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माटी की गंध

भारतवासी लेखकों की कहानियों के संग्रह में इस सप्ताह प्रस्तुत है
गुरुग्राम से प्रत्यक्षा की कहानी—"दंश"।


बच्चा शायद बुरा सपना देखकर उठ गया था। यह कैरी की आवाज थी...  बच्चे को शांत करते हुए, धीमे–धीमे गुनगुनाते हुए उसकी अपनी भाषा में। बच्चे की रुलाई जारी थी। विभु की आवाज अब आ रही थी वही चिरपरिचित आवाज जिसे पिछले छः सालों में कितनी बार उसके कान सुनने को तरसे थे – वही आज लेकिन... उसके दिल से हूक उठी। ये उसका बच्चा हो सकता था। सब मिलाकर सब कुछ खत्म हो गया। आँख बंद की तो पूरा चेहरा गर्म आँसुओं से भीग गया।
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इसी घर ने उसे सब कुछ दिया था – प्यार, स्नेह एक नई दुनिया और उसके बाद बेतरह तकलीफ, दर्द निराशा की अंधेरी रातें और अंत में सबको अपने अंदर आत्मसात करके जीने का साहस। सुख और दुख का एक पूरा घटनाक्रम उसके जीवन में फैल चुका था। इतनी अलग–अलग संवेदनाएँ, इतना भावनाओं का रंग, इतना विरोधाभास— उसे खुद विश्वास नहीं होता। सब कहां से गलत हो गया यह पता ही नहीं चला।
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उसे अपने पिता का घर याद आया। मां बचपन में ही नहीं रही थी। दूर की रिश्ते की बुआ, जो बाल विधवा थीं, उन्होंने ही घर सँभाला और अपने नीरस, शुष्क जीवन का सारा चिड़चिड़ापन उसके जीवन में घोल दिया। पिता बिलकुल अंतर्मुखी। लड़की बड़ी हो रही है इसका माप उन्होंने उसके पढ़ाई के सोपान पूरे करने में ही नापा। अपनी दुनिया में मग्न और घर और बेटी की जिम्मेवारी बहन पर सौंप कर वे पूरी तरह से निश्चिंत थे।

मनु घर में बिलकुल मानसिक रूप से अकेली, किताबों में डूबी रहती। आम हमउम्र लड़कियाँ कैसे रहती हैं, उसकी उसे न तो जानकारी थी और न ही रूचि। दूसरी लड़कियों की तरह कपड़े, सजना–सँवरना, मिल्स एँड बून की रोमाँटिक किताबें पढ़ना, लड़कों के बारे में बातें करना, इन सब चीजों से पूरी तरह से अनभिज्ञ, और इसी बीच उसे प्रभा दीदी मिल गयीं थीं।

पड़ोस में उनके चाचा–चाची रहते थे। प्रभा दी' होस्टल में रहती थीं और छुट्टियों के दिन अपने चाचा–चाची के घर। प्रभा दी' उससे पाँच छः साल बड़ी होगी पर चाची के घर में बोर होती तो खिड़कियों से पुकार कर उसे बुला लेतीं। प्रभा दी' इतनी सुंदर, स्मार्ट, इतनी सुरूचिसम्पन्न— किसी भी विषय पर धारा प्रवाह बोल सकतीं थीं। मनु की आँखें उन्हें देख कर चौंधिया जातीं। प्रभा दी' उसकी आदर्श थीं। प्रभा दी' की अचानक शादी ठीक हो गयी थी। चाची के घर से ही उनकी शादी हुई और इसी शादी में पता नहीं कब उसे विभु ने देखा था।

तुरंत शादी का प्रस्ताव आया। पिता गदगद – इतना अच्छा घर–वर बैठे बिठाये बेटी के सौभाग्य पर आश्चर्य हुआ था और गर्व भी। इतनी बड़ी जिम्मेदारी इतनी आसानी से पूरी हो रही थी।

मनु ने अम्मा को सगाई के समय देखा था। अम्मा यानी विभु की माँ। जिस बेटे के पीछे लड़कियों की तस्वीरें लेकर घूमतीं थीं, जिसे कोई लड़की ही पसंद नहीं आती थी उसी ने जब उन्हें आकर मनु के बारे में कहा तो उन्होंने बिल्कुल देर नहीं की थीं। विवाह महीने भर के अन्दर हो गया था।

मनु को लगता था जैसे वह दूसरी दुनिया में आ गई। यहाँ इस घर में सब उसकी मर्ज़ी से होता है। अम्मा तो उसे हाथों हाथ लिये रहतीं। खाना उसकी पसंद का बनता, कपड़े उसकी पसंद के आते। सबों ने जैसे उसकी हर फरमाईश पूरा करने का ठेका लिया हुआ है। मनु की आँखें हैरत से फैल जातीं। वह एक ऐसी सतरंगी दुनिया में आ गयी थी जहाँ सब कुछ सुनहरा, सुखद और रंगीन था।

लेकिन इस गार्डेन ऑफ इडेन में भी एक साँप था। पर तब उसे इसका पता कहाँ था। वो तो थी बेखबर अपने सौभाग्य और खुशकिस्मती के नशे में चूर।

विभू की अपनी ओर बेताबी देख पहले उसे हैरानी हुई थी। उसने अपने को हमेशा कम आँका था। रूप में भी और गुण में भी। पर विभु की बेताबी, उसका पागलपन उसके साथ के लिये धीरे–धीरे उसे विश्वास होने लगा था – शायद उसमें कोई बात है वरना विभु यों ही...

बीच रात में उसे उठाकर छत पर ले जाता, मालती लता के फूलों के बीच उसे आलिंगन बद्ध कर लेता, कभी जबरदस्ती उसके होठों के बीच सिगरेट फँसा देता। चलो आज मिड नाइट पार्टी करते हैं। बियर या जिन और कबाब। ग्लास हाथ में लेकर जब विभु उसे ब्राउनिंग की कविता सुनाता और जिद कर उसे भी पिलाता तो मनु को लगता हल्के सुरूर में ये तो सपनों की कोई दुनिया है।

कई बार विभु उससे कहता तैयार रहना किसी अच्छी सी जगह पर डिनर लेंगे और जब वो उस जगह के अनुरूप तैयार होती तो उसे हाईवे पर किसी ढाबे पर ले जाता जहाँ चारपायी और तख्त पर बैठ अपनी कीमती शिफान संभालती विभु को उँगलियाँ चाट कर खाना खाते देखती। कई बार ऐसा भी होता कि घर के कपड़ों में यों ही घूमने का कार्यक्रम बना विभु उसे किसी पाँच तारा होटल की कॉफी शॉप में कॉफी पिलाने ले जाता जहाँ वो अपनी हवाई चप्पल और साधारण कपड़ों में संकुचाती शर्माती रहती। उसे विभु की ऐसी हरकतों पर बेतरह प्यार आता। पति पत्नी के बीच ऐसा खुला दोस्ताना संबंध भी संभव है इसका उसे विश्वास नहीं होता।

तुम मुझसे कुछ भी कह सकती हो मनु, मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ। विभु हमेशा इस बात को दोहराता। अपने पुराने प्रेम, पुरानी दोस्तों से मिलना, उनके ख़त, जो यदा कदा अब भी आते थे, उन्हें मिलकर पढ़ना— कोई भी राज हमारे बीच न रहे। इसी रौ में मनु ने भी अपने किशोर वय के आकर्षण उसे बताये थे। पर इन सबके बाद जब विभु ने उसे बहुत प्यार किया था, दुलार किया था और उसके माथे को चूमकर कहा था कि मनु उसके लिये बहुत ख़ास है तो मनु को लगा था कि वह उससे बेहद प्यार करता है।

इससे अधिक कोई क्या चाह सकता है। सुख की प्याली ऊपर तक लबालब थी। अम्मा और बाबूजी बेटे और बहू को देख गदगद रहते। इसी बीच अचानक विभु को अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी से फेलोशिप मिल गया और आनन फानन में विभु अकेला विदेश चला गया। मनु ने इस बात पर कई बार मंथन किया है। अगर विभु बाहर नहीं जाता तो क्या जीवन की गति बदलती या सब पूर्ववत चलता। अगर ये होता तो ऐसा होता, अगर वो होता तो वैसा होता। ये 'अगर' ही जीवन को चला रहा है या सब पूर्व निर्धारित है? क्या जीवन एक पूर्वनियोजित गति और मोड़ के अनुरूप चलता रहता है? क्या जितने उतार चढ़ाव लिखे हुए हैं सब झेलने ही हैं? पर इन सब के बाद भी जीवन तो जीना ही है— यह सबसे मुश्किल और शायद सबसे आसान भी है।

शुरू में विभु की चिठ्ठियाँ और फोन बहुत जल्दी–जल्दी आते। लिफाफे हमेशा मनु के नाम होते। अम्मा बाबूजी के लिये उसमें पत्र होते। विभु की चिठ्ठियों में भी उसका प्यार झलकता और मनु ने दिन में भी सपने देखना शुरू कर दिया था। कब विभु वापस आयेगा, कब फिर जीवन रसमय हो जायेगा! घर के सारे काम मनु अब भी करती लेकिन अपने अंदर उसे एक खालीपन लगता। मनु का एक कोना विभु के नाम रिजर्व हो गया था जिससे जब चाहे याद की कोई कड़ी निकाल कर मनु जोड़ती रहती। दिन और रात इंतजार के रंगीन धागे में लिपटे गुजरते। एक चिठ्ठी जाती तो दूसरे का इंतजार रहता। फोन आता तो अगला कब आयेगा, इसकी बेकरारी रहती।

कब फोन का सिलसिला बंद हुआ ये तो अब मनु को बहुत याद करने पर भी ध्यान नहीं आता। चिठ्ठियाँ भी धीरे–धीरे बंद हो गयीं। एक औपचारिकता उनमें रह गयी थी मनु का दिल आशंकित होता पर विभु की बातें, उसके साथ बिताए गए अंतरंग क्षणों की यादें उसे ही झूठा साबित करती। वो दिन लेकिन अब भी उसे अच्छी तरह याद है। महीने भर से ज्यादा हो गये थे विभु का कोई हाल नहीं मिला था। अम्मा चिंता में घुल रही थीं। बाबूजी उनके सामने धीरज की मूर्ति बने रहते।

विभु के फोन की आन्सरिंग मशीन पर चिन्ता से भरे कितने संदेश उन्होंने छोड़े थे पर किसी का जवाब नहीं आया था। आई थीं चिठ्ठियाँ, लेकिन इस बार बाबूजी के नाम। कैरी, कैरोलाइन – कितनी बार इस नाम को बोला था मनु ने, कभी मन में, कभी जोर से, जैसे इस नाम को जपने से वो इस राज़ से वाकिफ हो जायेगी कि विभु ने मनु को हटाकर कैरी को अपने दिल में स्थापित किया है। बाद में उसके नाम भी एक पत्र आया था— बेहद औपचारिक और विनम्र। अपनी मजबूरी, कैरोलाइन की उसके प्रति सद्भावना, अपने और मनु के साथ बिताये क्षणों को आकर्षण मात्र परिभाषित करते हुए। साथ ही इस सबके बावजूद एक दोस्ताना संबंध कायम रखने के आश्वासन और अंत में एक लिजलिजी माफी से खत्म हुआ था वह पत्र।

इस पत्र ने मनु को बिलकुल तोड़ दिया था। कम से कम साथ बिताये गए क्षणों को इमानदारी से स्वीकार किया होता विभु ने। उस समय जो सच था वो अब सरासर गलत कैसे हो सकता है। इसकी गणना करते करते मनु क्लांत हो जाती। इतना बड़ा धोखा! उसका दिल कभी बदले की आग में सुलगता, कभी आत्मदया से आँसुओं में डूब जाता। इतनी गहरी भावनाओं का आवेग एक तरफा कैसे हो जाता है, इस पर उसे हैरत होती। कभी–कभी उसे लगता कि अगर पूरी सच्चाई और ईमानदारी से पूरी गंभीरता के साथ वह विभु को माँगेगी तो विभु जरूर लौट आएगा।

उस प्रलयंकारी पत्र के बाद विभु ने फिर संपर्क का सिलसिला जोड़ना चाहा था। अम्मा और बाबूजी के साथ और मनु के साथ भी, "मुझे अब भी मनु के लिये सद्भावना है और उसकी चिंता भी!" विभु के ऐसा कहने पर अम्मा ने उसकी बात काट दी थी। उसे मना किया था आइन्दा फोन करने के लिए। ये रिश्ता खत्म हुआ। अम्मा ने तब फैसला लिया था। पता नहीं बाबूजी अम्मा के इस फैसले से सहमत थे या नहीं, पर अम्मा का उन्होंने साथ दिया था। उस घर में अब विभु का नाम वर्जित था।

अम्मा ने उसका हौसला बढ़ाया था। उसका संबल बनीं थीं। उसकी पढ़ाई फिर शुरू करवाई। उसके अन्दर जीने की लालसा फिर जगाई। उनके जीवन का बस अब एक उद्देश्य था, मनु का मोह फिर से जीवन के प्रति जगाना। मनु ने अम्मा जैसी दूसरी औरत नहीं देखी। उसके हितों की रक्षा करते–करते वे खुद इतनी मजबूत बन गयी थीं कि विश्वास नहीं होता था कि विभु की कमी उन्हें खलती होगी।

विभु की चिठ्ठियाँ आती रहतीं और कभी कभार कैरी की भी, जिन्हें बिन खोले, अम्मा अलमारी में डाल देतीं। जीवन फिर एक ढर्रे पर चलने लगा था। एकाध छोटी खुशियाँ भी कभी–कभी घर में आने लगी थी। ये और बात थी कि सबके दिलों में एक बंद दरवाजा था जिस पर सबने अपने अपने ताले डाले हुए थे। यह सब कुछ अम्मा पर कितना भारी पड़ा था इसका पता तब चला जब बहुत देर हो गयी। दिल पर कितना बोझ रखा जा सकता था! मैसिव हार्ट अटैक था! अंतिम क्षणों में मनु के हाथ अपने हाथों में लेकर अम्मा के सिर्फ एक शब्द कहा था – विभु! शायद उस इकलौते पुत्र के लिये उनके दिल में जितना भी प्यार था सब मनु के ऊपर न्यौछावर कर उसी में विभु को देखना चाहती थी।

अम्मा की मौत की खबर विभु को गयी थी। कल अम्मा की तेरहवीं हैं। सब रिश्तेदार अड़ोसी–पड़ोसी इकठ्ठा होंगे। घर में बाबूजी हैं, मनु है और विभु है, अपनी फ्रेंच पत्नी कैरोलाइन और दो साल के बेटे मनन के साथ। मनु को बिलकुल नहीं पता कि कल क्या होगा। लोगों की कुरेदती नज़रें उससे क्या पूछेगी। विभु के प्रति उसका रवैया कैसा होगा। बाबूजी उसके
साथ हैं और अम्मा भी। शरीर से न रहीं तो क्या हुआ? अम्मा ने उसके लिये पुत्रमोह का बलिदान किया।

अम्मा – उसका दिल फिर रोया। सुबह सबको झेलना, सामना करना। बाबूजी ने उससे कहा था, अगर वो जाना चाहे बाहर कुछ दिनों के लिये तो जा सकती है, लेकिन ये तो भागना होगा। उसे हर किसी का सामना करना होगा अम्मा की खातिर और शायद अंतिम बार। इसके बाद वह आज़ाद होगी। प्रभु एक बार और शक्ति दो। उसने आँखें बंद कर ली। अम्मा की स्नेहमयी छवि आँखों में बंद करके मनु सोने की कोशिश करने लगी।

२४ अप्रैल २००३

 
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