीक है बाबू भाई। और कुछ?" डॉक्टर भाटिया ने उससे पूछा था और मेरी तरफ इशारा किया था कि यही है वो आदमी जिससे मिलवाने के लिए मैं आपको यहाँ लाया हूँ और जिस पर आपको कहानी लिखनी है।

मैंने तब गौर से उस बूढ़े व्यक्ति को देखा था। उम्र होगी पचहत्तर से अस्सी के बीच, नाटा कद, गंजा सिर लेकिन चेहरे पर गज़ब का आत्मविश्वास और एक तरह की ऐसी चमक जो जीवन से जूझ रहे लोगों के चेहरे पर सहज ही आ जाया करती है। वे सीधे और तनकर खड़े थे और कहीं से ये आभास नहीं देते थे कि लगे, उम्र के इतने पड़ाव पार कर चुके हैं।
बाबू भाई पंड्या डॉक्टर से कह रहे थे, "डॉक्टर साब, बाकी तो सब ठीक है, बस जरा एक मेहरबानी चाहिए थी।"
"बोलो ना बाबू भाई।"
"वो जो चार नम्बर वार्ड में तेरह नम्बर का मरीज है उसे रात भर नींद नहीं आती। बेचारा कमजोर बहुत हो गया है। मैंने डॉक्टर रावल से कहा भी था कि उसके लिए कोई स्पेशल खुराक लिख दे तो बेचारा ठीक होकर काम पे जावे। बहुत ईमानदार आदमी है बेचारा। लेकिन क्या करे! अस्पताल में पड़ा है बेचारा। घर में अकेला कमाने वाला। ठीक हो के जायेगा तो बच्चों के लिए कमाकर कुछ लायेगा। आपको दुआएँ देगा।"
"ठीक हैं बाबू भाई। उसके केस पेपर्स मेरे पास ले आना। मैं कर दूँगा। और कुछ बाबू भाई?"
"बस इतनी मेहरबानी हो जावे तो एक गरीब परिवार आपको दुआएँ देगा।"
और इससे पहले कि बाबू भाई हाथ जोड़ कर बाहर जाते, डॉक्टर भाटिया ने उन्हें रोकते हुए कहा था, "बाबू भाई ये मेरे दोस्त हैं चन्दर रावल। एक बड़ी कम्पनी में काम करते हैं और खूब अच्छी कहानियाँ लिखते हैं।"
बाबू भाई पंड्या ने मेरी तरफ देखते हुए तुरन्त हाथ जोड़ दिये थे और कहा था, "भगवान आपको लम्बी उमर दे साब। राइटर तो साब, भगवान के दूत होते हैं।" और उन्होंने अपने कन्धे पर लटके थैले में से कुछ पोस्टकार्ड निकालकर मुझे थमा दिये थे, "आप लोग तो दुनिया जहान की बातें अपनी कहानियों में लिखते होंगे। आपके पास तो बहुत सारी मैगजीनें भी आती होंगी। ये मेरे पते लिखे कुछ कार्ड हैं। जब भी आपके पास या किसी मेल–जोल वाले के पास पुरानी मैगजीनों की पास्ती होवे ना तो उसे बेचने का नहीं, मुझे ये कार्ड डाल देना, मैं आकर ले जाऊँगा।"

मैं हैरान रह गया था। कभी कोई पुरानी पत्रिकाएँ भी इतने आग्रह से माँग सकता है और अस्पताल में पुरानी पत्रिकाएँ भी उपयोग में लायी जा सकती हैं, मैं सोच भी नहीं सकता था।

पोस्टकार्ड पर पाने वाले के पते की जगह पर उनके पते की मुहर लगी हुई थी।
"आप पुरानी पत्रिकाओं का क्या करेंगे बाबू भाई?" मैं उनके मुँह से ही सुनना चाहता था।
"देखो साब, ऐसा है कि जो लोग दर्दी से मिलने कू आवे ना तो खाली बैठा–बैठा दूसरे को गाली देता रहता है, सास होगी तो बैठी–बठी बहू की बुराई करेगी और क्लर्क होगा तो बॉस की बुराई करेगा। इससे दर्दी को बहुत तकलीफ होती है। वो बेचारा अपने मुलाकाती को तो कुछ कह नहीं सकता। सो इस वास्ते मैं सबसे बोलता हूँ पुरानी चोपड़ियो होवे तो बाबू भाई पंड्या के पास मोकलो। मैं हर दर्दी और उसके मुलाकाती को दे देता हूँ, पढ़ो और कुछ अच्छी बातें गुनो। मैं सब लोग से इस वास्ते बोलता हूँ कि पास्ती वाला तो दो रूपये किलो लेवेगा, पर यहाँ सब लोग उन्हें पढ़ेंगे तो उनका टाइम भी पास होवेगा और कुछ ज्ञान–ध्यान की बातें भी सीखेंगे। मेरे पास एक कपाट है। साब लोगों की मेहरबानी से मिल गया है। उसी में रखवा देता हूँ और रोज सुबे राउंड पर निकलता हूँ तो सबको दे देता हूँ।"

वाह . . .कितनी नयी कल्पना है। इतने बरसों से सैंकड़ों की तादाद में पत्रिकाएँ आती रही हैं मेरे पास। खरीदी हुई भी और वैसे भी, लेकिन आज तक मेरी पत्रिकाओं को मेरे अलावा कभी कोई दूसरा पाठक नसीब नहीं हुआ होगा। कहाँ थे बाबू भाई आप अब तक। मैं मन ही मन सोचता हूँ।
"जरूर दूँगा पत्रिकाएँ आपको बाबू भाई, और कोई सेवा हो तो बोलिए।"
"बस साहब जी, आप लोगों की मेहरबानी बनी रहे।"

और वे हाथ जोड़कर चले गये थे। मैं उस शख्स को देखता रह गया था। डॉक्टर भाटिया बता रहे थे, "यही है आपकी अगली कहानी का पात्र। रिटायर्ड सी आय डी इन्स्पैक्टर बाबू भाई पंड्या। उम्र लगभग अस्सी साल। एक पुरानी सी मोपेड है इनके पास, उस पर रोजाना प्रगति नगर से आते हैं और दिन भर यहाँ मरीजों की सेवा करते रहते हैं। सारे डिपार्टमेन्टस् के मरीज और उनके सगे वाले ही इनके असली परिवार है।"
"लेकिन वे तो आपके फोन बिल जमा करके आये थे वो . . .?"
"दरअसल वे किसी का कोई भी अहसान नहीं लेना चाहते। हम लोगों के छोटे–मोटे काम कर देते हैं और बदले में मरीजों के लिए कुछ न कुछ माँग लेते हैं।"
"यार, ये तो अद्भुत कैरेक्टर है। इस व्यक्ति को गहराई से जानने की जरूरत है ताकि पता चले कि कौन सी शक्ति है जो इसे इस उम्र में भी इस तरह की अनूठी सेवा से जोड़े हुए है। घर में और कौन–कौन है इसके?"
"मेरे खयाल से तो सब हैं। बच्चे अफसर वगैरह है।"
"और बीवी?"
"बाबू भाई पंड्या के साथ बस, एक ही दिक्कत है कि वे अपने बारे में बात भी नहीं करते। आप उनसे मरीजों के बारे में, उनकी तकलीफों के बारे में और उनकी जरूरतों के बारे में घंटों बात कर लीजिए, लेकिन उनके बारे में यकीनी तौर पर किसी को कुछ भी नहीं मालूम। सब सुनी सुनायी बातें करते हैं। कोई कहता है कि बीवी के मरने पर वैरागी हो गये और सेवा से जुड़ गये तो कोई बताता है कि अरसा पहले इनकी कस्टडी में एक बेकसूर कैदी की मौत हो गयी थी। कुछ इन्क्वायरी वगैरह भी चली थी। उसकी मौत ने इन्हें भीतर तक हिला दिया और तब से मरीजों की सेवा में अपने आपको लगा दिया है। ये सब सुनी–सुनायी बाते हैं। अब राइटर महोदय, ये आप पर है कि कोई नयी थ्योरी लेकर आयें तो सारे रहस्यों पर से परदा उठे।"
"लेकिन ये होगा कैसे?" मैं पूछता हूँ।
"आप एक काम करो यार। दो–चार दिन इसके साथ गुजारो तो ही इसे जान पाओगे या एक और तरीका है। पुरानी मैगजीनों के बहाने उसे बुलाओ अपने यहाँ और तब इसकी भीतरी परतें खोलने की कोशिश करो। मैंने बताया था ना! शानदार कैरेक्टर।"

"न केवल शानदार बल्कि ऐसा कि आज के जमाने में उस जैसा बनने की सोच पाना भी मुश्किल।"

यह मेरी पहली मुलाकात थी बाबू भाई पंड्या से। मैं सचमुच विचलित हो गया था उनसे मिलकर और डॉक्टर भाटिया की बतायी बातों को सुनकर। जीवन कितना विचित्र होता है। एक अस्सी साल का बूढ़ा आदमी, जिसे अरसा पहले जीवन की आपा–धापी से रिटायर होकर आराम से अपना वक्त भजन पूजा में गुजारना चाहिए था, इस तरह से दीन–दुखियों की सेवा में लगा हुआ है।

और अगली बार मैं एक दिन सुबह–सुबह ही अस्पताल पहुँच गया था। हाथ में ढेर सारी पत्रिकाओं के बंडल लिये। डॉक्टर भाटिया ने बताया था कि वे आठ बजे ही पहुँच जाते हैं ताकि डॉक्टरों के राउंड से पहले ही एक राउंड लगाकर मरीजों की समस्याओं के बारे में जान सकें और उनके लिए डॉक्टरों से सिफारिश कर सकें। मैं बाबू भाई पंड्या की दिनचर्या का पूरा एक दिन अपनी आँखों से देखना चाहता था। कुछेक दिन उनके साथ गुजारना चाहता था ताकि मैं इस चरित्र को नजदीक से जान सकूँ।

मेरे कई बरस के लेखन में यह पहली बार हो रहा था कि कहानी का जीता जागता पात्र मेरे सामने था और मुझे इस तरह से अपने आपसे जोड़ रहा था। वैसे अभी उसके बारे में कुछ भी साफ नहीं था कि ये चरित्र आगे जाकर क्या मोड़ लेगा और अपने बारे में क्या–क्या कुछ लिखवा ले जायेगा।

मैं आठ बजे ही अस्पताल में पहुँच गया था और अस्पताल के बाहर बेंच पर बाबू भाई पंड्या का इन्तजार करने लगा। मैंने अपने आने के बारे में डॉक्टर भाटिया को भी नहीं बताया था। मैं अपनी खुद की कोशिशों से इस व्यक्ति के भीतरी संसार में उतरना चाहता था और सब कुछ अपनी निगाहों से देखना चाहता था।

सवेरे के वक्त सिविल अस्पताल में जिस तरह की गहमा–गहमी होती है मैं देख रहा था। मरीज आ रहे थे, भाग–दौड़ कर रहे थे। चारों तरफ कराहें, तकलीफों और दर्द का राज्य। अस्पताल के नाम से मुझे हमेशा से दहशत होती है। चाहे अपने लिए अस्पताल जाना पड़े या किसी और के लिए, यहाँ दर्द की लगातार बहती नदी को पार करना मेरे लिए हमेशा मुश्किल रहा है।

तभी बाबू भाई पंड्या आ पहुँचे। अपनी मोपेड से मैगजीनों के भारी बंडल उतारने लगे। थैले वाकई भारी थे और उनके लिए ढोकर लाना मुश्किल। यही मौका था जब मैं जाकर उनसे बातचीत की शुरूआत कर सकता था और उनका विश्वास जीत सकता था।
"नमस्ते बाबू भाई। कैसे हैं?" मैंने उनके हाथ से थैला लेते हुए कहा।
"अरे आप हैं, राइटर साहब। नमस्ते। आप क्यों तकलीफ करते हैं। मैं ले जाऊँगा। पास ही तो हैं।" उन्होंने मेरा हाथ रोका।
"रहने दीजिए बाबू भाई। आप सबके लिए इतनी तकलीफ उठाते हैं और सबका कितना खयाल रखते हैं। मैं क्या आपकी इतनी भी मदद नहीं कर सकता।"
बाबू भाई पंड्या का जवाब था, "देखो साब, अगर हम सब एक दूसरे का खयाल रखें तो ये जीवन कितना सुखी हो जावे। पर हम सब दूसरे की कहाँ सोचते हैं। हम अगर किसी को खाना नहीं खिला सकते तो ना सही, लेकिन पानी तो पिला ही सकते हैं। उसके पास दो घड़ी बैठ सकते हैं। कैसे आना हुआ सुबह–सुबह, कोई मरीज है क्या इधर?"
"नहीं बाबू भाई। यों ही इधर से जा रहा था। सोचा आपसे भी मिल लूँगा और आपको थोड़ी मैगजीनें भी दे दूँगा।"
"बहुत अच्छा किया आपने। बहुत पुण्य का काम होता है किसी के काम आना। मैं तो सबसे यही कहता हूँ जो चीज आपके पास अपनी उमर पूरी कर चुकी है और अब आपके किसी काम की नहीं हैं, तो उसे दूसरों के पास जाने दो। उस आदमी के पास उसका कोई न कोई इस्तेमाल निकल ही आयेगा। वह चीज फिर से पहले जैसी काम की हो जायेगी। एक नया जीवन मिलेगा उसे।"
मैं उनकी सीधी–सादी फिलासॉफी पर मुग्ध हो गया। कितनी सहजता से वे बड़ी–बड़ी बातें कह जाते हैं। कहीं कोई आडम्बर नहीं, कोई टीम टाम नहीं।

हम दोनों ने उनकी अलमारी में मैगजीनों के बंडल रखवाये। उनकी अलमारी में अद्भुत खज़ाना भरा हुआ था। किताबें और पत्रिकाएँ तो थीं ही, बच्चों के लिए पुराने खिलौने, प्लास्टिक की नलियाँ, मिठाई की गोलियाँ वगैरह भी थीं। वे ये सारी चीजें एक थैले में भरने लगे।
"तो चलूँ अपने राउंड पर?" वे मेरी तरफ देखकर पूछने लगे।
"अगर मैं भी आपके साथ चलूँ तो आपको कोई एतराज तो नहीं होगा?" मैंने संकोच के साथ पूछा। बाबू भाई को उनके काम के जरिये ही जाना जा सकता था।
"हाँ चलो ना, इसमें क्या।"
और हम दोनों राउंड पर निकल पड़े। सबसे पहले वे बच्चों के वार्ड की तरफ गये। सारे बच्चे उन्हें देखते ही आवाजें लगाने लगे, "बाबू भाई आये मिठाई लाये . . .बाबू भाई आये गोली लाये।
"और उन्होंने अपने थैले में से पुराने ग्रीटिंग कार्ड, मिठाई की गोलियाँ और छोटे–छोटे लट्टू जैसे खिलौने निकालकर बच्चों में बांटना शुरू कर दिया।
"केम छो बाबा, लो तेरे वास्ते ये अपनी करिश्मा कपूर ने कार्ड भेजा है कि बच्चा जल्दी से अच्छा हो जावे तो मैं उसको मिलने को आवेगी। मेरे को फोन करके बोली कि क्या नाम है उसका . . .हाँ . . .हाँ . . .अपने सुन्दर का . . .उसका खयाल रखना। मैंने डॉक्टर से कह दिया है। आके तपास कर जावेगा।" वे बच्चे के गाल पर हाथ फिरा देते।

वे फिर एक और बच्चे के पास गये।
बच्चा उन्हें देखते ही मुस्कुराया, "क्यों रे मास्तर, रात को नींद आयी थी या तारे गिनता रहा। बच्चा खुलकर हँसा, "आयी थी।"
बच्चे की माँ उन्हें बच्चे के बारे में बताती है।
"फिकिर नहीं करो बेन। सब ठीक हो जायेगा और बच्चा पहले की तरह खेलने लगेगा।"



एक और बच्चे के पास जाकर वे उसकी नब्ज देखते हैं। बच्चे की माँ बताती है कि दर्द के मारे बच्चे को बहुत परेशानी हो रही है।
"कोई बात नहीं। ये तो एकदम फरिश्ता लड़का है। वेरी स्वीट बॉय। अभी देखना हम इसे देखने के लिए अस्पताल के सबसे बड़े डॉक्टर को लेकर आते हैं। ये तो बहुत लवली बॉय है। मैं इसे एक मीठी गोली देता हूँ। खा लो बच्चे। इससे दांत भी खराब नहीं होते और भूख भी नहीं लगती। ले लो। स्पेशल लन्दन से मँगवायी है मैंने बच्चों के लिए। अभी तुम एकदम अच्छे हो जाओगे और फिर से फुटबॉल खेल सकते हो।"

मैं देख रहा था उनका राउंड लेना ठीक बड़े डॉक्टर के राउंड लेने जैसा ही है। लोग उनके आते ही खड़े हो जाते। ठीक वैसे ही प्रणाम करते जैसा डॉक्टरों को किया जाता है।

मरीज के साथ वाले उन्हें अपने मरीज के बारे में बता रहे थे और वे कोई न कोई आश्वासन जरूर दे रहे थे। मैंने पाया कि उनके प्रति सभी में अपार श्रद्धा है और अगाध प्रेम हैं उनके मन में अपने मरीजों के प्रति। कहीं कोई दिखावा या आडम्बर नहीं।

एक दूसरे वार्ड में एक आदमी पानी पीने के वास्ते उठ नहीं पा रहा था। वे उसके पास जा के पानी पिलाते हैं और थैले में से प्लास्टिक की नली निकालकर उसे देते हैं, "जब भी प्यास लगे तो इस नली को मुँह से लगा लेना और लेटे–लेटे पानी पी लेना। कोई तकलीफ नहीं होवेगी।"

वह आदमी करूणापूरित नयनों से उन्हें देखता रह गया। दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम किया उसने बाबा को।
एक अन्य वार्ड में बाबू भाई ने मैंगजीनें, फल और दूसरी चीजें बाँटीं। हाल–चाल पूछे।
एक मरीज उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करता है।
"भाई केम छो?" बदले मे बाबू भाई पंड्या उसके कन्धे पर हाथ रखकर पूछते हैं, "तू अपनी कह, कैसा है। ले तेरे लिए मिनिस्टर साहब ने सन्तरे भिजवाये हैं, बोला है कि टाइम मिलते ही आऊँगा मिलने।"

हम पूरे अस्पताल का ही राउंड लगा रहे थे। डॉक्टर के तो वार्ड बंधे होते हैं। बच्चों के डॉक्टर बच्चों के वार्ड में और हडि्डयों के डॉक्टर अपने वार्ड में लेकिन बाबू भाई का कोई तय वार्ड नहीं था। सारे वार्ड उनके थे। सारे मरीज उनके थे। वे सबके सगे थे और सब उनके सगे। वे सबको प्रणाम कर रहे थे और सब उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम कर रहे थे।

बाबू भाई पंड्या को देखते ही एक जवान लड़का उनके पैर छूकर प्रणाम करने लगा। बाबू भाई पंड्या उसे उठाते हैं, "बेटा मेरे पैर नहीं पकड़ो। ऊपर वाले की मेहेरबानी है कि वक्त पर तुम्हारे बापू को मदद मिल गयी और उनकी जान बच गयी।"
लड़का अभी हाथ बाँधे खड़ा था। एकदम रोने को हो आया, "आप न होते तो उन्हें तो कोई अन्दर नहीं आने दे रहा था। आप ही की वजह से . . ." उसने दोनों हाथों से बाबू भाई पंड्या के हाथ पकड़ लिये हैं, "मैं कैसे आपका अहसान चुकाऊँगा।"
"बाबू भाई पंड्या उसे दिलासा देते हैं, "मुझे कुछ नहीं चाहिए बेटा। अगर तुम कुछ करने की हालत में हो तो एक काम करो। एक दुखी परिवार तुम्हें दुआएँ देगा।"
लड़का कहने लगा, "आप हुकुम करो बाबू भाई।"

बाबू भाई पंड्या उसे बता रहे हैं, "वार्ड नम्बर तीन में बिस्तर नम्बर सोलह पर एक दर्दी है। उसे आज रिलीव करने वाले हैं। उसके घर से कोई लेने वाला आया नहीं है। अस्पताल वाले तो उसे वरांडे में डाल देंगे। बेचारा फिर से बीमार हो जायेगा। तुम एक काम करो। उसे उसके घर तक भिजवाने का इन्तजाम करा दो तो समझो तुम्हारे बप्पा का काम हुआ है। जय श्री कृष्ण।"
लड़का खुश हो गया था, "हो जायेगा। और कुछ बाबू भाई?"
बाबू भाई पंड्या ने उसके कंधे पर हाथ रखा, "बस, एक बात और, अपने माँ–बाप की खूब सेवा करो। उनकी सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं। बूढ़े लोग दो बात कड़वी भी बोलें तो नीम के पत्ते समझ कर के ले लो। फायदा ही करेंगे

लड़के ने एक बार फिर से बाबू भाई के पैर छुए और चला गया।
हम पूरा राउंड लगाकर वापस आ गये।
बात आगे बढ़ाने की गरज से मैंने पूछो, "बाबू भाई आप रहते कहा हैं?"
बाबू भाई बताने लगे, "थोड़ी दूर है घर मेरा। प्रगति नगर में।"
मैं आगे पूछता हूँ, "आप यहाँ रोज आते हैं?"
"हाँ भाई। अब तो रोज ही आता हूँ। सुबे आठ बजे तक आ जाता हूँ और रात को ही जाता हूँ।"
"और आपका घर बार, आपका काम?"
"भाई ये काम ही तो कर रहा हूँ मैं। ईश्वर के बन्दों का काम। देखो साहब, यहाँ तरह–तरह के दर्दी आते हैं। किसी–किसी वार्ड में तो महीना–महीना भी रहना पड़ता है। तो ऐसे दर्दी के साथ उसके घर वाले काम–धन्धा तो छोड़ के नहीं बैठ सकते ना। और फिर छोटे–छोटे बच्चे होते हैं, गरीब लोग होते हैं, जिनका कोई नहीं होता। बूढ़े होते हैं जिनसे कोई बात करने वाला नहीं होता। फिर अस्पताल का स्टाफ बेचारा किस–किसकी सुने। वे भी बेचारे थक जाते हैं। गर्दी इतनी है, तो ये बाबू भाई पंड्या है ना, इसे घर पर तो कोई काम है नहीं, सो आ जाता है।"
"लेकिन आप ये सब करते हैं इसके लिए तो ढेर सारे पैसे चाहिए ना।"
"ना ना . . .पैसा तो आप सबका है, मेरे तो बस ये दो हाथ हैं, वही काम करते हैं। पैसा तो ऊपर वाला भेजता ही रहता है। चलिए साहब, जरा गेट तक हो आयें। कुछ फल आये होंगे, मरीजों के लिए। ले आवें।"
मैं हैरान हो गया – किसने भेजे होंगे।
"बहुत लोग हैं। भेजते रहते हैं। एक एमएलए साब हैं। वे हर दिन एक टोकरा फल भिजवाते हैं। एक और साहब हैं, वे बच्चों के लिए एक खुराक भिजवा देते हैं। और भी कई लोग हैं जो अलग–अलग सामान भिजवाते रहते हैं। मैं आगे दे देता हूँ। बस . . .मैं तो बस डाकिया हूँ ऊपरवाले का . . ."
"आप कब से ये काम कर रहे हैं?"
"बीस बरस तो हो ही गये होंगे। रिटायरमेंट के बाद से ही सेवा के इस काम से जुड़ गया था।"
"आप क्या करते थे?"
"पुलिस में सीआइडी इन्सपेक्टर था। तब किसी न किसी केस के लिए अस्पताल के चक्कर काटने पड़ते थे। मैं गरीब मरीजों को देखता। बेचारे राह देखते, कोई उनकी सेवा के लिए आये। एक गिलास पानी पिलाये। तब मैं सिर्फ छुट्टी के दिन आया करता था। रिटायर होने के बाद तो मैंने अपने जीवन का यही मिशन बना लिया है। अब तो जीना–मरना यहीं है।"
"बाबू भाई, आप बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। मैं देख रहा हूँ कि लोग यहाँ इतने परेशान हैं कि कोई सुनता ही नहीं है उनकी। गरीब आदमी की तो कोई सुनवाई ही नहीं हैं यहाँ।"
मैं महसूस कर पा रहा था कि वे अपने बारे में बातें करते हुए सहज नहीं थे और बड़ी बेचैनी महसूस कर रहे थे। जो कुछ भी उन्होंने बताया, ऊपरी तौर पर मोटी–मोटी बातें ही बतायीं। मैंने उन्हें ज्यादा नहीं सताया। डॉक्टर भाटिया इशारा कर ही चुके थे।
"ठीक कहते हैं आप।" वे बात आगे बढ़ाते हैं, "देश में गरीब आदमी की कहीं भी सुनवायी नहीं हैं। उस बेचारे को तो अपनी बात कहने का हक ही नहीं हैं। अब मुझसे जितना हो पाता है, मैं करता हूँ और रात को जब सोता हूँ तो तसल्ली होती है कि आज का दिन बेकार नहीं गया।"

हम गेट पर पहुँचे। वहाँ दो टोकरे सन्तरे और केले वगैरह पान की दुकान के बाहर रखे थे।
बाबू भाई को देखते ही पान वाला कहने लगा, "बाबू भाई, अभी कोई आदमी आपके लिए ये लिफाफा छोड़ गया है। बोल रहा था, बाद में मिलने आयेगा।"
बाबू भाई ने लिफाफा खोलकर देखा। ढेर सारे पुराने ग्रीटिंग कार्ड थे। वे खुश हो गये, "चलो अच्छा हुआ। कार्ड खतम भी हो रहे थे।"
मैं अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाता, "आप बच्चों को ये पुराने कार्ड क्यों देते हैं?"
"इन गरीब बच्चों को नये कार्ड कौन भेजेगा और क्यों भेजेगा? तो मैं लोगों से कहता हूँ कि भई पुराने कार्ड फाड़ कर फेंकने के बजाये मुझे दे दो। बच्चों को बहलाता रहूँगा कि माधुरी दीक्षित ने भेजा है और शाहरूख खान ने भेजा है। बच्चे खुश हो जाते हैं। और हमें क्या चाहिए। बच्चे के चेहरे की मुस्कुराहट से ज्यादा कीमती चीज दूसरी नहीं होती साहब। हम बस यही काम नहीं करते, भूल जाते हैं। बच्चे कोई सोना–चाँदी नहीं माँगते, जमीन जायदाद नहीं माँगते, उनके गाल पर प्यार से हाथ फेर दो और दुनिया के सबसे खूबसूरत फूल खिलते हुए देख लो। आइए मैं आपको दिखाऊँ।"
 




बाबू भाई मेरा हाथ पकड़कर एक बच्चे के पास लेकर जाते हैं। बच्चे के पैर पर पलस्तर लगा हुआ था। उन्हें देखते ही बच्चा खुश हो गया। हाथ जोड़कर नमस्ते की। बाबू भाई उसके सिर पर हाथ फेरते हैं और उसके सामने सौ रूपये का एक नोट, फूलों वाला एक खूबसूरत कार्ड और एक टॉफी रखते हैं, "लो बेटा, कोई एक चीज चुन लो।"
बच्चा भोलेपन से पूछता है, "मैं ये कार्ड ले लूँ। और ये टाफी भी . . .?"
बाबू भाई, "ले लो बेटे . . .दोनों ले लो।" बच्चा कार्ड पाकर बेहद खुश हो गया था।
पूछा था बच्चे ने, "मेरे लिए है ये?"
"हाँ बेटा तेरे लिए ही है। अपनी वो तब्बू है ना, वो कल रात आयी थी इधर। तू तो सो रहा था तो मेरे पास आयी और बोली कि अभी मैं जाती हूँ। मेरी तरफ से ये कार्ड मुन्ना राजा को दे देना।"

हम देख रहे थे कि बच्चा कार्ड पाकर बेहद खुश हो गया है।
बाबू भाई बताने लगे, "देखा? बच्चे के चेहरे के बदलते हुए रंग को? बच्चों को खुश करना कितना आसान होता है। बस मैं यही तो करता हूँ।"

मैं भावुक होने लगा था। पता नहीं कैसे ये ख्याल मन में आ रहा था कि इस देवता के पैर छूकर उसे प्रणाम करूँ और कहूँ – मुझे भी अपने साथ जोड़ लीजिए। मैं पता नहीं क्यों कागज काले करते हुए ये मोह पाले हुए हूँ कि इससे क्रांति आ जायेगी, मेरे लिखे से समाज का भला हो जायेगा या सब लोग सुखी हो जायेंगे।

मैं देख रहा था कि असली मानव सेवा तो ये अस्सी बरस का बूढ़ा कर रहा है और बदले में किसी से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता। कुछ भी तो नहीं। जो कुछ माँगता है इन मरीजों के लिए ही माँगता है। हे देव, प्रणाम है तुम्हें। मैं तो तुम्हारे पासंग खड़े होने लायक काम भी नहीं करता। दावे बेशक इतने बड़े–बड़े करता होऊँ।
भावुक होकर कहा था मैंने, "बाबू भाई एक बात बोलूँ।"
बाबू भाई ने मेरे कन्धे पर हाथ रखकर बोले, "बोलिए ना साब। आप तो खुद इतना बड़ा काम कर रहे हो। लिखने का। समाज में जो भी अच्छा बुरा है उसको सामने लाने का काम तो बहुत बड़ा होता है साहब।"
"मैं कभी–कभी आकर आपके साथ काम कर सकता हूँ क्या, ये छोटे–छोटे काम। अगर कुछ और नहीं तो टाइम तो दे ही सकता हूँ।" हालांकि मैं जानता हूँ कि संवाद मेरे भीतर से नहीं आ रहा। श्मशान वैराग्य है ये। घर जाते ही मैं दुनियावी धन्धों में फँस जाऊँगा। मैं दो बार भी आकर इनके साथ राउंड लगा लूँ तो भी बहुत बड़ी बात होगी। मुझसे हो ही नहीं पायेगा। लेकिन फिर भी कह तो दिया ही था मैंने।
"आप जरूर आना। ये अस्पताल एक तरह से बहुत बड़ा स्कूल है। जीवन का स्कूल। यहाँ आपको हजार तरह के अदमी मिलेंगे। अच्छे भी, बुरे भी। यहाँ जीवन को आप बहुत नजदीक से देखेंगे। असली जीवन तो यहीं है साब। दुख, तकलीफ, फिर भी चेहरे पर हँसी। एक दूसरे के लिए कुछ करने की इच्छा। और क्या होता है जीवन में साहब। दो मीठे बोल बोले और सब कुछ पा लिया। अब चलूँ मैं साहब। आप चाहें तो अपने डॉक्टर दोस्त के पास बैठें। मैं जरा अपने पुराने मरीजों की नहाने–धोने में मदद करूँ। नर्स बेचारी भी कितने मरीजों की सेवा करे। थक जाती हैं वे भी तो।"

और वे मुझे लम्बे गलियारे के बीच में ही छोड़ कर चले गये थे।
मैं एक ही हफ्ते बाद ही जब अस्पताल पहुँचा था तो पता चला, बाबू भाई कहीं गये हुए हैं। बस आते ही होंगे। मैं वहीं बेंच पर बैठ कर इन्तजार करने लगा था। मेरे पास ही बेंच पर कुछ बच्चे बैठे हुए थे। उनमें एक बच्चे के पैर में सूजन थी। मैं उनके इतने नज़दीक बैठा था कि उनकी पूरी बात सुन पा रहा था।
"मैं तुझे बोला था ना . . .वो हड्डी जोड़ने वाले बंगाली के पास लेकर जाते और वो फटाक से हड्डी जोड़ देता पर तुम लोग माने ही नहीं। यहाँ ले के आ गये।" उनमें से एक कह रहा है।
ये सुनते ही सूजे पैर वाला लड़का रोने लगा।
दूसरा उसे चुप करा रहा था। "तू क्यों रो रहा है रे मुन्ना। ये हमारी सिरदर्दी है कि तेरा इलाज होना चाहिए। रो नहीं। कोई न कोई रास्ता निकल आयेगा।"
सूजे पैर वाला वही लड़का कह रहा था, "मैं हमेशा तुम लोगों को तंग करता रहता हूँ।"
बड़ा लड़का जवाब में बोला, "तो क्या हुआ? हम तेरे दोस्त ही तो है।"
वही लड़का, "इतने पैसे कहाँ से लाओगे?"
बड़ा लड़का, "वो सोचना तेरा काम नहीं है। कुछ न कुछ करेंगे।"
वही लड़का, "देख कबीरा। इसे ऐसे ही रहने दें। अपने आप ठीक हो जायेगा।" वह उठने की कोशिश करने लगा।
कबीरा, "तू चुपचाप बैठ और हमें सोचने दे।"

लड़के फुटपाथ पर काम करने वाले लग रहे थे। ऐसे मरीजों की अस्पताल में क्या हालत होती है, हर कोई जानता है। अस्पताल में ही क्यों, कहीं भी।

काश . . .हर अस्पताल में दस–बीस बाबू भाई पंड्या होते। कोई तो इनके हक की बात करने वाला होता। आसपास जितने भी मरीज नज़र आ रहे थे, सारा दिन यहाँ से वहाँ तक धकियाये जायेंगे और शाम ढलने पर अस्पताल में होने के बावजूद सबकी तकलीफ बढ़ चुकी होगी।

मैं उन बच्चों की गतिविधियाँ देख ही रहा था कि तभी हमारी ही बेंच पर बैठ एक आदमी ने पूछा बच्चों से, "क्या बात है। क्यों परेशान हो?"
बड़े लड़के ने बताया, "हमारा दोस्त है। सड़क पार करते समय गिर गया। डॉक्टर पहले बोला कि एक्सरे कराओ और अब बोलता है पिलस्टर लगेगा। दवा बाज़ार से लाने के वास्ते बोला है।"
वह आदमी पूछने लगा, "पैसे नहीं है क्या?"
लड़के ने सिर हिलाया, "नहीं हैं।"
वह आदमी दिलासा देने लगा, "तो घबरने का नहीं। बाबू भाई पंड्या के पास जाओ। वोई काम करा देगा।"

अब मुझे पूरे मामले में दिलचस्पी होने लगी कि देखें क्या होता है और ये बच्चे क्या करते हैं।
लड़का हैरानी से पूछा रहा था, "ये बाबू भाई पंड्या कौन है?"
वह आदमी बताने लगा, "है एक भला आदमी। उसी को ढूँढो। मिल जावे तो उसे अपनी बात बोलो। मदद करेगा। भगवान है वो। उसके दर से कोई खाली नहीं जाता।"
वह लड़का आगे पूछा रहा था, "किदर मिलेगा वो?"
उस आदमी ने तब बताया, "कहीं भी देखो उसे। किसी न किसी दर्दी के पास मिल जायेगा।"
उस लड़के के चेहरे पर चमक आ गयी थी, "तुम लोग यहीं ठहरो। मैं उसे देख के आता है। चल सत्ते! तू भी चल।"
मैं जानता था, बाबू भाई पंड्या अभी नहीं आये हैं। चाहता तो इन बच्चों को बता भी सकता था और उनके आने पर उनसे मिलवा भी सकता था। मदद के लिए अलबत्ता उनसे कहने की जरूरत ही नहीं पड़ती। अपने–आप ही मिल जाती लेकिन मैं देखना चाहता था कि इन बच्चों से उनका संवाद कैसे होता है?
कबीरा नाम का वह बड़ा लड़का कई लोगों से बाबू भाई पंड्या के बारे में पूछ रहा था। लोग उसे कभी दायें तो कभी बायें भेज रहे थे। एक आदमी ने तो उसे बाहर की तरफ ही भेज दिया। बाकी लड़के भी परेशान से पूरे अस्पताल में बाबू भाई को खोज रहे थे।

उस दिन मेरी बाबू भाई से मुलाकात हो नहीं पायी थीं। मैं काफी देर तक बैठकर लौट गया था।

इसके बाद भी दो बार और ऐसा हुआ कि बाबू भाई पंड्या से मिल नहीं पाया। अलबत्ता, उन बच्चों से जरूर मुलाकात हो गयी। जिस बच्चे के पैर में सूजन थी, वह बच्चों के वार्ड में भर्ती हो चुका था और उसके पैर में पलस्तर चढ़ा हुआ था। उसके साथ के तीनों लड़के उसके पास ही बैठे थे।
मैं उन बच्चों के पास चला गया और पूछने लगा, "मैंने तुम लोगों को दो तीन दिन पहले बाबू भाई को खोजते हुए देखा था। क्या उन्हीं की मदद से ये भर्ती हो पाया है?"
"हाँ साब, अपने को भगवान मिल गया साहब, अगर वो न होते तो हमारे इस दोस्त को पलस्तर तो क्या साहब, कोई पट्टी तक बाँधने को तैयार नहीं था।"
"क्या करते हो तुम लोग?" पूछा मैंने।
"मेरा नाम कबीरा है। ये सत्ते और ये गप्पू। हम लोग बूट पालिश करते हैं। मुन्ना हमारा दोस्त है, हमारा ध्यान नहीं था। अचानक सड़क की तरफ दौड़ा और पता नहीं कैसे गिर गया। पैर की हड्डी टूट गयी। अगर बाबू भाई न मिलते तो . . .हमारे पास तो दवा के पैसे . . .भी नहीं थे।"
अब दूसरा लड़का बताने लगा, "जब हम बाबू भाई के पास गये तो वो आये और बोले, "कोई बात नहीं। ये तो एकदम फरिश्ता लड़का है। ये एकदम अच्छा हो जायेगा और फिर से फुटबाल खेलने लगेगा। अभी देखना हम इसे अस्पताल के सबसे अच्छे वार्ड में भर्ती कराते हैं, चलो मेरे साथ। ये तो बहुत लवली बॉय है।" वे खुद हमारे साथ दो–तीन डॉक्टरों के पास लेकर गये साहब। डॉक्टर लोग को पूरी बात बतायी और फिर एक ट्राली लेकर आये और मुन्ना को प्लास्तर वाले कमरे में ले गये।"

अब तीसरा लड़का बता रहा था, "हमें रोना आ रहा था साहब, तो बाबू भाई बोले, "रोते नहीं . . .रोते नहीं। रोने से आँखें दुखेंगी और फिर दवा के लिए और पैसों की जरूरत पड़ेगी। फिर तुम बाबू भाई पंड्या को खोजोगे। ऐसा काम नहीं करो कि दवा की जरूरत पड़े। हाँ तो तुम लोग फिकिर नहीं करना . . .बच्चे अगर फिकर करें तो कैसे चलेगा भई . . .अभी मैं बड़े साहब से बोल के इधर दो दिन रहने के वास्ते वार्ड में तुम्हारे दोस्त को जगा दिला देता हूँ। खाने का भी ठिकाना हो जायेगा। जब खाना देने वाला बॉय आये तो बोलना बाबू भाई पंड्या के आदमी हैं, थोड़ा जास्ती खाना दे देगा। मिल बाँट के खा लेना। मैं भी बोलकर रखूँगा।"



बच्चे अभिभूत थे और उनके पास बाबू भाई की तारीफ के लिए शब्द नहीं थे। उनके गले रुँधे हुए थे और समझ में नहीं आ रहा कि उनकी इतनी सारी बातें कैसे बतायें।
मैंने पूछा, "यहाँ कोई तकलीफ तो नहीं हैं।"
कबीरा नाम का लड़का बताने लगा, "नहीं साहब, बाबू भाई ने सबको कह दिया है कि बच्चे का खयाल रखें। कोई तकलीफ नहीं हैं साहब।"
अब दूसरा लड़का मुझे बता रहा था, "साहब यहाँ अस्पताल में हर आदमी उनको सलाम मारता है, वो किसी भी डॉक्टर के कमरे में चले जाते हैं और काम करा के आते हैं। कोई भी उससे ऊँची आवाज में बात नहीं करता।"
अब तीसरा लड़का बताने लगा, "इदर सरकार ने उसे रखा होयेंगा कि गरीब लोक की मदद करो करके।"
तो कबीरा ने उसे टोका, "अबे ये तो सरकारी हस्पताल है रे तो सबको सरकार ही रखी होयेंगी ना . . ."
सत्ते – "जो भी हो एक बात माननी पड़ेगी, आदमी हीरा है, कितना बुड्ढ़ा है फिर भी सबको काम करता रहता है।"
अब बच्चे मेरी उपस्थिति भूलकर आपस में ही बात करने लगे थे। एक तरह से अच्छा ही था। बच्चे उनके बारे में क्या राय रखते हैं, उन्हीं की जबानी सुनने में क्या हर्ज हैं।
सत्ते – "कितने बरस उमर होगी रे उनकी?"
कबीरा – "अस्सी साल के तो होयेंगे रे।"
तेंडया – "अस्सी साल तो भोत होते हैं।"
कबीरा – "तो क्या हुआ। काम करने वाले कभी उमर देखकर थोड़े ही काम करते हैं।"
कबीरा – ""यार मैं तो दंग हूँ इस आदमी की हिम्मत देखकर। अस्सी साल की उमर में भी इतनी हिम्मत। आदमी नहीं फरिश्ता है ये।"
सत्ते – "अगर ये न होते तो मुन्ना का प्लस्तर तो क्या पट्टी भी न लग पाती, जब वो डॉक्टर से कह रहे थे इसके बारे में तो मैं सोचता था इस तरह से तो कोई अपने मरीज के लिए भी नहीं कहता।
तभी साथ वाले मरीज के पास बैठा आदमी बीच में ही कहने लगा, "तुम लोग बाबू भाई पंड्या की बात कर रहे हो क्या?"
कबीरा – "हाँ क्यों?"
मरीज – "वो वाकई फरिश्ता है। पता नहीं किस–किस मरीज की सेवा करके इसने उन्हें ठीक ठाक वापस भिजवाया है। इसकी सेवा से ही हजारों आदमी मौत के मुँह से वापस आये होंगे।"
उसकी देखा देखी एक और आदमी भी बातचीत में शामिल हो गया, "इस बेचारे ने जिन्दगी भर तो सेवा ही की है, मरने के बाद भी अपना पूरा शरीर अस्पताल को दान कर दिया है, ताकि डॉक्टरी पढ़ने वाले बच्चों के काम आ सके।"
पहले वाले ने जानकारी बढ़ायी, "मैंने सुना है अपनी पूरी पेंशन भी यही खर्च कर देता है।"
दूसरे ने आगे बताया, "मैंने तो ये भी सुना है कि इसके बच्चे बड़े–बड़े अफसर हैं। अपनी गाड़ियाँ हैं उनकी।"
अब पहला बता रहा था, "मुझे तो ऐसा लगता है कि अपने घर पर इसकी कद्र नहीं होती होगी इसलिए दूसरों के बीच अपना वक्त बाँटता रहता है।"
अब दूसरे ने फैसला सुना दिया, "जो भी हो, हमें उससे मतलब नहीं। हम तो ये जानते हैं कि वे एक आदमी नहीं देवता हैं।"



मैं बच्चों के साथ थोड़ा वक्त गुजारकर लौटकर आया था। वापस आते समय सोच रहा था कि ये आदमी तो वाकई देवता है। किसी आम आदमी के बस में नहीं होता ये सब करना। और वो भी आज के युग में। मैंने मन ही मन बाबू भाई पंड्या को प्रणाम किया था। ये तीसरी बार था कि मैं उनसे बिना मिले लौट रहा था। गये होंगे किसी मरीज को उसके घर पहुँचाने या किसी डाक्टर के व्यक्तिगत काम निपटाने।

अगली बार अस्पताल जाने पर मुझे उनके एक और ही रूप के दर्शन हुए। मैं अस्पताल पहुँचा ही था कि बाबू बाई पर मेरी नज़र पड़ी। वे एक तरफ एक डेड बॉडी को अकेले ही कपड़े में लपेट रहे थे। वहीं पास ही बैठी एक अकेली औरत रो रही थी और बाबू भाई निष्काम भाव से अपने काम में लगे हुए थे। आस–पास खड़े कई लोग देख रहे थे लेकिन कोई भी उनकी मदद के लिए आगे नहीं आ रहा था। बाबू भाई पंड्या ने अपना काम खतम करके एक टैक्सी बुलवायी और डेड बॉडी को टैक्सी की छत पर बँधवा दिया। रो रही अकेली औरत को सहारा देकर उन्होंने टैक्सी में बिठाया और जेब से कुछ पैसे निकालकर उस औरत को दे दिये और हाथ जोड़कर उसे विदा कर दिया। मैं देख पा रहा था कि उस औरत के हाथ दूर जाती टैक्सी से देर तक नज़र आते रहे थे।

इस बार भी मैं हिम्मत नहीं जुटा पाया था कि उनके सामने भी पड़ सकूँ। मैं इस बार भी उनसे मिले बिना मन ही मन देवतुल्य प्रतिमा को प्रणाम करके लौट आया था।

अगली बार जब मैं उनसे मिलने गया तो वे एक आदमी को अस्पताल से विदा कर रहे थे। वह आदमी जोर–जोर से रोये जा रहा था और बाबू भाई उसे चुप करा रहे थे, "रोते नहीं बेटा, तुम किस्मत वाले हो। तुम अपनी बीवी को इतना प्यार करते हो। सारे काम छोड़कर इतनी दूर से उससे मिलने आते हो। उसका पूरा खयाल रखते हो। ऊपर वाले पर भरोसा रखो, उसे कुछ नहीं होगा। वो एकदम ठीक होकर अपने पैरों पर चलकर तुम्हारे साथ वापस जायेगी।"

वह आदमी बार बार, "बाबू भाई" ही कह पा रहा था। वे उसके कन्धे पर हाथ रखकर हँस रहे थे, "सात फेरों की याद हैं न . . .वैसे ही वो अपने पैरों से चलेगी जैसे चलकर तुम्हारे घर आयी थी और तुम देखोगे बेटा। उसे बहुत प्यार से रखना बेटा। बहुत अच्छी लड़की है।"
"बापू आप न होते तो . . ."
"मैंने तो अपनी तरफ से कुछ नहीं किया बेटा। ऊपर वाले का आर्डर हुआ कि यहाँ मदद चाहिए तो आ गया। अच्छा लगता है कि तुम एक दूसरे के बारे में सोचते हो। जरा उनकी सोचो कि जिनके पास कोई नहीं आता। जाओ। जो भी काम करना, ईमानदारी से करना और जो भी कमाओ उसमें से थोड़ा दूसरों के लिए भी रखना। हम इसलिए न रोयें कि हमारे पास जूते नहीं हैं। हम उनकी भी सोचें जिनके पैर ही नहीं होते, जाओ बेटा। छत और छतरी के फर्क को कभी मत भूलना बेटा। जाओ, अपना खयाल रखना।"
वह आदमी कह रहा था, "आप बहुत भले आदमी हैं बाबा। आजकल के जमाने में दूसरों के लिए कौन इतना करता है।"
बाबू भाई, "बेटे हम अच्छे तो सब अच्छे। हम बुरे तो सब बुरे हो जाते हैं, हमारी अच्छाई ही हमारा साथ देगी बेटा। सेवा में ही मेवा है। भगवान गवाह है इस सेवा के अलावा जिन्दगी में और कोई भी चीज इतनी पवित्र और खूबसूरत नहीं है बेटा। कोई भी ऐसा काम न करो कि सामने वाले को अपनी आँखें पोंछनी पड़ें। सबके चेहरे पर हँसी लाओ। वही जीवन को जीने लायक बनाती है। जीते रहो बेटा।"

वह आदमी बाबू भाई के पैर छू रहा था। जाते समय उसके दोनों हाथ जुड़े हुए थे। आँखों मे आँसू की दो बूँदें अटकी हुई थीं।

इस बीच मैं बाबू भाई से पचासों बार मिला। उनके साथ अस्पताल के कई वार्डों के चक्कर काटे। कई पत्रिकाएँ और किताबें उनके लिए जुटायीं और उनके साथ घन्टों बैठकर मरीजों के हाल–चाल बाँटे, लेकिन इसके बावजूद मैं डॉक्टर भाटिया से किया गया वायदा पूरा नहीं कर पाया था। लिख ही नहीं सकता था।

इस बीच बाबू भाई भी कई बार मुझसे मिलने आये। वे कभी हमारे ऑफिस पत्रिकाएँ लेने आ जाते। पोस्टकार्ड डाल देने भर से वे आ जाते। मैंने उनके पोस्टकार्ड कई दोस्तों को दिये और इस बात का इन्तजाम कर दिया था कि हर महीने उनके पास काफी मात्रा में पत्रिकाएँ पहुँचती रहें। वे आते, थोड़ी देर बैठते और पत्रिकाएँ बाँधना शुरू कर देते। वे उतनी ही देर रुकते जितनी देर में वे बंडल बाँधें और गेट पास बनकर आएँ, लेकिन वे कभी रूककर एक गिलास पानी भी नहीं पीते। अपने बारे में तो वे कभी बात भी नहीं करते। बहुत कुरेदने पर भी नहीं। यहाँ तक कि इस विषय को ही टालते। मैं भी उन्हें नाराज करके कुछ जानना नहीं चाहता था। हालाँकि उनके बारे में मुझे और भी बहुत सी जानकारी मिली थी और डॉक्टर भाटिया भी अकसर उनके बारे में नयी–नयी बातें बताते रहते, लेकिन मैं चाहकर भी उनके बारे में लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था।

जब भी उन पर कहानी लिखने की सोचता, वे इतने विराट और दयालुता की प्रतिमा हो जाते कि मेरा लेखनी छोटी पड़ जाती और कुछ भी लिखने से इनकार कर देती। शब्द मेरा साथ छोड़ देते।

यह भी पहली बार हो रहा था कि कहानी के लिए पात्र साक्षात मेरे सामने था और मैं नहीं लिख पा रहा था। लिखना चाहता था मैं लेकिन हो ही नहीं पाता था। एक साक्षात जीवन चरित्र को शब्दों में बाँध पाने में मैं अपने आपको असमर्थ पा रहा था।

इस बीच अहमदाबाद छूट गया। वहाँ से आये मुझे छह बरस तो हो ही गये होंगे। मैं अहमदाबाद छोड़ने से पहले आखिरी बार उनसे मिलना चाहता था। पैकिंग के बाद ढेर सारी पत्रिकाएँ भी निकल आयी थीं, वे भी उन्हें देना चाह रहा था लेकिन मिलना हो नहीं पाया था। दो एक बार गया था तो वे मिले नहीं थे और पोस्टकार्ड डालने पर आये नहीं थे। हो सकता है बीमार वगैरह हो गये हों या कोई और बात हो। मन में एक कसक सी थी कि पता नहीं फिर कब मिलना हो . . .लेकिन शायद ऐसा ही होना था। मैं उनसे बिना मिले चला आया था। शायद कुछ और कोशिश करता या उनके दिये पते पर ही चला जाता तो हाल–चाल तो मिल जाते लेकिन शहर छोड़ने की गहमागहमी और दोस्तों की विदाई की दावतों के बीच बाबू भाई पंड्या जरूरी कामों की सूची में कहीं नीचे चले गये थे।

बेशक मैं अहमदाबाद से मन पर बहुत बोझ लेकर आया था। इस शहर ने मुझे बहुत कुछ दिया था और बहुत कुछ सीखा था मैंने वहाँ लेकिन बाबू भाई पंड्या से मिलना इन सबसे ज्यादा कीमती सौगात थी मेरे लिए।

अहमदाबाद से डॉक्टर भाटिया आये हुए हैं। बरसों बाद उनसे भेंट हुई हैं। वे उसी अस्पताल में अपने विभाग के हैड हो गये हैं। बातों ही बातों में बाबू भाई पंड्या का जिक्र आया।

उन्होंने जो कुछ बताया है उससे मैं दहल गया हूँ। मैं सोच भी नहीं सकता था कि बाबू भाई पंड्या के साथ भी ऐसा हो सकता है।

डॉक्टर भाटिया बता रहे हैं, "बाबू भाई को उनकी बहू ने घर से निकाल दिया है। वे खुद बता रहे थे कि बहू उनके आने–जाने के टाइम से और घर में किसी भी किस्म की दिलचस्पी न लेने के कारण उनसे चिढ़ी रहती थी। एक वजह पेंशन भी थी जिसे वे अपने चहेते मरीजों पर ही खर्च कर डालते थे।"
"अरे ये तो बहुत बुरा हुआ। इस उम्र में और ऐसे देवता आदमी की ऐसी दुर्गत। कहाँ रह रहे हैं वो अब?"
"रहना कहाँ? अब तो हमारे अस्पताल में ही आ गये हैं। वे पिछले पच्चीस बरस से अपना सारा वक्त वहीं तो दे रहे थे। एक किनारे अपना थोड़ा सा सामान लेकर टिक गये हैं। इतना बड़ा अस्पताल है, किसी को क्या फर्क पड़ना है।"
ये बताते हुए डॉक्टर भाटिया अपनी गीली आँखें पोंछ रहे हैं। मेरी आँखें भी भर आयी हैं। किसी तरह भरे गले से पूछता हूँ, "तो क्या उनकी दिनचर्या अब भी वहीं है। अब तो उमर भी बहुत हो गयी होगी।"
"हाँ, उमर तो बहुत हो गयी है और अब उतना कर भी नहीं पाते लेकिन अब भी सारा दिन मरीजों के पास जाकर बैठते हैं। उनके साथ बातें करते हैं। थोड़ी–बहुत मदद तो कर ही देते हैं।"
"एक बार कोई बता रहा था कि उन्होंने अपना शरीर भी अस्पताल के नाम डोनेट कर रखा है।" मैं पूछता हूँ।
"हाँ, यह सही है, उन्होंने अपनी आँखें और अपना पूरा शरीर अस्पताल को डोनेट कर रखा है। मैं आपको बता नहीं सकता, उनके रहने से हम डॉक्टरों को, अस्पताल के स्टाफ को और मरीजों को कितना सहारा रहता है। सबसे बड़ी बात है कि वे मरीज में विश्वास जगाये रहते हैं जिससे हमारे लिए इलाज करना बहुत आसान हो जाता है।"
"यार, अपनी जिन्दगी में मैंने इतने जीवन वाला आदमी नहीं देखा जो जीते जी तो इतना कर ही रहा है, मरने के लिए पहले से तैयार होकर वही आ गया है कि उसके मरने के बाद उसके शरीर को भी किसी मकसद के लिए इस्तेमाल किया जा सके।"
"कहते हैं बाबू भाई कि अपना शरीर तो दान कर ही रखा है। मरने के बाद यहाँ लाने में सबको तकलीफ ही होगी मैं खुद ही आ गया हूँ जब भी मेरी आखिरी साँस का नम्बर आये तो आप लोग मेरी पर्ची काट देना। मेरे केस की फाइल बन्द कर देना। आप लोगों को आसानी होगी।"
"क्या अब भी सारे वार्डों के वैसे ही चक्कर लगाते हैं और बच्चों बूढ़ों को कार्ड, मैगजीनें और दूसरी चीजें देते रहते हैं?"
"नहीं, अब तो वो सब जगह जा नहीं पाते। हमारे पास भी कम ही आते हैं। हम ही बीच–बीच में उन्हें देख आते हैं और उन्हें पुराने कार्ड वगैरह दे आते हैं और उनसे मजाक में कहते हैं, "लो बाबू भाई पंड्या। अपनी करीना कपूर ने आपके लिए ये कार्ड भेजा है। कह रही थी बाबू भाई से किसी दिन जरूर मिलने आऊँगी।"
हँसते हैं तब बाबू भाई कहते हैं, "हाँ भई अब तो मेरी ही बारी है। देखना किसी दिन खुद भी आयेगी बाबू भाई पंड्या से मिलने के वास्ते।"
"आपकी बात बिलकुल सही है, लेकिन दिक्कत यही है कि बाबू भाई पंड्या जैसे लोगों की नियति यही होती है।"
"मुझे तो डर है कि पचासी साल की उमर में अगर उन्हें कुछ हो गया तो पता नहीं, अस्पताल के अहाते में रहते हुए भी उन्हें दवा की आखिरी खुराक भी मिलेगी या नहीं।"
मैं डॉक्टर भाटिया की बात सुनकर चुप रह गया हूँ। कई बार शब्द भी तो साथ नहीं देते।
शायद बाबू भाई पंड्या जैसे आदमी पर कहानी लिखी ही नहीं जा सकती। ऐसे लोग तो खुद जीती–जागती कहानियाँ रचते हैं। उन्हें सिर्फ प्रणाम किया जा सकता है।

१६ मई २००३

 
1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।